लेखक- सरस्वती रमेश
बचपन में अकसर एक कथा मां सुनाया करती थीं. एक सती स्त्री के पति को कोढ़ हो गया था. सती अपने पति को टोकरी में बैठा कर नदी के किनारे नहलाने जाया करती थी. एक दिन वहीं नदी किनारे एक वेश्या नहा रही थी. कोढ़ी को वेश्या से प्रेम हो गया. उस के बाद से कोढ़ी उदास रहने लगा. जब पत्नी ने उस की उदासी का कारण पूछा तो कोढ़ी ने उसे सबकुछ बता दिया. पत्नी ने पति को धैर्य बंधाया और उस की मदद करने का आश्वासन दिया.
उस के बाद प्रतिदिन भोर में उठ कर सती स्त्री वेश्या के घर में चुपके से प्रवेश कर उस के सारे कामकाज कर लौट आती थी. वेश्या हैरान कि कौन उस के घर के सारे काम करता है. एक दिन वेश्या ने सती स्त्री को पकड़ लिया और कारण पूछा.
जब स्त्री ने उसे अपने पति के प्रेम के बारे में बताया तो वेश्या ने उसे लाने को कहा. स्त्री खुशीखुशी घर गई. अपने पति को समाचार सुनाया. पति के लिए नए वस्त्र निकाले और उसे नहलाधुला कर वेश्या के घर ले जाने के लिए नदी की ओर चल पड़ी. रास्ते में कुछ क्षण के लिए टोकरी वहीं पेड़ के नीचे उतार वह सुस्ताने लगी. उस के पति की कोढ़ी देह से दुर्गंध उठ रही थी. वहीं से कुछ साधुसंत गुजर रहे थे. साधुओं से दुर्गंध बरदाश्त नहीं हुई तो उन्होंने शाप दिया कि जिस भी जीव से यह दुर्गंध उठ रही है वह सूर्यास्त के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो. सती ने उन की वाणी सुन ली और फिर सूर्य की ओर आंखें कर कहा, ‘‘देखती हूं मेरी इच्छा के विरुद्ध सूर्य कैसे अस्त होता है.’’