आत्ममंथन: क्या था प्रीतम का सच

‘‘तुम भी खा लेतीं,’’ गुस्सा छोड़ते हुए प्रीतम ने कहा.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी तो मुझे बरतन मांजने हैं’’, मैं ने कहा.

‘‘क्यों, कामवाली नहीं आई क्या?’’

‘‘नहीं, कल उस की तबीयत खराब थी. कह रही थी शायद आज नहीं आ सकेगी.’’

‘‘फिर तुम ने पहले ही क्यों नहीं बता दिया? कम से कम मैं अपने अंडरगारमैंट्स धो कर सुखाने के लिए डाल देता.’’

‘‘मैं अपने कपड़ों के साथ धो डालूंगी. वैसे भी काम ही क्या रहता है सारा दिन. तुम दफ्तर चले जाते हो और रोहन स्कूल, तो मैं सारा दिन बेकार बैठी रहती हूं.’’

‘‘सच, कभीकभी लगता है कि मैं ने तुम से नौकरी छुड़वा कर कोई बड़ी गलती कर डाली है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं कहते. सच मानो तो मैं बहुत खुश हूं घर पर रह कर, वरना पहले तो बस दो कौर ठूंस लिए और दौड़ पड़े दफ्तर को बस पकड़ने के लिए. फिर सारा दिन फाइलों से सिर फोड़ना. अब तो आराम ही आराम है. न देर होने की चिंता, न बस छूट जाने की फिक्र’’, मैं ने बड़े ही नाटकीय ढंग से कहा. फिर भी लगा कि प्रीतम को विश्वास नहीं आ रहा है. वह पूछ बैठा, ‘‘सच कह रही हो?’’

‘‘तो क्या झूठ कह रही हूं?’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.

प्रीतम आश्वस्त हो कर उठा. वाशबेसिन से हाथ धो कर आया और टौवल से हाथ पोंछते हुए बोला, ‘‘अब तुम भी जल्दी से स्नान कर के खाना खा लो.’’

‘‘पहले घर की सफाई तो कर लूं.’’

प्रीतम ने मोजेजूते पहने और मैं ने औफिस बैग थमाया. वह उठ कर जाने लगा तो मैं ने उसे स्नेहसिक्त दृष्टि से देख कर कहा, ‘‘शाम को जल्दी आ जाना.’’

‘‘जरूर.’’

प्रीतम मेरा दायां गाल थपथपा कर बाहर निकल गया. उस ने आंगन में खड़ी बाइक स्टार्ट की और फिर फ्लाइंग किस करता हुआ फाटक से बाहर निकल गया.

मैं चौखट से उसे ओझल होने तक देखती रही. फिर मुड़ पड़ी. घर खालीखाली और चुपचुप सा लगा. अंदर जाते ही एक प्रकार की घुटन सी महसूस हुई. मुझे बचपन से ही न अकेले रहने की आदत है, न चुप रहने की. प्रीतम के जाने के बाद कामवाली से बतियाने लगती हूं. उस का सारा काम हो जाए तो भी उसे बातों में उलझाए रखती हूं. लेकिन आज तो कामवाली भी नहीं आई थी. अब तो सिर्फ दीवारों से ही बात कर सकती थी.

मैं ने झूठे बरतन उठाए और सिंक में रख दिए. मेज पोंछ कर उस पर लगे शीशे में अपना चेहरा देखा. उस में मुझे अपना अक्स धुंधलाधुंधला सा दिखाई दिया. सोचा, कहीं मैं अपनेआप को झुठला तो नहीं रही हूं. कभीकभी मेरे मुंह से मेरे मन की बात निकलतेनिकलते क्यों रह जाती है? आज प्रीतम से जो कुछ कहा वह क्या सच है? फिर यह घुटन कैसी? ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि मैं किसी खूंटे से बंध गई हूं, बस, एक ही दायरे में घूमती हुई.

सवेरे मैं ने बहुत जरूरी बरतन ही मांजे थे. बाकी के यों ही पड़े थे. मैं उठ कर रसोई में गई और बरतन मांजने

शुरू कर दिए. बरतन ज्यादा नहीं थे. 3 आदमियों के बरतन होते ही कितने हैं?

