औस्कर नौमीनेटेड फिल्म ‘‘लिटिल टेररिस्ट’’ के अलावा नेशनल अवार्ड से नवाजी जा चुकी फिल्म ‘‘इंशा अल्लाह फुटबाल’’ और ‘‘इंशा अल्लाह कश्मीर’’ सहित कई गंभीर फिल्मों के निर्देशक अश्विन कुमार अब बतौर लेखक और निर्देशक कश्मीर की पृष्ठभूमि पर फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ लेकर आए हैं. अश्विन कुमार का मानना है कि उनकी ये फिल्म फौज के साथ-साथ कश्मीर की असलियत पर रोशनी डालती है, जिसे सेंसर बोर्ड से पास करवाने के  लिए उन्हें नौ माह तक दौड़ना पड़ा था.

हाल ही में एक एक्सक्लूसिव बातचीत करते हुए अश्विन कुमार ने कश्मीर के वास्तविक हालात, उसकी वजहों, कश्मीरी लोगों के गायब होने सहित कई मुद्दों पर खुलकर बात की.

पतला होने का मतलब फिट होना नहीं- यास्मीन कराचीवाला

आप कश्मीर को लेकर काफी फैशिनेटेड हैं?

हर पत्रकार मुझसे यही सवाल करता है. मैं क्या कह सकता हूं. वैसे मैने अब तक के अपने करियर में कुल आठ फिल्में बनाई हैं, जिसमें से तीन फिल्में ही कश्मीर की पृष्ठभूमि में रही हैं.

 no fathers in kashmir

फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ बनाने की जरुरत क्यों महसूस हुई?

पहले तो मैं कहना चाहूंगा कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उससे हमारे देश की कौम पूरी तरह से वाकिफ नही है. ये बहुत दुःख की बात है. सच कहूं तो ये दुःख की बात नहीं बल्कि नेशनल ट्रैजिडी है. कश्मीर के लोगों के बारे में हमारे अखबारों और समाचार चैनलों द्वारा जिस तरह से गलतफहमी फैलाई जाती है, उस गलतफहमी को हटाने का एकमात्र तरीका लोगों तक सच्चाई को पहुंचाना है. उस सच्चाई को हम नहीं पहुंचा पा रहे हैं. या यूं कहें कि उस सच्चाई को दबाने का काम हो रहा है. सच को जानबूझकर दबाया जा रहा है. उससे निकलने का कोई साधन नहीं है. जब फिल्ममेकर इस सच को अपनी फिल्म के माध्यम से उजागर करने का प्रयास करते हैं, तो आप जानते ही हैं कि हमें सेंसर बोर्ड किस तरह परेशान करता है. हमारी आवाज को कुचलने की कोशिश होती है. मुझे फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ को पास कराने के लिए पूरे नौ माह तक संघर्ष करना पड़ा. अब एफसीएटी के आदेश के बाद ‘यूए’ प्रमाणपत्र मिलना तय हुआ है. पर अभी तक प्रमाणपत्र मेरे हाथ में नहीं आया है.

अपनी बायोपिक में टाइगर को देखना चाहता हूं- जैकी श्रौफ

ये लोग हमें जितना मना करते हैं, उतना ही हमारे अंदर सवाल उठते हैं कि आखिर कश्मीर में ऐसा क्या है जिसे सरकारी तंत्र दबाने के लिए दबाव डाल रहा है. आशंका तब पैदा होती है जब कोई मना करता है. मेरा मानना है कि जब हम नक्सलवाद पर बात कर सकते हैं. असम, अरूणाचल प्रदेश और नागालैंड को लेकर चर्चा कर सकते हैं तो फिर कश्मीर के हालात को लेकर बात क्यों नहीं कर सकते. आखिर कश्मीर में ऐसा क्या मसला है, जिस पर बात नहीं करनी चाहिए? तो ये पता करने के लिए मैं बार बार कश्मीर जाता हूं.

