Hindi Kahaniyan : एक तरफ लैपटौप पर किसी प्राइवेट कंपनी की वैब साइट खुली थी तो दूसरी ओर शाहाना अपने फोन पर शुभम से चैटिंग में व्यस्त थी.
अचानक मां के पैरों की आहट सुनाई दी तो. उस ने फोन पलट कर रख दिया और लैपटौप पर माउस चलाने लगी. दोपहर के 2 बज रहे थे. इस समय कंपनी के काम से उसे ब्रेक मिलता था. मां ने खाने के लिए बुलाया शाहाना को.
शाहाना ने मां को कमरे में खाना देने को कहा. कहा कि ब्रेक नहीं मिला है आज.
46 साल की निशा यानी शाहाना की मां उस की पसंद का खाना उस के पास रख गई. हिदायत दी कि याद से खा ले.
21 वर्ष की शाहाना अभी 6 महीने पहले भुवनेश्वर से होटल मैनेजमैंट में ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी कर के लौटी है. उसे अपने रिजल्ट के आने का इंतजार है और तब तक उस ने खुद की कोशिश से एक प्राइवेट कंपनी में वर्क फ्रौम होम वाली जौब ढूंढ़ ली है. लेकिन बात यह है कि जैसे ही सालभर होने को होगा उसे इस कंपनी के मेन औफिस दिल्ली जा कर जौब करनी होगी. यह कितनी खुशी की बात है, शाहाना ही जानती है. लेकिन सामने इस से भी बड़ी चिंता की दीवार खड़ी है उस के, जिस का उसे समाधान ढूंढे़ नहीं मिल रहा. रोज वह औफिस जाती है, उसे शाबाशी मिलती है और खुश होने के बजाय वह और ज्यादा चिंतित हो जाती है.
शाहाना सुदेश की बेटी है. 50 साल का सुदेश रेलवे में नौकरी करता है और अकसर उस की नाइट शिफ्ट रहती है. सुदेश की पत्नी यानी निशा की मां अपने 70 और 78 साल के क्रमश: अपने सास और ससुर की सेवा में लगी रहती है क्योंकि वे कुछ ज्यादा ही लाचार हैं.
दरअसल, किसी भी घर में वहां का माहौल बच्चों को बनाता है. आज जो शाहाना इतनी आजाद खयाल और खुद की आर्थिक आजादी के लिए दीवानी है उस के पीछे भी उस का घर और घर के लोग हैं. निस्संदेह. मगर कुछ अलग तरह से.
बूढ़े मातापिता सुदेश की जिम्मेदारी है लेकिन पैसे के इंतजाम के सिवा कभीकभार मातापिता को डाक्टर को दिखाने के सिवा सारी देखभाल शाहाना की मां निशा के जिम्मे थी और इस में निशा का पत्नी भाव कम नौकरानी का भाव ज्यादा था. अलिखित जैसी संधि थी कि यहां रहोगी तो वह सबकुछ करना होगा जो कमाने वाला पुरुष चाहता है. बचपन से ही शाहाना ने देखा है कि मां के दांपत्य भाव को कभी भाव ही नहीं दिया गया. उसे क्यों और किस तरह इस परिवार से कभी लगाव महसूस होता जहां परिवार की जड़ें ही एकदूसरे से न जुड़ी हों. दादादादी भी सिर्फ अपना काम करवाने और बाकी समय बहू की निंदा करने में व्यतीत करते. यहां सिर्फ व्यापार भर का जीवन था. लेकिन शाहाना इस घर में सिर्फ इसलिए ही घुटन महसूस करती हो, यह बात नहीं थी. कारण इस से भी बड़ा था.
पिता के लिए शाहाना बेटी के रूप में एक स्त्री थी और यह तब से था जब शाहाना खुद भी खुद के लड़की होने की बात को समझ भी नहीं पाई थी. यानी उस के बचपन से ही उस के पिता उसे बेटी कम, एक औरत जात ज्यादा समझते.
इधर शाहाना की मां निशा को बातबात पर उस के पिता न कमाने की उलाहने देते लेकिन लड़कियों की आर्थिक आजादी पर उन का रंग बदल जाता.
घोर परंपरावादी पिता की छत्रछाया में शाहाना पलते हुए बस एक ही बात सोचती, एक ही ध्यान करती कि कब वह इस घर से दूर कहीं, बहुत दूर चली जाएगी.
मुश्किलें थीं, उस की मां भी बड़ी लाचार थी. पढ़ीलिखी होने के बावजूद मां में अपने लिए आवाज उठाने की हिम्मत नहीं थी.
निशा अपने मातापिता की इकलौती संतान थी सो कभी अपने मातापिता, कभी सासससुर इन्हीं में उलझ कर रह गई थीं उन की जिंदगी.
मजबूर निशा शाहाना को समझती, ‘‘किसी तरह तू अपने पैरों पर खड़ी हो जा, फिर तेरा दुख दूर हो जाएगा.’’
होटल मैनेजमैंट की पढ़ाई के दौरान शाहाना को शुभम मिल गया. 2 साल सीनियर शुभम पहलवान सा दिखता था आकर्षक था. उस की हाइट शाहाना से बस 2 इंच ज्यादा यानी 5 फुट 7 इंच थी.
रोमांटिक चेहरे की स्वामिनी और खूबसूरत दुबलीपतली, सुघड़ बदन की मलिका शाहाना को एक सुंदर साथी की तलाश थी जो उसे समझे, सराहे और उस की आजादी को महत्त्व दे. इसलिए शुभम के सौंदर्य को कभी उस ने खुद से नापा ही नहीं.
होस्टल की एक सीनियर लड़की आभा जो शुभम की दोस्त थी, के संरक्षण में शुभम से शाहाना की दोस्ती दिनबदिन गहरी होती गई.
शाहाना को उस के पापा फोन पर चाहे हर बार रुपए भेजते समय उसे फटकार लगाए या नीचा दिखाए, शाहाना बीमार पड़े या उसे कहीं दूर किसी अच्छे स्पौट घूमने जाना हो, शुभम उस का संरक्षक, गाइड और प्यार बन चुका था.
