दिल्ली से तबादला हो कर जालंधर आना हुआ तो सहज सुखद एहसास से मनभर आया. अभय ने पुराने साथियों के बारे में बताया.

‘‘वे जो मेहरा साहब अहमदाबाद में थे न, अरे, वही जो अपनी बेटी को ‘मिस इंडिया’ बनाना चाहते थे…’’

‘‘गुप्ता साहब याद है, जिन के बच्चे बहुत गाली बकते थे. अंबाला में हमारे साथ थे…’’

‘‘जयपुर में थे. हमारे साथ, वह शर्माजी…’’

इस तरह के जाने कितने ही नाम अभय ने गिना दिए. 10 साल का समय और बीत चुका है, कौन क्या से क्या हो गया होगा. और होगा क्यों न जब मैं ही 10 साल में इतनी बदल गई हूं तो प्रकृति के नियम से वे सब कहां बच पाए होंगे.

10 साल पहले जब हम अहमदाबाद में थे तब एक मेहराजी हमारे साथ थे. उन की बेटी बहुत सुंदर थी. कदकाठी भी अच्छी थी. वह अपनी बेटी को बिलकुल मौड कपड़े पहनाते थे. इस बारे में आज से 10 साल पहले भी मेरी सोच वही थी जो आज है कि कदकाठी और रूपलावण्य तो प्रकृति की देन है. जिस रूप के होने न होने पर अपना कोई बस ही न हो उसी को ले कर इतनी स्पर्धा किसलिए? इनसान स्पर्धा भी करे तो उस गुण को ले कर जिस को विकसित करने में हमारा अपना भी कोई योगदान हो.

मैं किसी की विचारधारा को नकारती नहीं पर यह भी तो एक सत्य है न कि हम मध्यवर्गीय लोगों में एक ही तो एहसास जिंदा बच पाया है कि केवल हम ही हैं जो शायद लज्जा और शरम का लबादा ओढ़े बैठे हैं.

10 साल पहले जब मैं उन की बेटी को निकर और टीशर्ट में देखती थी तब अच्छा नहीं लगता था. 17-18 साल की सुंदर, सजीली, प्यारी सी बच्ची जब खुली टांगें, खुली बांहें लिए डोलती फिरेगी तो किसकिस की नजर को आप रोक पाओगे. अकसर जब हमारे संस्कार उस बच्ची को सलवारसूट पहनाना चाह रहे होते थे तब उस के मातापिता नजरों में गौरव लिए सिर उठा कर सब के चेहरे पर पता नहीं क्या पढ़ना चाहते थे.

‘‘शुभा, तुम तो पुराने जमाने की बातें करती हो. ग्लैमर और चकाचौंध की दुनिया में शोहरत और पैसा दोनों हैं. अगर हम ऐसा सोचते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’ अकसर श्रीमती मेहरा कह देतीं.

मेरी सोच मेरी है और उस का दायरा केवल मेरा घर, मेरी गृहस्थी और मेरा परिवार है. भला समय से पहले किसी को गलत या सही कहने का मुझे क्या अधिकार था जो मैं किसी पर कोई मोहर लगाती.

कुछ दिन घर को और खुद को व्यवस्थित करने में लग गए.

मेरे दोनों बच्चे पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनेअपने लिए अच्छी नौकरी की तलाश में थे सो अकसर कभी कहीं और कभी कहीं साक्षात्कार के लिए जाते रहते थे. एक शाम सोचा, क्यों न नजदीक के बाजार में जा कर थोड़ीबहुत घूम लूं. इस से पता तो चल ही जाएगा कि कहां क्या सामान मिलता है.

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तबादले की नौकरी वालों का कोई संबंध स्थायी नहीं रह पाता. किसी के प्रति संजोया स्नेह और अपनत्व मात्र यादों में सिमट जाता है या हमारे मन के किसी कोने में दुबक कर हमें कभी पुलकित करता है तो कभी रुलाता है.

दोस्ती द्वारा रोपित रिश्ते आधे भारत में बिखरे पड़े हैं. कहने को हर शहर अपना है, यादों में है लेकिन अब इस उम्र में जब बच्चों के अपनीअपनी दिशा में चले जाने के बाद हमें सुखदुख का साथी चाहिए तो हम खाली हाथ हैं. कभी चाहें भी किसी से बात करना तो किस से करें.