देखिए, क्या है कि मैं कश्मीर से काफी जुड़ा हुआ हूं. मेरे ग्रैंड फादर कश्मीर से हैं. मेरी मां आधी कश्मीरी और मैं चौथाई कश्मीरी हू. मेरा बचपन कश्मीर में ही बीता. 1989 में जब वहां आतंक फैला तो हम जा नही पाए. पूरे बीस साल बाद 2009 में मैं कश्मीर गया. वहां जाकर मैंने डाक्यूमेंटरी बनायी. मेरा मकसद ये रहा कि कश्मीर का जो सच है, वह लोगों को क्यों नही बताया जा रहा है.

 no fathers in kashmir

देखिए हमें क्या दिखाया जा रहा है. हमें दिखाया जाता है कि कश्मीरी बालक फौजी की तरफ पत्थर फेंकता है. हमें दिखाया जाता है कि हाथ में बंदूक लेकर कश्मीरी बालक जेहाद के नाम पर आतंकवादी बन जाते हैं. या फिर ये दिखाया जाता है कि एक 20 साल का युवक गाड़ी चलाकर पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर बम विस्फोट करता है. लेकिन कोई ये नहीं पूछना चाहता कि इसकी वजहें क्या है? आखिर बीस साल के युवक के दिमाग में क्या चल रहा था? उसे इस स्थिति में किसने और कैसे पहुंचाया? आखिर उसने सुसाइडर बम बनने का फैसला क्यों लिया? पर हमारे देश में इस पर कोई बात नहीं होती.

सिर्फ बौडी बनाना ही काफी नहीं, दूसरों को सम्मान देना सीखें-विद्युत जामवाल

देखिए, हमारे देश में हम कश्मीर के मुद्दे पर फौरन जंग के लिए तैयार हो जाते हैं. जबकि हमारे देश के किसी भी सांसद के चुनावी घोषणा पत्र में कश्मीर को लेकर कोई पौलिसी नहीं होती.

मैंने जिस युवा वर्ग के लिए, जिन युवा को लेकर ये फिल्म बनायी है, उसी नजरिए से हम इस मुद्दे पर थोड़ा सा गौर कर सकते हैं. मैं चाहता हूं कि ये युवा जिनके हाथ में इतिहास व भूगोल होता है, गूगल होता है, वह सच जानकर उस पर प्रतिक्रिया दे. देखिए जब हम पढ़ते थे, तो हमें जो बता दिया जाता था, उसे सच मानकर आगे बढ़ जाते थे. पर आज की युवा पीढ़ी ऐसी नहीं है. वह हर बात की सच्चाई की जांच करती है. आज गूगल है, हर बात की पुनः जांच की जाती है. मै चाहता हूं कि हमारी युवा पीढ़ी इस गूगल का उपयोग सकारात्मक ढंग से करें. मैं चाहता हूं कि 15 से 25 साल का युवा गूगल के जरिए सच का पता कर सकें. इसलिए मैं अपनी फिल्म के माध्यम से सच बताने का प्रयास कर रहा हूं कि देखिए ये हो रहा है. मेरे हिसाब से हमारे यहां पौलीटिकल पार्टियां क्लीनिकल बन गयी हैं. हम और आप इन्हें पांच साल के लिए चुनते हैं फिर इन्हे निकाल भी देते हैं. हम और आप कौन हैं? हमारे इमोशंस यानी कि भाव हैं. तो मैं कहना चाहता हूं कि अगर आप लोगों के भाव से चुने जाते हैं, तो राजनीति को इंसान के भावों को सहेज कर ही चलना चाहिए, इंसान के भाव को समझकर ही फैसला लेना चाहिए. पिछले 75 साल से जो राजनीति चल रही है, वह ऊपर से नीचे वाली यानी कि ब्यूरोक्रेट्स वाली राजनीति है. ये एक फाइल को एक टेबल से दूसरे टेबल तक पहुंचाने वाली राजनीति है. इस राजनीति में इंसान इनवौल्ब नही होता. ये युवा वर्ग का दोष है. ये युवा वर्ग 2014 में नरेंद्र मोदी को लेकर आया. अब 2019 में पता नही किसको लेकर आएगा.

