पूजा अर्चना, कर्मकांड आदि प्रथायें आम आदमी के जीवन से इस तरह से जुड़ी हैं कि मरने के बाद भी उसका पीछा नहीं छोड़ती हैं. हिन्दू धर्म में मनुष्य के मरने के बाद तीसरे, दसवें, बारहवें, तेरहवें दिन पर ब्राह्मणों के हाथ से पिंडदान करने और उन्हें दान धर्म करने की प्रथा है. लेकिन आजकल ये प्रथाएं कमाई का धंधा बन चुकी हैं. इसी धंधे पर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता ‘दशक्रिया’ फिल्म के जरिये टिप्पणी की गई है. यह फिल्म उपन्यासकार बाबा भांड द्वारा लिखित ‘दशक्रिया’ नामक उपन्यास पर आधारित है.
गोदावरी नदी के तट पर बसे पैठण शहर के नाथ घाट पर दशक्रिया विधि करने के लिए महाराष्ट्र के विविध भागों से लोग आते हैं. इस शहर में रहने वाले ज्यादातर ब्राह्मणों का रोजगार दशक्रिया विधि कराना है. केशव भट्ट (मनोज जोशी) ऐसा ही एक ब्राह्मण है. वह वहां आने वाले सभी ग्राहकों को बड़े चतुराई से अपनी ओर कर लेता है और मनमानी ढंग से दक्षिणा मांगता है. नारायण (मिलिंद फाटक) एक गरीब ब्राह्मण है. शिक्षक की नौकरी छूटने के बाद वो भी दशक्रिया कराने की शुरुआत करता है. लेकिन केशव उसे एक भी ग्राहक मिलने नहीं देता है. इस वजह से केशव और नारायण के बीच विवाद शुरू हो जाता है.
इस विवाद को सुलझाने के लिए पत्रे सावकार (दिलीप प्रभावलकर) पंचायत बुलाते हैं, लेकिन पंचायत में मारामारी के अलावा कुछ नहीं होता है. सावकार केशव को मनमानी ढंग से पैसा कमाने का यह धंधा बंद करने के लिए समझाते है, जिसके वजह से केशव उससे नफरत करने लगता है.
केशव एक किरवंत ब्राह्मण है जो मृत्यु के बाद की जाने वाली सभी विधि पूरी करता है और ग्राहकों को धर्म के नाम पर लूटता है. इसलिए गुढीपाडवा के दिन सावकार केशव को पूजा नहीं करने देते है. इससे अपमानित होकर केशव सावकार को सबक सिखाने की ठान लेता है. एक किरवंत ब्राह्मण होने के नाते नारायण भी खुद को अपमानित समझता है और केशव का साथ देता है.