नजदीक में छोटी सी मार्केट की 20-25 दुकानों में जरूरत का सब सामान उपलब्ध था. सोचा अगर मार्केट मिल गई है तो कोई अच्छी सी सखी भी मिल ही जाएगी.मैं ने कुछ जरूरी सामान खरीदा और वापसी पर दुकानों के पीछे से निकली तो सामने दर्जी और ब्यूटी पार्लर की दुकान देख कर सोचा, चलो, अच्छा है यह भी यहीं हैं. तभी एकाएक टांगों में कुछ लिपट सा गया. किसी तरह खुद को संभाल कर देखा तो 3-4 साल का प्यारा सा बच्चा मेरी टांगों में लिपटा नानीनानी की गुहार लगाने लगा.

मैं ने आगेपीछे देखा, किस का होगा यह नन्हा सा रूई का गोले सा बच्चा. दुकानों के पीछे कोई घर भी नहीं था जहां से इस के आने की संभावना हो. सामने दर्जी की 2-3 दुकानें थीं और ब्यूटी पार्लर, कहीं वहीं से तो नहीं आया.

हाथ में खरीदे हुए सामान को किसी तरह संभाल कर मैं ने बच्चे का हाथ पकड़ा. शायद ब्यूटी पार्लर में आई किसी महिला का हो यह प्यारा सा बच्चा. यही सोच कर मैं ने किसी तरह उसे धीरेधीरे पैरों से चलाते हुए अपने साथ ब्यूटी पार्लर तक ले गई और दरवाजा खोल कर पूछा, ‘‘सुनिए, यह बच्चा आप का है क्या? बाहर भटक रहा था.’’

‘‘ओहो, यह फिर बाहर निकल गया. मोनू के बच्चे, मैं तेरी पिटाई कर दूंगी. काम करना मुश्किल हो गया है. मुंह से धागा खींचखींच कर किसी महिला की भवें संवारती युवती की आवाज आई, ‘‘कृपया इसे यहीं छोड़ दीजिएगा.’’

बच्चे को भीतर धकेल कर मैं ने दरवाजा बंद कर दिया लेकिन जो थोड़ी सी झलक मैं ने उस लड़की की देखी थी उस ने विचित्र सी जिज्ञासा मन में भर दी. इसे कहीं देखा सा लगता है.

एक दिन अभय बोले, ‘‘सुनो, तुम बता रही थीं न कि यहां मार्केट में एक ब्यूटी पार्लर भी है जहां वह प्यारा सा बच्चा देखा था. जरा जा कर बालों को रंगवा लो न, सफेदी बहुत ज्यादा झलकने लगी है.’’

‘‘क्यों, इस की क्या जरूरत है. चेहरे का ढलका मांस और काले बाल दोनों साथसाथ कितने बेतुके लगते हैं. क्या आप नहीं जानते… मुझे बाल काले नहीं कराने.’’

‘‘अरे बाबा, आजकल, कोई सफेद बालों वाला नजर नहीं आता. समझा करो न…’’

‘‘न आए, हम तो आएंगे न. जवान बच्चे अगलबगल खड़े हों तो क्या पता नहीं चलता कि हम 50 पार कर चुके हैं. फिर इस सत्य को छिपाने की क्या जरूरत है.’’

जब हम दिल्ली में थे तो मेहंदी लगे काले सुंदर बालों का एक किस्सा मैं आज भी भूली नहीं हूं. मेरी एक हमउम्र सखी जो पलपल खुद को जवान होना मानती थी, इसी बात पर कितने दिन सदमे में रही थी कि बेटे की उम्र का लड़का उसे लगातार छेड़ता रहा था. वह तो उसे बच्चा समझ कर नजरअंदाज करती रही थी, लेकिन एक शाम जब उस युवक ने हद पार कर दी तब सखी से रहा नहीं गया और बोली थी, ‘मेरे बेटे, तुम्हारी उम्र के हैं. शरम नहीं आई तुम्हें ऐसा कहते हुए. तुम्हारी मां की उम्र की हूं मैं.’

‘तो नजर भी तो आइए न मुझे मां की उम्र की. आप तो मेरी उम्र की लगती हैं. मुझ से गलती हो गई तो मेरा क्या कुसूर है.’

वह बेचारी तो झंझावात में थी और हम सुनने वाले न रो पा रहे थे और न ही हंसी आ रही थी. बच्चे तो सफेद बालों से ही उम्र का अंदाजा लगाएंगे न.

एक शाम मेहरा साहब के घर गए तब वास्तव में मिसेज मेहरा को देख कर यही लगा कि उन की उम्र तो वहीं की वहीं खड़ी है जहां आज से 10 साल पहले खड़ी थी.

‘‘अरे शुभा, कितनी बूढ़ी लगने लगी हो,’’ श्रीमती मेहरा ने कहा था.