मैं चाहता हूं कि हमारी फिल्म ऐसे ही लोगों के साथ सभी जुड़े और इन युवा लोगों को पता चले कि उनके अपने ही देश में एक छोटी सी कौम के साथ क्या हो रहा है. हम जिनके लिए जंग के मैदान पर उतरने के लिए तैयार हो जाते हैं, उन लोगों से हमारे देश का युवा वर्ग जाकर मिले और बात कर सच जाने. ये युवा वर्ग गुलमर्ग, अमरनाथ, पहलगाम न जाएं बल्कि कश्मीर के गांवों में जाए. गांव की नुक्कड़ पर जाए. वहां छोटे-छोटे शहरों व कस्बों में जाकर लोगों से मिले बात करें. तो मेरा मकसद है कि कश्मीरियों के साथ देश के अन्य हिस्से के लोगों के बीच विचार विमर्श बातचीत हो.

 no fathers in kashmir

आपका आरोप है कि कश्मीर के जो हालात हैं, उसका सच हमारे देश के समाचार पत्र व टीवी चैनल नहीं दिखा रहे हैं. पर इसकी वजह क्या हैं?

मैं पूरी तरह से नहीं जानता कि ऐसा क्यों हो रहा है. पर ये पुरानी परिपाटी चली आ रही है. हमारी सरकार ने कश्मीर को लेकर सभी समाचार पत्रों व टीवी चैनलों को अघोषित एडवायजरी जारी कर दी है. इस तरह की एडवायजरी देश के किसी अन्य राज्य को लेकर सरकार ने जारी नहीं की है. आप कश्मीर के किसी भी पत्रकार या किसी भी चैनल के स्ट्रिंगर से बात करेंगे तो वह यही कहेगा कि उनकी हर स्टोरी को उनका संपादक स्वीकार नहीं करता. सरकार की तरफ से कहा गया है कि कई चीजें नही छपेंगी. मसलन- फौज के खिलाफ कोई स्टोरी अखबार में छप नहीं सकती. टीवी चैनल पर प्रसारित नहीं हो सकती. फौज के खिलाफ अगर कोई सच्चाई है, फिर वह मानवाधिकार का मसला हो, या उनकी ज्यादती हो या आसफा के अंतर्गत कोई कार्यवाही हो, इन चीजों को हाईलाइट नही कर सकते, क्योंकि ये बातें हमारी फौज का मनोबल कम करती हैं. इसका मतलब तो यही हुआ कि एक तरफ से आप फौज को गोली मारने का आदेश देते हैं तो बाद में उसमें आप सुधार नहीं कर सकते.

जो लोग वहां पर मर रहे हैं, उससे उनके परिवार को नुकसान हो रहा है. इसी के साथ फौज का भी नुकसान हो रहा है. क्योंकि आपने इन्हे एक बंदूक देते हुए आदेश दे रखा है कि वह किसी को भी मार सकते हैं. इस निर्णय को आप वापस नहीं ले सकते. जबकि ये काम फौज का नहीं है. फौज का काम है जंग लड़ना. सीमाओं की सुरक्षा करना जो दुश्मन है, उससे लड़ना न कि अपने ही देशवासियों को मौत के घाट उतरना. पर सरकार के निर्णय ने अपने ही कौम को अपना दुश्मन बना दिया है. आपने अपनी ही कौम को अपना दुश्मन बनाकर फौज को इन्हे मारने का आदेश दे देते हुए कह दिया है कि आपके उपर कोई कार्यवाही नही होगी. तो इस माहौल में आप क्या चाहते हैं? क्या कश्मीरी आपको अपनाएगा. आप चाहते हैं कि ऐसे हालात में कश्मीरी आपको अपना बोलेगा. क्या वह आपके साथ जुड़ना चाहेगा? ये कभी नहीं होगा.

 no fathers in kashmir

कश्मीर में ये जो हालात बन गए हैं, उसके लिए ब्यूरोक्रेट्स और पोलीटीशियन में से कौन दोषी है?

