कुरुक्षेत्र हरियाणा प्रांत का एक जिला है, जिसे तीर्थस्थान का दर्जा भी प्राप्त है. ऐसा माना जाता है कि यहां महाभारत का धर्मयुद्ध हुआ था. अब युद्ध को भी धर्म से जोड़ देना हिंदुओं का ही कौशल है. बहरहाल, इस लेख में मुद्दा यह नहीं है. मैं तो उस अजूबे की बात कर रहा हूं, जो मैं ने कुरुक्षेत्र की यात्रा में देखा. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुरुक्षेत्र के लिए रात 8 बजे के करीब ट्रेन पकड़ी. डब्बा खचाखच भरा हुआ था.

अचानक मुझे बोगी के अंदर कीर्तन की आवाजें सुनाई देने लगीं. देखा तो 8-10 लोग डफली, खड़ताल, मजीरा और तालियां पीटपीट कर कीर्तन कर रहे थे. ‘हरेराम हरेराम रामराम हरेहरे, हरेकृष्ण हरेकृष्ण, कृष्णकृष्ण हरेहरे’ का शोर यात्रा की थकान को और बोझिल बना रहा था. लेकिन कीर्तन करने वाले तो आम आदमी के मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझते हैं. कीर्तन शुरू हुआ तो गाड़ी में बैठे यात्री भी स्वर में स्वर मिला कर झूमने लगे. कोई 40 मिनट तक यह कीर्तन चलता रहा.

यह अजूबा यहीं खत्म नहीं हो गया. इस के बाद कीर्तन मंडली ने आरती शुरू कर दी. इन के पास लकड़ी के एक छोटे से फ्रेम में मंदिर था. घी और दीपक का भी इंतजाम था. ट्रेन के डब्बे में ही आरती हुई और फिर आरती थाली में रख कर सभी के पास पहुंचाई गई.

यह हम सब जानते हैं कि जलते हुए दीपक की लौ का हाथ से स्पर्श कर सिर पर लगाने की क्रिया को ‘आरती लेना’ कहा जाता है. यह भी लोगों के दिलों में बैठा हुआ एक डर है कि वे अगर खाली आरती लेंगे, तो यह अधर्म होगा और इस वजह से भगवान नाराज भी हो सकते हैं. इसलिए शायद ही कोई ऐसा हिंदू होगा, जो आरती के सामने आ जाने पर थाली में कुछ न चढ़ाए.

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