आसान नहीं था, फिर भी दूसरे दिन सुबह से तन्वी ने सब कुछ भुला कर सामान्य रूप से दिनचर्या शुरू कर दी, क्योंकि उसे अपने मानअपमान से ज्यादा आस्था की चिंता थी. वह नहीं चाहती थी कि उस की बेटी आस्था के कोमल मन पर उस के मातापिता की आपसी तकरार का बुरा असर पड़े.
जिस प्रकार गाड़ी का एक पहिया पंक्चर हो जाए तो गाड़ी सही तरीके से चल तो नहीं सकती सिर्फ कुछ दूर तक घसीटी जा सकती है, ठीक उसी तरह तन्वी को भी लगने लगा था कि जहां तक भी हो सके, अपनी जिंदगी की गाड़ी को घसीटते जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है.
गृहस्थी बचाने के लिए अंतर्मन पर पड़ती चोटों को लगातार अनदेखा करती जा रही तन्वी के मन में खुशहाल जिंदगी का सपना सच होने की एक उम्मीद अचानक जाग गई, जब एक दिन औफिस से बड़े अच्छे मूड में आ कर अजीत ने तन्वी से कहा कि औफिस में लगातार 3 दिनों की छुट्टी पड़ रही है अत: 2 दिन के फैमिली टूर का प्रोग्राम औफिस से बनाया गया है. तुम तैयारी कर लो. शुक्रवार की शाम को चलना है.
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सुन कर तन्वी को अच्छा लगा. वह सोचने लगी कि ऐसे कार्यक्रमों से थोड़ा मूड भी बदलेगा और दूसरे पतियों को देख कर शायद अजीत के व्यवहार में भी कुछ सुधार हो.
पर कुछ भी सुधार हुआ होता तो भला आज तन्वी अपने हाथों से अपनी जिंदगी बिखेर कर क्यों निकल पड़ती? शुक्रवार को निश्चित समय से पहले ही तन्वी पूरी तरह तैयार हो चुकी थी. घर से निकलने से पहले जब उस ने आस्था को गोद में उठाया, तो उस ने देखा कि आस्था ने पौटी की हुई है. उस ने अजीत से
2 मिनट में आने को कहा और आस्था को ले कर बाथरूम की ओर चल पड़ी.
‘‘इस निकम्मी को सिवा इस के और कुछ आता भी है?’’ बाथरूम की ओर जाती तन्वी के कान में अजीत का यह वाक्य पड़ा तो दिल किया कि पलट कर इस का करारा जवाब दे पर अच्छाखासा माहौल वह खराब नहीं करना चाहती थी अत: चुप रह गई. उस ने फटाफट आस्था को साफ किया और उस की नैपी को कागज में लपेट कर डस्टबिन में डाल दिया. आस्था को पैंट पहनाती हुई ही 2 मिनट से कम समय में ही तन्वी बाहर आ गई. बाहर आ कर देखा तो उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. बाहर न तो आटो था और न ही अजीत. तन्वी का सूटकेस गेट के पास पड़ा हुआ था. अजीत तन्वी को छोड़ कर चला गया था.
आश्चर्य से तन्वी का मुंह खुला का खुला रह गया. अजीत ऐसा भी कर सकता है उस को यकीन नहीं आ रहा था. अपनी तसल्ली के लिए उस ने इधरउधर झांक कर देखा भी, पर उस का क्या फायदा था. उस की आंखें अपमान और आक्रोश के मिश्रित आंसुओं से झिलमिलाने लगीं. एक ऐसा आक्रोश, जिसे वह न चीख कर व्यक्त कर सकती थी न चिल्ला कर. अपमान की ऐसी अनुभूति, जो पल भर में ही पूरा शरीर जला गई. विवेकशून्य सी तन्वी दरवाजे पर ही खड़ी रह गई.
उस की सहेली नीरू को उस के प्रोग्राम की जानकारी थी और वह उसे बाय करने के मकसद से अपने घर के बाहर खड़ी थी. उस ने सब कुछ देखा तो सोच में डूब गई कि ऐसे इंसान के साथ आखिर तन्वी कैसे जीवन बिता रही है? तन्वी की दशा वह अच्छी तरह समझ रही थी अत: उस का मन बहलाने के लिए उसे अपने घर में चाय पीने के लिए बुला लिया. उस दिन नीरू के सामने तन्वी अपने को रोक न सकी और रोरो कर अपनी सारी पीड़ा बहा दी.