ऐसा था कि शुभम अपने कालेज के लड़कों के बीच अपने अडि़यल स्वभाव और बात को खींच कर किसी भी तरह खुद को सही साबित करने वालों में जाना जाता था. लेकिन शुभम जैसा एक मजबूत सहारा शाहाना के लिए इतना कीमती था कि शाहाना को दोस्तों की सम?ाइश में जलन की बू आती. उस ने शुभम को जाननेसम?ाने के लिए किसी भी बाहरी सूचना को स्वीकार ही नहीं किया.
शुभम जब अपना कोर्स खत्म कर के अपने घर पुणे चला गया और वहां उस ने एमबीए जौइन कर लिया, तब शाहाना भुवनेश्वर में ही अपनी ग्रैजुएशन का दूसरा साल पूरा करती रही. जब तक शाहाना अपना कोर्स खत्म कर घर आई, शुभम को जयपुर में एक ट्रैवल कंपनी में मैनेजर पद की नौकरी मिल चुकी थी. कंपनी छोटी और नई थी, शुभम की सरकारी कालेज से एमबीए की डिगरी ने उसे 35 हजार की नौकरी दिला दी.
शाहाना घर तो आ गई थी लेकिन फिर से उस के पिता सुदेश की हुकुमदारी शुरू हो गई थी. 21 साल की आजाद खयाल और बहुत सैंसिटिव लड़की को नफरत भरी दकियानूसी सहन नहीं हो रही थी. वह यहां से बस कोई नौकरी पा कर निकल भागना चाहती थी. मगर नौकरी तो कोई खुद के बगीचे का आम नहीं था कि जब मन चाहा तोड़ लिया.
किसी भी प्राइवेट कंपनी में जौब पाने के लिए एक फ्रैशर्स को कम से कम 6 महीने तो इंटर्नशिप ट्रेनिंग की जरूरत होती है और उस के बाद नौकरी मिलेगी या नहीं कोई गारंटी नहीं.
होटल मैनेजमैंट कर के अगर कोई सीधे होटल की जौब में न जाना चाहे तो उसे इस तरह ही नौकरी ढूंढनी पड़ती है.
दरअसल, होटल की जौब में जबकि शाहाना ने सेफ की पढ़ाई नहीं की थी, हाउस कीपिंग में उस के चेहरेमोहरे और फिगर को प्रायौरिटी देते हुए उसे रिसैप्शनिस्ट की नौकरी मिली भी थी, लेकिन पढ़ाई के दौरान इंटर्नशिप में वह 17 घंटे खड़े हो कर काम करने का अनुभव ले चुकी थी और उस के पैर तब सूज जाते थे.
शुभम के सु?ाव से उस ने वर्क फ्रौम होम की एक प्राइवेट नौकरी की ट्रेनिंग ढूंढ़ी. तब से लगातार शुभम और उस के काम के बीच दोनों की चैटिंग चलती रहती. इतनी बात तो ठीक थी. लेकिन आगे की जिंदगी तक जाने वाली सड़क के बीच एक दीवार आ गई थी. यह वह दीवार थी जिस से हर बार उड़ने से पहले शाहाना के पंखों को टकरा कर घायल होना पड़ता.
बचपन से शाहाना पिता के मनुवादी संदेश सुनसुन कर थक चुकी थी कि बेटी पहले पिता के हाथ की फिर पति के हाथ की और अंत में बेटे की हाथ की यानी कुल मिला कर पुरुषों के हाथ की कठपुतली है.
उस की मां को कंट्रोल में रखते हुए भी सुदेश लगातार उलाहने देता रहता, कभी संतुष्ट नहीं होता क्योंकि वह मानता है कि अगर उस ने पत्नी के प्रति प्रेम दिखाया तो वह कुछ न कुछ मांग कर देगी और उसे पूरा करने का मतलब ही है कि स्त्री को भाव देना. इस से स्त्रियां कंट्रोल से निकल जाती हैं. ऐसे में बेटी इस पिता से जयपुर, दिल्ली या आगरा अपनी नौकरी के लिए कैसे कहे? कैसे इस मजबूत दीवार से टकराए?
इधर शाहाना जहां अभी ट्रेनिंग कर रही है उस के 6 महीने पूरे होने को आए थे और वे अपनी दिल्ली के औफिस में उसे नौकरी औफर कर रहे थे. इन हैंड 22 हजार का औफर था. अभी शाहाना की यह पहली नौकरी थी, फिर उसे घर से निकलना था, पिता जो पालक नहीं मालिक के दया के चंगुल से बाहर आना था, इस हाल में यह रकम उस के लिए बेहतर विकल्प थी.
शाहाना की कोफ्त बढ़ती जा रही थी क्योंकि वह कोई शब्द और वाक्य ऐसा नहीं पा रही थी जिस से इस रूखे और स्वार्थी व्यक्ति को राजी किया जा सके. दरअसल, अभी उस के पास बाहर जाने और रहने को शैल्टर के लिए पैसे नहीं थे, सुदेश को कहे बिना निकले कैसे.
खैर, शाहाना को इन्हीं परिस्थितियों ने बहुत मजबूत बनाया था और आगे की विपत्तियों ने उसे लौह शक्ति में कैसे बदल डाला यह जानना भी दिलचस्प होगा.
खाने की मेज पर अब आमनेसामने सुदेश और शाहाना. 1 घंटे में उस के तर्क को उस के पिता ने जितनी ही बार काटा, उसे लताड़ा, नीचा दिखाया, शाहाना ने अपनी आंखों में आंसुओं की बाढ़ एक तरफ रोक, लगातार पिता का प्रतिरोध सह कर खुद पर विश्वास के साथ पिता के प्रत्येक परंपरावादी बात को तर्क सहित काट डाला.
