हिन्दू राष्ट्र की गर्जनाओं के बीच देश डर से कांप रहा है. लोग अपने-अपने दायरों में सिमटे जा रहे हैं. एकजुट होने की हिम्मत जवाब दे रही है, आवाज उठाने की ताकत दम तोड़ रही है. न्याय पाने का हक छिन रहा है… और देश विकास कर रहा है… आह!

22 मई को मुंबई में टी. एन. टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज में 26 साल की गाइनोकोलॉजी की छात्रा डॉ. पायल तड़वी ने आत्महत्या कर ली. कहा जा रहा है कि मेडिकल कॉलेज में डॉ. पायल तड़वी को उनकी जाति को लेकर प्रताड़ित किया जा रहा था. पायल तड़वी उस भील समाज से थीं, जिनकी आबादी इस देश में अस्सी लाख के करीब है. अनुसूचित जनजाति में जन्मी डॉ. पायल तड़वी उत्तरी महाराष्ट्र के जलगांव की रहने वाली थीं और उन्होंने पश्चिमी महाराष्ट्र के मीराज-सांगली से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की थी. आरक्षण कोटे के तहत डौक्टरेट करने के लिए पायल ने पिछले साल ही इस अस्पताल में दाखिला लिया था. वे जलगांव में अपने समाज की सेवा के लिए एक अस्पताल खोलना चाहती थीं. तीस साल बाद इस पिछड़े दलित समाज से कोई लड़की डॉक्टर बनने वाली थी, मगर देश में फैले जाति के जहर ने उनकी इहलीला समाप्त कर दी.

ऊंची जाति की तीन डॉक्टर – डॉ. हेमा आहूजा, डॉ. अंकिता खंडेलवाल और डॉ. भक्ति मेहर को इस मामले में गिरफ्तार किया गया है. महिला डॉक्टरों पर आरोप है कि वे पायल की सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण उन्हें लगातार प्रताड़ित कर रही थीं. आत्महत्या वाले दिन भी आॅपरेशन थियेटर में उनके साथ बुरा बर्ताव हुआ था और वह रोती हुई वहां से बाहर निकली थीं. पायल की मां आबेदा तड़वी कहती हैं कि उनकी बेटी को कई महीने से जातिसूचक गालियां दी जा रही थीं. उनको लगातार कमतरी का अहसास कराया जा रहा था. पायल की मां का कहना है कि इसी अस्पताल में उन्होंने अपना कैंसर का इलाज करवाया था, जहां उन्होंने खुद पायल को उत्पीड़न का सामना करते देखा था. वरिष्ठ महिला डॉक्टर मरीजों के सामने भी पायल की बेइज्जती करती थीं, जिससे वो भारी मानसिक दबाव में थी. अपनी शिकायत में आबेदा तड़वी कहती हैं, ‘मैं उस समय भी शिकायत दर्ज कराना चाहती थी, लेकिन पायल ने मुझे रोक दिया था. पायल को डर था कि अगर शिकायत की गयी तो वहां उसका और ज्यादा उत्पीड़न किया जाएगा और उसका भविष्य में डॉक्टर बन कर अपने समुदाय की सेवा करने का सपना अधूरा ही रह जाएगा.’

आत्महत्या से 9 दिन पहले डॉ. पायल तड़वे के पति सलमान ने भी टी. एन. टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज से शिकायत की थी कि उसकी पत्नी पायल को सीनियर डॉक्टर मानसिक रूप से परेशान कर रहे हैं, मगर कॉलेज प्रशासन ने कोई कदम नहीं उठाया.