-सौ प्रतिशत दोनों बराबर के दोषी हैं. मैं साफ तौर पर कहना चाहूंगा कि जो गलतफहमी फैलाई जा रही है, उसके लिए सेंसरशिप दोषी है. क्योंकि पोलीटीशियन को हम वोट करके चुनते हैं, जबकि ब्यूरोक्रेट्स देश की सेवा करते हैं पर ब्यूरोक्रेट्स ने देश के लोगों को सच्चाई नहीं बताई. ब्यूरोक्रेट्स, सरकार समाचारपत्रों व टीवी चैनलों के माध्यम से आधा सच बयां करती है. ये आधा सच होता है आतंकवाद की घटनाओं को प्रचारित करने की. पुलवामा वाली प्रोवोटिब खबर को प्रचारित करना. लेकिन कौम के बारे में कुछ नहीं बताते. आपने लोगों को ये नही बताया कि जिस युवा ने कार से सीआरपीएफ पर हमला किया, उसकी मां पर क्या बीत रही है. दादी कैसे जीती है? एक कश्मीरी परिवार कैसे जीता है, बच्चे स्कूल कैसे जाते हैं? बच्चों की परीक्षाएं कैसे होती हैं?  बिजली कट होने पर कश्मीरी बच्चों की परीक्षाएं मिस होती हैं. उनका पूरा कैरियर चैपट होता है,तो कश्मीर में पूरी वार इकोनौमी चल रही है. रोजगार नही है. आपने ट्यूरिजम को पूरी तरह से दबा रखा है. इन सब चीजों को आप पूरे देश के लोगों को नही बताते. मैंने अब तक मानवाधिकार के बारे में कोई बात ही नहीं की है. मैं तो रोजमर्रा के जीवन की बात कर रहा हूं. अगर इन सब बातों पर आप जानकारी नही देंगे तो अंततः हम सब जो कुछ पढ़ेंगे उसी पर अपनी प्रतिक्रिया देंगे. पर सरकार ने हम सभी को ‘शकी’ बना दिया है. हिंदुस्तान की कौम को ‘शकी’ बना दिया है. पत्रकार भी सिर्फ ‘पेड न्यूज’ ही छाप रहे हैं, जो कि बहुत गलत है. माफ करना मैं हिंदी के अखबार या पत्रिकाएं तो पढ़ता नहीं. इसलिए उन पर ज्यादा कुछ नही कह सकता. मगर अंग्रेजी में ‘‘द हिंदू’’ और ‘‘इंडियन एक्सप्रेस‘’ अखबार और ‘‘कारवां ’’ सहित कुछ पत्रिकाएं ही रह गयी हैं, जो कुछ सही बता रहे हैं. मीडिया पर पूरा सच न बताने का जबरदस्त दबाव है.

आपके अनुसार पोलीटीशियन और ब्यूरोक्रेट्स जो ढर्रा चला रहे हैं, इससे इन्हे क्या फायदा है?

ये सब ‘वार इकोनौमी’ का हिस्सा है. इससे अधिक मैं आपको क्या बताऊं. मैं बहुत ज्यादा बोलूंगा तो एक नया विवाद पैदा हो जाएगा, इसलिए अब मैं सिर्फ अपनी फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ को लेकर ही बात करुंगा. ये ‘‘वार इकोनौमी’’ चल रही है. आपको मुझसे ज्यादा पता है कि ‘‘वार इकोनौमी’’ कैसे चलती है पर आप मुझसे बुलवाना चाहते हैं लेकिन मैं नहीं बोलूंगा.

फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ क्या है?

