भारतीय फिल्मकार सामाजिक मुद्दों पर फिल्म बनाने से कतराते रहते हैं. कोलकत्ता में हाथ से रिक्शा खींचने वालो की अपनी समस्याएं व अपना दर्द है. कोलकत्ता के ज्यादातर रिक्शा चालक प्रवासी विस्थापित हैं, क्योंकि यह सभी उत्तर प्रदेश व बिहार से अच्छे रोजगार की तलाश में कोलकत्ता गए हैं. इनकी समस्याओं, इनके दर्द को सबसे पहले विदेशी फिल्मकार रोलांड जोफी ने 1992 में अपनी फिल्म ‘सिटी आफ ज्वॉय’में उकेरा था, जिसमें स्व. ओम पुरी ने रिक्शाचालक का किरदार निभाया था. अब फिल्मकार राम कमल मुखर्जी ऐसे ही रिक्शाचालक व विस्थापितो की समस्या पर फिल्म ‘‘रिक्शावाला’’लेकर आए हैं, जिसमें अविनाश द्विवेदी ने रिक्शाचालक का किरदार निभाया है. 31 अक्टूबर को इस फिल्म का इंग्लैंड के ‘‘कार्डिएफ इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’’में विश्व प्रीमियर होने के साथ ही ‘‘सर्वश्रेष्ठ सामाजिक संदेश वाली फिल्म’’के पुरस्कार से भी नवाजा गया. फिल्म‘‘रिक्शावाला’’मूलतः बंगला फिल्म है, मगर इसका मुख्य किरदार बिहार से आया है, इसलिए वह भोजपुरी व हिंदी बोलता है.
इतना ही नही इस फिल्म को ‘‘मैंड्डि’’, ‘‘मेलबर्न’’और इस्लामाबाद अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव’’ में प्रदर्शन के लिए चुना गया है. मैड्रिड के फिल्मोत्सव निदेशक अबुर रहीम काजी ने स्पेनिश में फिल्म ‘‘रिक्शावाला’’के बारे में जो कुछ लिखा है, उसके अनुवादित संस्करण के अनुसार -‘‘जीवन एक रिक्त पृष्ठ की तरह है. आप नहीं जानते कि आप कहाँ हैं? आप कहाँ से अनदेखा करते हैं. लेकिन यह राम कमल मुखर्जी निर्देशित भारतीय फिल्म ‘रिक्शावाला’ के केंद्रीय चरित्र मनोज(अभिनेता अविनाश द्विवेदी)की बात नहीं है. मनोज का भविष्य राह में पत्थरों की मार पर लिखा गया है. इसमें परिवार के विनम्र मूल्य, सिद्धता का स्थान, बिहार, भारतीय समाज का वर्गवाद, पड़ोस का ठग या दो विपरीत सेक्स के बीच का डिसफैक्शनल बेकार संबंध. बिना किसी संभावित वापसी के साथ प्राचीन जीवन या नहीं? क्योंकि मनोज भी बिहार से कोलकाता प्यार, सम्मान, साहस और ईमानदारी से भरा हुआ तथा उस बचे हुए विद्रोह के साथ, जो इन दिनों हर युवा में दबा हुआ है, जिसकी उत्पत्ति अज्ञात है. मनोज के किरदार में अविनाश द्विवेदी का अविस्मरणीय अभिनय और राम कमल मुखर्जी का बेहतरीन निर्देशन मुझे भा गया. ’’
फिल्म‘रिक्शावाला’में रिक्शा चालक मनोज का किरदार निभाने वाले अभिनेता अविनाश द्विवेदी निजी जीवन में बौलीवुड अदाकारा संभावनासेठ के पति भी हैं. यह उनकी पहली फिल्म नही हैं. वह ‘नचनिया’ सहित कुछ भोजपुरी फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा दिखा चुके हैं.
प्रस्तुत है अविनाश द्विवेदी से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. .
अभिनय का चस्का कैसे लगा?
