फिल्म: रोमियो अकबर वाल्टर

कलाकार: जौन अब्राहम, मौनी रौय, सिकंदर खेर, सुचित्रा कृष्णमूर्ति और जैकी श्रौफ

निर्देशक: रौबी ग्रवाल

रेटिंग: दो स्टार

भारत-पाक के बैकग्राउंड पर 2013 में प्रदर्शित निखिल अडवाणी की जासूसी फिल्म ‘‘डी डे’’, 2018 में रिलीज फिल्म ‘‘राजी’’ सहित कई बेहतरीन फिल्में आ चुकी हैं. इन फिल्मों के मुकाबले ‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’ एक अति सतही और बोर करने वाली लंबी फिल्म है. आर्मी बैकग्राउंड के फिल्मकार रौबी ग्रेवाल का दावा है कि उन्होने इस फिल्म का लेखन व निर्देशन करने से पहले काफी शोध कार्य करते हुए कई जासूस/स्पाई से बात की. मगर फिल्म देखकर उनका दावा कहीं से भी सच के करीब नहीं नजर आता.

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कहानी…

फिल्म ‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’ की कहानी 1971 के भारत पाक युद्ध की है. जब पाकिस्तान दो हिस्सों में बंटा हुआ था. पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान. पूर्वी पाकिस्तान में मुक्तिवाहिनी सेना आजादी की लड़ाई लड़ रही थी. भारत भी इसकी आजादी का पक्षधर था. 1971 के युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान आजाद होकर बांग्लादेश बन गया. ऐसी ही परिस्थिति में भारतीय जासूसी संस्था ‘रौ’ के मुखिया श्रीकांत राय (जैकी श्राफ) को अपने साथ जोड़ने के लिए ऐसे इंसान की तलाश थी, जो कि आसानी से भीड़ का हिस्सा बन सके या अपने आस पास के इंसान को आसानी से भटका सके. श्रीकांत राय की यह खोज उन्हें आर्मी के शहीद मेजर के बेटे रोमियो अली (जौन अब्राहम) तक ले जाती है. रोमियो एक बैंक कर्मी है. बुजुर्ग बनकर कविताएं पढ़ता है. बैंक में उसकी सहकर्मी हैं पारूल(मौनी रौय), जिससे वो प्यार करता है. एक दिन बैंक में नकली डकैती होती है, जिसके बाद रोमियो अली को श्रीकांत राय के सामने पहुंचा दिया जाता है. रोमियो अली को जासूस बनने की ट्रेनिंग दी जाती है और फिर वह अकबर मलिक (जौन अब्राहम) के नाम से पीओके पहुंचता है. एक होटल में नौकरी करते हुए वह शरीक अफरीदी के करीब पहुंचता है और वह भारत में श्रीकांत तक सारी जानकारी मुहैया करता रहता है कि किस तरह 22 नवंबर को पूर्वी पाकिस्तान से सटे भारतीय गांव को तबाह करने की योजना है. अफरीदी का अपना बेटा नवाब अफरीदी अपने पिता का दुश्मन है, जो कि पाकिस्तान के उप सेनाध्यक्ष के साथ मिला हुआ है. कुछ समय बाद अकबर मलिक की मदद के लिए भारतीय डिप्लोमेट के रूप में श्रद्धा शर्मा (मौनी रौय) पहुंचती है. श्रद्धा शर्मा का फोन पाकिस्तानी आईएसआई टेप कर रही है. इसी के चलते श्रद्धा और अकबर मलिक की मुलाकात की जानकारी आईएसआई आफिसर खुदा बख्श सिंह (सिकंदर खेर) को पता चलती है. फिर खुदाबख्श सिंह, अकबर मलिक के पीछे पड़ जाता है और एक दिन उसे गिरफ्तार कर यातना देकर सच जानने का असफल प्रयास करता है. अफरीदी की मदद से वह छूट जाता है, मगर सेनाध्यक्ष की हत्या हो जाती है और उप सेनाध्यक्ष गाजी खान सेनाध्यक्ष बन जाता है. उसके बाद कहानी में कई मोड़ आते हैं. जिनके लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

फिल्म समीक्षा : नोटबुक

पटकथा लेखक…

पटकथा लेखक की अपनी कमजोरियों के चलते ये जासूसी फिल्म की बजाय एक एक्शन और रोमांस से भरपूर वेब सीरीज नजर आती है. लेखक व फिल्मकार रौबी ग्रेवाल ने बेवजह भावनात्मक, रोमांटिक और सेक्शुअल सीन्स को भरकर एक बौलीवुड मसाला फिल्म बनायी है. फिल्म में जौन अब्राहम और मौनी रौय के बीच रोमांटिक और सेक्शुअल सीन फिल्म में पैबंद नजर आते हैं. इन्ही सीन्स के चलते फिल्म बेवजह लंबी हो गयी है. इतना ही नहीं एडीटिंग में फिल्म को कसने की जरुरत थी. इंटरवल से पहले तो कहानी खिसकती ही नही है. दर्शक कहने पर मजबूर हो जाता है कि कहां फंसा गया.

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एक्टिंग…

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो यह फिल्म जौन अब्राहम के करियर की सबसे कमजोर फिल्म है. मौनी रौय तो महज खूबसूरत गुड़िया के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म में अगर कोई किरदार याद रह जाता है, तो वह है श्रीकांत राय का, जिसे जैकी श्राफ ने निभाया है. जैकी श्राफ के अभिनय की जरुर तारीफ की जानी चाहिए. इसके अलावा एक भी कलाकार प्रभावित नहीं कर पाता. रघुबीर यादव सहित कई दिग्गज कलाकारों के कमजोर अभिनय के लिए लेखक व निर्देशक ही पूरी तरह से जिम्मेदार हैं. किसी भी किरदार को सही ढंग से चित्रित ही नहीं किया गया.

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