भारत और चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध में लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा तब ब्रिगेडियर रैंक के थे. उन्होंने न सिर्फ उस युद्ध में आमने सामने के मोर्चे में हिस्सा लिया था बल्कि इस युद्ध की तमाम तैयारियों की प्लानिंग में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. जनरल अरोड़ा यूं तो अपनी उस तस्वीर के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हैं, जिसमें पाकिस्तान के जनरल नियाजी उनके सामने लिखित युद्ध समर्पण पर दस्तखत करते हैं. लेकिन 1990 से 1998 के बीच जब वो राजधानी दिल्ली की न्यू फ्रेंडस कालोनी में रहते थे, मैंने उनसे कई बार इंटरव्यू किये.

मेरा उनसे किया गया एक ऐतिहासिक इंटरव्यू भारत की आजादी के 50 सालों पर अलग अलग क्षेत्रों की हस्तियों के साथ किये गये विशिष्ट संवाद की किताब ‘मुलाकात-50’ में संकलित है. इस इंटरव्यू में ज्यादातर सवाल 1962 के भारत-चीन युद्ध से संबंधित ही हैं. हालांकि जनरल अरोड़ा से ज्यादातर लोग 1971 के भारत-पाक के युद्ध पर ज्यादा बातें किया करते थे. लेकिन मैंने महसूस किया था कि वह हमेशा भारत-चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध के बारे में बात करने के ज्यादा इच्छुक होते थे.

शायद पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस की तरह वह भी हम भारतीयों को चीन के बारे में बहुत कुछ बताना चाह रहे थे. वे जब भी 1962 के भारत चीन युद्ध के बारे बात करते थे, हमेशा उनकी आवाज में एक कसक का कब्जा हो जाता था. उन्हें कई शिकायतें थीं, अपने राजनेताओं से, अपने  डिफेंस स्टेब्लिसमेंट से. लेकिन उनके पास चीनी सैनिकों और सैन्य अधिकारियों के बारे में बताने की भी बहुत बातें होती थीं. लगता था उन्होने युद्ध के दौरान चीनी सेना का बहुत गहराई से साइकोलाॅजिकल आब्जर्वेशन किया था और वह चाहते थे कि भारतीय इस बात को गहराई से समझें.

जनरल अरोड़ा चीन के चरित्र पर हमेशा एक बात कहा करते थे कि चीन एक ऐसा दुश्मन है, अगर उससे डरोगे तो वह आपको डराने में क्रूरता की इंतहा तक जायेगा. इसलिए उनके मन में हमेशा होता था कि हम चीन को ही अपना दुश्मन नंबर एक मानकर तैयारी करें और हमेशा चीन के साथ मुकाबले के लिए तैयार रहें. वो चाहते थे कि जब भी चीन कोई हरकत करे तो हम उसे सवा सेर होकर जवाब देने की कोशिश करें. हालांकि एक सैनिक का सोचना और सरकारों के सोचने में फर्क होता है. यही वजह है कि 1962 के बाद से चाहे अनचाहे चीन के साथ हमारे जितने भी राजनीतिक रिश्ते रहे, उनमें से एक झिझक, एक दब जाने की बार बार दोहरायी गई गलती हमेशा शामिल रही है.