‘‘बूढ़ी नहीं, बड़ी कहिए श्रीमती मेहरा,’’ और खिलखिला कर हंस पड़ी मैं. कंधों तक कटे बाल और उन पर सफेदी की जगह चमकता भूरा रंग, खुली बांहें और चुस्तदुरुस्त कपड़े. अभय की नजरें मुझ से टकराईं तो मुसकराने लगे, मानो कह रहे हों कि देखा न.

‘‘भई, मेरी बात छोडि़ए न कि मैं कैसी लगती हूं. आप बच्चों के बारे में बताइए कि बेटी क्या करती है और बेटा…’’

अभय और मेहराजी तो बातों में व्यस्त हो गए लेकिन श्रीमती मेहरा की बातों की सूई मेरी बड़ी उम्र पर आ कर रुक गई.

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‘‘नहीं शुभा, इस तरह हार मान लेना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि मैं ने हार मान ली है. हार तो वह मान रहे हैं जो उम्र का बढ़ना स्वीकार ही करना नहीं चाहते. अरे, यह शरीर जिसे हम सब 50 सालों से इस्तेमाल कर रहे हैं, धीरेधीरे कमजोर हो रहा है, इस सत्य को हम लोग मानना ही नहीं चाहते. भई, हम सब बड़़े हो गए हैं. इस सत्य को पूरी इज्जत और सम्मान के साथ हमें मानना चाहिए. बालों का सफेद होना शरम की नहीं गरिमा की बात है, ऐसा मेरा विचार है.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है कि मैं सत्य को झुठला रही हूं?’’ सदा की तरह अपनी ही बात को दबाना चाह रही थीं श्रीमती मेहरा. जिस पर सदा की तरह मैं ने भी झुंझलाना चाहा लेकिन किसी तरह खुद को रोक लिया.

‘‘अरे, छोड़ो भी श्रीमती मेहरा, हमारी बीत गई अब बच्चों की सोचो. बताओ न बच्चे क्या कर रहे हैं? आप की वह प्यारी सी बिटिया क्या कर रही है? अब तक उस की तो शादी भी हो गई होगी? बेटा क्या करता है?’’

मेरे सवालों का कोई ठोस उत्तर नहीं दिया श्रीमती मेहरा ने. बस, गोलमोल सा बता कर बहला दिया मुझे भी.

‘‘हां, ठीक हैं बच्चे. मिनी की शादी कर दी है. आशु भी अपना काम करता है.’’

घर चले आए हम. मुझे तो लगा वास्तव में श्रीमती मेहरा की उम्र रुकी ही नहीं, काफी पीछे लौट गई है. इस उम्र में भी वह स्वयं को 25-30 से ज्यादा का मानना नहीं चाहती रही थीं. बातों की धुरी को बस, अपने ही हावभाव और रूपसज्जा के इर्दगिर्द घुमाती रही थीं. जबकि इस उम्र में हमारी सोच पर बच्चों की चर्चा प्रभावी होनी चाहिए और वह अपना ही साजशृंगार कर रही थीं.

‘‘देखा न, श्रीमती मेहरा आज भी वैसी ही लगती हैं,’’ अभय बोले.

‘‘अरे भई, वैसी ही कहां, वह तो और भी छोटी हो गई हैं. लगता है बहुत मेहनत करती हैं अपनेआप पर.’’

‘‘हां, तभी तो आशु एक वर्कशाप में नौकरी करता है और मिनी भी यहीं कहीं किसी ब्यूटी पार्लर में काम करती है,’’ दुखी मन से अभय ने उत्तर दिया.

सहसा मुझे याद आया कि वह नन्हा सा बच्चा और वह काम करती लड़की… कहीं मिनी तो नहीं थी. मेहरा साहब ने बातोंबातों में अभय को सब बताया होगा जिस से वे काफी उदास थे.

‘‘शुभा, अपना बनावशृंगार बुरी बात नहीं है लेकिन जीवन में एक उचित तालमेल, एक उचित सामंजस्य होना बहुत जरूरी है. मिसेज मेहरा को ही देख लो. 50 की होने को आईं पर अभी भी एक किशोरी सी दिखने की उन की चाह कितनी छिछोरी सी लगती है. मिनी को शुरू से बस, सुंदर ही दिखना सिखाया उन्होंने, कोई भी और गुण विकसित नहीं होने दिया. न पढ़ाईलिखाई न कामकाज. नतीजा क्या निकला? यही न कि वह मिस इंडिया तो बन नहीं पाई और जो होना चाहिए था वह भी न हुई.

