मकान बनाना कितनी बड़ी बला है यह तो वही जान सकता है जिस ने बनवाया हो. लोगों के जीवन में बड़ी मुश्किल से यह दिन आ पाता है. इतने सारे पापड़ बेलना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर आदमी दूसरों को बनवाता देख कर हिम्मत कर बैठता है और एक दिन रोतेधोते मकान बनवा ही लेता है.
ऐसा ही मेरे साथ हुआ. एक दिन मेरी पत्नी ने सुबहसुबह एक गृहप्रवेश कार्ड मेरे सामने रख दिया. मेरे एक रिश्तेदार ने नया मकान बनवाया था. उसी खुशी में वह पार्टी दे रहा था. शाम को वहां जाना था.
‘‘देखिए, अब बहुत हो गया. मेरा शाम को कहीं जाने का मन नहीं है,’’ श्रीमतीजी तल्ख लहजे में बोलीं.
मैं ने उन के नहीं जाने के निर्णय को बहुत हलके से लिया, ‘‘हां, वैसे आजकल पक्का खाना नहीं खाना चाहिए. वाकई अब इस उम्र में इन चीजों का ध्यान भी रखना चाहिए.’’
पर यह क्या, मेरी इस बात पर तो वह बादल की तरह फट पड़ीं, ‘‘यह क्या, बस तुम्हें हर बात पर मजाक सूझता रहता है. मैं ने तो फैसला कर लिया है कि मैं अब किसी के गृहप्रवेश में तब तक नहीं जाऊंगी जब तक तुम मुझे एक प्यारा सा मकान नहीं बनवा कर दे दोगे.’’
मुझे बस चक्कर ही नहीं आया, ‘‘यह तुम कैसी बात कर रही हो. अरे, मूड खराब है तो शाम को चल कर एक साड़ी ले लेना. लेकिन कम से कम ऐसी बात तो मत करो जिसे सुन कर मुझे हार्टअटैक आ जाए.’’
श्रीमती के तेवर देख कर लगता था कि बात बहुत आगे बढ़ चुकी है. अब आसानी से केवल साड़ी पर सिमटने वाली नहीं थी. जब भी किसी का मकान बनता तो वह ऐसी फरमाइश कर बैठती थीं. उन्होंने थोड़ाबहुत इतिहास भी पढ़ा हुआ था अत: कह बैठती थीं, ‘‘देखो, शाहजहां ने अपनी बेगम के लिए ताजमहल बनवाया था. क्या तुम मेरे लिए एक अदद मकान नहीं बनवा सकते.’’