लेखक -डा. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

कहीं दिखावे का स्वांग, कहीं डर से श्रद्धा, तो कहीं लकीर की फकीरी, कुल मिला कर यही हैं हम, हमारा समाज. जहां धर्मांधता के कारण पंडों, पुजारियों, पुरोहितों द्वारा पर्व, उत्सवों को भी नाना प्रकार के कर्मकांडों से जोड़ कर सत्य तथ्यों को नकारते हुए उन का मूलभूत आनंदमय स्वरूप नष्ट कर दिया गया, वहीं शुभ की लालसा और अनिष्ट की आशंका से उन के पालन को विवश साधारण जनमानस का भयभीत मन अंधविश्वासों में घिरता चला गया, क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रंथ भी इसी बात की पुरजोर वकालत करते हैं कि ईश्वर के बारे में धार्मिक कार्यों पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाना, बात नहीं मानी तो नष्ट हो जाओगे. ‘...अथचेत्त्वमहंकारात्त् नश्रोष्यसि विनंगक्ष्यसि.’ (भा. गीता श्लोक 18/58), बस चुपचाप पालन करते जाना है. किसी अधर्मी के आगे बोलना नहीं. ‘...न च मां यो अभ्यसूयति.’ (भा. गीता श्लोक 18/67) सब धर्मों को छोड़ कर हमारी शरण आ जाओ. अपने धर्म की ओर खींचने की रट कि मैं सब पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा.

सर्वधर्मान् परित्यज्य, माम एकं शरणं व्रज:।अहं त्वां सर्वपापेभ्योमोक्षयिष्यामि मा शुच:॥ (भा. गीताश्लोक 18/66).

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ये सब क्या है? भगवान है तो सर्वशक्तिमान होगा न? उसे सब से बताने की क्या आवश्यकता थी. फिर उन्होंने अपना वचन सारी भाषाओं में क्यों नहीं लिखवा दिया? कंप्यूटर सौफ्टवेयर के जैसे उन के पास तो सारा ज्ञानविज्ञान तो हमेशा से ही है, पत्रों, पत्थरों पर क्यों लिखवाया? जो उन्हें नहीं मानते उन के आगे ये गीता के भगवान वचन कहनेपढ़ने को क्यों मना किया, उन के वचन तो कानों में पड़ते ही उन्हें पवित्र बन जाना था. फिर मना क्यों किया गया? सीधी सी बात है, वे तर्क मांगते और इन के पास कोई जवाब न होता और ढोल की पोल खुल जाती, सत्य सामने आ जाता. सत्य तथ्यों को नकारना, बिना कारण जाने कुछ भी मान लेना, मनवाना यहीं से शुरू हो गया.

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