एक दौर था जब जावेद अख्तर के दिन मुश्किल में गुजर रहे थे. ऐसे में उन्होंने मशहूर गीतकार साहिर लुधियानवी से मदद लेने का फैसला किया. जावेद ने उन्हें फोन किया और वक्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे.
उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल है, उदास हो?” जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल में चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं. उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा.
जावेद अख्तर की मानें तो साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे. जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे. उस वक्त भी उन्होंने वही किया. कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज में बोले, “जरूर नौजवान, फकीर देखेगा क्या कर सकता है”
फिर पास रखी मेज की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखे हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख्तर ने देखा तो मेज पर दो सौ रुपए रखे हुए थे.
जावेद बताते हैं कि साहिर को लगा कि अगर वह ये पैसे उनके हाथ में देते तो मुझे बुरा लगता इसलिए उन्होंने दो सौ रुपये मेज पर रख दिए. ये उनका मयार था कि पैसे देते वक्त भी वो जावेद से नजर नहीं मिला रहे थे.
साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के.
अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलाग्स वगैरह पर चर्चा करते. इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब, आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं” साहिर मुस्कुराते. साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा.
साहिर और जावेद अख्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक्त गुजरता रहा और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख आई 25 अक्टूबर 1980 की. वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डाक्टर, डा कपूर का काल आया. उनकी आवाज में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था. उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे. हार्ट अटैक हुआ था. जावेद अख्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था.
वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था. वो बताते हैं कि वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी आर चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे.
मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे.
जूहू कब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतजाम किया गया. वो सुबह-सुबह का वक्त था, रातभर के इंतजार के बाद साहिर को सुबह सुपर्दे खाक किया जाना था. ये वही कब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की कब्रें हैं.
साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफ्न किया गया. साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए लेकिन जावेद अख्तर काफी देर तक कब्र के पास ही बैठे रहे.
काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे. वो जूहू कब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज दी. जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक साहब थे.
अशफाक उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था. अशफाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही खबर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे. उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़ें हैं क्या? वो कब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाजी में ऐसे ही आ गया”, जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, ‘हां-हां, कितने रुपए देने हैं’ उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए”.