बौडीशेमिंग से हर कोई किसी न किसी रूप से रूबरू होता है. इस से चाहे वह डिप्रैशन में चला जाए या फिर उसे किसी बात पर बुरा लगे पर सच तो सच है. आखिर सच से रूबरू कराने में हर्ज क्या?

इन मोटे गैंडे जैसे पैरों में शौर्ट्स तो बिलकुल अच्छे नहीं लगेंगे

क्या लड़कियों की तरह रो रहा है,

लड़का बन, लड़का

इतनी भारी आवाज है तेरी बिलकुल मर्दों वाली

बेटा, बालों में तेल लगा ले,

वैसे ही चिडि़या का घोंसला लगते हैं

तू क्रौप टौप मत पहना कर, तेरा पेट बाहर लटकता है

बौडीशेमिंग से कौन वाकिफ नहीं है, ‘यार, आज तू बहुत मोटी लग रही है’, ‘तेरा रंग इतना काला क्यों होता जा रहा है’, ‘कल न तू पतली लग रही थी’, यह सब बौडीशेमिंग ही तो है. खैर, कहने वालों को क्या, कौन सा उन्हें फर्क ही पड़ता है. कोई चाहे उन की बातों से अंदर ही अंदर घुट जाए या एंग्जायटी और डिप्रैशन का शिकार हो जाए, वे तो केवल सच बोलते हैं और किसी को सचाई से रूबरू कराने में हर्ज कैसा. मेरी खुद की सुबह ही ‘और हाथी का बच्चा कहां जा रही है’ सुन कर होती है.

दिन में 7-8 लोगों से मुलाकात होती है तो उन में से 4 ‘आज न तू ज्यादा ही फैली हुई लग रही है’ बोल ही जाते हैं, और बाकी 4 को मैं ‘लिपस्टिक लगा ले तेरे होंठ बड़े काले लग रहे हैं’, ‘कुछ खाके आया कर हवा का झोंका आया तो उड़ जाएगी.’ ‘ये कैसा पीला रंग है तुझ पर बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा’, ‘तेरे बाल इतने बेकार से क्यों लग रहे हैं, धो कर नहीं आई क्या’ बोल ही देती हूं. आखिर बोलूं भी क्यों न, सब मुझे भी तो बोलते हैं और अगर मैं ने बोल दिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई.

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