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चीन इसी का फायदा उठाता रहा और अब वह इस स्थिति में आ गया है कि अपनी जरूरत के हिसाब से ही वह हमसे पंगे लेता है, पंगा न हो तो उसे पैदा कर लेता है और अपनी जरूरत का उनसे नतीजा निकाल लेता है. 5 मई 2020 को जब चीन की पीपुल्स आर्मी के 200 से ज्यादा जवान, पूर्वी लद्दाख स्थित पैगोंग झील के पास भारतीय सैनिकों से टकराये तो यह टकराहट न तो अंजाने में हुई थी और न ही यह कोई रूटीन टकराहट थी. वास्तव में चीनी सैनिक जानबूझकर भारतीय सैनिकों से टकराव मोल लिया था. शायद चीनी सैनिकों को यह लग रहा था कि भारतीय सैनिक उनके सामने में आने पर इधर उधर करके निकल जाएंगे,उनसे टकराएंगे नहीं और इस तरह चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों पर अपना मनौवैज्ञानिक दबदबा कायम कर लेंगे.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. भारत के सैनिकों ने न सिर्फ चीन के सैनिकों के साथ आंखों में आंख डालकर सामना किया बल्कि उन्हें पूरी ताकत से पीछे हटने के लिए कहा. इस पर चीन के सैनिक खिसिया गये और जिद पर उतर आये. पूरी रात दोनो ही देशों के सैनिक आमने सामने रहे, पर चूंकि चीनी सैनिकों ने योजनाबद्ध ढंग से यह झड़प आयोजित की थी, इसलिए उन्होंने पीछे से अपनी सप्लाई लाइन बढ़ा दी. इसलिए सुबह होते होते चीन के सैनिकों की संख्या काफी ज्यादा बढ़ गई. बावजूद इसके भारत के सैनिक एक इंच भी टस से मस नहीं हुए. इस तरह पैगोंग झील के पास दोनो ही देशों के सैनिकों का बिना गोली बारूद वाला मोर्चा खुल गया. 1987 के बाद से भारत और चीन के बीच कभी किसी तरह का हथियार सहित सैन्य टकराव नहीं हुआ. साल 2017 में डोकलाम में लंबे समय तक दोनो देशों के सैनिक भयानक मुद्रा में आमने सामने जरूर रहे, लेकिन 1987 के बाद के सैन्य हथियारों का न इस्तेमाल करने का संयम दोनो तरफ से बना रहा.

लेकिन डोकलाम में भी चीन ने अंत में भारत से इसलिए चिढ़ी चिढ़ी कसक के साथ तनाव खत्म किया; क्योंकि उसे सपने में भी आशंका नहीं थी कि भारत भूटान के लिए चीन के सामने खड़ा हो जायेगा. इसीलिए 5 मई 2020 को चीन ने अकेले पैगोंग झील के पास की मुठभेड़ नहीं की बल्कि बड़े ही शातिर तरीके से 9 मई 2020 को उत्तरी सिक्किम में नाकू ला सेक्टर में एक और मोर्चा खोल दिया. यहां मोर्चा खोलना इतना आसान नहीं था; क्योंकि नाकू ला सेक्टर में जहां भारत और चीन की फौजें आमने सामने हैं, वह जगह समुद्र से 16000 फीट की ऊंचाई पर है. यहां पर भी चीन ने अपने षड़यंत्रपूर्ण तरीके से भारत के सैनिकों के साथ टकराव मोल लिया.

9 मई को जब दोनो ही देशों के सैनिक अपने अपने क्षेत्र में गस्त कर रहे थे, तभी कुछ चीनी सैनिक, भारतीय सैनिकों की तरफ लपके और उन पर मुक्के बरसाने लगे. यकायक के इस हमले से कुछ मिनटों के लिए तो भारतीय सैनिक अवाक रह गये. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि चीनी जानबूझकर टकराव मोल ले रहे हैं. बहरहाल कुछ ही देर में भारतीय सैनिकों ने उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से दिया. इससे दोनो ही तरफ के कई सैनिक घायल हो गये. ठीक इसी दिन चीन ने लद्दाख के लाइन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल यानी एलएसी में अपने हैलीकाफ्टर भेज दिये. हालांकि चीनी हैलीकाफ्टरों ने भारतीय सीमा पार नहीं की, लेकिन भारत ने चीन की इस हरकत के विरूद्ध लेह एयरबेस से अपने सुखोई-30 एमकेआई फाइटर प्लेन का बेड़ा और बाकी लड़ाकू विमान रवाना कर दिये. चीन के लिए यह हैरानी का विषय था. चीन कल्पना ही नहीं कर रहा था कि उसकी हरकत का हिंदुस्तान इतना कड़ा प्रतिवाद करेगा.