यही हाल आशु का है. वह भी ज्यादा पढ़लिख नहीं पाया. तो अब किसी मोटर वर्कशाप में काम करता है. ऐसा ही तो होता है. जिन मांबाप को आज तक अपने ही शौक पूरे करने से फुरसत नहीं वे बच्चों का कब और कैसे सोचेंगे.’’

कहतेकहते अभय चुप हो गए और मैं उन की बातें सुन कर असमंजस में रह गई. एकाएक फिर बोले, ‘‘बच्चों को कुछ बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है, शुभा. एक मध्यवर्गीय परिवार को तो बहुत ही ज्यादा. सच है, तुम ने अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से पाला है.’’

2 दिन के बाद फुरसत में मैं उसी ब्यूटी पार्लर में जा पहुंची. गौर से उस युवती को देखा तो लगा वही तो थी वह प्यारी सी बच्ची, मिनी.

‘‘आइए मैडम, क्या कराएंगी?’’ यह पूछते हुए उस युवती ने भी गौर से मेरा चेहरा देखा. सामने सोफे के एक किनारे पर उस का बच्चा सो रहा था.

‘‘मुझे पहचाना नहीं, बेटा, मैं शुभा आंटी हूं… याद है, हम अहमदाबाद में साथसाथ रहते थे. तुम मेहरा साहब की बेटी हो न… मिनी?’’

अवाक् सिर से ले कर पैर तक वह बारबार मुझे ही देख रही थी. तभी उस का बच्चा जाग गया. लपक कर उसे थपकने लगी ताकि वह एकाग्र मन से काम कर सके. शायद वह मुझे पहचान नहीं पा रही थी. उस का रूई सा गोरागोरा बच्चा जाग उठा था.

‘‘आजा बेटा, मेरे पास आ. अरे, मैं नानी हूं तुम्हारी,’’ ढेर सारा प्यार उमड़ आया था उस पर. मेरी अपनी बेटी होती तो शायद मैं भी अब तक नानी बन  चुकी होती.

पहले ही दिन इस बच्चे ने मुझे नानी मान लिया था न. बच्चा मेरी गोद में चला आया लेकिन मिनी जड़वतसी खड़ी रही.

‘‘बेटा, क्या मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं जो पहचान में ही नहीं आती?’’

उस का सकपकाया सा चेहरा बता रहा था कि मेरे सामने वह खुद को सामान्य नहीं कर पा रही थी. क्याक्या सपने थे मिनी के? भारत सुंदरी, विश्व सुंदरी के बाद सारे संसार पर छा जाने जैसा कुछ. तब मिनी के जमीन पर पैर कहां थे. उस का भी क्या दोष था? जिस आकार में उस की मां उसे ढाल रही थी उसी में तो मिनी की गीली मिट्टी ढल रही थी. बेचारी, न पढ़ती थी और न ही कोई अन्य काम सीखने की उस में ललक थी तब.

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उस का सत्य यही था कि भला एक सुपर माडल को हाथपैर गंदे करने की क्या जरूरत थी. हम सब के जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं जिन में हर पड़ाव का अपना ही सत्य होता है. उस  पल का सत्य वह था और आज का सत्य यह कि वही मिनी कुछ नहीं बन पाई और मुझ से यों नजरें चुरा रही थी जैसे मैं उस पर अभी यह प्रश्न दाग दूंगी कि क्या हुआ मिनी, तुम भारत सुंदरी बनना चाहती थीं तो बनी क्यों नहीं?

‘‘मैं शुभा आंटी हूं न, सौरभगौरव की मम्मी.’’

मिनी का स्वर तो नहीं फूटा पर मेरा हाथ उस ने कस कर पकड़ लिया. उस की आंखों में कितना कुछ तैरने लगा था. तभी उस की 2-3 महिला ग्राहक चली आईं और मैं अपने घर का पता उसे दे कर चली आई.

अगले दिन सुबह ही मिनी अपने बेटे को कंधे से लगाए मेरे सामने खड़ी थी.

लपक कर उस का सोया बच्चा मैं ने बिस्तर में सुला दिया और मिनी की बांह पकड़ कर सस्नेह सहला दिया तो मेरे कंधे से लग कर रो पड़ी मिनी.

मैं जानती थी कि मिनी के भीतर बहुत कुछ होगा जिसे वह मुझ से बांटना चाहती होगी क्योंकि 10 साल पुरानी हमारी मुलाकातों में विषय अकसर यही होता था. मैं कहा करती थी कि तुम्हें पढ़ाईलिखाई और दूसरे कामों में भी रुचि लेनी चाहिए. खूबसूरती कोई स्थायी विशेषता नहीं है जिसे कोई सारी उम्र भुना सके.

