इनदिनों टीवी चैनलों पर अपराधों के प्रति जनता को जागरूक करने वाले धारावाहिकों की बाढ़ सी आई हुई है. लोग भले ही इन धारावाहिकों से कोई सीख लें न लें पर हमारी श्रीमतीजी तो इन कार्यक्रमों की इतनी भक्त हैं कि पूछिए मत.

हमारे औफिस से घर लौटने के दौरान वे टीवी के आगे ही पसरी मिलेंगी. टीवी के आगे बैठने का उन का अंदाज देख हमें बादशाहों का जमाना याद हो आता है.

उस दिन काम के बोझ से हमारा सिर दर्द से फटा जा रहा था. घर में घुसने पर श्रीमतीजी को चाय बनाने को कहा तो तपाक से बोलीं, ‘‘चायवाय तो बाद में पीते रहना, जरा टीवी

देखो और जानो कि आजकल वारदातों को अंजाम देने के लिए अपराधी क्याक्या तरकीबें अपना रहे हैं. भला हो इन चैनल वालों का जिन्होंने हमें घर बैठे ही अपराधों से सचेत करने का बीड़ा उठा रखा है.’’

अकेले हम अकेले तुम

श्रीमतीजी की अंधश्रद्धा के आगे हम से कुछ कहते न बना. चुपचाप रसोई में जा कर हम ने खुद चाय बनाई.

रात को श्रीमती की चीखें सुन हम हड़बड़ा कर उठ बैठे. देखा तो वे ख्वाब में चिल्ला रही थीं, ‘‘पकड़ो... पकड़ो...’’

हम ने उन्हें झकझोर कर उठाया तो उलटा हम पर ही बरस पड़ीं, ‘‘अच्छाभला सपना देख रही थी. चोर चोरी कर चुपके से निकल रहा था कि मैं ने उसे देख लिया. उसे दबोचने ही वाली थी कि आप ने मुझे उठा दिया. हुंह...’’

अब श्रीमतीजी की इस हालत पर हम रोएं या ठहाके लगाएं.

कल ही की बात है. औफिस के बाद थोड़ा बाहर का काम निबटाते हुए हम थोड़ा

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