‘‘महेश... अब उठ भी जाओ... यूनिवर्सिटी नहीं जाना है क्या?’’ दीपक ने पूछा.
‘‘उठ रहा हूं...’’ इतना कह कर महेश फिर से करवट बदल कर सो गया.
दीपक अखबार को एक तरफ फेंकते हुए तेजी से बढ़ा और महेश को तकरीबन झकझोरते हुए चीख पड़ा, ‘‘यार, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है... रातभर क्या करते रहते हो...’’
‘‘ठीक है दीपक भाई, आप नाश्ता तैयार करो, तब तक मैं तैयार होता हूं,’’ महेश अंगड़ाई लेता हुआ बोला और जल्दी से बाथरूम की तरफ लपका.
आधा घंटे के अंदर ही दीपक ने नाश्ता तैयार कर लिया. महेश भी फ्रैश हो कर तैयार था.
‘‘यार दीपू, जल्दी से नाश्ता कर के क्लास के लिए चलो.’’
‘‘हां, मेरी वजह से ही देर हो रही है जैसे,’’ दीपक ने तंज मारा.
दीपक की झल्लाहट देख महेश को हंसी आ गई.
‘‘अच्छा ठीक है... कोई खास खबर,’’ महेश ने दीपक की तरफ सवाल उछाला.
दीपक ने कहा, ‘‘अब नेता लोग दलितों के घरों में जा कर भोजन करने लगे हैं.’’
‘‘क्या बोल रहा है यार... क्या यह सच?है...’’
‘‘जी हां, यह बिलकुल सच है,’’ कह कर दीपक लंबी सांस छोड़ते हुए खामोश हो गया, मानो यादों के झरोखों में जाने लगा हो. कमरे में एक अनजानी सी खामोशी पसर गई.
‘‘नाश्ता जल्दी खत्म करो,’’ कह कर महेश ने शांति भंग की.
अब नेताओं के बीच दलितों के घरों में भोजन करने के लिए रिकौर्ड बनाए जाने लगे हैं. वक्तवक्त की बात है. पहले दलितों के घर भोजन करना तो दूर की बात थी, उन को सुबह देखने से ही सारा दिन मनहूस हो जाता था. लेकिन राजनीति बड़ेबड़ों को घुटनों पर झुका देती है.
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