पायल जिस समाज से आती हैं, उस समाज में हर तरह का पिछड़ापन है, ऐसे में इस समाज से कोई डॉक्टर बन जाए, यह कोई साधारण बात तो नहीं थी. मुंबई में डॉ. पायल तड़वी की आत्महत्या को लेकर नागरिक समाज के एक हिस्से में बहुत बेचैनी है. कुछ लोग विरोध प्रदर्शन भी कर रहे हैं. मगर इन बातों की कोई बहुत ज्यादा चर्चा मीडिया में नहीं है, क्योंकि देश का मीडिया फिलहाल ‘मोदी-मय’ है. वह नरेन्द्र मोदी की सत्ता में पुन:वापसी की खबरें लिखने-दिखाने में व्यस्त है. पिछड़े समाज की हाय-हाय तो वैसे भी उनके लिए आये-दिन की बात है. इनके रुटीन प्रदर्शनों से भी देश की स्थिति बदलने वाली नहीं है. ऐसा विरोध प्रदर्शन मार्च 2014 में भी हुआ था, जब तमिलनाडु के मुथुकृष्णन ने आत्महत्या कर ली थी और जनवरी 2016 में भी, जब हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी की खबर आयी थी. मुथुकृष्णन जेएनयू के पीएचडी स्कॉलर थे. उन्होंने अपनी आखिरी पोस्ट में बड़ी बेबसी से लिखा था कि – ‘जब समानता नहीं, तो कुछ भी नहीं.’ वहीं डॉक्टरेट करने वाले रोहित वेमुला ने अपने गले में फांसी का फंदा डालने से पहले लिखा – ‘मैं तो हमेशा लेखक बनना चाहता था. विज्ञान का लेखक, कार्ल सेगन की तरह और अंतत: मैं सिर्फ यह एक पत्र लिख पा रहा हूं… मैंने विज्ञान, तारों और प्रकृति से प्रेम किया, फिर मैंने लोगों को चाहा, यह जाने बगैर कि लोग जाने कब से प्रकृति से दूर हो चुके. हमारी अनुभूतियां नकली हो गयी हैं, हमारे प्रेम में बनावट है. हमारे विश्वासों में दुराग्रह है. एक इंसान की कीमत, उसकी पहचान एक वोट… एक संख्या… एक वस्तु तक सिमट कर रह गयी है. कोई भी क्षेत्र हो, अध्ययन में, राजनीति में, मरने में, जीने में, कभी भी एक व्यक्ति को उसकी बुद्धिमत्ता से नहीं आंका गया. मेरा जन्म महज एक जानलेवा दुर्घटना थी. मैं बचपन के अपने अकेलपन से कभी बाहर नहीं आ सकूंगा. अतीत का एक क्षुद्र बच्चा, जिसकी किसी ने सराहना नहीं की. मैं न तो दुखी हूं और न उदास. मैं बस खाली हो चुका हूं. खुद से बेपरवाह हो चुका हूं.’

मुथुकृष्णन और रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद देश भर में कई बहसें हुर्इं, वार्ताएं हुर्इं, टीवी शोज हुए, लोग तख्तियां लेकर सड़कों पर भी उतरे, मगर जाति की मार से छलनी हो रही जिन्दगियों की कहानी रुकी नहीं. उसके बाद भी देश भर में दलितों, पिछड़ों, जनजातीय और अल्पसंख्यक लोगों की पिटायी, हत्याएं, बलात्कार, उत्पीड़न का सिलसिला ज्यों का त्यों चालू है. डॉ. पायल तड़वी की आत्महत्या के बाद भी कुछ लोग तख्तियों के साथ सड़कों पर हैं, मगर यह खबर लाव-लश्कर के साथ सत्ता में दोबारा पदार्पण कर रहे नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के शपथ ग्रहण कार्यक्रम के भव्य आयोजन की खबरों के बीच दब सी गयी. यही खबर नहीं, बल्कि उस चौदह साल की मासूम बच्ची की खबर तो जिला स्तर तक भी नहीं पहुंच पायी, जिसको 24 मई 2019 की रात सामूहिक बलात्कार कर आग के हवाले कर दिया गया था. जिला मुजफ्फरनगर के ग्राम बधाई कंला में अनुसूचित जाति की एक उपजाति से सम्बन्ध रखने वाली मीनाक्षी के साथ दरिंदों ने जो हैवानियत दिखायी, उसे देखकर इन्सानियत की रूप कांप उठी. भरे गांव के बीच दरिंदों ने उससे सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसी खाट पर बांध कर उसे आग के हवाले कर दिया. मीनाक्षी की दर्दनाक कराहें सभ्य और संभ्रात समाज के कान तक नहीं पहुंची क्योंकि पूरा देश मोदी सरकार की पुन:वापसी के जश्न में मग्न था. यह घटना कुछ वाट्सऐप ग्रुपों में सर्कुलेट होकर ही रह गयी. आरोपी अभी तक फरार हैं.

