अगर फिल्मी दुनिया की नजर से देखें तो कुछकुछ होने का संबंध केवल दिल की दुनिया से है. दिल जरा सा पिघला नहीं कि कुछकुछ होना शुरू. लेकिन असल में यह सिलसिला यहीं तक सीमित नहीं रहता. किसी की तरक्की या किसी के घर में आई कोई नई चीज भी किसी के लिए कुछकुछ होने का कारण बन सकती है.
3 घर छोड़ कर हमारे बिजनैसमैन पड़ोसी बाबूलाल ने नई कार खरीदी है, बिलकुल नए मौडल की, एकदम चमाचम. पूरे महल्ले के लोगों पर उस का रोब है, दबदबा है. औरतों के सीने पर तो जैसे छुरियां चल रही हैं. 4 घर छोड़ कर हमारे खुशमिजाज पड़ोसी छेदीलाल इस घटना के बाद सब से अधिक दुखी दिखाई दे रहे हैं. एक दिन तो वह फट पड़े, ‘‘प्रकृति बहुत कठोर है. शक्ल नहीं देखती, जिस को देना चाहती है उसे ही छप्पर फाड़ कर देती है. हमारे जैसे क्लासवन अफसर कई साल से एक ही कार घसीटते आ रहे हैं. वह सड़े, बेढंगे थोबड़े वाला बाबूलाल ...तुम नहीं समझोगे डियर, जब मैं उसे हर साल नई चमाचम कार में देखता हूं तो मेरे दिल में कुछकुछ क्या बहुतकुछ होता है.’’
हर तरफ अब यही आलम है. जिस किसी की दुखती रग पर हाथ रखो, उसे ही कुछकुछ होता है या होने लगता है. सारी दुनिया जानती है कि दिल तो पैदाइशी तौर पर पागल है और सनातन काल से आवारा और सौदाई भी है. ऐसा कई कवियों व कहानीकारों ने कहा है. मगर कुछकुछ होने का यह नया फंडा आजकल बहुत चलन में है. यह अलग बात है कि सबकुछ होने के बावजूद हम जीवनभर गरीबी का रोना जरूर रोते रहते हैं. आखिरकार एक दिन हम ने छेदीलाल से यह पूछने की हिम्मत कर ही डाली कि अब वही हमें बताएं कि सबकुछ होने का मामला तो समझ में आता है मगर भला यह कुछकुछ होना क्या बला है?
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