अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ

मुहल्ले में जिस ने भी सुना, उस की आंखें विस्मय से फटी की फटी रह गईं… ‘सतीश दास मर गया.’ विस्मय की बात यह नहीं कि मरियल सतीश दास मर गया बल्कि यह थी कि वह पत्नी के लिए पूरे साढ़े 5 लाख रुपए छोड़ गया है. कोई सोच भी नहीं सकता था कि पैबंद लगे अधमैले कपड़े पहनने वाले, रोज पुराना सा छाता बगल में दबा कर सवेरे घर से निकलने, रात में देर से  लौटने वाले सतीश के बैंक खाते में साढ़े 5 लाख की मोटी रकम जमा होगी.

गली के बड़ेबूढ़े सिर हिलाहिला कर कहने लगे, ‘‘इसे कहते हैं तकदीर. अच्छा खाना- पहनना भाग्य में नहीं लिखा था पर बीवी को लखपती बना गया.’’ कुछ ने मन ही मन अफसोस भी किया कि पहले पता रहता तो किसी बहाने कुछ रकम कर्ज में ऐंठ लेते, अब कौन आता वसूल करने.

जीते जी तो सभी सतीश को उपेक्षा से देखते रहे, कोई खास ध्यान न देता जैसे वह कोई कबाड़ हो. किसी से न घनिष्ठता, न कोई सामाजिक व्यवहार. देर रात चुपचाप घर आना, खाना खा कर सो जाना और सवेरे 8 बजे तक बाहर…

महल्ले में लोगों को इतना पता था कि सतीश दास थोक कपड़ों की मंडी में दलाली किया करता है. कुछ को यह भी पता था कि जबतब शेयर मार्केट में भी वह जाया करता था. जो हो, सचाई अपनी जगह ठोस थी. पत्नी के नाम साढ़े 5 लाख रुपए निश्चित थे.

आमतौर पर बैंक वाले ऐसी बातें खुद नहीं बताते, नामिनी को खुद दावा करने जाना पड़ता है. वह तो बैंक का क्लर्क सुभाष गली में ही रहता है, उसी ने बात फैला दी. अमिता के घर यह सूचना देने सुभाष निजी रूप से गया था और इसी के चलते गली भर को मालूम हो गई यह बात.

वह नातेदार, पड़ोसी, जो कभी उस के घर में झांकते तक न थे, वह भी आ कर सतीश के गुणों का बखान करने लगे. गली वालों ने एकमत से मान लिया कि सतीश जैसा निरीह, साधु प्रकृति आदमी नहीं मिलता है. अपने काम से काम, न किसी की निंदा, न चुगली, न झगड़े. यहां तो चार पैसे पाते ही लोग फूल कर कुप्पा हो जाते हैं.

अमिता चकराई हुई थी. यह क्या हो गया, वह समझ नहीं पा रही थी.

उसे सहारा देने दूर महल्ले के मायके से मां, बहन और भाई आ पहुंचे. बाद में पिताजी भी आ गए. आते ही मां ने नाती को गोद में उठा लिया. बाकी सब भी अमिता के 4 साल के बच्चे राहुल को हाथोंहाथ लिए रहते.

मां ने प्यार से माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘मुन्नी, यों उदास न रहो. जो होना था वह हो गया. तुम्हें इस तरह उदास देख कर मेरी तो छाती फटती है.’’

पिता ने खांसखंखार कर कहा, ‘‘न हो तो कुछ दिनों के लिए हमारे साथ चल कर वहीं रह. यहां अकेली कैसे रहेगी, हम लोग भी कब तक यहां रह सकेंगे.’’

‘‘और यह घर?’’ अमिता पूछ बैठी.

‘‘अरे, किराएदारों की क्या कमी है, और कोई नहीं तो तुम्हारे मामा रघुपति को ही रख देते हैं. उसे भी डेरा ठीक नहीं मिल रहा है, अपना आदमी घर में रहेगा तो अच्छा ही होगा.’’

‘‘सुनते हो जी,’’ मां बोलीं, ‘‘बेटी की सूनी कलाई देख मेरी छाती फटती है. ऐसी हालत में शीशे की नहीं तो सोने की चूडि़यां तो पहनी ही जाती हैं, जरा सुखलाल सुनार को कल बुलवा देते.’’