-मैं मूलतः गोरखपुर से हूं. मगर मेरी बीए@ स्नातक तक की पढ़ाई दिल्ली में हुई. मेरे घर में कला का कोई माहौल नहीं रहा. पर मुझे बचपन से ही नृत्य में बहुत ज्यादा रुचि थी. दिल्ली में नृत्य करने के साथ सााथ नृत्य की ट्रेनिंग भी देने लगा. इसी के साथ दिल्ली में ही थिएटर करता था. फिर एक नृत्य के रियालिटी शो ‘‘आई वीवो’’का हिस्सा बनने के लिए मुंबई आना हुआ, जिसमें बॉस्को सर जज थे. मैं विजेता भी बन गया. इसके बाद दूसरा नृत्य के रियालिटी शो ‘डांस संग्राम’ का विजेता बना, जिसमें सरोज खान जी जज तथा श्वेता तिवारी और संभावना सेठ मेंटर थीं. वहीं संभावना सेठ से मैं मिला था, जो अब मेरी पत्नी हैं. फिर मैं मुंबई में ही रहकर अभिनय करने लगा. मैने‘नचनिया’सहित कई भोजपुरी फिल्में की. जिनमें से कुछ रिलीज हुई, कुछ नहीं हुई, कुछ सफल हुर्इं, कुछ असफल हुईं. अब मैं राम कमल मुखर्जी निर्देशित ‘रिक्शावाला’ को लेकर अति उत्साहित हॅूं, जो कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में धूम मचा रही है. इस फिल्म का इंग्लैंड के ‘‘कार्डिएफ इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’’में विश्व प्रीमियर होने के साथ ही ‘‘सर्वश्रेष्ठ सामाजिक संदेश वाली फिल्म’’के पुरस्कार से भी नवाजा गया. इससे पहले 13वें अयोध्या इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल मे मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिल चुका है.
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फिल्म‘रिक्शावाला’के लिए आपका चयन किस तरह से हुआ?
-बिलकुल फिल्मी अंदाज में. संक्षेप में कहूं तो एक फिल्मी पार्टी में अजीबोगरीब तरीके से इसके लेखक व निर्देशक राम कमल मुखर्जी से मेरी मुलाकात हुई. फिर दूसरे दिन मैं उनसे मिला, तो उन्होने मुझे फिल्म ‘रिक्शावाला’ की कहानी सुनायी. तो मुझे पता चला कि यह आम कमर्शियल फिल्म नहीं है, बल्कि ऐसी कहानी है, जिसे कहा जाना जरुरी है. मुझे खुशी हुई कि वह आम एक्शन व ड्रामा वाली मसाला फिल्म नहीं बना रहे हैं. मुझे सबसे बड़ी खुशी यह हुई कि हाथ से रिक्शा खींचकर चलाने वाले रिक्शेवाले के ऊपर फिल्म बना रहे है. मेरी भी यही कोशिश रहती है कि कलाकार के तौर पर हम समाज को कुछ दें. अपनी कला के माध्यम से कोई भी बेहतरीन संदेश दें. जब ऐसा निर्देशक मेरे सामने हो, जो समाज को कुछ देने जा रहा हो, तो मैं उसका कायल हो जाता हूं. मैं उससे बहुत ही ज्यादा प्रभावित हो जाता हूं.
आपके अनुसार फिल्म ‘‘रिक्शावाला’’ है क्या ?
-मेरी समझ के अनुसार फिल्म ‘रिक्शावाला’ एक रिक्शा चालक की जिंदगी के दर्द के साथ साथ माइग्रेंट@विस्थापित प्रवासी इंसान की व्यथा है. यह कहानी उन विस्थापित इंसानो की है, जो कि सुखद भविष्य की उम्मीद में गांव में अपना सब कुछ छोड़ कर शहर चले आते हैं. जी हॉ!जब कोई इंसान गांव से कई सपने लेकर शहर पहुंचता है, तब शहर किस तरह उसको दबाते ही जाता है. लेकिन फिर भी उस इंसान का हौसला इतना ज्यादा होता है कि वह सरवाइव कर जाता है.
किसी भी इंसान में आज की तारीख में इतनी ताकत नहीं होगी कि वह दिल्ली या मंुबइ से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड या पूर्वांचल पैदल चला जाए, चाहे वह कोई भी हो. पर हमने ऐसा होते हुए लॉक डाउन के दिनों में भी देखा है. ऐसा ही गॉव से शहर पलायन करने वालों को अक्सर करना पड़ता है. ऐसा करते समय उनके अंदर एक जज्बा होता है. उनके अंदर के इसी जज्बे के लिए राम कमल मुखर्जी ने यह फिल्म बनायी है.
