लेखिका- नारायणी
वह आज पूरी तरह छुट्टी मनाने के मूड में था. सुबह देर से उठा, फिर धीरेधीरे चाय पीते हुए अखबार पढ़ता रहा था. अखबार पूरी तरह से चाटने के बाद उस का ध्यान घर में छाए सन्नाटे की तरफ गया. आज न पानी गिरने की आवाज, न बरतनों की खटरपटर, न झाड़ूपोंछे की सरसराहट, जबकि घर में कुल 2 छोटेछोटे कमरे हैं. वह एकाएक ही किसी आशंका से पीडि़त हो उठा. गंगा इतनी शांति से क्या कर रही है, वह उसे चौंकाने के विचार से ही नहीं उठा था.
बरामदे में पैर रखते ही वह सहम सा गया. गंगा वाशबेसिन के पास चुपचाप बैठी हुई थी और सामने रखी बोतल को ध्यान से देख रही थी.
‘‘गंगा, वह तेजाब की बोतल है,’’ उस ने आशंकित स्वर में कहा, ‘‘मैं बाथरूम साफ करने के लिए लाया था. काई जमी हुई है न, रोज तुम रगड़ती रहती हो. देखना, इसे जरा सा डाल कर रगड़ने से एकदम साफ हो जाएगा...किंतु तुम उसे नहीं छूना.’’
‘‘अच्छा,’’ उस ने कहा लेकिन अभी भी जैसे वह सोच में डूबी हुई थी.
‘‘क्या सोच रही हो, गंगा?’’ उस ने कंधा पकड़ कर उसे झकझोर दिया.
‘‘सोच रही हूं कि इस के लगाने से चेहरा बदल जाएगा, तब कोई
मुझे पहचान नहीं पाएगा, पहचान भी
ले तो...लेकिन तुम्हारी भावनाएं क्या होंगी?’’
‘‘मेरी भावनाओं का आदर करती हो तो अब से कभी यह विचार मन में न लाना.’’
‘‘पता नहीं क्यों, भय लगता है.’’
‘‘तुम भयभीत क्यों होती हो? मैं ने सबकुछ जानने के बाद ही तुम से विवाह किया है, हमारा विवाह कानूनसम्मत है, कोई हमें अलग नहीं कर सकता, समझीं.’’
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