‘‘आप सच कहती थीं, आंटी,’’ मिनी मेरे कंधे से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने जीवन में कुछ भी नहीं बन पाई. मेरी खूबसूरती ने मुझे कहीं का नहीं रखा. अगर सुंदर न होती तो ही अच्छा होता.’’

‘‘जो बीत गया सो बीत गया. अब आगे का सोचो. तुम्हारे पति क्या काम करते हैं?’’

‘‘वह भी मेरी तरह ज्यादा  पढ़ेलिखे नहीं हैं. किसी जगह छोटी सी नौकरी करते हैं. हम दोनों काम न करें तो हमारा गुजारा नहीं चलता.’’

क्या कहती मैं. किसी के हालात बदल पाना भला मेरे हाथ में था क्या? मिनी का रोना ही सारी कथा का सार था.

‘‘आंटी, मैं ज्यादा पढ़ीलिखी होती तो किसी स्कूल में नौकरी कर लेती. ट्यूशन का काम भी मिल जाता. सिलाईकढ़ाई आती तो किसी बुटीक में काम मिल जाता. मुझे तो कुछ भी नहीं आता.’’

‘‘खूबसूरती संवारना तो आता है न पगली, जो काम कर रही हो उसी में तरक्की कर लो, क्या बुरा है? कुछ न आने से कुछ तो आना ज्यादा अच्छा है.’’

‘‘मम्मी से कहा था कि थोड़ी देर मोनू को संभाल लिया करें, मम्मी के पास समय ही नहीं है… मेरी मां ने मुझे यह कैसा जीवन दिया है, आंटी, कैसी शिक्षा दी है जिस से मैं अपनी गृहस्थी भी नहीं चला सकती.’’

‘‘मोनू के लिए अगर मैं ठीक लगती हूं तो बेशक इसे कुछ घंटे मेरे पास छोड़ जाया करो. तुम्हारे अंकल से बात करती हूं, बैंक से कर्ज ले कर तुम पतिपत्नी अगर छोटा सा काम खोल सको तो…’’

मैं नहीं जानती कि मिनी का भविष्य संवार पाऊंगी या नहीं क्योंकि भविष्य संवारना तो बचपन से ही शुरू किया जाता है न. अब पीछे लौटा नहीं जा सकता. आज तो मिनी की जरूरत

सिर्फ इतनी सी है कि कुछ समय के लिए उस का बच्चा कोई अपने पास रख लिया करे. अफसोस हो रहा है मुझे श्रीमती मेहरा की बुद्धि पर, कम से कम बच्ची का इतना सा साथ तो दे दें कि वह अपना गुजारा चलाने लायक कुछ कर सके.

इस उम्र में मुझे उन के चेहरे पर न बुढ़ापा नजर आया था और न ही संतान के अस्तव्यस्त जीवन के प्रति पैदा हुआ कोई दर्द या पश्चात्ताप. समझ नहीं पा रही हूं कि मेहरा जैसे दंपती किस सोच में जीते हैं, किस सत्य को अपना सत्य मानते हैं और सत्य उन का अपना सत्य होता भी है या नहीं. श्रीमती मेहरा जैसी औरतें न जवानी में बच्चों के लिए बड़प्पन का एहसास करती हैं और न ही बुढ़ापे में खुद को बड़ा मानने को तैयार होती हैं, न ही अच्छी मां बनना चाहती हैं और न ही नानी कहलाना उन्हें पसंद है.

‘‘मोनू को आप रख लेंगी तो बड़ा उपकार होगा, आंटी. सिर्फ 3-4 महीने के लिए. उस के बाद नर्सरी में डाल दूंगी. मोनू नानी कह सकता है न आप को?’’

आंखें भर आईं मेरी. उम्र के साथ कानों के परदे भी यह शब्द सुनना चाहते हैं, दादी, नानी.

‘‘हांहां क्यों नहीं, बेटी, मुझे तो इस से खुशी ही होगी. तुम चिंता न करो, समय एक समान नहीं रहता. सब ठीक हो जाएगा.’’

कुछ घंटे हर रोज के लिए एक प्यारा सा खिलौना मिल गया मुझे. इतवार को अभय के लिए मेहंदी घोलने लगी तो टोक दिया अभय ने, ‘‘रहने दो, शुभा, सफेद बाल अब अच्छे लगने लगे हैं. हर उम्र का अपना ही रंगरूप, अपना ही सत्य होता है और होना भी चाहिए.’’

अवाक् मैं अभय का चेहरा देखती रही. अभय अखबार के पन्ने पलटते रहे और मेरे होंठों पर मुसकान चली आई. अभय भी समझने लगे थे अपना सत्य.

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