आखिर तय यह हुआ कि दिल्ली न जा कर वह कोई और शहर ढूंढे़ जो अपेक्षाकृत लड़कियों के लिए थोड़ा सुरक्षित हो. दिल्ली जा कर शाहाना बिगड़ सकती है. अत: शाहाना को दिल्ली वाली नौकरी ठुकरा कर दूसरी नौकरी की तलाश शुरू करनी पड़ी.
अंतत: शुभम ने उसे जयपुर बुलाया जिस कंपनी में वह खुद मैनेजर था. बिना मेघ के बारिश मिल गई उसे. शाहाना ने अब तक आसपास की हवाओं को भी पता लगने नहीं दिया था कि शुभम नाम का कोई शख्स उस की जिंदगी में है. काफी मशक्कत के बाद शाहाना को बाहर जाने की इजाजत मिली. पिता साथ गए और एक कालेज जाने वाली लड़कियों के पीजी में शाहाना को रखवा दिया, जिस में शाहाना का कमरा चौथी मंजिल पर था. पहली मंजिल पर खाने का इंतजाम था.
शाहाना के कमरे में 2 और कालेजगोइंग लड़कियां थीं जिन के साथ शाहाना एडजस्ट नहीं हो पा रही थी. यहां और भी कई सारी दिक्कतें थीं, साथ ही महीने के 5 हजार लग रहे थे जो नई नौकरी में उस के लिए भारी मुश्किल थे.
इस बीच शुभम ने कहा था कि औफिस के पास ही वह जिस फ्लैट की तीसरी मंजिल में रहता है, वहां लिफ्ट के साथ रहने के लिए सारी सुविधाएं हैं और एक कमरे का 5 हजार है. इस फ्लैट में 3 कमरे हैं. दोनों में 1-1 लड़की हैं जो शुभम के ही औफिस में सीनियर हं. उन में से एक शायद एक महीने में किसी और शहर में नौकरी लेकर शिफ्ट होने वाली है. फिलहाल वह राजी है कमरा शेयर करने में, एक गद्दा खरीद कर शाहाना उस लड़की के कमरे में आ सकती है, बाद में वह कमरा शाहाना का हो जाएगा, कम से कम यहां अपनी आजादी से रह सकेगी.
यह फ्लैट अच्छे बड़े एरिया में था. तीसरी मंजिल के इस फ्लैट में 3 कमरे, कौमन डाइनिंग और किचन थी. मकानमालिक को भी पैसे के सिवा और किसी चीज से कोई मतलब नहीं था. यहां कंपनी में काम करने वाले लड़केलड़कियां पैसे की कमी के चलते इस तरह रहते थे.
अचानक शाहाना खुश हो उठी कि अब पापा सुदेश से महीने के अंत में पैसों के लिए हजार झिड़कियां नहीं खानी पड़ेंगी. उसे अब कभी घर जाने की मजबूरी नहीं होगी. मां का उसे अफसोस होता कि इतनी पढ़ीलिखी और कई कलाओं में पारंगत होने के बावजूद सिर्फ 2 मुट्ठी अन्न तक ही जिंदगी सिमटा ली. खैर, अब वह शुभम के साथ अपने सपनों का संसार सजाएगी.
जिस दिलोजान से शुभम को शाहाना ने चाह लिया था, जो उस की जिंदगी में एक पिता के खाली स्थान को अपने प्यार और विश्वास, स्नेह और देखभाल के जरीए भरने आया था, शाहाना उस के लिए क्या कुछ कर सकती है, यह उस का मन ही जानता था.
शुभम के प्रति शहाना कृतज्ञता से दबी जाती थी, जब घर में हमेशा उसे सहारा और प्रेम देने के बदले पिता से उलाहने और बेसहारा छोड़ दिए जाने का एहसास मिला हो, ऐसे में शुभम की छोटी से छोटी बात भी उस के लिए बेहद अहम थी और ऐसा लगता था शाहाना खुद को शुभम पर लुटा देने का संकल्प कर चुकी है.
मगर एक बड़ी मनोवैज्ञानिक गहरी बात है. जब जिंदगी की सचाई बन कर वह बात सामने आती है जिस से इंसान सब से ज्यादा डरता है तो इंसान उसे अपने साथ हुआ देख भी मान नहीं पाता. दूसरी बात यह थी कि इतनी खूबसूरत, मौडर्न, स्टाइलिश, इंटैलीजैंट लड़की खुद शुभम पर दीवानी हुई तो शुभम को अपना ग्रेड अचानक बहुत ऊंचा महसूस होने लगा. उसे अब महसूस होता कि वह बहुत कम में संतुष्ट हो रहा है. उसे तो बहुत कुछ मिल सकता है क्योंकि वह बहुत खास है.
इधर शाहाना ने शुभम के आसपास अपने प्रेम का मजबूत घेरा बना कर खुद ही उस में प्रवेश कर गई थी.
शाहाना की नौकरी औरों की तरह अच्छी चल रही थी. महीना खत्म होते ही पैसे आ रहे थे. वह दिल खोल कर शुभम के लिए खर्च करती. उस ने समझ लिया था शुभम है तो अब उस की जिंदगी बेफिक्र है. शुभम ने भी उसे कह रखा था जल्द ही वह अपने घर वालों से मिला देगा. 2 बार वीडियो कौल में वह शाहाना से घर वालों को मिलवा चुका था और शाहाना फूली नहीं समा रही थी कि ऐसा ही कोई परिवार उसे चाहिए था जो उसे भरपूर तवज्जो दे.
जयपुर में शाहाना रहने को तो शुभम के साथ रहती थी, लेकिन उस ने हमेशा अपने दायरे निश्चित कर रखे थे. वह आजाद खयाल थी, अपने हिसाब से जीना चाहती थी लेकिन उसे बखूबी अपनी मर्यादा मालूम थी. जब शुभम के घर वालों ने भी इस बात पर कोई सवाल नहीं उठाया कि एक ही फ्लैट में दोनों रहते हैं तो वह शुभम के घर वालों की उदारता देख काफी प्रसन्न हुई. वह इस बात को ले कर खुश थी कि सभी पैसे बचाने की जरूरत को समझ रहे थे. अभी शाहाना के पिता होते तो उफ. तोहमतों की बाढ़ आ जाती.