हमारी फिल्म में ब्रिटेन पली-बढ़ी कश्मीर लड़की की कहानी है जो कश्मीर आकर अपने पिता की तलाश कर रही है. मैंने जानबूझकर ब्रिटेन में रही लड़की को चुना है. क्योंकि अगर मैं किसी कश्मीरी लड़की को चुनता, जो कि दिल्ली या मुंबई या बंगलोर में रह रही है, तो वह समस्या हो जाती. क्योंकि फिर उसे पता होता कि कश्मीर में क्या हो रहा है. मैं अपनी फिल्म की नायिका उसे बनाना चाहता था, जो कश्मीरी हो, मगर एकदम ‘क्लीन स्लेट’हो, उसके दिमाग में कश्मीर को लेकर कोई इमेज न हो. हमारी नायिका को नहीं पता कि उसके पिता के साथ क्या हुआ. जबकि कश्मीर में रह रहे लोगों को पता होता है कि आए दिन लोग उठाए जाते हैं, लोग गायब हो जाते हैं. ऐसे लोग ‘‘न लापता’’ हैं और ‘‘न ही गुमशुदा’’ हैं. लापता या गुमशुदा में काफी फर्क है. कश्मीर से अगर कोई युवक मुंबई में एक्टर बनने चला गया, तो एफआईआर में उसे लापता कह देते हैं. पर हमारी फिल्म ऐसे इंसान की तलाश की कहानी है, जो कि गायब है. यानी कि फौज आयी और उसे उठाकर ले गयी. उसके बाद उसका कोई अता पता नही, जबकि उसके परिवार के लोग बार-बार उसके बारे में पता करने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं.तो  हमारी फिल्म में इस कठिन मुद्दे को उकेरा गया है. हमारी फिल्म इस बारे में बात करती है कि अपने गायब पिता को लेकर एक बेटी के जेहन में क्या क्या होता है. इसके अलावा 16 साल की उम्र की लड़की एक सोलह साल के युवक के प्रेम में पड़ती है. तो इसमे एक प्रेम कहानी भी है. ये कहानी मेरे बचपन की भी है. मैं कश्मीर में ही पला बढ़ा हूं, तो जो मेरी कश्मीर की याददाश्त है, उसका भी इसमें चित्रण है. मैंने इसमें ज्यादा से ज्यादा मासूमियत दिखाते हुए कश्मीर की असलियत को उकेरा है. मेरा मानना है कि हम जितनी मासूमियत दिखाते हैं, उतनी ही असलियत उभरकर आती है.

सेंसर बोर्ड को मेरी चुनौती थी कि अगर में एक फिल्म बनाऊंगा कि एक बच्ची अपने पिता की तलाश कर रही है, तो आप बताएं इसमें आपत्तिजनक क्या है? सेंसर बोर्ड को नौ माह लग गए अपने दिमाग को खरोंच-खरोंच कर इस फिल्म पर आपत्ति बताने में. पर उन्हें कुछ नहीं मिला. जबकि उन्होंने इधर-उधर से बहुत कुछ काटने की कोशिश की.

‘‘सेंसर बोर्ड’’ को फिल्म के किन सीन्स पर आपत्ति थी?