‘‘जरूर, कल ही बुला देता हूं.’’

अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.

सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.

अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.

बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थी.

अमिता के मायके का रुख देख कर पासपड़ोस की औरतों ने आना लगभग छोड़ सा दिया. अमिता और उस के मायके वालों की महल्ले भर में कटु आलोचनाएं होने लगीं.

‘‘पैसा क्या मिला दिमाग आसमान पर चढ़ गया है… कोई पूछे, तमाम दुनिया में तुम्हीं एक अनोखी लखपती हो क्या?’’

‘‘हम तो गए थे हालचाल पूछने, घड़ी दो घड़ी बातचीत करने, लेकिन घर वाले यों घूर कर देखते हैं जैसे कुछ चुराने या मांगने आए हों.’’

‘‘लानत भेजो जी, तुम देखना, घर वाले सारा पैसा चूस कर अमिता को छोड़ देंगे…’’

पड़ोसियों की इन बातों से अमिता अनजान नहीं थी. मां ने अफसोस से कहा, ‘‘कैसा सूनासूना लगता है बेटी का गला. बेटी, मेरा हार यों ही पड़ा है. ठहरो, ला देती हूं. गले में कुछ डाले रहो…’’

यही मां है. अभी 2 साल की ही तो बात है, सतीश के साथ एक विवाह में अमिता को जाना पड़ा था. यों तो वह कहीं साथ नहीं जाते थे, लेकिन एक थोक कपड़ा व्यापारी सतीश के खास दोस्त थे, उन के घर विवाह में वह सपरिवार वहां निमंत्रित थे. अमिता के कानों में हलके रिंग थे, लेकिन कलाई और गले में भी तो कुछ चाहिए, सूना गला नहीं जंचता था. मां से हार मांगने गई थी कि शादी में पहनेगी और वापस कर देगी. लेकिन मां ने यह कह कर साफ इंकार कर दिया था कि शादीब्याह की भीड़ में कोई छीन कर भाग जाएगा तो?

और आज वही मां उस के सूने गले में अपना वही हार डालने को बेचैन हैं.

मन में कितनी कटु बातें उमड़ीं, लेकिन वह बोली, ‘‘नहीं मां, वह पुराने फैशन का हार मुझ से नहीं पहना जाएगा. मैं हार बनवा लूंगी…’’

कई बार सतीश से वह झगड़ी थी, ‘कहीं आनाजाना हो तो गले में कुछ तो चाहिए.’ वह चुपचाप सुन लेता.

मां ने सुखलाल सुनार से अमिता के खर्चे पर ही उसे 4 सोने की चूडि़यां बनवा दी थीं, लेकिन वह दोपहर में बिना किसी को कुछ बताए कपड़े बदल कर निकल पड़ी. जौहरी बाजार उस का देखा हुआ था. रिकशे से सीधी वहीं पहुंची और एक दुकान में घुस गई. दुकानदार ने हार दिखाए. दाम पूछ कर उस ने एक हलका सा किंतु कीमती हार चुन लिया. सोने की शुद्धता की गारंटी दुकानदार ने खुद दे दी और साथ में यह भी कहा, ‘‘बहनजी, इसे आप अपनी ही दुकान समझें. कुछ भी लेनादेना  या तुड़वाना हो तो हम सेवा के लिए ही हैं.’’

अमिता लौटी. मन में एक तृप्ति थी. रुपया भी क्या चीज है. उस के मन में एक सुखद अनुभूति थी. हार देख कर मां और बहन की आंखें फटी की फटी रह गईं.