सबकुछ सही चल रहा था और शुभम की बात पर उस के घर वाले शाहाना को देख कर चांदी की पायलें और मोती के कान के टौप्स दे कर गए थे. शाहाना के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.
शुभम के लिए वह बिछबिछ जाती और उस के किसी भी बुरे लगने वाले व्यवहार को आंख मूंद कर इगनोर करती. एक दिन औफिस में किसी लड़की को शुभम पीठ पर लाद कर हंसीमजाक करते सीढि़यों को अपनी से नीचे उतारता, शाहाना ने देखा, मगर उस पर उसे खुद से ज्यादा विश्वास था.
कई बार ऐसा होता कि शाहाना को घर भेज कर रात के 1 बजे तक पूल पार्टी में लड़कियों के साथ जलकेली कर के वापस आता. शाहाना उस के लिए इंतजार करती, खाना सर्व करती और कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं करती कि कहीं रूठ गया तो?
अब शुभम भी शाहाना को अपना अधिकार और अपनी संपत्ति सम?ाने लगा था. यह वह लड़की थी जो शुभम के अलावा किसी भी लड़के से कोई मतलब नहीं रखती थी. खुद को शुभम के आगे तुच्छ सम?ाती, उसके प्यार के बदले अपना प्यार उसे बहुत कम लगता. इस कृतज्ञता ने शाहाना को शुभम के आगे दिनोंदिन कमजोर कर दिया. अकसर शुभम औफिस के बाद देर से आता, शाहाना का बनाया डिनर करता, मीनमेख निकालता और सो जाता. शाहाना यह सोचती शुभम उसे अपना मानता है तभी इतना अधिकार जताता है.
इसी दौरान बरसात का मौसम आ गया यानी टूर ऐंड ट्रैवल कंपनी की मंदी का वक्त. इस मौसम में इन के औफिस में कुछ नए ट्रेनी कर्मचारियों की छंटनी कर दी जाती और सितंबर महीने से फिर नए ट्रेनी की खोज शुरू होती, जो कम से कम तनख्वाह में काम करें. इस तरह कमर्चारियों के भत्ते और तनख्वाह बढ़ाने से पहले ही कुछ कर्मचारियों की छंटनी कर कंपनी की बचत कराई जाती.
शुभम सीनियर था, उसे पता लग गया था कि छंटनी में 5 कर्मचारियों में एक शाहाना भी है. शुभम के लिए भी यह दिक्कत वाली बात थी, घर वाले नौकरी वाली लड़की चाहते थे, जिस से शुभम के पैसे उस की मां अनुपमा ले सके जैसे वह हमेशा लेती ही आई है.
शाहाना को बात पता लगी और उस ने यह नौकरी छोड़ एक नामी कंपनी में नौकरी कर ली जिस में काल सैंटर के वर्क फ्रौम होम की नाइट शिफ्ट थी.
महीनेभर में ही शाहाना को महसूस हुआ कि वह बस इतना ही नहीं चाहती है. आज के बाद जब वह शुभम के साथ पुणे जाएगी तो उसकी नौकरी फिर छूटेगी, उसे फिर से नौकरी के लिए हाथपांव मारने होंगे क्योंकि वह महज घरेलू बीवी बन कर जी नहीं पाएगी.
इधर शुभम का भी दिल बेजार, बेस्वाद हो गया. शाहाना कमाऊ बीवी के रूप में ही उसे स्वीकार है, लेकिन ऐसी नाइट शिफ्ट कर के कब तक काम चलेगा.
शाहाना ने बहुत सोचा और तय किया कि उसे इस नौकरी के साथ अलग कुछ करना होगा. अब तक शाहाना को उस का कमरा पूरी तरह मिल चुका था. उस ने एक नया आइडिया शुभम को बताया और इस से बढि़या क्या हो सकता था.
शाहाना अभी जहां नई जौब पर लगी है वह कंपनी काम करने का सारा सैटअप शाहाना के कमरे में इंस्टौल कर के गई थी, जहां से वह वर्क फ्रौम होम करती थी.
शाहाना रात 11 बजे से सुबह 8 बजे तक ड्यूटी करती थी. फिर फ्रैश हो कर नाश्ता बनाती शुभम और खुद के लिए. उस के बाद दोपहर 1 बजे तक सोकर उठ जाती और नहाधो कर लैपटौप खोल काम पर बैठ जाती. दोपहर 3 बजे तक कभी ओट्स उपमा या खिचड़ी या दालचावल बना कर खाती. जरूरत हुई तो बाजार जाती और शैड्यूल से फिर अपने लैपटौप ले कर काम पर बैठ जाती. शाम को उठ कर अपने कमरे की या कपड़ों की साफसफाई कर लेती, कुछ बिस्कुट वगैरह ले कर फिर काम. वैसे तो शाम 6 बजे शुभम के औफिस की छुट्टी हो जाती थी लेकिन अब जब शाहाना शुभम वाले औफिस नहीं जाती, शुभम के वापस आने का वक्त लगातार आगे बढ़ रहा था. आजकल वह 9-10 बजे आता और शाहाना को डिनर बनाते देख कर पैर फैला कर सो जाता. कभी मुंह भी फुलाता कि अभी तक डिनर रैडी कर लेना चाहिए था क्योंकि वह औफिस से आया है और उसे तुरंत खाना चाहिए.
शाहाना चुप रह कर काम करने वाली लड़कियों में से थी. वह और जल्दी हाथ चलाती. जब शुभम सो जाता वह फिर से नाइट ड्यूटी पर बैठ जाती.
कुल मिला कर एक अच्छा जीवन पाने और खास शुभम के साथ एक आजाद जिंदगी जीने के लिए उस ने एक ऐसा नया काम शुरू किया था, जिस से शाहाना की तो क्या शुभम और उस के पूरे खानदान की जिंदगी बदलने वाली थी.