फिल्म‘‘रिक्शावाला’’के अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगें?
-मैने इसमें मनोज का किरदार निभाया है, जो कि एक रिक्शेवाले का बेटा है. फिल्म की कहानी मनोज के ही इर्द गिर्द घूमती है. यह कहानी है मनोज के परिवार की, उसके सपनों की, उसके प्यार की. जब जिम्मेदारी, प्यार, अपने सपने सब एक साथ टकराते हैं, तब इंसान को बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है. उस वक्त उसके अंदर बहुत कशमकश की लड़ाई होती है कि मैं किसको छोड़ दॅूं और किसे पकड़ कर रखूं. परिवार को छोड़ा जाए या सपनों को तिलांजली दी जाए या प्यार को नजरंदाज किया जाए.
किस तरह की तैयारी करने की जरुरत पड़ी?
-कहानी कोलकत्ता की है. जबकि मनोज बिहार से कोलकाता गया है. इसलिए वह भोजपुरी और बंगला दोनो भाषाओं में बात करता है. इसलिए मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती बंगला भाषा की ही थी. यॅूं तो निर्देशक ने मेरे बंगला संवाद डब करने की बात कही थी, पर मुझे यह गंवारा न था. ऐसा होने पर मैं जिंदगी भर चैन से सो नहीं पाता. मुझे हमेशा लगता कि इसमें मेरा योगदान तो सिर्फ पचास प्रतिशत ही है. तो मैंने अपने निर्देशक राम कमल मुखर्जी जी से कहा कि मैं बंगाली सीखना चाहूंगा. तो उन्होंने भी मुझे बहुत ज्यादा मदद की. मैंने सोचा कि किसी भी भाषा को सीखने का सबसे आसान तरीका उस भाषा के गाने सुनना है. जिसका संगीत अच्छा हो तो ना चाहते हुए भी हमारी जुबान पर वह गाना चढ़ जाता है, फिर चाहे वह अरेबियन गाना हो या अंग्रेजी गाना हो. इसलिए मैंने बंगाली के उन अच्छे-अच्छे गानों को सुनना शुरू किया, जिनकी धुनें कमाल की हैं. गाने मेरी जुबान पर चढ़ने लगे. मुझे गाने का तबस्सुम चाहिए था, भाषा का एसंट ही चाहिए था. वह धीरे-धीरे पकड़ में आने लगा. बाकी तो शब्द हमें याद करने होते हैं. बस. . . कुछ शब्द मैंने याद किए और उसमें गाने सुन सुनकर एसेंट डालने लगा. तो मैंने इसकी डबिंग खुद की.
इसके अलावा मुझे हाथ से रिक्शा खींचकर चलाने का प्रशिक्षण भी लेना पड़ा. पहले मुझे लगा था कि यह बहुत आसान होगा. मेरा स्वस्थ व मजबूत शरीर है. मैं आराम से रिक्शा खींच सकता हूं. लेकन जब चलाना शुरू किया, तो अहसास हुआ कि इसकी भी एक तकनिक है. हाथ रिक्शा में जैसे ही सवारी बैठती है, हर सवारी का वजन अलग होता है, उसके वजन के हिसाब से आपको बैलेंस बनाना होता है.
आप खुद इस कहानी से कितना रिलेट करते हैं?
