‘‘सर, मैं सस्पैंड होना चाहता हूं,’’ कर्मचारी ने अपनी हार्दिक इच्छा तब जाहिर की जब साहब अपने दफ्तर की फाइलों में मग्न थे. ऐसी स्थिति से निबटने, यानी फाइलों से बिना नजर हटाए उन के मुंह से आदतन जो निकलता था, वही हुआ, ‘‘ठीक है, मैं देख लूंगा, तुम दरख्वास्त दे दो.’’
‘‘दरख्वास्त दे दो?’’ साहब की ऐसी राय को सुन कर प्रार्थी कुछ पल को हक्काबक्का रह गया. फिर उन की समझदारी पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए उन्हें झकझोरा, ‘‘सर, मैं सस्पैंड होना चाहता हूं और आप हैं कि दरख्वास्त देने की कह रहे हैं? भला सस्पैंड होने के लिए भी दरख्वास्त देनी पड़ती है?’’
‘‘क्या कहा?’’
‘‘जी हां. मैं ने वही कहा जो आप ने सुना. फिर कह रहा हूं, निलंबित होना चाहता हूं मैं,’’ कर्मचारी ने अपनी आवाज बुलंद की.
उस की बात से साहब को यकीन होने लगा कि कर्मचा के सिर पर सस्पैंड होने का जनून सवार है.
‘‘आप की इच्छा पूरी हो...लेकिन जरा मैं भी तो सुनूं कि आप को यह शौक चर्राया क्यों?’’ साहब ने व्यंग्य छोड़ा.
‘‘सवाल इज्जत का है, सर. मौखिक निवेदन इसीलिए कर रहा हूं,’’ गर्व से इठलाते हुए कर्मचारी ने बताया.
‘‘इज्जत का? सस्पैंड होना भी इज्जत का सवाल हो सकता है?’’ साहब ने चुटकी ली, ‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि आप का दिल सरकारी कामकाज से भर गया हो, जो सस्पैंड होना चाहते हो?’’
‘‘भर कैसे सकता है? आप ने तो मुझे कोई काम दिया ही नहीं है...फिर भरेगा कैसे?’’ कर्मचारी ने बड़ी सहजता से कहा.
‘‘तब तो मालगुजारी होगी ही आप की?’’ मंदमंद मुसकराते हुए साहब ने फिर कटाक्ष किया.
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