अमिता मन में सोचने लगी कि रुपए के लिए वह बेचारे जिंदगी भर खटते रहे, मेहनत की, न अच्छा खायापिया न पहना और मुझ को लखपती बना गए. उस का मन भर आया. वह सतीश की फोटो के आगे सिर झुका कर बुदबुदाई, ‘तुम्हारी मेहनत के पैसों का…ध्यान रखूंगी…यों ही बरबाद न होने दूंगी…अपनेपराए बहुत पहचान में आ रहे हैं…पैसा सब की कलई उतार देता है…’

पिता नगर निगम की क्लर्की से रिटायर हुए थे. पेंशन से घर चलाना कठिन होने पर कपड़ा मंडी में उन्होंने एक दुकान का बहीखाता लिखने का काम संभाल लिया था. वह एक दिन घबराए हुए आए. बताया कि बरसों पहले आफिस से एक मित्र क्लर्क को बैंक से लोन लेने में उन्होंने अपनी जमानत दी थी. पूरा कर्ज वसूल न हो पाया, मित्र रिटायर हो कर न जाने कहां चला गया है, पता नहीं लगता और बैंक वालों ने उन पर दावा दायर कर दिया है. अब 15 दिनों में रकम जमा न करने पर घर का सामान नीलाम करा लेंगे या मुझे जेल यात्रा करनी पड़ेगी.

पिता के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. मां रोने लगीं.

‘‘कितनी रकम का कर्ज था?’’ अमिता ने सहमते हुए पूछा.

‘‘कर्ज तो 50 हजार का था पर उस ने किस्तों में 30 हजार दे दिए थे, बाकी के 20 हजार का दावा बैंक वालों ने किया है…’’

मां ने रोते हुए अमिता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटी, अब तुम्हारे ही ऊपर है, इन्हें जेल जाने से बचाओ…’’

अमिता ने बैंक द्वारा भेजे गए कागज देखने चाहे. पिता का चेहरा उतर गया. बोले, ‘‘बैंक ने अभी तो सम्मन नहीं भेजा है, लेकिन वहां के एक जानपहचान के आदमी ने बताया है कि जल्द भेजने की तैयारी हो रही है. उस ने राय दी है कि मैं मैनेजर से मिल लूं और शीघ्र रुपए की व्यवस्था करूं.’’

‘‘तो कागज आने दीजिए, तब देखेंगे.’’

‘‘तुम बात नहीं समझीं. सम्मन आने पर तुरंत बात फैल जाएगी, क्या इज्जत रहेगी तब?’’

मां ने कातर भाव से कहा, ‘‘बेटी, अब मांबाप की इज्जत तुम्हीं बचा सकती हो.’’

अमिता ने चेकबुक निकाली और पिता के नाम 20 हजार रुपए की राशि भर उन्हें चेक दे दिया.

मांबाप ने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी. घर का वातावरण फिर सहज होने लगा.

अमिता ने हिसाब लगाया. खर्च के लिए पहले निकाली रकम 25 हजार लगभग खत्म होने को है. अब यह 20 हजार और बैंक की रकम से निकल गई. यों ही यदि चलता रहा, तो…

सुबह राहुल को स्कूल की बस ले गई तो वह कपड़े बदल कर बैंक के क्लर्क सुभाषचंद्र के घर गई. वह बैंक जाने की तैयारी में थे और उन की पत्नी टिफिन में खाना रख रही थी. दोनों ने बड़े अपनेपन से अमिता का स्वागत किया. सुभाष की पत्नी उस के लिए चाय बनाने चली गई.

‘‘सुभाषजी,’’ अमिता बोली, ‘‘मैं सोचती हूं कि बैंक में पड़ी रकम के लिए कुछ ऐसा उपाय हो कि जब तब उस में से रुपए निकाले न जा सकें, सुरक्षित रहें.’’

‘‘वही तो मैं आप को राय देना चाहता था,’’ सुभाषचंद्र ने उत्साह से कहा, ‘‘आप ने कल 20 हजार का एक चेक भुनवाया है. मेरी सलाह मानिए तो पूरी रकम को 5 साल के लिए फिक्स्ड डिपाजिट में डाल दें. ब्याज भी अधिक मिलेगा और रकम भी सुरक्षित रहेगी.’’

उन्होंने अमिता को विस्तार से चालू और सावधिक खातों के बारे में समझाया. अमिता ने राहुल की फीस, किताब, कापी, कपड़ों और अपने अन्य खर्चों के बारे में बताया तो सुभाष ने कहा, ‘‘आप की जो जमा रकम है, उस पर हर साल 25 हजार से ज्यादा का ब्याज मिलेगा. आप प्रतिमाह 2 हजार उस में से ले सकती हैं. इस के लिए आप को बैंक को लिखित रूप में देना होगा. इतने में तो आप के जरूरी घरेलू खर्च चल जाने चाहिए.’’