-मैं इस कहानी से खुद को बहुत ज्यादा रिलेट करता हूं. क्योंकि मेरी पैदाइश गोरखपुर की है. मैं वहीं रहता था. पर सुखद भविष्य की तलाश में मेरे पिताजी गोरखपुर से कलकत्ता गए थे. उन दिनों उत्तरप्रदेश व बिहार वाले कमाई करने के लिए अच्छी नौकरी की तलाश में सबसे पहले कोलकाता जाते थे. क्योंकि वहां रोजगार के अवसर ज्यादा थे. मेरे पिता जी ने कोलकाता में बहुत कोशिश की थी, लेकिन कुछ हुआ नहीं, तो वापस आ गए थे. उसके बाद वह दिल्ली गए. क्योंकि घर में मेरी मॉं के अलावा हम तीन बच्चे थे. गांव में अच्छी व्यवस्था नहीं थी, इसलिए कुछ करने का उन पर बहुत ज्यादा दबाव था. ऐसे माइग्रेंट विस्थापित इंसान कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते हैं. क्योंकि उन्हें अपना परिवार पालना होता है. फिर चाहे रिक्शा चलाएं या किसी मशीनरी में काम करें. वह कुछ भी करने तैयार हो जाते हैं. तो पहले मेरे पिताजी दिल्ली अकेले गए. जब पांच वर्ष में सब सही से जम गया, तब मेरी मां, मुझे और दोनों बहनों को दिल्ली बुला लिया था. हम लोग एक कमरे में जिस तरह से भाड़े पर रहते थे, वह कम तकलीफ देह नहीं था. मेरी मम्मी दूर-दूर से पानी भर कर लाती थी. तो ‘रिक्शावाला’की कहानी सुनते समय ही यह सारी यादें मेरी आंखो के सामने घूमने लगी थीं. यह मेरा अपना जिया हुआ भोगा हुआ सच है.
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इसके मायने यह हुए कि फिल्म ‘‘रिक्शावाला’’में अभिनय करते समय आपने अपने पिताजी के साथ दिल्ली में बिताए हुए दिन व उनके संघर्ष को भी पिरोया है?
-बिलकुल. . दिल्ली के उन अनुभवों और मैंने जो कुछ जिया था, उसने इस फिल्म में मनोज के किरदार को निभाने मंे मेरी बड़ी मदद की. जब आप किसी व्यथा का अपरोक्ष रूप से ही अनुभव लेते हैं, तो वह कहीं न कहीं आपके जेहन में रहती है.
अगर मैंने न जिया होता, सिर्फ मेरे पिताजी ने मुझे कहानी बताई होती, तो भी वह मेरे जेहन में रहती. मैं उन भावनाओं को महसूस कर पाता. लेकिन क्योंकि मैंने देखा हुआ था. इस वजह से वह मेरे बहुत काम आया. मैंने उसे अपने किरदार मनोज में कई जगह उतारने की कोशिश भी की. उन बातों को, उन यादों को दोबारा जीने की कोशिश की है.
आपने कलकत्ता में जो रिक्शेवाले हैं, उनसे बात भी की होगी. आपको उनका किस तरह का दर्द समझ में आया?
-जी हॉ!मैं जिनका रिक्शा चला रहा था और जिनसे मैं सीख रहा था, उनसे भी काफी बातचीत हुई. उन्होंने बताया कि वह जौनपुर के निवासी हैं और कई वर्षों से वह रिक्शा चलाते हुए एक छोटे से कमरे में रह रहे हैं. वह खुद भोजन पकाते हैं, खुद खाते हैं. कई बार तो सिर्फ एक वक्त का ही खाना नसीब होता है. जबकि वह कठिन मेहनत वाला काम करते हैं. देर शाम या रात में जब वह घर जाते हैं, तो उनकी हिम्मत नहीं होती कि खाना बनाए. इसलिए कई बार पानी पीकर ही सो जाते हैं. उनके बच्चे बड़े-बड़े हैं, उनकी शादियां हो चुकी हैं. बच्चे जौनपुर के गांव में टेलरिंग का काम शुरू किया हुआ है. बच्चे भी अच्छा कमा रहे हैं. लेकिन अब इनको रिक्शे व इस जिंदगी से प्यार हो गया है. यह वापस जाना हीनहीं चाहते. उन्होने मुझे कहा-‘बच्चे हमें रोज बुलाते हैं, लेकिन हमें तो अब रिक्शा से प्यार हो गया है. ’
यह कितनी बड़ी बात है. हमें लगता है कि वह मजबूरी में रिक्शा चलाते हैं. लेकिन वह भी अपने काम से कितना प्यार करते हैं. उनकी अपनी एक अलग जिंदगी है. उनसे बात करके मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला.
आपको इस बात का गर्व होगा कि स्व. ओम पुरी जी के बाद आप ऐसे भारतीय कलाकार हैं, जिन्होंने ‘रिक्शावाला’का किरदार निभाया?