सच ये है कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी. पर वह बार-बार यही कह रहे थे कि आप फौज का मनोबल गिराने की कोशिश कर रहे हैं. तो मैंने उनसे यही कहा कि पूरी दुनिया में सबसे बड़ी हमारी सेना है, जो अपनी सुरक्षा करने में सक्षम है. हमारी सेना को अपनी सुरक्षा के लिए ‘सेंसर बोर्ड’ की जरूरत नहीं है. हमारी सेना के पास गन और बारूद वगैरह सब कुछ है. आप उनकी हिफाजत करने के लिए मत निकलिए. ये सेंसर बोर्ड का काम भी नही है. सेंसर बोर्ड का काम ये देखना है कि ये फिल्म बच्चों के देखने योग्य है या नहीं? पर अफसोस कि बात ये है कि सेंसर बोर्ड को अपने काम की परवाह ही नहीं है. हालात ये हैं कि जिस चौकीदार (आज की तारीख में चौकीदार बोलना भी समस्या पैदा कर सकता है) के हाथ में आपने लाठी दे दी है, तो उसे लाठी चलानी है. चौकीदार लाठी चला रहा है, पर ये लाठी किसे लगेगी, पता नहीं. तो सेंसर बोर्ड भी अपनी तरफ से बार बार लाठी चलाने की कोशिश करता रहा कि उनके हाथ कुछ आ जाए, पर उन्हें कुछ नही मिला. हकीकत में मेरी फिल्म ने सेंसर बोर्ड को कन्फ्यूज कर दिया. सेंसर बोर्ड के लोगों की दिमागी हालत सही नही है. बहुत धीमी गति से चलते हुए फिल्म को पास करने में इन्होने 9 महीने लगा दिए. नहीं तो शायद एक दो हफ्ते में ये हमारी फिल्म को निकाल देते. आप खुद देख लीजिए, मैं पिछले 15 साल से फिल्में बना रहा हूं. 2005 में मेरी फिल्म ‘‘लिटिल टेररिस्ट’’ औस्कर के लिए नोमीनेटेड थी. उसके बाद 2011 में मेरी फिल्म ‘‘इंसाअल्लाह फुटबाल’ और 2012 में फिल्म ‘इंसाअल्लाह कश्मीर’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. जब मुझे दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जा चुका है, तो उन्हें समझ में आ जाना चाहिए कि इस इंसान की कुछ तो अपनी अहमियत है. ये सिर्फ प्रोपोगंडा के लिए फिल्म नहीं बनाएगा. मगर सेंसर बोर्ड कोशिश करता रहा कि कुछ आपत्तिजनक निकाले. जबकि उन्हें तो हमें बेनीफिट औफ डाउट देना चाहिए था, वह भी नही दिया. सेंसर बोर्ड हमें पहले अपराधी मानता है, फिर हमें दौड़भाग करके साबित करना पड़ता हैं कि हम भोले हैं. इन्होंने कानून को भी धता बता रखा है.

आपको लगता है कि सेंसर बोर्ड की गाइड लाइन गलत हैं?

देखिए, सेंसर बोर्ड में जो लोग बैठे हैं, वह भी हमारी कौम से आए हुए लोग हैं. पर सरकार ने ऐसे लोगों को चुना है, जिनकी आंखें घोड़े की तरह सिर्फ सीधी दिशा में देखती है. सरकार ने ऐसे लोगों को चुना है, जो हर छोटी-छोटी बात पर भड़क जाएं. इसे ‘सेंसर बोर्ड’ नहीं, बल्कि ‘भड़कू बोर्ड’ कहा जाना चाहिए. ये सेंटीमेंटल लोग नही है, बल्कि सेंटीमेंट के रक्षक हैं. ये गौ रक्षक की तरह काम करते हैं. सेंसर बोर्ड ने मान लिया है कि इनका काम देश की रक्षा करना, फौज की रक्षा करना, औरतों के हक की रक्षा करना और फिल्म देखकर अपने तरीके से जो इंटरप्रिटेट करेंगें, उसकी रक्षा करना है.

मैं सोचता हूं कि मोहम्मद गजनवी के जमाने में भी, जब वह भारत आया, उसने मंदिरों में जो नक्काशी देखी, उसे इस्लाम के खिलाफ मानकर तोड़ने का आदेश दे दिया. तो उसमें और इनमें फर्क क्या रह गया? मेरी एक नाक या कान या एक हाथ काटकर मूर्ति बिगड़ जाएगी. मेरी राय में सेंसर बोर्ड को ही बैन कर देना चाहिए. आज के समाज में इनका कोई काम नही है. सेल्फ सेंसरशिप फिल्मकारों में होनी चाहिए, जिस तरह मीडिया में है. फिल्मकार अपनी एक कमेटी बनाएं, जो हर फिल्म की जांच करें. किसी भी फिल्म को प्रमाणित करने का काम सरकार के हाथ में होना ही नही चाहिए.

