लेखिका- कात्यायनी सिंह
कलरात अचानक नन्ही की तबीयत बहुत खराब होने की वजह से मैं परेशान हो गई. जय को फोन लगाया तो कवरेज से बाहर बता रहा था. रात के आठ बज रहे थे. कुछ सम झ नहीं आया तो मैं अकेली ही डाक्टर को दिखाने के लिए निकल पड़ी. नीरवता में अजीब सी शांति थी. मु झे यह रात बहुत भा रही थी. चारों ओर फैली उस कालिमा में रोमांस के अलावा और कुछ था तो वह था नन्ही की बीमारी के लिए चिंता और मेरे तेज चलते कदमों की आहट.
डाक्टर के कैबिन से बाहर आते ही मैं ने राहत की सांस ली. नन्ही को वायरल था, घबराने वाली बात नहीं थी. अंधेरा और गहरा हो गया था. दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं. अपनेआप पर गुस्सा भी आ रहा था. नन्ही की बीमारी ने मेरा दिलदिमाग सुन्न कर दिया था. बगैर सोचे रात को निकल पड़ी थी.
जय बहुत गुस्सा करेंगे. गुस्सा याद आते ही शरीर में डर से झुर झुरी पैदा हो गई. जय जब गुस्सा करते हैं तो उन्हें कुछ भी तो सम झ में नहीं आता है... कभीकभी तो हाथ भी उठा देते हैं. मेरी खुद्दारी सिर्फ मेरे पास थी. इस से जय को कुछ लेनादेना नहीं था. वे तो अपने पौरुष बल को जबतब दिखा कर मु झे और कमजोर कर देते हैं.
कभीकभी सोचती हूं कि मेरे मांबाप ने मु झे पढ़ाया ही क्यों. अनपढ़ रहती तो ज्यादा अच्छा था. तभी मोबाइल की रिंग ने मु झे चौंका दिया. जय का नंबर देख थोड़ी राहत महसूस हुई.
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