उस ने कहा, ‘‘नीरू, मैं यह अच्छी तरह समझ चुकी हूं कि अजीत एक कायर और कर्तव्यविमुख आदमी है. वह अपनी जिम्मेदारियों से हमेशा मुंह छिपाता रहता है और मैं या कोई और उसे कुछ कहे, इस से पहले ही वह मुझ पर आरोप मढ़ देता है और माहौल इतना खराब कर देता है कि मुख्य मुद्दा ही खत्म हो जाए. मैं उस की इस कमजोरी को समझ चुकी हूं और उस के आधार पर खुद को ढाल कर जीना शुरू कर दिया था, तो अब उस के अंदर की हीनभावना ने मेरा जीना हराम कर दिया है.
‘‘मेरा किया कोई अच्छा काम या किसी के द्वारा की गई मेरी तारीफ वह बरदाश्त नहीं कर पाता है और मौकेबेमौके जगहजगह पर मुझे अपमानित कर आत्मसंतुष्टि महसूस करता है. मेरे बरदाश्त की सीमा अब खत्म हो रही है, डर लगता है मैं कहीं कुछ कर न बैठूं. मेरी सहनशक्ति को अजीत मेरी कमजोरी मान बैठा है और दिनबदिन मेरा जीना हराम किए जा रहा है.’’
नीरू ने तन्वी को बड़े प्यार से समझाया कि घर की सुखशांति बनाए रखना और आस्था को बेहतर परवरिश देना दोनों की जिम्मेदारी उस की ही है. घर छोड़ देना या कुछ कर बैठना किसी समस्या का समाधान नहीं होता. वह थोड़ा सब्र करे और किसी दिन अच्छा समय देख कर अजीत से बात करे और उसे बताए कि उस के इस तरह के व्यवहार से न केवल उन की गृहस्थी पर बुरा असर पड़ रहा है, बल्कि आस्था का कोमल मन भी प्रभावित हो रहा है.
घर आ कर तन्वी बुरी तरह अपसैट थी. अजीत ने उस के साथ जो किया था उसे सोचसोच कर उस का दिल नफरत से भरता जा रहा था, पर नीरू की कही बात सोच कर उस ने एक बार अजीत से बात कर के सब कुछ ठीक करने की एक और कोशिश करने का निश्चय किया.
अजीत के वापस आने के कुछ ही दिन बाद उन की शादी की 12वीं सालगिरह पड़ी. तन्वी ने तय किया था कि उस दिन अजीत से बात कर के उपहार के बदले उस से उस के व्यवहार में कुछ परिवर्तन लाने का वादा लेगी.
उस दिन वह रोज की अपेक्षा जल्दी उठी और अजीत और आस्था के जगने से पहले ही घर का सारा काम यह सोच कर निबटा लिया कि आराम से बैठ कर अजीत से अपनी समस्याओं पर चर्चा करेगी. उस ने चाय बनाई और अजीत को उठाया. वह मन ही मन सोच रही थी कि किन शब्दों से अजीत को शादी की सालगिरह मुबारक कहे, तभी अजीत उस से अखबार मांग बैठा.
‘‘अखबार तो अभी नहीं आया है, थोड़ी देर में आएगा, तन्वी के इतना कहते ही अजीत ने चाय का कप दीवार पर दे मारा, ‘‘कितनी बार कहा है कि पेपर वाले को कहो कि पेपर जल्दी डाला करे, पेपर नहीं आया है तो क्या अपना थोबड़ा दिखाने के लिए उठा कर बैठा दिया मुझे?’’
बधाई देने और अपनी समस्या पर विचार करने के लिए हफ्ताभर सोचे गए उस के सारे शब्द धरे के धरे रह गए. वह पल ही तन्वी के लिए उस घर में अंतिम पल बन गया. पहली बार उस ने भी उस के ही शब्दों में उसे जवाब दिया और अपने हाथ में पकड़ा चाय का कप भी जमीन पर दे मारा. आक्रोश से भरी तन्वी ने उसी समय अपने और आस्था के कपड़े सूटकेस में डाले और सोती हुई आस्था को गोद में उठा कर घर से निकल गई.
अपने दुखद अतीत को पीछे छोड़ कर घर से निकल आई तन्वी रहरह कर अपने उठाए गए कदम और भविष्य को ले कर आशंकित होती जा रही थी, पर जब वह पिछले 12 वर्षों तक पाया तिरस्कार और अपमान याद करती थी तो उसे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं होता था.
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‘उस ने मुझे जो मानसिक यंत्रणाएं दी हैं, उस की सजा क्या मैं उसे दे सकूंगी? शायद पत्नी और बेटी के बिना उस के जीवन में आया खालीपन ही उस के लिए माकूल सजा होगा. अपने पैरों पर खड़े हो कर अपना व आस्था का भविष्य संवार पाने की आशा में ही मुझे अपना सुनहरा भविष्य दिखाई दे रहा है,’ आस्था के माथे पर हाथ रख कर यह सोचतेसोचते तन्वी ने आंखें बंद कर लीं.