यूं तो ‘‘हिंदी मीडियम’’ एक रोमांटिक कामेडी फिल्म है. मगर इस फिल्म का मूल मकसद अपने ही देश में अंग्रेजी भाषा के सामने राष्ट्रभाषा व मातृभाषा हिंदी को कमतर आंकना तथा शिक्षा का जो व्यापारीकरण हो गया है, उस पर चोट करना है. मगर अफसोस की बात यही है कि इन दोनों ही मुद्दों पर यह फिल्म बुरी तरह से असफल रहती है. ऐसा कहानीकार व पटकथा लेखक की कमजोरी का परिणाम है. इन मुद्दों पर बहुत बेहतरीन फिल्म व दर्शकों के दिलों को छू लेने वाली फिल्म का निर्माण किया जा सकता था.

फिल्म में सब कुछ बहुत ही उपरी सतह पर तमाम कमियों के साथ कहने की कोशिश की गयी है. कहानी व पटकथा लिखते समय फिल्म के लेखक शायद अंदर ही अंदर डरे हुए थे अथवा विषयवस्तु के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे. तभी तो फिल्म ‘हिंदी मीडियम’ में इस बात को उकेरा गया है कि एक सर्वश्रेष्ठ व उच्च कोटि के अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में डोनेशन लेकर बच्चे को प्रवेश नहीं दिया जाता है. खुद को पाक साफ और ईमानदार बताने वाली स्कूल की प्रिंसिपल जब पिया का नाम गरीब कोटे से हटाकर जनरल कोटे में कर देती है, तब वह गरीब कोटे की खाली हुई इस सीट पर मोहन को प्रवेश न देकर क्या करना चाहती हैं, इस पर फिल्म कोई रोशनी नहीं डालती.

रोमांटिक कामेडी फिल्म ‘‘हिंदी मीडियम’’ की कहानी दिल्ली के चांदनी चौक में रहने वाले दंपति राज बत्रा (इरफान खान) और मीता (सबा करीम) के इर्द गिर्द घूमती है. राज बत्रा चांदनी चौक में कपड़े का व्यापारी है. पत्नी मीता के प्यार व अच्छा पति बनने के चक्कर में राज अपनी पत्नी मीता की इस बात को स्वीकार कर लेता है कि उन्हें अपनी बेटी पिया की शिक्षा दिल्ली में अंग्रेजी माध्यम के उच्च कोटि के स्कूल में करवानी हैं, न कि सरकारी स्कूल में. इसी के चलते वह चांदनी चौक छोड़कर वसंत विहार की पाश कालोनी में रहने पहुंच जाते हैं. वहां पड़ोसियों के बीच वह खुद को हाई फाई और अंग्रेजी के ज्ञाता के रूप में स्थापित करने का असफल प्रयास करते हैं. राज व मीता अपनी बेटी पिया को दिल्ली के अति सर्वश्रेष्ठ गिने जाने वले पांच स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिए एक कंसल्टेंट की मदद लेते हैं, जो कि इन्हे ट्रेनिंग देती है. कई तरह की मुसीबतें झेलने के बावजूद इनकी बेटी को प्रवेश नहीं मिल पाता है.

तभी इन्हें पता चलता है कि अपने पसंदीदा स्कूल में बेटी को प्रवेश दिलाने के लिए उन्हे ‘राइट टू एज्यूकेशन’ के तहत हर स्कूल में तय पच्चीस प्रतिशत गरीओं के कोटे का सहारा लेना चाहिए. इसके लिए राज एक इंसान से मिलकर सारे गलत कागज बनवाता है. जांच होने पर पकडे़ न जाने के लिए एक माह के लिए एक गरीब बस्ती में पूरे परिवार के साथ जाकर रहना शुरू करते हैं. जहां उनका पड़ोसी श्याम प्रकाश (दीपक डोबरियाल), उसकी पत्नी व बेटा मोहन रह रहा है. मोहन व पिया के बीच अच्छी दोस्ती हो जाती है. श्याम प्रकाश अपनी तरफ से राज की मदद करने का पूरा प्रयास करता है.

जब 24 हजार जमा करने का वक्त आता है, तो श्याम प्रकाश खुद की जिंदगी खतरे में डालकर राज को पैसा देता है. पर जब गरीब कोटे की लाटरी निकलती है, तो मोहन को स्कूल में प्रवेश नहीं मिलता है, पर पिया को मिल जाता है. फिर राज व मीता अपनी बेटी पिया के साथ वापस अपने पाश मकान में रहने चले जाते हैं. मगर अपराध बोध से ग्रसित राज एक सरकारी स्कूल को पैसे देकर उसके हालात सुधारते हैं. मगर एक वक्त वह आता है, जब राज अपनी बेटी पिया को उसी अंग्रेजी स्कूल से निकाल कर मोहन के साथ सरकारी स्कूल में प्रवेश दिला देते हैं.