उन्होंने राहुल को नौमनी बनाते हुए अमिता को अपना जीवनबीमा करा लेने की सलाह भी दी.

अमिता के आगे सुरक्षा का नया संसार खुल गया. मन की चिंता दूर हो गई. सुभाष के साथ वह बैंक गई और जमा राशि को फिक्स्ड डिपाजिट में करवा देने की काररवाई उसी दिन पूरी कर दी.

बैंक से फोन कर सुभाष ने बीमा कार्यालय के एक एजेंट को वहां बुलवाया और अमिता से परिचय कराते हुए जीवन बीमा पालिसी के बारे में बातें कीं.

एजेंट विवेक ने अमिता को विभिन्न पालिसियों के बारे में समझाया और शाखा कार्यालय में ले जा कर फार्म भरवाने के साथसाथ अन्य जांचों की भी काररवाई पूरी करा दी.

बीमे की किस्त अमिता को हर 3 माह पर नकद देनी थी. विवेक ने जिम्मा लिया कि वह समय पर आ कर रुपए ले जा कर कागजी काररवाई निबटा देगा.

अमिता लगभग 4 बजे घर पहुंची तो सब चिंतित थे. मां ने पूछा, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी, बेटी?’’

‘‘बैंक गई थी मां, कुछ और भी जरूरी काम थे…’’

घर वालों के चेहरे आशंकाओं से घिर गए कि बैंक क्या करने गई थी. पर पूछने का साहस किसी में न हुआ.

2 दिन बाद छोटा भाई ललित आया और बोला, ‘‘दीदी, कालिज से 20 लड़कों का एक ग्रुप विन्टरविकेशन में गोआ घूमने जा रहा है, हर लड़के को 5 हजार जमा करने पड़ेंगे…’’

अमिता ने सख्ती से कहा, ‘‘अभी, गरमियों की छुट्टी में तुम मसूरी घूमने गए थे न? हर छुट्टी में मटरगश्ती गलत है. तुम्हें छुट्टियों में यहीं रह कर वार्षिक परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए. मैं इतने रुपए न जुटा सकूंगी…’’

ललित का चेहरा उतर गया. मां भी अमिता का रुख देख कुछ न कह सकीं.

3 माह पूरे होने पर विवेक आ कर बीमे की किस्त ले गया और कागजों पर उस से हस्ताक्षर भी कराए. अमिता ने साफ शब्दों में मां को बता दिया कि उसे अब राहुल की फीस और ललित की कोचिंग की फीस ही देने योग्य आय होगी, वीणा की फीस पिताजी जैसे पहले देते थे, दिया करें.

विवेक की सलाह से अमिता ने एक स्वयंसेवी संस्था की सदस्यता ग्रहण कर ली. उस के कार्यक्रमों में वह अधिकतर घर के बाहर ही रहने लगी. बाहरी अनुभव बढ़ने और व्यस्तता के चलते अब अमिता का तनमन अधिक खुश रहने लगा.

विवेक से अमिता की अच्छी पटने लगी. अकसर दोनों साथ ही बाहर घूमनेफिरने निकलते. यह देख कर मांपिता सहमते, किंतु सयानी और लखपती बेटी को क्या कहते. उस के कारण घर की हालत बदली थी.

साल भर बाद ही एक दिन अमिता, मां से बोली, ‘‘मां, मैं ने विवेक से विवाह करना तय कर लिया है, तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए…’’

मां को तो कानों पर विश्वास ही न हुआ. हतप्रभ सी खड़ी रह गईं. बगल के कमरे से पिताजी भी आ गए, ‘‘क्या हुआ? मैं क्या सुन रहा हूं?’’

‘‘मैं विवेक के साथ विवाह करने जा रही हूं, आशीर्वाद दें.’’

