पिछला भाग- रागविराग: भाग-2

लोगों ने उसे समझाया कि शुरू से ही केयरिंग रहे तो जच्चाबच्चा ठीक रहते हैं, पर शालिनी भीतर से ही सहम गई थी. जब भी सुभाष उसे अंतरंग क्षणों में प्यार में बांधता उस का चेहरा पथरा सा जाता.

‘‘यह क्या हो जाता है, यार तुम्हें?’’ वह चौंक जाता. पर शालिनी जानती थी, कहीं कुछ है, जो भीतर से उसे सालता है.

फिर कभी वह सत्संग आश्रम नहीं गई. सुभाष बारबार कहता कि वहां अच्छे प्रवचन होते हैं, तुम भी चला करो. पर वह यह कह कर मना कर देती कि घर में बहुत काम है, नहीं जाना.

आज जब बेटी सुलभा ने कहा कि मैं तो शाम तक आऊंगी, पास में ही सत्संग आश्रम है, अच्छा पुस्तकालय भी है आप उधर हो आना, तो वह भी दोपहर में तैयार हो कर उधर आ गई.

घने वृक्षों के बीच वह आश्रम था. उस के भव्य भवन के दाहिनी ओर संत महात्माओं की मूर्तियां लगी हुई थीं ओर बायीं तरफ कार्यालय था. भीतर जाते ही बड़े से आंगन में यह भवन खुलता था. सामने बरामदे से अंदर कक्ष में कृष्ण की विशालकाय प्रतिमा थी, जहां भक्तगण नृत्य कर रहे थे. भोग लग चुका था, शयन की तैयारी थी, शाम को फिर दर्शन के लिए खुलना था.

तभी उस की निगाहें सामने लगे बोर्ड पर गईं. उस में विशाल सत्संग होने की सूचना थी. पूछने पर पता चला कि स्वामीजी महाराज संध्या को ही प्रवचन देते हैं. उस ने काउंटर पर बात की तो पता लगा कि सुनने के लिए पहले अनुमति लेनी पड़ती है.

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