-जी हां!मुझे बहुत बहुत ज्यादा गर्व होता है. भविष्य में भी ऐसा किरदार मिला, जो हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था पर आधारित होगा, तो मैं बहुत ज्यादा खुश रहूंगा. ऐसे किरदार मैं कम पारिश्रमिक राशि मिलने पर भी करना चाहूंगा. ऐसे किरदार निभाने से मुझे आत्म संतुष्टि बहुत मिलेगी कि मैंने ऐसा कुछ काम किया है, जो मैंने सिर्फ अपने लिए नहीं किया. वह समाज के लिए भी है. दूसरों के लिए भी है. बहुत ज्यादा गर्म होता है कि ओमपुरी जी के बाद मुझे ऐसा कुछ करने का मौका मिला. कितने कम लोग होंगे, जो रिक्शा वालों के बारे में सोच पाते होंगे. अगर एक फिल्म के माध्यम से उनकी बात करोड़ो लोगों तक पहुंच रही है, हम करोड़ो लोगों को दोबारा याद दिला रहे हैं कि रिक्शा वाला भी इंसान है. भले ही कोलकत्ता हाई कोर्ट के आदेश व ढेर सारी मोटर गाड़ियों, टैक्सी, ओला या उबर के आने के बाद कम हो गए हों. लेकिन ‘रिक्शेवाले’सबसे ज्यादा मेहनत करते हैं, पर उनके पास काम नहीं है.
आप कुछ नया कर रहे हैं?
-जी हॉ!एक-दो वेब सीरीज की बात चल रही है. लेकिन अभी शुरुआती स्तर पर है, इसलिए उसका जिक्र करना ठीक नहीं होगा. इसके अलावा मैंने एक दूसरी फिल्म ‘‘कलर ब्लैक’’ की है, जो कि बहुत जल्द ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होगी. इसमें मेरे साथ संजय मिश्रा व अपूर्व कोहली हैं. इसके निर्देशक आनंद तोमर हैं.
‘कलर ब्लैक’क्या है?
-यह फिल्म कई कहानियों का मिश्रण है. आपको लगता है कि कहानी अलग है. लेकिन कैसे हमारी जिंदगी अलग होते हुए भी एक जगह जाकर कहीं ना कहीं मिलती है, उसी पर है इस फिल्म की कहानी है. आपके शौक क्या हैं?
-मुझे किताबें पढ़ना पसंद है. कुछ भी नया सीखना पसंद है. गिटार बजाता हूं. मार्शल आर्ट सीखता हॅूं. इससे दिमाग संतुलित रहता है. लेकिन सबसे ज्यादा मुझे किताबें पढ़ना और नृत्य करना पसंद है.
किस तरह की किताबें पढ़ना पसंद है?
-मुझे धार्मिक किताबें पढ़ना पसंद है. मसलन-स्वामी विवेकानंद जी की किताबें. मेरी आध्यात्म में बहुत ज्यादा रुचि है. मैं ज्यादातर वही किताबें पढ़ता हूं और बाकी अपने कैरियर से जुड़ी हुई किताबें पढ़ता हूं. हरिशंकर प्रसाद जी की कहानियां मुझे बहुत ज्यादा पसंद है.
लिखने की इच्छा नहीं होती?
-मैं बहुत ज्यादा लिखता हूं. मैंने अभी दो फिल्मों की पटकथा लिखी है, जिन पर फिल्मों के निर्माण की घोषणा होनी है. लेकिन दोनों ही बड़ी फिल्में है. इसके अलावा जिन दो वेब सीरीज में मैं अभिनय करने वाला हूं, उनका लेखन भी मैने ही किया है. पिछले दो वर्ष के दौरान मेरा लेखन के प्रति रुझान बहुत ज्यादा बढ़ गया है. मैं अपना आधा समय तो लेखन को ही देता हूं.
क्या आपके दिमाग में कोई ऐसा किरदार है, जिससे समाज को कुछ मिल सके और बतौर कलाकार आप उसे निभाना चाहते हों?