उच्च जातियों के दबंगों के कहर से पूरा राष्ट्र थर्रा रहा है. पिछड़ी जातियां, अनुसूचित जातियां, जनजातियां, आदिवासी समाज, मुसलमान सब डरे हुए हैं. अपने-अपने दायरों में सिमटे जा रहे हैं. दायरे तोड़ने की हिम्मत जवाब दे चुकी है, इसीलिए वे एकजुट नहीं हो पा रहे हैं. एक मजबूत ताकत नहीं बन पा रहे हैं. उनके नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाली तमाम राजनीतिक पार्टियां उन्हें उनके दायरों में ही रखना चाहती हैं. उसी में रहने को मजबूर करती हैं, ताकि उनका वोटबैंक बना रहे.

संघ की मंशा कामयाब होने की ओर

नरेन्द्र मोदी की सत्ता में वापसी के बाद जाति के दायरे और मजबूत होंगे, इसमें दोराय नहीं है क्योंकि उच्च जातियां अब पूरी ताकत और संख्या के साथ मोदी के केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में शामिल हैं. संघ की इच्छाओं को अपने कंधे पर उठा कर अपनी राजनीतिक इच्छा पूरी करने वाले मोदी गदगद हैं. राष्ट्रवाद की सूनामी चल रही है. राष्ट्रवाद यानी हिन्दूवाद. ‘गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं’ या ‘भारत एक हिन्दू राष्ट्र है’ या फिर भारत शीघ्र एक हिन्दू राष्ट्र बनने वाला है, अब ऐसा होने से कोई माई का लाल रोक नहीं सकता… जैसी बातें कही-सुनी जा रही हैं. सनद रहे कि संघ की परिभाषा के मुताबिक हिन्दू मतलब सवर्ण. केवल सवर्ण. संघ, जो देश को धर्म और जाति के खांचों में बांट कर देखता रहा है और हमेशा देखेगा. लोगों को जाति के शिकंजे में जकड़ कर रखने में ही उसकी सफलता निहित है. संघ की उत्पत्ति है ‘हिन्दुत्व’. उसका अपनी तरह का हिन्दुत्व यानी ब्राह्मण और वह भी सिर्फ ब्राह्मण पुरुष. संघ में दलितों-पिछड़ों, महिलाओं, मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है. संघ जिस हिन्दुत्व की बात करता है, उसका तैंतीस करोड़ देवी देवताओं वाले, सैकड़ों जातियों में बंटे, बहुतेरी भाषाओं, रीति रिवाज, परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों वाले उदार बहुसंख्यक समाज की जीवनशैली से कोई मेल नहीं है. आदिवासी और दलित उसके हिन्दुत्व के खांचे में कभी फिट नहीं हो पाते हैं, जो पलट कर पूछते हैं कि अगर हम भी हिन्दू हैं तो अछूत और हेय कैसे हुए?