अगर सरकार ने फिल्म को प्रमाणित करने का काम अपने हाथ में ले रखा है, तो भी कैंची चलाने का हक नहीं होना चाहिए. आज की तारीख में विदेश में एक अपराधी 40-50 लोगों की हत्या करता है और उसका वीडियो वह सोशल मीडिया पर वायरल प्रसारित करता है, लोग उस वीडियो को शेयर करते हैं, रीट्वीट करते हैं. ऐसे में सेंसर बोर्ड की भूमिका कहां रह गयी? इसके बावजूद आप बच्चों की फिल्म को नौ-नौ माह लटका कर रखते हैं. आखिर सेंसर बोर्ड के लोग किस दुनिया में रहते हैं, क्या उनके अपने बच्चे यूट्यूब नहीं चलाते. मजेदार बात ये है कि सेंसर बोर्ड के सदस्य प्रतिशत में बात करते हैं कि अगर आपने इस सीन को 10 प्रतिशत कम कर दिया, तो फौज की बदनामी नहीं होगी. मगर 10 प्रतिशत बढ़ा दिया, तो सिनेमाघर में बैठा दर्शक भड़क जाएगा. यानी कि उनके दिमाग में भूसा भरा हुआ है. आपको लगता है कि दर्शक मूर्ख है? क्या दर्शकों के निजी जीवन में समस्याएं नहीं हैं? ये मानना गलत है कि फिल्म देखकर दर्शक पागल हो जाएगा. मैं तो सवाल कर रहा हूं कि किस फिल्म की वजह से संप्रदायी दंगे हुए? मैं चुनौती देता हूं, पर सेंसर बोर्ड बता नहीं सकता.

तो आप मानते हैं कि फिल्म का दर्शक पर कोई असर नहीं पड़ता?

ऐसा नही है. देखिए,फिल्म आपके भाव और इमोशन पर काम करती है. उसका आपके भाव पर बहुत असर होता है और होना भी चाहिए. अगर अच्छी फिल्म है, तो वह फिल्म दर्शकों को हिला कर रख देगी. दर्शक कई सालों तक उस फिल्म को याद रखेगा. ऐसी फिल्में क्लासिक बन जाती हैं. आज भी फिल्म ‘पांथेर पंचाली’ की बात होती है. आज भी लोग मेरी फिल्म ‘लिटिल टेररिस्ट’ की बातें करते हैं. स्कूलों में ये फिल्म दिखायी जा रही है. तो फिल्म का प्रभाव होता है, इसमें कोई दो राय नहीं है. मुझे इस बात को जानने का इंतजार है कि मैं अपनी इस फिल्म ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ के माध्यम से कश्मीर को लेकर नयी रोशनी लोगों तक पहुंचा पाया हूं या नहीं. क्योंकि ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ एक व्यावसायिक फिल्म नहीं है. इसकी थिएटरों में उपस्थिति काफी सीमित होगी. फिर मैं इसे नेटफिलिक्स या अमेजन जैसे डिजिटल प्लेटफार्म या सेटेलाइट टीवी चैनल पर लाना चाहूंगा. इसीलिए तो मैंने सेंसर बोर्ड से इतनी लड़ाई लड़ी. अन्यथा सेंसर बोर्ड तो कुछ सीन कट करके ‘ए’ सर्टीफिकेट देने को तैयार था. पर ‘ए’ सर्टीफिकेट मिलने के बाद हम इसे टीवी या डिजिटल प्लेटफार्म या सेटेलाइट चैनल पर नही ला सकते थे, तो हमने ‘यू ए सर्टीफिकेट’ के लिए लड़ाई लड़ी. इसके लिए हमें ट्ब्यिूनल तक जाना पड़ा. मुझे अपनी फिल्म को हर जगह चलाना है. इस फिल्म का प्रभाव तभी होगा, जब ज्यादा से ज्यादा लोग इसे देखेंगे.

फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर में कश्मीर के सच को पेश करने के लिए आपने किस तरह की रिसर्च की?

-मैंने रिसर्च करने के चक्कर में दस साल लगा दिए. दो डौक्यूमेंट्री बना डालीं. पूरे 300 घंटे की शूटिंग की. मैं दावा करता हूं कि मुझसे अधिक कभी किसी फिल्मकार ने इतनी रिसर्च नहीं की होगी.

