विश्व में जब भी कोई आपदा या महामारी आती है, तो लोग उससे जूझते हैं, लड़ते हैं और फिर उससे पार पाकर बाहर आते हैं.  पर उसका दुष्प्रभाव सदियों तक रहता है, खासकर मनुष्य के शरीर पर और उससे ज्यादा मन पर.

ठीक वैसे ही जैसे आज हम कोरोना से लड़ रहे हैं. कल को इस महामारी की वैक्सीन बनने और उचित स्वास्थ विज्ञान के होने से हम निश्चित ही इस पर विजय प्राप्त कर लेंगे, पर इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव से हम कब और कैसे उबरेंगे, यह कह पाना फिलहाल तो बहुत ही कठिन है.

जहां आज इस वैश्विक बीमारी ने लाखों लोगों को प्रभावित किया है, वहीं मौत का आंकड़ा भी कम नहीं है. एक और जहां इससे पुरुष, स्त्रियां, बच्चे सभी प्रभावित हो रहे हैं, पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव महिलाओं पर खासकर नौकरीपेशा महिलाओं पर अलग ही तरीके से पड़ रहा है. एकदम अदृश्य कोरोना वायरस की तरह.

यह डर बेवजह नहीं है. यूएन वीमेन एशिया पैसिफिक का मानना है कि आपदाएं हमेशा जेंडर इनइक्वालिटी को और भी खराब कर देती हैं. एक महिला के लिए तो यह एक दोहरी नहीं, बल्कि तिहरी जिम्मेदारी सी आई है. घर की जिम्मेदारियां, ऑफिस की जिम्मेदारीयां, और अब कोविड 19 संग आईं नई जिम्मेदारियों के संग तालमेल बिठाना अपने आप में जैसे एक सुपर स्पेशिएलिटी ही है.

स्कूलबंदी का तनाव

एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में सिर्फ प्राथमिक कक्षाओं में जाने लायक 5.88 करोड़ लड़कियां और 6.37 करोड़ लड़के हैं. लगभग हर घर में स्कूल जाते बच्चों के अनुसार ही घर के कामों की रूटीन बैठाई जाती है.अचानक ही कोरोना के कारण हुए इस स्कूलबंदी ने सामंजस्य घटक का कार्य किया है.

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अब सोचिए कि उन महिलाओं का क्या जिन्होंने बच्चों के स्कूल के हिसाब से घर के कार्यो को सेट किआ था? अब वही बच्चे न तो स्कूल ही जा पा रहे हैं, न ही कोचिंग, खेल के मैदान और पार्क की तो बात ही छोड़ दो. यहां तक कि बच्चो की संख्या अगर 2 या 2 से अधिक है तो घर को अखाड़ा बनते भी देर नही लगती. यह सिरदर्दी उन घरों में और ज्यादा बढ़ गई है जहां महिलाएं नौकरीपेशा हैं. नौकरी के साथ साथ बच्चों का मेलोड्रामा, उनके अपने साइकोलॉजिकल ट्रॉमा, बड़े बच्चो में पढ़ाई का प्रेशर और छोटे बच्चों की ऑनलाइन क्लासेज… कामकाजी महिलाओं में तनाव बढ़ाने का आसान रास्ता.

गौर करने की बात है कि एक 5 वर्षीय बच्चे की मम्मी को कितनी मशक्कत करनी पड़ती होगी उसकी एलकेजी क्लास के लिए… ऑनलाइन स्क्रीन के सामने बिठाना, पढ़ाई करवाना और साथ ही साथ अपने दूसरे जरूरी काम भी करना.

वर्क फ्रॉम होम- समस्या या समाधान

वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 27 प्रतिशत महिलाओं नौकरी करती हैं. इस कम आंकड़े की एक महत्वपूर्ण वजह घर में इसके अनुकूल वातावरण का न होना भी है. आज कोविड 19 से कारण बहुत सारी कंपनियों ने सितंबर महीने तक वर्क फ्रॉम होम दे रखा. घर में माहौल का न होना, घरेलू कार्य और बच्चे सब मिलकर इस सुविधा को असहज करते हैं.

टीसीएस में कार्यरत एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर का कहना है कि बच्चों की धमाचौकड़ी की वजह से घर में ऑफिस के काम के प्रति एकाग्रता नहीं बन पा रही है जिस से काम में रुकावट पैदा हो रही है. कई बार तो उनके सोने के बाद काम करना पड़ता है जो बहुत ही थकाऊ प्रोसेस है.

आप जैसे ही काम करने के लिए बैठते हैं, बच्चो की फरमाइशों की लिस्ट आ जाती है. आप उन्हें पूरा करते हैं, तबतक वर्क फ्रंट से अलग ही प्रेशर बन चुका होता है.कई बार तो ऐसा होता है कि आपकी एक इम्पोर्टेन्ट क्लाइंट मीटिंग की वी सी चल रही होती और आपके बच्चे बीच में आकर अपनी शरारतें करने लगते हैं या कभी कभी आपस में ही इस कदर गुत्थमगुत्था हो जाते हैं कि आपको तब कैमरा ऑफ के साथ मीटिंग म्यूट करनी पड़ती है और उनके झगड़े सुलझाने होते हैं.वापस मीटिंग में आने के बाद आपके व्यवहार में चिड़चिड़ाहट आना भी स्वभाविक हो जाता है और एक अच्छी खासी मीटिंग का सत्यानाश हो जाता है.