संघ के लिए सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही हिन्दू हैं. इनमें भी ब्राह्मण सर्वोपरि हैं. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का रिकॉर्ड है कि सर संघचालक का पद सिर्फ ब्राह्मण के लिए रिजर्व है. साफ शब्दों में कहें तो यह ‘ब्राह्मण स्वयं सेवक संघ’ है, न कि ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’. संघ स्पष्ट रूप से ब्राह्मण-बनिया पुरुषों का संगठन है, जिसके शिखर पर महाराष्ट्रियन ब्राह्मण विराजमान होता है. आपको इसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक भी एससी-एसटी व्यक्ति नहीं मिलेगा. न ही कोई महिला मिलेगी. हां पिछड़ी जाति के कुछ सदस्य अवश्य हो सकते हैं, जो इनकी सभाओं में दरी और कुर्सी बिछाने का काम करते हैं.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कागज पर तो हिन्दुत्व को धर्म नहीं, बल्कि जीवनशैली कहता है, लेकिन व्यवहार में मुस्लिम तुष्टीकरण, धर्मांतरण, गौहत्या, राम मंदिर, कॉमन सिविल कोड जैसे ठोस धार्मिक मुद्दों पर ही सक्रिय रहता है, जो साम्प्रदायिक तनाव, दंगे, आपसी मनमुटाव और विघटन का कारण हैं. संघ से जुड़े तमाम संगठन चाहे वह बजरंग दल हो, विश्व हिन्दू परिषद्, हिन्दू जागरण मंच या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् इन सभी पर मारपीट, दंगे, साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप लगते रहे हैं. बीते 90 सालों पर नजर डालें तो संघ की गतिविधियां खूनखराबे, चुनावों के वक्त धार्मिक ध्रुवीकरण और सम्प्रदायों के बीच नफरत फैलाने की रही है. संघ की एक और बड़ी मुश्किल यह है कि उसका इतिहास, उसके नेताओं की सोच और व्यवहार लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले आधुनिक भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान, कानून, अनूठी सांस्कृतिक विविधता और दिनों दिन बढ़ते पश्चिमी प्रभाव वाली जीवन शैली और समाज में बनते नये मूल्यों से बार-बार टकराते हैं. यह टकराव सवाल पैदा करते हैं. सवाल यह कि संघ का प्रमुख कोई दलित, ओबीसी या महिला क्यों नहीं बनी? क्या इसलिए कि यह ब्राह्मण वर्चस्व वाला सामंती संगठन है? अगर हां, तो क्या यह बहुलता और विविधता वाले समाज के लिए चिंता की बात नहीं है? क्या आने वाले समय में एक खास किस्म के संकीर्ण और रूढ़िवादी मनो-मस्तिष्क वाले लोग तैयार नहीं किये जाएंगे, जो चीजों को बहुत संकीर्ण और रूढ़िवादी नजरों से ही देखेंगे. क्या यह भारत में विकास की दृष्टि से बहुत बड़ा धक्का नहीं है?

मगर इन बातों की परवाह अब किसको है. पिछली बार तो भाजपा को नंगों-भूखों का वोट पाने के लिए विकास का चोला ओढ़ कर आना पड़ा था, अबकि बार इस चोले की भी जरूरत नहीं पड़ी. वह अपने नग्न रूप में सामने है. हिन्दुत्ववाद इस वक्त अपनी चरम पर है. जीत का सेहरा बांधे मोदी के पीछे संघ की बारात हर्षो-उल्लासित है. मोदी की ‘अभूतपूर्व’ जीत से संघ की छाती फूली हुई है. मोदी की राजनीतिक सफलता के साथ अब हिन्दू राष्ट्र की चाहत रखने वाले संघ का एजेंडा तेजी से आगे बढ़ेगा. मोदी के कंधे पर संघ ने बड़ी जिम्मेदारी डाली है. मोदी को सत्ता में बने रहना है तो संघ की आज्ञा को सिर झुका कर मानना है. इस जिम्मेदारी को पूरा करने की राह में अब जो भी आएगा, उसकी खैर नहीं. भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने के सपने के साकार होने की घड़ी आ चुकी है. हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य के लिए तमाम गतिविधियों में तेजी आ चुकी है. हिन्दुत्व का ठेका लेकर बैठी उच्च जातियां गौरवांवित हैं. अपने नामों के आगे लगे जाति-सूचक शब्दों को उच्च ध्वनियों के साथ उच्चारित करते हुए वे अब भारतीय समाज को और ज्यादा विभाजित करने में जुटेंगी, ताकि उनकी तानाशाही लम्बे समय तक बरकरार रह सके.