जब आप डौक्यूमेंट्री बनाने या रिसर्च के लिए कश्मीर के लोगों से मिल रहे थे, तो कश्मीरियों से किस तरह की प्रतिक्रिया मिल रही थी?

बहुत अच्छा रिस्पांस मिला. मुझे ये प्यार तब मिला, जबकि वह भारतीयों को अपना नहीं मानते. वह भारतीयों को भी विदेशी मानते हैं. इसके बावजूद मैं तमाम कश्मीरियों के घर में जाकर रहा. उन्होंने मुझे चाय पिलायी, खाना खिलाया. अपने तमाम रिश्तेदारों से मिलवाया. कई लोगों ने मुझसे बात की. लंबे-लंबे इंटरव्यू दिए. यूं तो मैं पूरा भारत घूम चुका हूं, पर जिस गर्मजोशी के साथ कश्मीर में मेरा स्वागत हुआ, उसका मैं कायल हो गया हूं. वह लोग बहुत विनम्र और मेहमान नवाजी में माहिर हैं.

आप कश्मीर के किसी घर के अंदर घुस नहीं सकते हैं. पर मैं उनके घरों के अंदर गया. लोगों ने मुझे निकलने नही दिया. उनके चाचा-मामा सब आ गए. कब पूरा दिन बीत गया, हमें पता नही चला. वास्तव में उन लोगों ने अब तक सिर्फ फौज को देखा है. तो वह हमारे बारे में भी ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते हैं. कश्मीरीयों के जेहन में एक हिंदुस्तानी महज फौजी है, बंदूक वाला फौजी है, जो कभी भी किसी को भी उठा लेता है. तो जब आप या मैं उनके गांव में जाते हैं, तो उनके लिए हम अजनबी होते है. ये हालात महज इसलिए हैं क्योंकि हमने यहां से वहां लोगों के आने-जाने पर प्रतिबंध सा लगा रखा है.

मैंने कश्मीर में घूमते हुए पुलिस सुरक्षा नही ली, मुझे कोई तकलीफ नही हुई. मैं अपनी टैक्सी में गया, जिसे एक कश्मीरी ड्रायवर चला रहा था. मेरे साथ एक लड़का था, जो मुझे पता बता रहा था. मैंने उससे कहा कि मुझे कश्मीर का हर गांव, हर कस्बा घूमना है. कश्मीर की हर असलियत को समझना है. जो भी समस्याएं हैं, उस पर लोगों से बात करनी हैं. मैं चप्पे चप्पे घूमा, तमाम इंटरव्यू किए.

फौज और कश्मीर को लेकर एक फिल्म आइडेंटीटी कार्ड आयी थी. अभी हाल में गुमशुदा पिता की तलाश को लेकर फिल्म ‘‘हामिद’’ आयी है. इनसे आपकी फिल्म कितनी अलग है?

मैं अपनी व्यस्तताओं के चलते दोनों फिल्में नहीं देख पाया. इसलिए मुझे नही पता कि हमारी फिल्म कितनी अलग है? क्या फर्क है? अब फिल्म देखकर आप अंतर बता दीजिएगा. लेकिन मैंने ईमानदारी से किए गए रिसर्च पर एक ईमानदार फिल्म बनायी है. हां! एक फर्क ये हो सकता हैं कि मैंने मेरी फिल्म टीनएजर फिल्म है. मैं अपनी फिल्म के साथ टीनएजर और युवा पीढ़ी को जोड़ना चाहता हूं. मेरी पिछली फिल्म ‘इंशा अल्लाह फुटबाल’ में 18 साल का फुटबालर नायक था. अब ‘नो फादर्स इन कश्मीर’में 16 साल की लड़की नायिका है. कुछ बच्चे भी हैं. अब उसी उम्र के लोग ही ज्यादा वोट डालने जा रहे हैं, जिस उम्र के लोगों की, मैंने इस फिल्म में बात की है. मेरी फिल्म युवा पीढ़ी के लिए ही बनी है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...