शादी के बाद प्रीतम के साथ मैं यहां चली आई. यहां बड़ौदा में न मेरा कोई ससुराल वाला रहता था, न कोई मायके वाला. मायका था बेंगलुरु में और ससुराल मुंबई में. मांबाप का रिश्ता तो शादी के बाद टूट सा ही जाता है, लेकिन सास भी नहीं आई थीं मेरे साथ. उन्हें ससुर और मेरे देवरननदों की चिंता थी. प्रीतम शादी से पहले कभीकभार घर पर ही पका कर खा लेते थे. इसलिए उन्होंने गैस चूल्हा, सिलैंडर और कुछेक बरतन खरीद लिए थे. यहां आते वक्त मेरी मां और सास ने कुछ बरतन दे दिए थे और मेरी घरगृहस्थी अच्छी तरह बस गई थी.

सहेलियों से सुन रखा था कि अकेले रहने वाले व्यक्ति से शादी करने पर खूब मौज रहती है. लेकिन मैं यहां प्रीतम के साथ अकेले रहने पर भी उदास रहती हूं. घर जैसे खाने को दौड़ता है. शादी से पहले कभी इस तरह घंटों घर पर रहने की नौबत नहीं आई थी. कालेज की पढ़ाई के बाद नौकरी कर ली और छुट्टियों के दिनों में भी घर पर रही तो दोचार आदमियों से घिरी हुई.

मैं ने बरतन सजा कर रख दिए और झाड़ू लगाने लगी. घर बड़ा नहीं है. एक बैडरूम, एक ड्राइंगरूम, किचन और बाथरूम. झाड़ू लगा कर मैं गुसलखाने में गई और कपड़े धोने लगी. फिर स्नान कर के कपड़े सुखाने के लिए स्टैंड पर डाल दिए.

खाना खा कर मैं सोफे पर लेट गई और मुझे नींद सी आने लगी. सहसा दरवाजे की घंटी की आवाज सुन कर मैं हड़बड़ा कर उठी. जा कर देखा तो शशि थी.

‘अरे, आओआओ, कैसे भूल पड़ी?’’

‘‘आज रात की ड्यूटी है न, इसलिए सोचा कि तुम से मिल लूं.’’

मैं शशि को ले कर अंदर चली आई और उसे बिठाते हुए बोली, ‘‘क्या पियोगी?’’

‘‘कुछ नहीं. अभीअभी खाना खा कर आ रही हूं. अकेले बैठेबैठे बोर हो रही थी. सोचा, तुम्हारे साथ थोड़ी देर गपशप ही कर लूं.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बैठी बोर हो रही थी. कभीकभी आ जाया करो न.’’

‘‘तुम तो कभी आतीं ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी ड्यूटी का तो कुछ पता ही नहीं चलता.’’

‘‘आज से 15 दिन के लिए रात की ड्यूटी है.’’

‘‘फिर तो जरूर आऊंगी,’’ मैं ने कहा.

शशि अस्तपाल में नर्स है. जब भी वह सफेद कपड़ों में सैंडिल ठकठकाती हुई अस्पताल जाती है तो मुझे रश्क सा होने लगता है. सोचती हूं मैं भी फिर से यहां किसी नौकरी पर लग जाऊं.

‘‘तुम क?हां तक पढ़ी हो?’’ शशि ने पूछा.

‘‘बीए तक.’’

‘‘अच्छा, सुना है शादी से पहले तुम नौकरी करती थीं.’’

‘‘हां, लेकिन ज्यों ही मंगनी हुई त्यों ही नौकरी छोड़ दी.’’

‘‘तुम ने खुद छोड़ दी या तुम्हारे पति ने छुड़वा दी?’’

‘‘उन्होंने.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ. वैसे भी तुम्हारे पति ऊंचे पद पर हैं और उन की अच्छीखासी तनख्वाह है. फिर तुम्हें क्या जरूरत है नौकरी करने की.’’

‘‘लेकिन घर पर ही बैठ कर क्या करूं? 3 जनों का खाना ही कितना होता है? कोई न कोई काम हो तो…’’

‘‘जिन के पास दांत हैं उन्हें चने नहीं मिलते और जिन के पास चने हैं उन के दांत नहीं.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘देखो, कभीकभी मैं सोचती हूं कि यह नौकरी छोड़ कर घरगृहस्थी बसा लूं और तुम घरगृहस्थी से हाथ झटक कर नौकरी करना चाहती हो.’’