मां फट पड़ीं, ‘‘तेरी बुद्धि तो ठीक है, भला कोई विधवा…’’ तभी विवेक आ गया. उसे देख कर मां खामोश हो गईं. लेकिन आतेआते उस ने उन की बातें सुन ली थीं, अंतत: हंस कर विवेक बोला, ‘‘मांजी, आप किस जमाने की बात कह रही हैं? अब जमाना बदल गया है. अब विधवा की दोबारा शादी को बुरा नहीं समझा जाता. जब हमें कोई आपत्ति नहीं है तो दूसरों से क्या लेनादेना. खैर, आप लोगों का आशीर्वाद हमारे साथ है, ऐसा हम ने मान लिया है. चलो, अमिता.’’

उसी दिन आर्यसमाज मंदिर में उन का विवाह संपन्न हो गया. मन में सहमति न रखते हुए भी अमिता के मातापिता व भाईबहन विवाह समारोह में शामिल हुए. मांपिता ने कन्यादान किया. विवेक के घर में केवल मां और छोटी बहन थीं और विवेक के आफिस के सहयोगी भी पूरे उत्साह के साथ सम्मिलित हुए. साथियों ने निकट के रेस्तरां में नवदंपती के साथ सब की दावत की.

अमिता ने मांपिता के पैर छुए. फिर अमिता के साथ सभी लोग उस के घर आ गए तो विवेक की मां ने कहा, ‘‘समधीजी, अब अमिता को विदा कीजिए. वह अब मेरी बहू है, उसे अपने घर जाने दें…’’

पिता की जबान खुली, ‘‘लेकिन, राहुल…’’

विवेक की मां ने हंस कर कहा, ‘‘राहुल विवेक को बहुत चाहता है, विवेक भी उसे अपने बेटे की तरह प्यार करता है. बच्चे को उस का पिता भी तो मिलना चाहिए.’’

अमिता बोली, ‘‘पिताजी, मेरे इस घर को फिलहाल किराए पर उठा दें. उस पैसे से भाईबहनों की पढ़ाई, घर की देखभाल आदि का खर्च निकल आएगा.’’

चलते समय विवेक ने अमिता के मातापिता से कहा, ‘‘पिताजी, मैं ने अमिता से स्पष्ट कह दिया है कि तुम्हारा जो धन है वह तुम्हारा ही रहेगा, तुम्हारे ही नाम से रहेगा. मैं खुद अपने परिवार, पत्नी और पुत्र के लायक बहुत कमा लेता हूं. आप ऐसा न सोचें कि उस के धन के लालच से मैं ने शादी की है. वह उस का, राहुल का है.’’

फिर मातापिता के पैर छू कर विवेक और अमिता थोड़े से सामान और राहुल को साथ लेकर चले गए.

 

अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ?

लखनऊ छोड़े मुझे 20 साल हो गए. छोड़ना तो नहीं चाहती थी पर जब पराएपन की बू आने लगे तो रहना संभव नहीं होता. जबतक मेरी जेठानी का रवैया हमारे प्रति आत्मिक था, सब ठीक चलता रहा पर जैसे ही उन की सोच में दुराग्रह आया, मैं ने ही अलग रहना मुनासिब समझा.

आज वर्षों बाद जेठानी का खत आया. खत बेहद मार्मिक था. वे मेरे बेटे प्रखर को देखना चाहती थीं. 60 साल की जेठानी के प्रति अब मेरे मन में कोई मनमुटाव नहीं रहा. मनमुटाव पहले भी नहीं था, पर जब स्वार्थ बीच में आ जाए तो मनमुटाव आना स्वाभाविक था.

शादी के बाद जब ससुराल में मेरा पहला कदम पड़ा तब मेरी जेठानी खुश हो कर बोलीं, ‘‘चलो, एक से भले दो. वरना अकेला घर काटने को दौड़ता था.’’

वे निसंतान थीं. तब भी उन का इलाज चल रहा था पर सफलता कोसों दूर थी. प्रखर हुआ तो मुझ से ज्यादा खुशी उन्हें हुई. हालांकि दिल में अपनी औलाद न होने की कसक थी, जिसे उन्होंने जाहिर नहीं होने दिया. बच्चों की किलकारियों से भला कौन वंचित रहना चाहता है. प्रखर ने घर की मनहूसियत को तोड़ा.