आखिर शाहाना की दिनरात की मेहनत रंग लाई. उस का टूर ऐंड ट्रैवल का बिजनैस ‘लैट्स लिव’ यानी ‘चलो जीया जाए’ नाम की कंपनी की वैबसाइट शाहाना ने बना कर तैयार कर ली. इस बिजनैस में तकनीक और ताकत के साथसाथ ताउम्र शुभम के साथ चलने जैसा वादा और सपना था. अब बारी थी, इसे सरकारी मुहर लगा कर रजिस्टर्ड करवाने की. कंपनी तैयार हो जाने के बाद शाहाना शुभम से बहुत प्यार और केयर की उम्मीद कर रही थी क्योंकि यह एक बहुत बड़ा काम उस ने अकेले कर दिखाया था.
शुभम इस बारे में बाहर जा कर अपने पिता से बात कर के आ गया और तय हुआ कि पिता ही कंपनी रजिस्टर्ड कराने का बीड़ा उठाएंगे, पैसे भरेंगे, कंपनी उन के पुणे के घर के पते से शुरू होगी.
शुभम अपने पैर में फ्रैक्चर होने का बहाना कर 8 महीने की छुट्टी ले कर अपने घर पुणे चला गया ताकि कंपनी रजिस्टर्ड करवा कर कंपनी का काम शुरू कर सके.
शाहाना तो जैसे धीरेधीरे अपनी जिंदगी का बटन शुभम को ट्रांसफर करती जा रही थी. वह उस के कहने पर जयपुर से ही बिजनैस का काम देखती और रात को नाइट ड्यूटी करती.
2 महीने बाद जब शाहाना की बनाई हुई कंपनी ‘लैट्स लिव’ रजिस्टर्ड हो कर वास्तव में शुरू हो गई तो शाहाना को पुणे बुला लिया गया और शाहाना घर पर बिना कुछ बताए सीधे अपना सामान ले कर और नौकरी से इस्तीफा दे कर पुणे आ गई. साथ में सपने और उम्मीदों की गठरी थी बहुत बड़ी.
पुणे आ कर शहाना ने मां को खबर दी कि उस की सहेली मेघना के घर रुकी है और वहीं से उस ने अपना बिजनैस शुरू किया है. लड़के का नाम सुनते ही पिता कहीं उस का सारा काम न बंद करवा दे इस का उसे डर था.
पिता का दिमाग गरम हो गया. लेकिन फिर सोचा छोड़ो, पैसे बच रहे हैं, जो करे सो करे.
इधर बिजनैस के लिए जितने घंटे शाहाना लैपटौप पर बैठे उतने ही कम होते. सारा टैक्निकल काम शाहाना को ही करना था क्योंकि बिजनैस उसी ने शुरू किया था. उसे ही सब पता था. शुभम सिर्फ लोगों से कौंटैक्ट करता था. लेकिन इधर बिजनैस के लाखों रुपए भी शुभम की मां को चाहिए, उधर शाहाना को बैठे काम करते देख भी उसे कोफ्त हो जाती. बेटे को भड़काती. औरत कहीं लैपटौप पर काम करे और मर्द को जो बोले सो करे. तू उस की बात क्यों मानता है? तू क्यों नहीं काम करता? उसे बरतन मांजने भेज, ढेर बरतन पड़े, हैं, पोंछा नहीं लगा अभी तक.’’
शाहाना के यहां आते ही कामवाली को हटा दिया गया था. अपने घर में रहने दे रहे हैं तो हिसाब इधर से बराबर करना था. शाहाना को यह सम?ा नहीं आया था.
दरअसल, शुभम की मां अनुपमा ऊपर से मीठी और अंदर से तेजाब थी. एक तरह से कहा जाए तो पिचर प्लांट. बेटा हो या पति हलका सा उस ने मुंह खोला और सारे हो गए उस के अंदर. समर्पित और आज्ञाकारी.
अपने रूपयौवन में सोलह कलाओं में पारंगत. ये उत्तर प्रदेश के कट्टर ब्राह्मण थे. शुभम के पिता बैंक कर्मचारी थे, और बाल विवाह किया था.
नतीजा अभी उन की 46 की उम्र और पत्नी की 40 की उम्र में अब उन के बेटे की उम्र 25 और बेटी 22 की. ऐसे में घमंड से भरी थी अनुपमा कि जिस उम्र में उस की उम्र की औरतें 8 या 10 साल के बच्चों को ले कर पस्त दिखाई देती हैं, वह हर जगह अपने बेटे या बेटी की दीदी सी लगती है. शाहाना को तब हैरान हुई जब अनुपमा ने यह कह डाला कि मैं तो इतनी जबान दिखती हूं कि बेटे को लोग मेरा पति सम?ा लेते हैं और बेटी को इस के पापा की पत्नी.’’
शाहाना को एहसास होने लगा कि वह गलत जगह आ गई है. फिर भी शाहाना ने जिंदगी को खुशी से जीने के लिए कई बड़े कदम उठा लिए. अब वापस आने का रास्ता उसे नहीं दिखता, दूसरे, सोचती शुभम के लिए यहां आई है, शुभम की मां के लिए चली जाए यह तो ठीक नहीं.
यह बिसनैस शहाना को बहुत कुछ दे रहा था. लोगों में उस के नाम से पहचान बन रही थी, कौंटैक्ट बढ़े थे उस के. काफी टूर भी हुआ था. 6-7 महीनों में शुभम और शाहाना क्लाइंट ले कर सिक्किम, लद्दाख, केदारनाथ आदि घूम आए थे. शाहाना को इस की बेहद खुशी थी. सोचती जिसे पिता ने हमेशा नाकारा, भोंदू, चरित्रहीन कह कर तब ताने मारे जब वह बहुत छोटी और मासूम थी. जब उस के पंख उगे ही नहीं थे, तभी से पिता ने कह दिया था यह लड़की कुछ नहीं कर सकेगी, इस से कुछ होगा ही नहीं.