देश को बांटने का जिम्मेदार सिर्फ संघ नहीं है

देश में जातिगत राजनीति के लिए सिर्फ संघ को दोष देना ही ठीक नहीं है. देश को जातिगत आधार पर बांटने के लिए बड़ी राजनीतिक पार्टियों में – बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, अपना दल, शिवसेना, इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन, इंडियन नैशनल कांग्रेस जैसी तमाम पार्टियां जिम्मेदार हैं, जो जाति के आधार पर ही टिकट बांटती हैं, और चुनाव लड़ती हैं. इसलिए जाति की दीवारें नहीं टूटतीं. हर चुनाव के बाद यह दीवारें और ज्यादा मजबूत हो जाती हैं.

इंडियन नैशनल कांग्रेस की छवि कुछ सेक्युलर थी, मगर अबकी बार वह भी भाजपा और संघ के हिन्दुत्व से ऐसी प्रभावित हुई कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भी धोती, कुरता पहन कर, माथे पर बड़ा सा तिलक लगा कर, आरती की थाली हाथ में लेकर मन्दिर-मन्दिर अपने फोटो सेशन के लिए मजबूर होना पड़ा. ताकि वे अपने आपको एक उच्च जाति का पंडित प्रदर्शित कर सकें. राहुल गांधी मंदिर-मंदिर घूमने लगे. लोगों के लिए यह हैरान करने वाला था क्योंकि राहुल गांधी को इससे पहले कभी इस तरह मंदिर जाते नहीं देखा गया था. चुनावों के दौरान उन्होंने 27 बार मंदिरों का दौरा किया. जिस कांग्रेस पार्टी का इतिहास अल्पसंख्यकों, गरीबों, निम्न जातियों के उद्धार की बातों से भरा हुआ था, उसके नेता का अचानक नये चोले में दिखना क्या संघ के हिन्दुत्व के एजेंडे से डर कर अपने वोट बैंक को साधने की कोशिश नहीं थी? मजेदार बात तो यह रही कि सोमनाथ मंदिर में राहुल के गैरहिन्दू रजिस्टर पर नाम लिखे जाने की बात आते ही कोट के ऊपर से जनेऊ धारण किये राहुल के फोटो पेश किये गये. पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी संघ के हिन्दुत्व के एजेंडे को प्रसार देती दिखायी दीं. पूरे चुनाव प्रचार के दौरान वे हर जगह प्रचार से पहले मन्दिरों के दर्शन और पूर्जा-अर्चना करती नजर आयीं. जब धर्म और जाति के जहर से ये ‘होनहार’ न बच पाये तो आम जनता कैसे बच सकती है?

खून में मिला हुआ है जाति का जहर

तीस बरस पहले की एक घटना आज भी मुझे ज्यों की त्यों याद है. मैं लखनऊ से गर्मी की छुट्टियों में अपने ननिहाल गोरखपुर गयी हुई थी. उस दिन अपने ममेरे भाई के साथ खेतों में घूम रही थी. मेरी उम्र उस वक्त कोई तेरह-चौदह बरस की थी और भाई छह-सात साल का था. जून का तपता हुआ महीना था. खेतों में घूमते हुए हम काफी दूर निकल गये थे. दूसरे गांव में पहुंच गये थे. भाई को बहुत जोर से प्यास लगी थी. एक घर के आगे हैंडपम्प देख कर हम उधर पानी पीने के लिए लपके. तभी एक औरत चीखती हुई निकली, ‘रुको, रुको, कौन जात हो?’

मैं सकपका गयी. बोली – मुसलमान हैं. वह चीखी – दूर हटो. मैं गिड़गिड़ा कर भाई की ओर इशारा करके बोली – इसको बड़ी प्यास लगी है. उसने एक नजर बच्चे पर डाली और पास पड़े लोटे में हैंडपम्प से खुद पानी निकाल कर उसने बच्चे को इशारा किया तो छोटे भाई ने तुरंत चुल्लू बना कर अपना हाथ आगे बढ़ा दिया. उस औरत ने ऊपर से ही उसके हाथ में पानी गिराया, जिससे उसने अपनी प्यास बुझायी. गांव में रहने वाले उस मासूम के अन्दर उस छोटी सी उम्र में ही यह ‘नफरत’ पैदा कर दी गयी थी कि अलग धर्म-जाति के कारण वह उनके लिए अछूत है और उनके लोटे या हैंडपम्प को वह हाथ भी नहीं लगा सकता है. इस घटना ने मुझे हिला दिया. मुझे मेरे मां-बाप ने बचपन से सिखाया था कि प्यासे को पानी पिलाना सबाब का काम है. मगर इस तरह कोई अमृत भी पिलाये तो मैं क्यों पियूं? उस दिन भयानक प्यास के बावजूद मैं वहां पानी नहीं पी सकी.

