फिल्म- दे दे प्यार दे

निर्देशक- अकीव अली

कलाकार- अजय देवगन, तब्बू, रकूल प्रीत सिंह, आलोकनाथ, जावेद जाफरी, जिम्मी शेरगिल, भाविन भानुशाली, हुयेन दलाल, अंजीला व अन्य.

रेटिंग- डेढ़ स्टार

बतौर निर्देशक अकीव अली अपनी पहली फिल्म ‘दे दे प्यार दे’ में हास्य के नाम पर जमकर बेशर्मी और फूहड़ता परोसी है. पूरी फिल्म नारी को अपमानित करने का ही काम करती है.यूं भी इस फिल्म के निर्माता व कहानीकार लव रंजन पर उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म ‘‘प्यार का पंचनामा’’से ही नारी विरोधी होने का आरोप लगता रहा है. इस फिल्म में एक कदम आगे बढ़ते हुए एक पुरूष के लिए दो नारियों को ही बेशर्मी के साथ एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया है. फिल्म ‘‘दे दे प्यार दे’’में एक नारी को उसके रूप, उसके कद, उसकी उम्र, उसके रिश्ते के विकल्प आदि को लेकर शर्मिंदा करने का ही काम करती है.

कहानीः

फिल्म की कहानी लंदन से शुरू होती है. जहां पचास साल के आशीश(अजय देवगन)एक महल नुमा घर में अकेले रह रहे हैं. उन्होने अपनी पत्नी मंजू राव( तब्बू ),बेटे विनोद(भाविन भानुशाली) व बेटी इशिता ( इनायत),माता व पिता वीरेंद्र मेहरा (आलोकनाथ)को भारत में ही छोड़ दिया है. मंजू व अशीश के बीच तलाक नहीं हुआ है,मगर 18 साल से आशीश भारत नहीं गया.

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एक दिन वह अपने दोस्त की शादी से पहले उसकी बैचलर पार्टी अपने घर में रखता है, जिसमें आशीश से बीस साल छोटी आएशा खुराना(रकुल प्रीत सिंह )पहुंच जाती है. रात में शराब पीकर आएशा, आशीश के घर में ही रह जाती है. जब सुबह आएशा सोकर उठती है, तो दर्शकों को पता चल जाता है कि रात में क्या हुआ होगा.उसके बाद इनकी मुलाकातें बढ़ती हैं. अशीश, आएशा को बताता है कि उसके बड़े बच्चे हैं और उसने अपनी पत्नी को छोड़ दिया है, वह सभी भारत में रहते हैं. पर दोनों बिना शादी किए एक साथ पति पत्नी की तरह रहने लगते हैं.

एक दिन आशीश अपने पूरे परिवार से मिलाने के लिए आएशा को लेकर भारत के हिल स्टेशन के रिसोर्टनुमा अपने घर पर पहुंचता है. जहां सबसे पहले मुलाकात आशीश की बेटी इशिता से होती है, वह गुस्से में आशीश को वापस जाने के लिए कहती है, क्योंकि इशिता की शादी की बात करने के लिए श्रेया का प्रेमी अपने पिता अतुल के साथ वहॉं आ रहा है. इशिता ने कह रखा है कि बचपन में ही उसके पिता मर गए थे. हालात को देखते हुए तय होता है कि अतुल से आशीश की मुलाकात इशिता के मामा के रूप में कराई जाएगी. हालात के मद्दे नजर आशीश सत्य बताने की बजाए आएशा को अपनी सेक्रेटरी बता देता है. इशिता शादी से पहले लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहती है, जिसके लिए अतुल तैयार नही होते. खैर मामला तय होता है कि सगाई के बाद दोनो लिव इन रिलेशनशिप में रहेंगे.

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कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. आशीश अपनी बेटी इशिता को आशीश व आएशा के रिश्ते का सच पता चल जाता है.वह गुस्से में सबके सामने कह देती है कि आशीश उसके पिता हैं. अतुल शादी तोड़कर अपने बेटे के साथ वापस चले जाते हैं. आशीश व आएशा के बीच भी मनमुटाव हो जाता है और आएशा वापस लंदन चली जाती है. पर बेटी को दुःखी देखकर आशीश उसकी शादी कराने के लिए अतुल के पास जाता है. पर सगाई वाले दिन मंजू लंदन से आएशा को लेकर पहुंच जाती है.

इंटरवल तक तो फिल्म महज अजय देवगन द्वारा आएशा के शरीर की मालिश करने, उसके लिए खरीददारी करने, उसके साथ घूमने या रात में बिस्तर पर रहने तक ही सीमित है. पर द्विअर्थी संवाद व बेशर्मी वाला रोमास जरुर नजर आता है. इंटरवल के बाद ‘लिव इन रिलेशनशिप’, तलाक, पति पत्नी के रिश्ते, पारिवारिक रिश्तों, बेटी व पिता के रिश्ते, पति पत्नी के बीच उम्र के अंतर सहित कई मुद्दों को चूं चूं का मुरब्बा की तरह पेशकर फिल्मकार ने फिल्म को बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. पूरी फिल्म अस्वाभाविक व अविश्वसनीय घटनाक्रमों से भरी हुई है. आएशा कैसे अनजान इंसान आशीश के घर पहुंचती है, पता ही नही चलता.

हम इक्कीसवी सदी में पहुंच गए हैं. पुरूष व नारी समानता के साथ साथ नारी स्वतंत्रता की बातें हो रही है. नारी उत्थान व नारी सशक्ती करण के नाम पर काफी कुछ हो रहा है. नारी खुद को स्वतंत्र मानते हुए हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर काम कर रही हैं. इसके बावजूद फिल्मकार लव रंजन और अकीव अली की सोच यही कहती है कि नारी चाहे जितनी स्वतंत्र व सशक्त हो जाए, पर उसका अस्तित्व उसके साथ एक पुरूष के होने या न होने पर निर्भर है.

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फिल्मकार की मानसिकता को फिल्म के एक लंबे दृश्य से समझा जा सका है. इस दृश्य में अजय देवगन, तब्बू और रकूल प्रीत एक साथ एक पुरानी कार में बैठकर जा रहे हैं. इस दृश्य में रकूल प्रीत व तब्बू दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कार को नारी शरीर का प्रतीक मानकर पुरानी गाड़ी व नई गाड़ी की तुलना करते हुए जिस तरह के शब्दों व भाषा का प्रयोग करती हैं, वह कम से कम वर्तमान यानी कि 2019 में जायज नहीं ठहराया जा सकता. फिल्म में अभिनेता जिम्मी शेरगिल का किरदार जबरन ठूंसा हुआ है.जबकि इसका कहानी से कोई संबंध नहीं है.

पटकथा बहुत ही ज्यादा कन्फूयज करने के साथ ही विरोधाभासी संवादो व सोच से भरी हुईहै.लेखक व निर्देशक दोनों ही फिल्म में आधुनिक व सदियों पुराने नैतिक मूल्यों के बीच संतुलन बनाने में बुरी तरह से विफल रहे हैं. फिल्म का क्लायमेक्स भी अजीब सा है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है, अजय देगवन किसी भी दृश्य में प्रभावित नहीं करते. पूरी फिल्म रकूल प्रीत सिंह महज अत्याधुनिक व अतिग्लैमरस नजर आती हैं. तब्बू के अभिनय की तारीफ करनी पड़ेगी. वही इस फिल्म की हीरो हैं. कहानी का हिस्सा न होते हुए भी छोटी सी भूमिका में जिम्मी शेरगिल अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं.

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