व्यंग्य- डा. विष्णु विराट
चौधरी हरचरन दास के बुलाने पर हरिया फौरन हाजिर हो गया. चौधरी साहब निवाड़ के पलंग पर बैठे हुक्का पी रहे थे. चौपाल पर दीनू, बीसे, बांके, बालकिसन और जगदंबा परसाद भी बैठे गप्पें हांक रहे थे. हरिया ने नीची निगाहों से चौधरी साहब को हाजिरी दी. चौधरी साहब ने हुक्के की नली दांतों से पकड़ी और दाईं आंख को कुछ ज्यादा खोल कर हरिया की ओर देखा. हरिया ने जुहार की तो चौधरी साहब के होंठ थोड़े फैल कर पुन: सिकुड़ गए.
‘‘हुकम करो मालिक,’’ हरिया ने बुलाने का कारण जानना चाहा.
‘‘हुकम तो तुम करोगे हरीप्रसादजी, हम तो तुम्हारे गुलाम हैं,’’ चौधरी साहब ने हुक्के को मुंह में ठूंसे हुए ही जवाब दिया.
‘‘आप माईबाप हैं...हम तो गुलाम हैं, हजूर. कोई कुसूर हो गया, मालिक?’’ हरिया ने पिचकते पेट को जरा और अंदर खींच कर पूछा.
‘‘नहीं रे, कुसूर तो हम से हुआ है. हम ने तुम्हें काम दिया था न, उसी का इनाम मिला है हमें. तुम्हें रोटीरोजी दे कर जो अधर्म किया है उस का प्रायश्चित्त करना है हम को. सरकार बड़ी दयालु है रे हरिया. वह तुम जैसे सीधेसच्चे गरीबों को ऊंचा उठाना चाहती है और हम जैसे पापी, नीच लोगों की अक्ल दुरुस्त करना चाहती है.’’
हरिया खड़ाखड़ा थूक निगल रहा था. उस की समझ में आ गया था कि चौधरी साहब किसी बात पर गुस्सा हैं, लेकिन उस ने तो कुछ भी ऐसावैसा नहीं किया. कल दिन छिपने तक काम किया था. रामेसर के ससुरजी का सामान दिल्लीपुरा तक राजीखुशी पहुंचा दिया था. फिर क्या बात हो गई?