शाम 7 बजे जब फोन की घंटी बजी तब ड्राइंगरूम में अलका, उस की मां गायत्री और पिता ज्ञानप्रकाश उपस्थित थे. फोन पर वार्तालाप अलका ने किया.

अलका की ‘हैलो’ के जवाब में दूसरी तरफ से भारी एवं कठोर स्वर में किसी पुरुष ने कहा, ‘‘मुझे अलका से बात करनी है.’’

‘‘मैं अलका ही बोल रही हूं. आप कौन?’’

‘‘मैं कौन हूं इस झंझट में न पड़ कर तुम उसे ध्यान से सुनो जो मैं तुम से कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहना चाहते हैं आप?’’

‘‘यही कि अपने पतिदेव को तुम फौरन नेक राह पर चलने की सलाह दो, नहीं तो खून कर दूंगा मैं उस का.’’

‘‘ये क्या बकवास कर रहे हो.’’

‘‘मैं बकवास न कर के तुम्हें चेतावनी दे रहा हूं. अलका मैडम,’’ बोलने वाले की आवाज क्रूर हो उठी, ‘‘अगर तुम्हारे पति राजीव ने फौरन मेरे दिल की रानी कविता पर डोरे डालने बंद नहीं किए तो जल्दी ही उस की लाश को चीलकौवे खा रहे होंगे.’’

‘‘ये कविता कौन है मैं नहीं जानती... और न ही मेरे पति का किसी से इश्क का चक्कर चल रहा है. आप को जरूर कोई गलतफहमी...’’

‘‘शंकर उस्ताद को कोई गलतफहमी कभी नहीं होती. मैं ने पूरी छानबीन कर के ही तुम्हें फोन किया है. अगर तुम अपने आप को विधवा की पोशाक में नहीं देखना चाहती हो तो उस मजनू की औलाद राजीव से कहो कि वह मेरी जान कविता के साए से भी दूर रहे.’’

अलका कुछ और बोल पाती इस से पहले ही फोन कट गया.

अपने मातापिता के पूछने पर अलका ने घबराई आवाज में वार्तालाप का ब्योरा उन्हें सुनाया.

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