लेखक-पूनम

80 वर्षीय विमला शर्मा एक छोटे शहर में अकेली रहती हैं. रिटायर्ड टीचर हैं. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. समाज कल्याण के कामों में बढ़चढ़ कर हिस्सा भी लेती हैं. घंटों बैठ कर पूजापाठ करने वालों में से भी नहीं हैं. उन की बातों से कभी किसी धर्म, जाति का भेदभाव नहीं झलकता, पर रोजाना के व्यवहार में ब्राह्मण होने का, उच्च जाति होने का मिथ्या अभियान झलक ही जाता है. कुछ दिन पहले वे अस्वस्थ थीं. घर के काम के लिए उन्होंने जिस महिला को रखा है, वह छुट्टी पर गई थी जो अपनी जगह किसी मीना को (जो उन के हिसाब से छोटी जाति की थी) काम पर रखवा गई थी.

झाड़ूपोंछा, सफाई का काम तो उन्होंने मीना से करवा लिया पर जब मीना उन के लिए खाना बनाने लगी तो उन का ब्राह्मणत्व पूरी तरह जाग गया. अपनी जाति का अभिमान मीना का बनाया खाना खाने के लिए तैयार नहीं हुआ. खाने का मन नहीं है, कह कर उन्होंने उसे भेज दिया. कुछ ही दूरी पर स्थित होटल से खाना मंगा कर तब तक खाया जब तक खुद बनाने लायक नहीं हो गई. जल्द ही उन्होंने दूसरी मेड ढूंढ़ ली जो उन के जाति के पैमानों पर खरी उतरती थी.

दलितों का अपमान क्यों

यह एक विमलाजी की ही कहानी नहीं है, हर घर में आप को विमलाजी मिल जाएंगी. विमलाजी की बेटी नीला जो पास के ही दूसरे शहर में शहती है, उस की भी वही मानसिकता है जो विमलाजी की है और क्यों न हो, हम कितना भी पढ़लिख जाएं, कितना भी मौडर्न हो जाएं, हमारे खून में, हमारे संस्कारों में यही तो भर दिया जाता है कि यदि हम उच्च जाति के हैं तो छोटी जाति या कोई दलित हमारे सामने सम्मान के लायक है ही नहीं. चाहे वह कितना ही गुणी क्यों न हो, चाहे किसी मीना का स्वभाव नीला से बेहतर ही क्यों न हो.

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