‘‘तो बसा क्यों नहीं लेती?’’

‘‘तुम शायद नहीं जानतीं कि पिताजी की मृत्यु के बाद घरगृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर आ खड़ा है. मां पढ़ीलिखी हैं नहीं और बाकी सब भाईबहन छोटे हैं.’’

थोड़ी देर तक शशि बैठी, अपनी आगेपीछे की सुनाती रही, फिर उठ कर चली गई.

फड़फड़ की आवाज सुन कर मैं ने आंगन की तरफ दृष्टि दौड़ाई. आंगन में एक कबूतर आ कर बैठ गया था. रोज इसी वक्त आ कर बैठता है. मैं ने उठ कर ज्वार के दाने डाल दिए और एक बरतन में पानी डाल दिया. कबूतर दाने चुग कर और पानी पी कर थोड़ी देर गुटरगूं करता रहा. फिर फुर्र से उड़ गया. उस की उड़ान देख कर मेरी आंखों के आगे शादी से पहले का जीवन साकार हो उठा.

सवेरे जल्दीजल्दी तैयार हो कर नाश्ता करना, फिर लोकल ट्रेन में सफर कर के दफ्तर पहुंचना और कुछेक फाइलें देख कर चायकौफी के बहाने कैंटीन चले जाना, लंच आवर में खाना खा कर अपनी सहेलियों के साथ गौसिप, हंसीठट्ठा करना. शाम को 5 बजते ही दिन कैसे बीत जाता था, कुछ पता ही नहीं चलता था. अब तो पलपल बिताना मुश्किल हो गया है. दसियों बार दीवार घड़ी पर नजर चली जाती है. अब भी मैं ने दीवार घड़ी पर अपनी नजर फेंकी. ढाई बजे थे. प्रीतम के लौटने में अभी 3 घंटे बाकी हैं और रोहन के लौटने में ढाई घंटे.

बारबार जी चाहा, प्रीतम से कह दूं, मैं नहीं रह सकती घर पर इस तरह बेकार हाथ बांधे, मैं नौकरी करूंगी. आने दो प्रीतम को, आज कह कर ही रहूंगी, अब और चारदीवारी में कैद हो कर नहीं रह सकती.

कभीकभी तो प्रीतम के व्यवहार पर मन भिन्न हो उठता है. रुपए मांगो तो पूछ बैठता है, ‘क्यों, क्या खरीदना है? सभी तो ला कर दे देता हूं.’

हर माह वह राशन ला देता है और हर इतवार को सागभाजी. जब भी खरीदारी करनी हो तो साथ चल देता है और कुछ खरीदने लगूं तो कह देता है, ‘अरे, तुम्हारे पास इतनी साडि़यां पड़ी हैं, इतने गहने पड़े हैं, कितने तो सैडिल पड़े हैं. बस, मेरा तो मन यहीं आहत हो उठता है और मैं सोचने लगती हूं कि  कितना बुरा है प्रीतम. जब मुझे कुछ खरीदना हो तभी उसे किफायत सूझती है. काश, मैं खुद कमाती होती और खुद मनचाहा खरीद पाती. तब किसी के सामने हाथ पसारने की नौबत तो न आती.

कई बार मैं ने कहा, ‘तुम अपनी पूरी तनख्वाह ला कर मुझे दे दो. मैं घर चलाऊंगी.’ मगर वह मानता ही नहीं और मैं तड़प कर पूछ बैठती हूं, ‘क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं? क्या मैं फुजूल खर्च करूंगी.’

‘अरे, नहीं, ऐसी बात नहीं.’

‘तो फिर?’

‘तुम और मैं दोनों अलगअलग हैं क्या?’

‘नहीं तो.’

‘फिर?’

‘ठीक है, मुझे हर माह पौकेट मनी दे दिया करो.’

‘तुम्हें जितना चाहिए, खर्च कर लो. मैं मना तो नहीं करता.’

