रूपाली के पांव जमीन पर कहां पड़ रहे थे. आज उसे ऐसा लग रहा था मानो सारी खुशियां उस की झोली में आ गिरी थीं. स्कूलकालेज में रूपाली को बहुत मेधावी छात्रा नहीं समझा जाता था. इंजीनियरिंग में दाखिला भी उसे इसलिए मिल गया क्योंकि वहां छात्राओं के लिए आरक्षण का प्रावधान था. हां, दाखिला मिलने के बाद रूपाली ने पढ़ाई में अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी. अंतिम वर्ष आतेआते उस की गिनती मेधावी छात्रों में होने लगी थी.
कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस चयन के दौरान अमेरिका की एक मल्टीनैशनल कंपनी ने उसे चुन लिया तो उस के हर्ष की सीमा न रही. कंपनी ने उसे प्रशिक्षण के लिए अमेरिका के अटलांटा स्थित अपने कार्यालय भेजा. वहां से प्रशिक्षण ले कर लौटने पर रूपाली को कंपनी ने उसी शहर में स्थित अपने कार्यालय में ही नियुक्त कर दिया. आसपास की कंपनियों में उस के कई मित्र व सहेलियां काम करते थे. कुछ ही दिनों बाद रूपाली का घनिष्ठ मित्र प्रद्योत भी उसी कंपनी में नियुक्ति पा कर आ गया तो उसे लगा कि जीवन में और कोई चाह रह ही नहीं गई है. 23 वर्ष की आयु में 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष का वेतन तथा अन्य सुविधाएं. प्रद्योत जैसा मित्र तथा मित्रों व संबंधियों द्वारा प्रशंसा की झड़ी. ऐसे में रूपाली के मातापिता भी कुछ कहने से पहले कई बार सोचते थे.
‘‘हमारी रूपाली तो बेटे से बढ़ कर है. पता नहीं लोग क्यों बेटी के जन्म पर आंसू बहाते हैं,’’ पिता गर्वपूर्ण स्वर में रूपाली की गौरवगाथा सुनाते हुए कहते. कंपनी 8 लाख रुपए सालाना वेतन देती थी तो काम भी जम कर लेती थी. रूपाली 7 बजे घर से निकलती तो घर लौटने में रात के 10 बज जाते थे. सप्ताहांत अगले सप्ताह की तैयारी में बीत जाता. फिर भी रूपाली और प्रद्योत सप्ताह में एक बार मिलने का समय निकाल ही लेते थे. मां वीणा और पिता मनोहर लाल को रूपाली व प्रद्योत के प्रेम संबंध की भनक लग चुकी थी. इसलिए उन्हें दिनरात यही चिंता सताती रहती थी कि कहीं ऐसा न हो कि कोई कुपात्र लड़का उन की कमाऊ बेटी को ले उड़े और वे देखते ही रह जाएं.