जेठानी ने मुझ से कभी परायापन नहीं रखा. वे भरसक मेरी सहायता करतीं. मेरे पति की आय कम थी. इसलिए वक्तजरूरत रुपएपैसों से मदद करने में भी वे पीछे नहीं हटतीं. प्रखर के दूध का खर्च वही देती थीं. कपड़े आदि भी वही खरीदतीं. मैं ने भी उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया. प्रखर को वे संभालतीं, तो घर का सारा काम मैं देखती. इस तरह मिलजुल कर हम हंसी- खुशी रह रहे थे.

हमारी खुशियों को ग्रहण तब लगा जब मुझे दूसरा बच्चा होने वाला था. नई तकनीक से गर्भधारण करने की जेठानी की कोशिश असफल हुई और डाक्टरों ने कह दिया कि इन की मां बनने की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो गई, तो वे बुझीबुझी सी, उदास रहने लगीं. न उन में पहले जैसी खुशी रही न उत्साह. उन के मां न बन पाने की मर्मांतक पीड़ा का मुझे एहसास था, क्योंकि मैं भी एक मां थी. इसलिए प्रखर को ज्यादातर उन्हीं के पास छोड़ देती. वह भी बड़ी मम्मी, बड़ी मम्मी कह कर उन्हीं से चिपका रहता. रात को उन्हीं के पास सोता. उन की भी आदत कुछ ऐसी बन गई थी कि बिना प्रखर के उन्हें नींद नहीं आती. मैं चाहती थी कि वे किसी तरह अपने दुखों को भूली रहें.

जब मुझे दूसरा बच्चा होने को था, पता नहीं मेरे जेठजेठानी ने क्या मशविरा किया. एक सुबह वे मुसकरा कर बोलीं, ‘‘बबली, इस बच्चे को तू मुझे दे दे,’’ मैं ने इसे मजाक  समझा और उसी लहजे में बोली, ‘‘दीदी, आप दोनों ही रख लीजिए.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही,’’ वे थोड़ा गंभीर हुईं.

‘‘मैं चाहती हूं कि तुम इस बच्चे को कानूनन मुझे दे दो. मैं तुम्हें सोचने का मौका दूंगी.’’

जेठानी के कथन पर मैं संजीदा हो गई. मेरे चेहरे की हंसी एकाएक गुम हो गई. ‘कानूनन’ शब्द मेरे मस्तिष्क में शूल की भांति चुभने लगा.

शाम को मेरे पति औफिस से आए, तो मैं ने जेठानी का जिक्र किया.

‘‘दे दो, हर्ज ही क्या है. भैयाभाभी ही तो हैं,’’ ये बोले.

मैं बिफर पड़ी, ‘‘कैसे पिता हैं? आप को अपने बच्चे का जरा भी मोह नहीं. एक मां से पूछिए जो 9 महीने किन कष्टों से बच्चे को गर्भ में पालती है?’’

‘‘भैया हैं, कोई गैर नहीं.’’

‘‘मैं ने कब इनकार किया. फिर भी कैसे बरदाश्त कर पाऊंगी कि मेरा बच्चा किसी और की अमानत बने. मैं अपने जीतेजी ऐसा हर्गिज नहीं होने दूंगी.’’

‘‘मान लो लड़की हुई तो?’’

‘‘लड़का हो या लड़की. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘मुझे पड़ता है. सीमित आमदनी के चलते कहां से लाएंगे दहेज के लिए लाखों रुपए. भैयाभाभी तो संपन्न हैं. वे उस की बेहतर परवरिश करेंगे.’’

‘‘परवरिश हम भी करेंगे. मैं कुछ भी करूंगी पर अपने कलेजे के टुकड़े को यों जाने नहीं दूंगी,’’ मैं ने आत्मविश्वास के साथ जोर दे कर कहा.

‘‘सोच लो. बाद में पछताना न पड़े.’’

‘‘हिसाबकिताब आप कीजिए. प्रखर मुझ से ज्यादा उन के पास रहता है. क्या मैं ने कभी एतराज किया? जो आएगा उसे भी वही पालें, पर मेरी आंखों के सामने. मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा. उलटे मुझे खुशी होगी कि इसी बहाने खून की कशिश बनी रहेगी.’’