भोली सी शाहाना पर कितना बुरा असर पड़ा था, खूंख्वार पिता को पता ही नहीं चला और अब तो एक परिवार की जिंदगी हिज बदल दी थी उस ने.
शाहाना के अंदर खुद को ले कर जो आत्मविश्वास की कमी थी, वह अब दूर हो गई थी, उस के अंदर अब एक शक्तिशाली और जिद्दी लड़की की पैदाइश हो गई थी. अब उस ने धीरेधीरे हर एक इंसान को अच्छी तरह पढ़ना भी शुरू कर दिया था. बिजनैस बढ़ाने की ताकीद भी यही थी कि लोगों को पहचाना जाए, उनके अंदर की बात को उन के न चाहते हुए भी समझ लिया जाए.
अनुपमा और संतोष ट्रांसफर की वजह से मुंबई चले जाने वाले थे. अब 2 कर्मचारी भी रखे गए थे, वे दूर शहर से आए थे, इसलिए इन के भी रहने का इंतजाम इसी मकान में किया जाने वाला था ताकि पैसे की बचत हो जाए सब की.
अब विदेश जाने की आइटनरी भी बनने लगी थी, किसकिस जगह के टूर पैकेज बन सकते हैं सब फाइनल करने के बाद शाहाना ने इस कंपनी को अब प्राइवेट लिमिटेड बनाने के प्रोसैस के लिए शुभम पर जोर डालना शुरू किया.
विदेशी टूर से ही वास्तव में अच्छा रोजगार हो सकता था लेकिन इस के लिए कंपनी का प्राइवेट लिमिटेड होना और पार्टनरशिप डील स्पष्ट होनी जरूरी थी.
खाता खुला और शाहाना के पैरों तले की जमीन टूट धंस गई. इसी वजह से शुभम ज्यादा कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था और जैसेतैसे शाहाना को काम में व्यस्त किए रहता.
शाहाना का माथा गरम हुआ और पहली बार वह चीख पड़ी. इस समय पूरे परिवार के लोग शुभम के मामा के घर गए थे क्योंकि अगले हफ्ते वे लोग मुंबई शिफ्ट हो रहे थे.
पूरी ‘लैट्स लिव’ कंपनी शुभम के नाम पर रजिस्टर थी. शाहाना का कहीं नामोनिशान नहीं था. बात खुली तो शाहाना को पता चला कि शुभम के पिता ने जब रजिस्ट्री के पैसे दिए तो जिस शाहाना ने पूरी कंपनी का आइडिया दिया और खुद इतनी मेहनत से अकेले एक कंपनी को खड़ा किया उस का ही पूरा अस्तित्व मिटा डाला. पूरी कंपनी सिर्फ शुभम के नाम से रजिस्टर कराने का आइडिया शुभम के पिता का ही था.
शाहाना ने शुभम को पूछा, ‘‘ऐसा नहीं था क्या कि हम दोनों मिल कर 15 हजार में कंपनी रजिस्टर करवा लेते? फिर पुणे में तुम्हारे घर का ही पता क्यों दिया गया और कंपनी सिर्फ तुम्हारे नाम से? क्यों मैं कहां गई? क्या तुम्हारे पिता ने इस कंपनी को ?ाटक लेने के लिए यहां मु?ो नहीं बुलवाया? तुम्हें भी ये सब आसान लगा?’’
‘‘तो तु?ो इतना लालच भी क्यों है. शादी के बाद कौन सा तू बिजनैस करेगी? बच्चे पैदा करेगी, उन्हें संभालेगी, मां के साथ रहेगी, उन की सेवा करेगी. तुझे नाम की क्या जरूरत? पैसे चाहिए तो मुझ से मांगेगी.’’
शाहाना को लगा रेत पर उकेरे उस के सारे सपनों पर किसी ने अपने जूते घिस दिए हैं. थोड़ी देर आश्चर्य से शुभम को देखती रही. फिर दर्द से पिघली और जकड़ी हुई आवाज में पूछा, ‘‘यानी जिस पिता की स्वार्थी सोच से भागने के लिए मैं ने इतने दर्द और अपमान सहे, आज मेहनत और बुद्धि से इतनी बड़ी कंपनी खड़ी कर देने के बाद और तुम्हें ये पैसे वाला कैरियर बना देने के बाद तुम्हें अपनी कमाई के जमाए पैसे से 2 लाख की बाइक खरीद देने के बाद, तुम्हें कई महंगे गिफ्ट देने के बाद, तुम्हारे मांबाप का घर भरने के बाद, तुम यह कहोगे कि मैं इस कंपनी की सीईओ नहीं, तुम्हारी मां की कामवाली हूं.’’
शुभम ने अपने नए 2 कर्मचारियों के सामने शाहाना को कस कर तमाचा जड़ दिया, ‘‘तू ने मेरे मांबाप को कुछ कहा तो तुझे अभी घर से बाहर निकाल दूंगा. चल जा अपने कमरे में, बड़ी आई कंपनी की सीईओ. ऐसा हुआ तो शादी नहीं करूंगा तुझ से.’’
शाहाना को इस व्यवहार का जितना दुख था उस से कहीं ज्यादा उसे शुभम का भरोसा और विश्वास टूट जाने का आश्चर्य था. उसे कभी ऐसा नहीं लगा था कि शुभम दकियानूसी है या उस के सम्मान का खयाल नहीं रखेगा. उस ने तो सोचा था शादी के बाद भी शुभम और शाहाना मिल कर कंपनी चलाएंगे, बाहर कस्टमर ले कर भी साथ जाएंगे और चूंकि इस के मातापिता की उम्र अभी कम है, जिम्मेदारी उतनी नहीं रहेगी, इसलिए उन के पास आनाजाना बनाए रखते हुए भी कुछ साल आसानी से बिजनैस को बढ़ाने में जुटे रह सकेंगे.