मगर पता नहीं क्यों मैं कभी उस की जेब में हाथ डाल कर पैसे नहीं निकाल पाई और मेरे पास इतना नहीं रहता कि मैं कुछ मनचाहा खरीद पाऊं. मैं ने शादी के बाद अगर नौकरी कर ली होती तो आज मेरे पास कितने ही रुपए होते. रोहन भी 5 साल का हो गया है. इन 6 सालों में मैं नौकरी कर रही होती तो मेरे पास अपने ही 3-4 लाख रुपए होते. सच, इतने सारे रुपयों का एहसास ही बड़ा आनंददायक लगा और मैं सोचने लगी, फिर तो मैं श्वेता की तरह मोतियों का सैट बनवा लूंगी और गुंजन की पत्नी की तरह हर महीने एक नई साड़ी खरीद लूंगी.

आज आने दो प्रीतम को, मैं उस से कह कर रहूंगी.

आसमान पर काले बादल छाने लगे थे. अचानक अंधेरा सा फैल गया. लोग इस आशंका से भागदौड़ करने लगे कि कहीं घर पहुंचने से पहले ही बारिश न होने लगे.

आज फिर सामने के चबूतरे पर कुछेक लड़के जमा हो कर जुआ खेल रहे हैं. पिछले महीने ही तो सूरज को पुलिस पकड़ कर ले गई थी. उस की मां की मृत्यु हो चुकी थी और उस का बाप दूसरा ब्याह इसलिए नहीं कर रहा था चूंकि उसे डर था कि कहीं सौतेली मां आ कर सूरज के साथ बुरा सुलूक न करे. जब तक उस का बाप नहीं आ जाता तब तक सूरज सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है.

अरे, यह तो सुमित है. यह वहां क्यों बैठा है? क्या वह भी जुआ खेल रहा है? क्या स्कूल में छुट्टी हो गई? तब तो रोहन को भी आ जाना चाहिए था. मैं ने सुमित को आवाज दे कर बुलाना चाहा लेकिन वह मुझे चोर निगाहों से देख कर वहां से खिसक गया.

दो घर छोड़ कर अनुपमा को भी जनून सा सवार हो गया है. कार है, बंगला है फिर भी वह नौकरी पर जाती है. और उस के बच्चे? पूछो मत. सुमित को तो खैर आज ही देख रही हूं गली के इन लड़कों के साथ. लेकिन उस की जवान बेटियां अपने रसोइए के साथ हर समय हंसीठिठोली करती रहती हैं और वह भी सैंडोकट बनियान पहन कर उन लड़कियों से अजीबअजीब हरकतें किया करता है. कभी टांग अड़ा कर राह रोक लेता है तो कभी बांह दबा कर पीठ थपथपा देता है. एकाध बार अनुपमा को समझाया भी है लेकिन वह तो अपनी ही झोंक में कह देती है, ‘अब अगर नौकरी करनी है तो इन सब बातों को भुलाना ही पड़ेगा, वरना घरगृहस्थी कैसे चलेगी?’

भाड़ में जाए ऐसी नौकरी. पहले तो बालबच्चे हैं, घरगृहस्थी है. फिर दूसरे काम. रहा समय काटने का सवाल, तो किताबें पढ़ लो. मैं ने मैगजीन उठा ली और पढ़ने लगी. अचानक मेरी दृष्टि नए व्यंजनों के स्तंभ पर चली गई. शाही  टोस्ट बनाने का तरीका पढ़ कर लगा कि यह तो चुटकियों में बनाया जा सकता है. मैं ने झट चाशनी के लिए गैस चूल्हे पर पानी चढ़ा दिया और ब्रैड के टुकड़े करने लगी.

टेबल पर प्लेट सजाते हुए लगा कि यह भी तो एक काम है. दूसरे के लिए कुछ करने में भी तो एक सुख है. यह चाय की केतली में चाय डाल कर रखना, प्रीतम और रोहन के लिए हलका सा नाश्ता बना कर रखना, फिर उन का इंतजार करना, यह क्या काम नहीं? मैं बेकार कैसे हूं? मैं भी तो काम कर रही हूं.

फटफट की आवाज सुन कर मैं ने बाहर झांक कर देखा, प्रीतम और रोहन दोनों खड़े थे.