घरेलू हिंसा की भयावता

कोरोना के कारण उपजे अवसाद और आर्थिक तंगी ने एक ऐसा कॉकटेल बना दिया है जो घरेलू हिंसा को बढ़ावा दे रहा है. यहां तक कि मुम्बई हाईकोर्ट भी इस बात को स्वीकारता है कि कोरोना काल के इस दौर में घरेलू हिंसा के मामले भी अपने आप मे एक रिकॉर्ड बना रहे हैं खासकर भारत जैसे विकासशील देश में जो कि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के अनुसार महिलाओं की सहभागिता (अर्थोपार्जन में) के अनुसार विश्व के 130 देशों के आगे 120वीं रैंक पर है.

कोविड 19 ने दुनिया का आयाम ही बदल दिया है. वर्क फ्रंट में काम की तंगी, व्यवसायों का ठप्प होना, करोड़ों अरबों रुपयों का नुकसान होना एक अवसाद तो उत्पन्न कर ही रहा है ऊपर से भविष्य की चिंता अलग ही विकराल रूप ले रही है और इन सबका एकमात्र शिकार होती हैं घर की महिलाएं जिन पर सारे तनाव घरेलू हिंसा के रूप में बेवजह रिलीज किए जाते हैं.

ऑफिस का तनाव

अब जबकि लोकडाउन तकरीबन खत्म हो चुका है, बहुत सारे कार्यलय खुल चुके हैं और लोगों को  ऑफिस बुलाया जाने लगा है, ऐसे वक्त में हॉउस हैल्पर का न होना (इसमें रिवर्स माइग्रेशन का भी एक अहम योगदान है), स्कूल और क्रेशेज का न खुलना जैसी समस्याएं और भी मुश्किलें पैदा कर रही हैं. ऐसे में महिलाओं का जॉब खोना और कई बार पूरी तल्लीनता से काम न कर पाने की वजह से वेतन कटौती का भी सामना करना पड़ रहा है.

ऐसी ही एक सिंगल मदर हैं जो एक मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी पोजिशन पर हैं. उनका 6 साल का बच्चा है. पहले जहां बच्चे को स्कूल छोड़ने के बाद वे ऑफिस आती थीं, स्कूल के बाद बच्चा वहीं क्रेश में उनके ऑफिस से लौटने तक रहता था. कोविड के कारण अब यह संभव नही है.घर पर फिर भी कुछ मुश्किलों से ही सही पर बच्चे की देखरेख के साथ ऑफिस का काम हो पाता था, पर चूंकि अब औफिस जाना ही है और स्कूल और क्रेश बंद हैं, तो यह एक अलग ही समस्या सामने खड़ी हो गई है.

फ्रंटलाइन वर्कर्स

वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के अनुसार स्वास्थ्य विभाग में 70 प्रतिशत सहभागिता महिलाओं की है. घर की दोहरी जिम्मेदारी तो उन्हें परेशान करती ही है, ऊपर से कार्यस्थल की परेशानियां अलग ही होती हैं. कितनी ही जगहों पर तो महिलाओं के साथ अभद्रता की भी रिपोर्ट आ रही हैं.वहीं पर महिलाओं को हाईजीन की भी परेशानी आ रही है, जो पीपीई किट के उपयोग के कारण 10-10 घंटे तक वाशरूम तक का भी प्रयोग नहीं करने के कारण हो रहा है.

कोविड 19 के रोगियों के साथ काम करने की वजह से खुद को परिवारों से आइसोलेट करके रखना भी एक समस्या है. परिवार से दूर रहना भी चिंता में एक इजाफा ही है. छोटे छोटे बच्चों को उनकी माँ से दूर बिलखते देख तो जैसे कलेजा ही फाड़ देता है. आंसुओं से भीगे अपने बच्चों के गालों को वीडियो कॉलिंग में देखना और पुचकार के साथ उन्हें पोंछ न पाने का मर्म सिर्फ एक मां ही समझ सकती है.

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इन सारी परेशानियों के साथ साथ कोविड 19 के भयावह वातावरण का अवसाद, परिवार की चिंता यहां तक कि छोटे छोटे बच्चों की बढ़ती स्क्रीन टाइमिंग भी महिलाओं को परेशान कर रही है, पर इन सब मुसीबतों के बीच लोगों खासकर महिलाओं का मैगजीनों के प्रति बढ़ता रुझान बताता है कि सोशल डिस्टेनसिंग और परिवार और हाउस हेल्पर की अनुपस्थिति में उन्हें एक सच्चा साथी मिल पा रहा है, जो उन्हें उनके लिए वक्त दे रहा है.

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