शाहाना ने यहां आने के बाद बड़ी खुशी से घर का काम निबटाया, साथ खाना भी बनाया और बिजनैस भी पूरी शिद्दत से संभाला लेकिन बिजनैस में बैठते ही शुभम की मां का ताना और उसी सांचे में ढल कर शुभम का रिएक्शन, शुभम के पिता का हमेशा शाहाना को सीख दे कर कंट्रोल में रखने की कोशिश, यहां तक कि घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी क्योंकि बाहर के लोग अगर देखेंगे और कहीं शादी नहीं हुई तो शुभम को फिर मोटे दहेज के साथ दुलहन मिलना मुश्किल होगा, शाहाना के दिलोदिमाग पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न बना रहा था.
बात दोनों के बीच भले ही बंद थी लेकिन मसला इस कंपनी का था. शाहाना ने इस कंपनी में अपना खून डाला था, इतनी जल्दी निकल नहीं सकती थी. शुभम को भी विदेश के टूर से ढेरों पैसे कमाने थे. शाहाना की जिद पर राजी हो कर उस ने खुद और शाहाना के नाम आधेआधे की पार्टनरशिप की नई कंपनी फिर से खोली. इस बार शाहाना ने फिर से मेहनत की और नई कंपनी सामने आई ‘लिवाना’ नाम से. ‘लिवाना प्राइवेट लिमिटेड’ की रजिस्ट्री भी अब शाहाना ने कंपनी के पैसे से दोनों के नाम करवा. अब ‘लिवाना’ की रजिस्टर्ड सीईओ शाहाना थी.
अनुपमा और संतोष मुंबई से अकसर आते रहते और उस वक्त शाहाना पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता. मानसिक, शारीरिक तकलीफों से जुझते हुए भी उसे सारे काम करने पड़ते.
मगर जिंदगी ने सचाई की उंगली जो शाहाना की आंखों में घुसा दी थी, इस से उस का वजूद अब बहुत अलग सा हो गया था. उस में गजब की मल्टी टास्किंग कैपैसिटी बढ़ गई थी. अपने लिए उस ने स्कूटी खरीदी थी और किन्हीं भी अत्याचार के दिनों में वह स्कूटी ले कर निकल पड़ती और सड़क पर घूमती, लेकिन उन के तानों को बैठे नहीं सुनती. बिजनैस का नुकसान होता. शुभम मां को चुप कराता. एक तरह से वे लोग बिजनैस के लिए शाहाना पर निर्भर थे क्योंकि शुभम को टैक्निकल काम नहीं आते थे.
शाहाना ने बाहर से मां को एक रात फोन किया और सारी बातें बताईं. निशा बिलकुल आश्चर्यचकित नहीं हुई. किशोर बच्ची को पिता के रूप में जब एक पुरुष का नेह और केयर मिलती है तब उस के दरदर भटकने की संभावना नहीं रहती. जिस का पिता ही बेटी के अस्तित्व को रौंद रहा हो तो स्वाभाविक था जहां से उसे सहारा मिलने का भाव मिला होगा टूटी, भीगी चिडि़या उस पेड़ के आश्रय में तो जाएगी ही न. अब उस चिडि़या को क्या मालूम कि यह पेड़ भी खून चूसने वाला होगा.
मां ने कहा, ‘‘तू एक मासूम और पवित्र लड़की है, तू दिल सख्त कर के उस नर्क से निकल आ.’’
‘‘ये लोग आने नहीं देंगे इन का बिजनैस अभी पूरी तरह बना नहीं है, इसे बनाने और संभालने का काम मैं ही कर रही हूं.’’
‘‘तू अपनी लाइफ को बचा, बिजनैस फिर बना लेना. अपने बाजुओं के दम पर भरोसा रख. पापा से कहो अपने बिजनैस की बात, लालची हैं तेरे पापा, वे खुद तुम्हें वहां से निकाल लाएंगे. बाद में फिर और बुद्धि निकाली जाएगी.’’
उस दिन शाहाना को पहली बार लगा कि उस की मां कितनी सम?ादार और बड़े दिल की है. मां से लंबी बातचीत के बाद शाहाना ने खुद को तैयार कर लिया कि किश्ती बदली जाए.
वह बिजनैस पर काम कर रही थी. वह लोगों के दुर्व्यवहार और उपेक्षा की शिकार थी, वह घर का सारा काम निबटाती, वह रात तक जग कर क्लाइंट के साथ कंपनी के डिस्प्यूट सुल?ाती, शुभम के साथ कस्टमर के झगड़े के समाधान देती, नए लड़कों और लड़कियों को काम सिखाती, कंपनी के लिए ट्रेनी हायर करती और उन्हें टास्क देती और उस के बाद अपने लिए रास्ता तलाशती कि कैसे इस घर से निकले और जब सोने जाती तब सीने में शुभम से बिछड़ने का दर्द महसूस करते हुए थक कर सो जाती.
काम तो फैल रहा था और कस्टमर ले कर वे उन की कंपनी के जरीए जापान, थाईलैंड, मलयेशिया, बाली, वियतनाम घूमने जा रहे थे. शाहाना अपनी तरफ से शुभम को पाने के लिए कभीकभी दिलोजान से कोशिश भी करती लेकिन शुभम अब लगातार अपनी मां के कौंटैक्ट में रहता, हर पल उस की मां की इंस्ट्रक्शन चलती और शुभम का उसी तरह व्यवहार दिखता.
विदेशी भूमि पर भी शुभम ने शाहाना से अपनापन नहीं दिखाया, अकेले कई बार मुसीबत में छोड़ा और शाहाना ने शुभम को समझने की कोशिश की तो थप्पड़ भी जड़ा.
इधर शुभम की मां ने अब शाहाना को यह कहना शुरू कर दिया था, ‘‘बेटे की शादी हम तुम्हारे पिता के बिना नहीं करेंगे. हमारे में दमदार दहेज के बिना शादी नहीं होती. समाज में इज्जत के लिए हम उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों को दहेज लेना ही पड़ता है.’’