‘‘अरे, यह तुम्हें कहां मिल गया?’’

‘‘मुझे उस तरफ थोड़ा काम था. इसलिए सोचा क्यों न लौटते वक्त इसे भी लेता जाऊं.’’

‘‘मां, बहुत भूख लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, आज तो मैं ने तुम्हारे लिए शाही टोस्ट बनाया है.’’

‘‘ओह मम्मी, तुम कितनी अच्छी हो.’’

रोहन मुझ से लिपट गया और मेरे दाएं गाल पर एक चुंबन जड़ दिया. ऐसा लगा जैसे मुझे पारिश्रमिक मिल गया हो.

प्रीतम हाथमुंह धो कर मेज पर आ कर बैठ गया, बोला, ‘‘सुनो, एक बैंक खुल रहा है, जिस में सिर्फ महिलाएं ही काम करेंगी. क्यों न तुम भी अप्लाई कर दो?’’

‘‘अरे, मुझे घर के कामों से फुरसत ही कहां मिलती है जो मैं नौकरी करने जाऊंगी?’’

‘‘समय निकालोगी तो फुरसत भी मिल जाएगी,’’ प्रीतम बोले.

‘‘लेकिन, मैं ऐसे ही ठीक तो हूं.’’

‘‘मैं चाहता हूं तुम बाहर निकलो, नौकरी करो और फिर घरखर्च में भी तो मदद हो जाएगी.’’

प्रीतम की बातें सुन कर पहले तो मैं अवाक रह गई, फिर मन में विचार कौंधा कि यह वही तो है जो मैं चाहती थी. अब जब मुझे मौका मिल ही रहा है तो मैं इनकार क्यों कर रही हूं? नहीं, मुझे मना नहीं करना चाहिए. मेरी कुंठा का समाधान आखिर यह ही तो है.

मैं ने नौकरी के लिए हामी भर दी. मैं ने अगले दिन अप्लाई भी कर दिया. एक हफ्ते बाद इंटरव्यू भी दे आई और नौकरी पक्की भी हो गई. यह मेरे लिए एक स्वप्नभर था. आज भी है. जिस आत्मग्लानि से मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी वह कितनी आसानी से खत्म हो गई. रोहन को समय देना आज भी मेरी पहली प्राथमिकता है लेकिन नौकरी के साथसाथ जिस खुशी से मैं भर जाती हूं वह सारी खुशी, सारा प्यार रोहन पर लुटा देती हूं.

आज मुझे नौकरी करते हुए 2 साल बीत गए हैं पर लगता है जैसे कल ही की तो बात है.

‘टिंगटोंग…’ दरवाजे की घंटी सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई.

‘‘अरे, प्रीतम आप, आज इतनी जल्दी कैसे?’’

‘‘यों ही, सोचा तुम्हें सरप्राइज दिया जाए.’’

‘‘कैसा सरप्राइज?’’ मैं ने उत्साहित भाव से पूछा.

‘‘यह लो,’’ कह कर प्रीतम ने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ा दिया.

‘‘यह तो किसी फ्लैट का अलौटमैंट लैटर है, पर किस का फ्लैट और कैसा फ्लैट?’’ मैं ने प्रीतम के समक्ष सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘हमारा फ्लैट है. हमें फ्लैट अलौट हुआ है.’’

‘‘कितने में?’’

‘‘50 लाख रुपए में. 10 लाख रुपए मैं ने अग्रिम भर दिए हैं और बाकी रुपए बैंक से लोन ले कर हम दोनों हर महीने ईएमआई में जितने रुपए आएंगे दे दिया करेंगे.’’

‘‘10 लाख? पर तुम्हारे पास कहां से आए?’’

‘‘जब से तुम्हारी नौकरी लगी है घरखर्च तो तुम्हीं उठा रही हो, तो बस, मैं बाकी खर्चे निकाल कर बचतखाते में जमा करता गया. और वैसे भी, तुम और मैं क्या अलग हैं? दोनों का होगा वह फ्लैट, तो दोनों ही खुशी से जीवन निर्वाह करेंगे हक और अधिकार से.’’

‘‘ओह, तुम कितने अच्छे हो,’’ कह कर मैं प्रीतम से लिपट गई.

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