मेरे कथन से मेरे पति संतुष्ट न थे. फिर भी मैं ने मन बना लिया था कि लाख दबाव डालें मैं अपने बच्चे को उन्हें गोद लेने नहीं दूंगी. वैसे भी जेठानीजी को सोचना चाहिए कि क्या जरूरी है कि गोद लेने से बच्चा उन का हो जाएगा? बच्चा कोई सामान नहीं जो खरीदा और अपना हो गया. कल को बच्चा बड़ा होगा, तो क्या उसे पता नहीं चलेगा कि उस के असली मांबाप कौन हैं? वे क्या बच्चा ले कर अदृश्य हो जाएंगी. रहेगा तो वह हम सब के बीच ही.

मुझे जेठानी की सोच में क्षुद्रता नजर आई. उन्होंने हमें और हमारे बच्चों को गैर समझा, तभी तो कानूनी जामा पहनाने की कोशिश कर रही हैं. ताईताऊ, मांबाप से कम नहीं होते बशर्ते वे अपने भतीजों को वैसा स्नेह व अपनापन दें. क्या निसंतान ताईताऊ प्रखर की जिम्मेदारी नहीं होंगे?

15 दिन बाद उन्होंने मुझे पुन: याद दिलाया तो मैं ने साफ मना कर दिया, ‘‘दीदी, मुझे आप पर पूरा भरोसा है, पर मेरा जमीर गवारा नहीं करता कि मैं अपने नवजात शिशु को आप को सौंप दूं. मैं इसे अपनी सांसों तले पलताबढ़ता देखना चाहती हूं. वह मुझ से वंचित रहे, इस से बड़ा गुनाह मेरे लिए कोई नहीं. मैं अपराध बोध के साथ नहीं जी सकूंगी.’’

क्षणांश मैं भावुक हो उठी. आगे बोली, ‘‘ताईताऊ मांबाप से कम नहीं होते. मुझ पर यकीन कीजिए, मैं अपने बच्चों को सही संस्कार दूंगी.’’

मेरे कथन पर उन का मुंह बन गया. वे कुछ बोलीं नहीं पर पति (जेठजी) से देर तक खुसरपुसर करती रहीं. कुछ दिन बाद पता चला कि वे मायके के किसी बच्चे को गोद ले रही हैं. वैसे भी कानूनन गोद लेने की सलाह मायके वालों ने ही उन्हें दी थी. वरना रिश्तों के बीच कोर्टकचहरी की क्या अहमियत?

आहिस्ताआहिस्ता मैं ने महसूस किया कि अब जेठानी में प्रखर के प्रति वैसा लगाव नहीं रहा. दूध का पैसा इस बहाने से बंद कर दिया कि अब उन के लिए संभव नहीं. मुझे दुख भी हुआ, रंज भी. एक प्रखर था, जो दिनभर ‘बड़ीमम्मी’, ‘बड़ीमम्मी’ लगाए रखता था. मैं ने अपने बच्चों के मन में कोई दुर्भावना नहीं भरी. जब मैं ने बच्ची को जन्म दिया तो जेठानी ने सिर्फ औपचारिकता निभाई. जहां प्रखर के जन्म पर उन्होंने दिल खोल कर पार्टी दी थी, वहीं बच्ची के प्रति कृपणता मुझे खल गई. मैं ने भी साथ न रहने का मन बना लिया. घर जेठानी का था. उन्हीं के आग्रह पर रहती थी. जब स्वार्थों की गांठ पड़ गई, तो मुझे घुटन होने लगी. दिल्ली जाने लगी तो जेठ का दिल भर आया. प्रखर को गोद में उठा कर बोले, ‘‘बड़े पापा को भूलना मत,’’ मेरी भी आंखें भर गईं पर जेठानी उदासीन बनी रहीं.

20 साल गुजर गए. मैं एक बार लखनऊ तब आई थी जब जेठानी ने अपनी बहन के छोटे बेटे को गोद लिया था. इस अवसर पर सभी जुटे थे. उन के चेहरे पर अहंकार झलक रहा था, साथ में व्यंग्य भी. जितने दिन रही, उन्होंने हमारी उपेक्षा की. वहीं मायके वालों को सिरआंखों पर बिठाए रखा. इस उपेक्षा से आहत मैं दिल्ली लौटी तो इस निश्चय के साथ कि अब कभी उधर का रुख नहीं करूंगी.