उन्हें दहेज में कम से कम बीस लाख की गाड़ी और डैस्टिनेशन वैडिंग के साथसाथ घर भर की सामान, नए खरीदे फ्लैट का इंटीरियर, सोने के गहने, चांदी के बरतन, घर वालों को महंगे गिफ्ट और कैश इतना देना होगा जिस से वे अपनी बेटी की शादी भी निबटा लें.
शाहाना के पिता की आर्थिक स्थिति भी सामान्य थी और वह पिता जो बेटी पर एक दूध के पैसे के भी सौ हिसाब मांगता था, वह बेटी के लिए क्या खड़ा होता. आपसी समझ वाली बात ही नहीं थी यहां.
और शुभम चुप था, ‘‘मां के आगे मैं कुछ नहीं कहूंगा. मै एक आज्ञाकारी पुत्र हूं.’’
शाहाना शुभम को जितना पहचान रही थी वह खुद की पसंद पर नफरत करने लगी थी. शुभम के पास रीढ़ की हड्डी ही नहीं थी. एक तो दहेज और वो भी प्रेम में. रुपयों के लालच में वह मां के अन्याय को आज्ञा कह कर हाथ ?ाड़ रहा था.
शाहाना हार गई थी अपने प्रेम में. उस ने अचानक ठान लिया कि यह रिश्ता अकेले के वश की बात नहीं है. शादी के बाद इस से भी बुरा होगा. इस से अच्छा वह निकल ही आए इस रिश्ते से, भले ही अंदर घाव कितना भी गहरा हो जाए. उस ने इंडिया वापस आने के बाद अपने पापा को फोन किया और मां के कहेअनुसार बात की.
पापा सुदेश को जब मालूम हुआ कि बेटी किसी बड़ी टूर ट्रैवल कंपनी की सीईओ है और अगर कंपनी किसी तरह वह यहां शिफ्ट कर लेती है तो शुभम को हटा कर वह खुद कंपनी की आधी पार्टनरशिप रख लेगा. इस से एक तो वह नौकरी छोड़ देगा और ढेरों पैसे बेटी के मेहनत पर ही पा जाएगा, दूसरे बेटी घर पर रहेगी तो पूरी तरह उस के कब्जे में. कई लोगों में दूसरों को कंट्रोल में रखने का एक जनून होता है, हो सकता है यह एक मानसिक बीमारी हो.
शाहाना ने अभी पापा से कुछ और नहीं कहा सिवा इस के कि बिजनैस कर के पैसा कमाने के लिए वह इन लोगों के पास आई थी लेकिन ये लोग सारे पैसे लूट लेना चाहते हैं और अब वह अपने पिता के पास आना चाहती है.
सुदेश को लगा बेटी और उस के बिजनैस को हाथ करना आसान होगा, क्योंकि वह बहुत सीधी है. अत: वह पुणे आया और काफी बहसबाजी के बाद सुदेश के साथ शाहाना अपने घर की ओर रवाना हुई पर रवाना हुई दिल पर बहुत सारे चुभे हुए कांटे ले कर. दर्द की इंतहा थी. कालेज के दिनों का शुभम बुरी तरह याद आ रहा था.
आज शुभम की वजह से ही शुभम को खो दिया उस ने और इस नासूर से रिसते खून के दर्द को शुभम देख ही नहीं पाया. वह उस के लिए बस पैसे बनाने और घर के काम करने की एक मशीन हो कर रह गई थी. जहां प्यार और सम्मान न हो, कितना ही दुख क्यों न हो, उस रिश्ते से निकल आना ही बेहतर है.
घर आ कर शाहाना को इतने बड़े झटके से उबरने का मौका ही नहीं दिया गया. उस के शोक उस के दिल में लगातार घाव कुरेद रहे थे और वह पिता को अलग झेल रही थी. ‘लिवाना’ का काम उसे करना पड़ रहा था क्योंकि क्लाइंट आ रहे थे, उन्हें फेंका नहीं जा सकता था. उन के सामने शाहाना की साख की भी बात थी. मगर वह धीरेधीरे सब सोच भी रही थी कि इस कंपनी से कैसे निकले या अपने लिए कोई नई कंपनी खोले लेकिन इस के पिता उसे दिन रात इस कंपनी में पार्टनरशिप देने या जल्दी नई कंपनी खोलने के लिए इतना ज्यादा विवश करने लगे कि वह फिर से खुद को सिलबट्टे में पिसा हुआ महसूस करने लगी.
शाहाना की दिक्कतों को समझे बिना सुदेश अपने लिए पीछे ही पड़ गया. शाहाना की रात की नींद उड़ गई. शुभम भी फोन कर के परेशान करने लगा. सिर्फ पैसे और पैसे, पिता हो या प्यार सभी दमड़ी के लिए मक्खी की तरह उस की चमड़ी खींचते चले जा रहे थे. पिता दिनरात उसे धमकाता, शुभम दिनरात पैसे मांगता क्योंकि कंपनी के अकाउंट का होल्ड शाहाना के पास था और शुभम और उस के मां बाप कंपनी खाली करने में लगे थे.
शाहाना ने तय किया, ‘‘बस अब और नहीं. निकाल फेंकना है जिंदगी से इन स्वार्थी कीड़ों को. उस ने मां से अपनी मंशा बताई और मां ने उसे गले लगा कर आशीष दिया.
शाहाना अब एक बड़े शहर में आ गई है. किराए पर अपना फ्लैट लिया है, खुद की मेहनत और तपस्या के फल ‘लिवाना’ कंपनी से खुद को अलग कर लिया है, साथ ही दिल लोहे का कर लिया है.
एक नई कंपनी के साथ फिर से अपनी नई जिंदगी की शुरुआत की है शाहाना ने. भले ही उस ने दर्द देने वाले बहुत सारे रिश्तों को खो दिया है लेकिन बदले में खुद को पाया है. इस बार खुद के प्यार में है वह. खुद से कहते हुए कि चलो जिया जाए.