कानपुर की रहने वाली हर्षाली कहती है, ‘मैं स्तब्ध थी, एक बार तो मेरे लिए यकीन करना मुश्किल था, जब मेरे आठ साल के बेटे ने मुझसे कहा कि उसकी कक्षा में दोस्ती सरनेम देखकर होती है.’ वह कहती है, ‘जब मैंने उससे विस्तार से पूरी बात पूछी तो वह बोला कि उसके स्कूल में विद्यार्थी एक सरनेम होने पर अपना अलग-अलग ग्रुप बना लेते हैं.’ हर्षाली व्यथित थी कि जब शहर के नामी पब्लिक स्कूल में यह हो रहा है तो अन्य जगहों पर क्या हालत होगी.

वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव अपने एक लेख में लिखते हैं – ‘मैं गाजीपुर जिले के एक इंटर कॉलेज में बच्चों को समाज में उनकी जगह बताने के लिए अपनाये जाने वाले कहीं अधिक रचनात्मक उपायों से परिचित था. एक ब्राह्मण टीचर अक्सर किसी दलित छात्र को खड़ा कर जनवरी-फरवरी के बाद वाले महीने का नाम पूछते थे. वह कहता था मार्च. वे पूछते, इसका उल्टा क्या होगा और सारी क्लास हंसने लगती थी. सबको पता था जो उल्टा है, वही उसकी सामाजिक हैसियत है.’

इस महादेश में लोगों की नसों में खून के साथ उनकी जातियां बहती हैं. कचहरी में वकील अपनी जाति का तय किया जाता है, ताकि दगा न दे. झोला छाप डॉक्टर भी अपना ही खोजा जाता है कि कमाई बिरादर की जेब में जाए. मुसलमान आदमी कहीं किराये का घर ढूंढता है तो कोशिश करता है कि उसी मोहल्ले में मिले, जहां उसकी बिरादरी की आबादी बसती हो. दूसरे से कितनी असुरक्षा महसूस करते हैं हम. वर्ष 2008 में थोराट कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस देश में 69 फीसदी अनुसूचित जाति, जनजाति के छात्रों को उसके शिक्षकों का सहयोग नहीं मिलता है. 72 फीसदी छात्र पढ़ाई के समय भेदभाव की बात मानते हैं. 84 फीसदी छात्रों ने प्रैक्टिल परीक्षा में नाइंसाफी की बात कबूल की है. हर तरफ असुरक्षा व्याप्त है. और लगातार बढ़ रही है. जाति सूचक शब्दों ने समाज को टुकड़े-टुकड़े में बांट दिया है. हम ‘मूर्खो की संतान’ अपने नाम के आगे से जाति का नाम नहीं हटा पाते हैं. समझने को तैयार ही नहीं होते हैं. जो पिलाया गया, पीते गये और अब अपने ही हाथों से, हर रोज, घूंट -घूंट अपने ही बच्चों को अलगाव का, भेद का, जाति का जहर पिला रहे हैं. सवर्ण अपने नाम के आगे जाति सूचक शब्दों को बड़े घमंड के साथ चिपकाये रखते हैं. इससे उनके स्वभाव में एक रोब पैदा होता है. यही रोब निम्न जातियों को डराता है, असुरक्षित बनाता है और उन्हें अपने दायरे में ही सिमटे रहने के लिए मजबूर करता है. आने वाले वक्त में यह स्थिति और बदतर होगी, इसमें कोई दोराय नहीं है.

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