आज 20 साल बाद भीगे मन से उन्होंने मुझे याद किया, तो मैं उन के प्रति सारे गिलेशिकवे भूल गई. उन्हें सहीगलत की पहचान तो हुई? यही बात उन्हें पहले समझ में आ जाती तो हमारे बीच की दूरियां न होतीं. 20 साल मैं ने भी असुरक्षा के माहौल में काटे. एकसाथ रहते तो दुखसुख में काम आते. वक्तजरूरत पर सहारे के लिए किसी को खोजना तो न पड़ता.

खत इस प्रकार था : ‘कागज पर लिख देने से न तो गैर अपना हो जाता है, न मिटा देने से अपना गैर. मैं ने खून से ज्यादा कागजों पर भरोसा किया. उसी का फल भुगत रही हूं. जिसे कलेजे से लगा कर रखा, पढ़ालिखा कर आदमी बनाया, वही ठेंगा दिखा कर चला गया. जो खून से बंधा था उसे कागज से बांधने की नादानी की. ऐसा करते मैं भूल गई थी कि कागज तो कभी भी फाड़ा जा सकता है. रिश्ते भावनाओं से बनते हैं. यहीं मैं चूक गई. मैं भी क्या करती. इस भय से एक बच्चे को गोद ले लिया कि इस पर किसी का कोई हक नहीं रह जाएगा. वह मेरा, सिर्फ मेरा रहेगा. मैं यह भूल गई थी कि 10 साल जिस बच्चे ने मां के आंचल में अपना बचपन गुजारा हो, वह मुझे मां क्यों मानेगा?

‘मैं भी स्वार्थ में अंधी हो गई थी कि वह मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा. उस मां के बारे में नहीं सोचा जिस ने उसे पैदा किया कि क्या वह ऐसा चाहेगी? सिर्फ नाम का गोदनामा था, इस की आड़ में मेरी बहन का मुख्य मकसद मेरी धनसंपदा हथियाना था, जिस में वह सफल रही. मैं यह तो नहीं कहूंगी कि प्रखर को मेरे पास बुढ़ापे की सेवा के लिए भेज दो, क्योंकि यह हक मैं ने खो दिया है फिर भी उस गलती को सुधारना चाहती हूं जो मैं ने 20 साल पहले की थी.’

पत्र पढ़ने के बाद मैं तुरंत लखनऊ आई. मेरे जेठ को फालिज का अटैक था. हमें देखते ही उन की आंखें भर आईं. प्रखर ने पहले ताऊजी फिर ताईजी के पैर छुए, तो जेठानी की आंखें डबडबा गईं. सीने से लगा कर भरे गले से बोलीं, ‘‘बित्ते भर का था, जब तुझे पहली बार सीने से लगाया था. याद है, मेरे बगैर तुझे नींद नहीं आती थी. मां की मार से बचने के लिए मेरे ही आंचल में सिर छिपाता था.’’

‘‘बड़ी मम्मी,’’ प्रखर का इतना कहना भर था कि जेठानीजी अपने आवेग पर नियंत्रण न रख सकीं. फफक कर रो पड़ीं.

‘‘मैं तो अब भी आप की चर्चा करता हूं. मम्मी से कितनी बार कहा कि मुझे बड़ी मम्मी के पास ले चलो.’’

‘‘क्यों बबली, हम क्या इतने गैर हो गए थे. कम से कम अपने बेटे की बात तो रखी होती. बड़ों की गलती बच्चे ही सुधारते हैं,’’ जेठानीजी ने उलाहना दिया.

‘‘दीदी, मुझ से भूल हुई है,’’ मेरे चेहरे पर पश्चात्ताप की लकीरें खिंच गईं.

2 दिन हम वहां रहे. लौटने को हुई तो मैं ने महसूस किया कि जेठानीजी कुछ कहना चाह रही थीं. संकोच, लज्जा जो भी वजह हो पर मैं ने ही उन से कहा कि क्या हम फिर से एकसाथ नहीं रह सकते.

मैं ने जैसे उन के मन की बात छीन ली. प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘बबली, मुझे माफ कर दो.’’

जेठानी के अपनेपन की तपिश ने हमारे मन में जमी कड़वाहट को हमेशा के लिए पिघला दिया.

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