फिल्म का गीत संगीत अति साधारण है. फिल्म की लोकेशन व कैमरामैन के काम की प्रशंसा की जा सकती है.

इरफान खान, सबा करीम और दीपक डोबरियाल के बेहतरीन अभिनय के बावजूद यह फिल्म अपनी छाप छोड़ने में असफल रहती है. फिल्म में जिस करोड़पति और हाई फाई सोसायटी की बात की गयी है, उससे आम दर्शक रिलेट नहीं कर सकता. फिल्म की कहानी जिस तरह से आगे बढ़ती है, वह कहीं से भी सहज व स्वाभाविक नहीं लगती. बल्कि शुरू से अंत तक सब कुछ अति बनावटी ही लगता है. इंटरवल के बाद फिल्म पूरी तरह से पटरी पर से उतर जाती है. फिल्म के क्लायमेक्स से चंद मिनट पहले हिंदी भाषा को लेकर राज बत्रा यानी कि इरफान का लंबा चौड़ा भाषण है, मगर उस सभाग्रह में मौजूद माता पिता पर कोई असर न होना बड़ा अजीब सा लगता है. स्कूल में बच्चे को प्रवेश दिलाने में सरकारी तंत्र के अलावा स्कूल मैनेजमेंट की जो भूमिका होती है, जिस तरह के नाटक होते हैं, उस पर भी रोशनी डालने से लेखक व निर्देशक ने बचने का पूरा प्रयास किया है. जबकि सर्वविदित है कि हर स्कूल व कालेज में मैनेजमेंट कोटा, माइनारिटी कोटा आदि के नाम पर क्या खेल होता है. मगर फिल्मकार ने इन सारे पहलुओं को अनदेखा कर दिया. ऐसा करने के पीछे फिल्मकार की मंशा, फिल्मकार ही जाने. फिल्म का क्लायमेक्स बहुत घटिया है. फिल्म में संजय सूरी और नेहा धूपिया जैसे कलाकारों को जाया किया गया है.

फिल्म में बात बात पर मीता अपने पति राज से कहती है कि फिर उनकी बेटी पिया सरकारी स्कूल में पढ़ेगी, फिर वह ड्रग्स लेगी..वगैरह..यह संवाद पूर्णरूपेण गलत है. ड्रग्स का सेवन या ड्रथ्स के व्यापार को हिंदी भाषा की शिक्षा के साथ जोड़कर देखना अपराध ही कहा जाना चाहिए. क्या अंग्रेजी माध्यम से उच्च शिक्षा हासिल करने वाले लोग ड्रग्स या शराब में लिप्त नहीं हैं?

शिक्षा के बाजारीकरण, अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाने के मुद्दे व इसकी परेशानी से देश के हर शहर का आम इंसान जूझ रहा है. हर माता पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों की बजाय अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं. मगर इन आम लोगों की इस इच्छा के चलते इन्हे जिस तरह रोजमर्रा की जिंदगी में समस्याओं से जूझना पड़ता है, डोनेशन ने जो विकराल रूप ले रखा है, उस पर यह फिल्म चुप्पी साध लेती है. इसके क्या मायने निकाले जाएं?

हकीकत में पटकथा लेखक द्वय व निर्देशक ने फिल्म में इतनी बड़ी बड़ी गलतियां की हैं कि उन्हें गिनाने में कई पन्ने भर जाएंगे. पूरे माह गरीब की जिंदगी जीने वाले राज के कपड़े के व्यापार का क्या हुआ? फेसबुक पर राज व मीता की प्रोफाइल चेक कर सच का पता लगाने की बजाय स्कूल की प्रिंसिपल एक इंसान को गरीब बस्ती में राज से मिलने भेजती हैं..वगैरह..वगैरह कई गलतियां है.

दो घंटे 12 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘हिंदी मीडियम’’ का निर्माण भूषण कुमार व दिनेश वीजन, निर्देशन साकेत चौधरी, कहानी व पटकथा लेखकद्वय जीनत लखानी व साकेत चौधरी, संगीतकार सचिन जिगर, पार्श्वसंगीतकार अमर मोहिले तथा फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं – इरफान खान, सबा करीम, दीपक डोबरियाल, स्वाती दास, दिशिता सहगल, डेलजाद हिवाले, जसपाल शर्मा, विजय कुमार डोगरा, रोहित तन्नन व अन्य.

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