भारत की इस तरह की प्रतिक्रिया पहली बार सामने आयी. इससे चीन बौखला गया है और 16 जून को जब दोनो ही देशों की सेनाएं आपस में हुए समझौते के चलते डी-एस्केलेशन कर रही थीं, तभी चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों पर पत्थरों, लाठियों और धारदार चीजों से हमला कर दिया. इससे जो शुरुआती रिपोर्ट हिंदुस्तान आयी, उसके मुताबिक तीन भारतीय सैनिक शहीद हो गये, जिनमें एक कमांडिंग अफसर, एक हवलदार और एक सिपाही था. गौरतलब है कि उस जगह चीन ने धोखेबाजी दिखायी थी, जहां 1962 की जंग में 33 भारतीय शहीद हुए थे.

1962 के बाद से पहला यह ऐसा मौका था जब दोनो देशों के बीच इतने बड़े पैमाने पर सैन्य झड़प हुई और सैनिक हताहत हुए. देर रात तक ये तीन भारतीय सैनिक बीस शहीद सैनिकों में बदल गये. अगर सेना द्वारा इंटरसेप्ट की गई बात की मानें तो चीन ने इस मुठभेड़ में 43 सैनिक गंवाये हैं. लेकिन चीन के लोग अपने मारे गये सैनिकों की वास्तविकता को कभी नहीं जान पाएंगे; क्योंकि चीन में मीडिया स्वतंत्र नहीं है. इसलिए न कोई इस चुपी के विरूद्ध सवाल उठाने वाला और न ही किसी तरह की बैचेनी होने वाली है.

सवाल है चीन पर काबू करने के लिए भारत क्या करे? निश्चित रूप से हमें वही करना होगा जो जनरल अरोड़ा कभी साफ शब्दों में कभी इशारे के जरिये कहा करते थे कि चीन को झुकाना है तो उसकी गर्दन पकड़ लो. भारत आज इस स्थिति में है कि अगर हम यह जोखिम लें कि चीन की गर्दन उसके सतर्क होने के पहले ही पकड़ लें तो चीन काबू में आ जायेगा. चीन को हमें उसी की भाषा में जवाब देना होगा, जैसा कि हमेशा जार्ज फर्नांडिस कहा करते थे. जार्ज चाहते थे कि भारत हमेशा तिब्बत के मुद्दे को जिंदा बनाये रखे और समय समय पर उसके जरिये चीन को घेरने की कोशिश भी करे. चीन के खिलाफ इस समय जबरदस्त अंतर्राष्ट्रीय माहौल है.

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भारत अगर दो कदम आगे बढ़कर इस माहौल को एक सांगठनिक शक्ल देना चाहे तो दे सकता है. यह चीन को पिछले पांव में ला सकता है. भारत की नैवी चीन से बेहतर है और हिंद महासागर में भारत के साथी चीन से ज्यादा हैं. इसलिए अगर भारत नैवी के जरिये चीन को घेरे तो यह संभव है. एक और बड़ा विकल्प है कि भारत अब कमर कसकर चीन के साथ आर्थिक और कारोबारी रिश्तों को या तो अपने पक्ष में करे या तोड़ दे. निश्चित रूप से इसमें बहुत मुश्किलें आयेंगी, क्योंकि हमारा तात्कालिक तकनीकी ढांचा चीन की तकनीकी और इंफ्रास्ट्रक्चर पर ही टिका हुआ है. लेकिन अगर मोदी एक बार लालबहादुर शास्त्री की तरह देश में यह भावना भर दें कि उपवास कर लेंगे लेकिन अमरीका का पीएल 480 गेंहूं नहीं लेंगे, तो भारत एक झटके में चीन के विरूद्ध अपनी कमजोरियों से उबर जायेगा और फिर चीन की हिम्मत नहीं होगी कि वह हमें आंख दिखा दे.

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