राहुल गांधी का नया चुनावी शिगूफा कि यदि वे जीते तो देश के सब से गरीब 20 फीसदी लोगों को 72,000 रुपए साल यानी 6,000 रुपए प्रति माह हर घर को दिए जाएंगे, कहने को तो नारा ही है पर कम से कम यह राम मंदिर से तो ज्यादा अच्छा है. भारतीय जनता पार्टी का राम मंदिर का नारा देश की जनता को, कट्टर हिंदू जनता को भी क्या देता? सिर्फ यही साबित करता न कि मुसलमानों की देश में कोई जगह नहीं है. इस से हिंदू को क्या मिलेगा?

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लोगों को अपने घर चलाने के लिए धर्म का झुनझुना नहीं चाहिए चाहे यह सही हो कि पिछले 5,000 सालों में अरबों लोगों को सिर्फ और सिर्फ धर्म की खातिर मौत की नींद सुलाया गया हो. लोगों को तो अपने पेट भरने के लिए पैसे चाहिए.

यह कहना कि सरकार इस तरह का पैसा जमा नहीं कर सकती, अभी तक साबित नहीं हुआ है. 6,000 रुपए महीने की सहायता देना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है. अगर सरकार अपने सरकारी मुलाजिमों पर लाखों करोड़ रुपए खर्च कर सकती है, उस के मुकाबले यह रकम तो कुछ भी नहीं है. यह कहना कि इस तरह का वादा हवाहवाई है तो गलत है, पर सवाल दूसरा है.

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सवाल है कि देश की 20 फीसदी जनता को इतनी कम आमदनी पर जीना ही क्यों पड़ रहा है? इस में जितने नेता जिम्मेदार उस से ज्यादा वह जाति प्रथा जिम्मेदार है जिस की वजह से देश की एक बड़ी आबादी को पैदा होते ही समझा दिया जाता है कि उस का तो जन्म ही नाली में कीड़े की तरह से रहने के लिए हुआ है. उन लोगों के पास न घर है, न खेती की जमीन, न हुनर, न पढ़ाई, न सामाजिक रुतबा. वे तो सिर्फ ऊंची जातियों के लिए इतने में काम करने को मजबूर हैं कि जिंदा रह सकें.

देश का ढांचा ही ऐसा है कि इन गरीबों की न आवाज है, न इन के नेता हैं जो इन की बात सुना सकें. उन को समझाने वाला कोई नहीं. गनीमत बस यही है कि 1947 के बाद बने संविधान में इन्हें जानवर नहीं माना गया.

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1947 से पहले तो ये जानवर से भी बदतर थे. अमेरिका के गोरे मालिक अपने नीग्रो काले गुलामों की ज्यादा देखभाल करते थे, क्योंकि वे उन के लिए काम करते थे और बीमार हो जाएं या मर जाएं तो मालिक को नुकसान होता था. हमारे ये गरीब तो किसी के नहीं हैं, खेतों के बीच बनी पगडंडी हैं जिस की कोई सफाई नहीं करता. हर कोई इस्तेमाल कर के भूल जाता है.

इन को 72,000 रुपए सालाना दिया जा सकता है. कैसे दिया जाएगा, पैसा कहां से आएगा यह पूछा जाएगा, पर कम से कम इन की बात तो होगी. ऊंची जातियों के लिए यह झकझोरने वाली बात है कि 25 करोड़ लोग ऐसे हैं जो आज इस से भी कम में जी रहे हैं. क्यों, यह सवाल तो उठा है. असली राष्ट्रवाद यही है, मंदिर की रक्षा नहीं.

औरत और नौकरियां

शहरी हों या गांवों की औरतों की नौकरियां कम होती जा रही हैं. सरकारी आंकड़ें, जिन्हें मोदी सरकार चुनावी दिनों में रोक रही थी, बताते हैं कि पिछले 15 सालों में औरतों की काम में भागीदारी आधी रह गई है. गांवों में पिछले 6 सालों में 2 से 8 करोड़ औरतों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है.

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यह तब है जब घरों में बच्चे कम हैं और औरतों को अब बच्चे पालने में मुसीबत कम होती है. घरों में अब सास या मां भी काफी तंदुरुस्त रहती हैं कि वह पोतेनाती को पालने में हाथ बंटा सके, पर फिर भी औरतें काम पर नहीं जा पा रहीं.

इस की एक वजह तो यह है कि पिछले सालों में नौकरियों में एकदम कमी आई है. सरकार की नीतियां ही ऐसी हैं कि न कारखाना लगाना आसान है, न दुकान. खेती में फसल अच्छी हो तो दाम नहीं मिलता और जब दाम बढ़ते हैं तो उपज कम होती है, इसलिए नई नौकरियां ही नहीं निकल रहीं. घर का मर्द खाली हो तो औरतों की हिम्मत नहीं होती कि वे नौकरी पर निकलें.

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अगर देश का काम चल रहा है तो इसलिए कि सरकारी नौकरियों में लोग भरपूर कमा रहे हैं. वहां वेतन भी है, रिश्वत भी. वहां पैसा जम कर बंटता है और खैरात में कुछ बेकार बैठे लोगों के हाथों में आ जाता है. भगवा गमछेधारी आजकल पैदल नहीं चलते, शानदार मोटरबाइक पर चलते हैं, पर हैं बेरोजगार. उन की कमाई का एक बड़ा हिस्सा जबरन चंदे से आता है पर इसे नौकरी तो नहीं कह सकते. देशभर में जो झगड़े बढ़ रहे हैं उस के पीछे बेरोजगारी है क्योंकि निकम्मे लोग हर तरह के काम करने लगते हैं और चूंकि आजकल पुलिस कुछ कहती नहीं तो मुसलिमों, दलितों, गरीबों, किसानों को पीटपाट कर कमाई की जाती है. घरों की औरतें भी इस कमाई पर काम चला लेती हैं.

जबकि लड़कियों की पढ़ाई अब लड़कों के बराबर सी होने लगी है, 2011-12 से 2017-18 तक गिनती बढ़ी है पर उतनी नहीं जितनी ज्यादा लड़कियां पढ़ कर आ गई हैं. आज हर घर में 2-3 बच्चे ही हैं और लड़कियां भी बराबर का काम कर सकती हैं पर न तो उन्हें घर से बाहर काम मिलता है और न ही अपने बदन के बचाव का भरोसा है.

लड़कियों का काम देश की माली हालत में बढ़ोतरी के लिए बहुत जरूरी है. जो देश लड़कियों को बराबर का काम का मौका नहीं देगा, वह पिछड़ जाएगा. वहां औरतें फिर धर्म के नाम पर समय और पैसा बरबाद करेंगी या फिर ह्वाट्सएप जैसे फालतू कामों पर बेकार करेंगी. सब का साथ सब का विकास में औरतों का विकास कहां है, ढूंढ़ना होगा.

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