-मेरे दिमाग में शव गृह में काम करने वालों पर कहानी लिखने व उसका किरदार निभाने की बात चलती रहती है. मैं ‘मुर्दाघर’की बात कर रहा हूं, जहां शव लाए जाते हैं. ऐसे लोगों की जिंदगी कैसी होगी, जो दिन भर मृत शरीरों के बीच रहते हैं. मृत शरीरों को हैंडल करते हैं या सड़क पर कोई कोई मृत शव पड़ा है, जिसे जानने वाला कोई नहीं है, कोई रिश्तेदार नहीं है. उस मृत शरीर को वह उठाते हैं. अगर मुझे मौका मिला, तो मैं इस पर जरूर कुछ करूंगा.
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देश की कौन सी सबसे बड़ी समस्या आपको अंदर से कुछ करने के लिए प्रेरित करती है?
-सबसे बड़ी समस्या शिक्षा की है. मुझे सबसे बड़ी समस्या इस रट्टा मरवा देने वाली शिक्षा पद्धति से है. मैं अपने जीवन के अनुभव के आधर पर कह रहा हॅूं कि मैंने आज तक स्कूल या कॉलेज में जो पढ़ाई की है, वह आज तक मेरे कभी काम नहीं आयी. मुझसे आज तक किसी ने नहीं पूछा कि ‘ई स्क्वायर 2’ क्या होता है? मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि बाबर दिल्ली कब आया था?अब यह जानकारी तो गूगल सर्च मंे एक मिनट में मिलती है. शिक्षा वह होनी चाहिए, जिससे इंसान का व्यक्तित्व विकसित हो, उसके रोजमर्रा के काम मंे सुविधा दे. हमें यह क्यों नहीं सिखाया जाता कि सीखना कैसे है, मैने ऐसेतमाम लोगों को जानता हॅूं, जिनके पास ज्ञान का भंडार है, जिन्होंने हजारों किताबें पढ़ी हुई है. लेकिन फिर भी उनको बात बात पर गुस्सा आ जाता है. बात बात पर चिढ़ जाते हैं. इसका मतलब महज किताबे पढ़ने से कोई फर्क पड़ नहीं रहा है. एक से एक पाखंडी लोग हैं. मुझे लगता है कि किताब पढ़ने से कुछ नहीं होता है. एक किताब ऐसी लिखी जानी चाहिए, जिसमें लिखा हो कि पढ़ना कैसे है?जब आप किसी किताब को पढ़ते हो तो उसमें जो लिखा है, उसे कैसे पढ़ा जा जाना चाहिए. जिसने किताब लिखी है, उसके दिमाग को कैसे पढ़ना है. तो हमारे देश के एजुकेशन सिस्टम में बदलाव की जरुरत है.
आपकी शादी को 5 साल हो गए. वैवाहिक जीवन के झगड़ों को कैसे सुलझाते हैं?
-मुझे ऐसा लगता है कि शादी के बाद का जो जीवन है, वह मेरी जिंदगी का सबसे अच्छा समय है. क्योंकि मेरे जीवन में अंदर और बाहर जितने भी बदलाव हुए हैं, वह शादी के बाद हुए हैं. जिसकी शुरूआत शादी के छह माह पहले से शुरू हुआ है. मुझे लगता है कि मेरे जीवन का सबसे बेहतरीन निर्णय संभावना से शादी करना रहा. शादी से पहले हम लोग इतना लड़े कि अब लड़ाई का सारा कोटा खत्म हो चुका है. एक मोड़ पर हमने निर्णय लिया कि हम शादी नहीं करेंगे. उसके बाद शादी हुई. तो अब लड़ने की गुंजाइश बहुत कम रह गई है. लेकिन अगर कभी कोई ऐसी बात हो जाती है, तो मैं सबसे पहले यही चीज सोचता हूं मैंने इससे शादी क्यों की?जैसे ही यह सवाल मेरे दिमाग में आता है, छोटे-मोटे झगड़े अपने आप खत्म हो जाते हैं.
आपका फिटनेस मंत्रा क्या है?
-मेरा फिटनेस मंत्रा यही है कि आप एक ही एक्सरसाइज रोज मत करो. अगर आप वजन उठाते हो, तो रोज वजन मत उठाओ, अन्यथा आप छह माह के बाद बोर हो जाओगे. मेरी राय मे एक दिन वजन उठाए, तो दूसरे दिन सायकल चलाएं, तीसरे दिन मार्शल आर्ट करें या योगा करें. एक दिन लाठी चलाना सीखता हूं. किसी किसी दिन मैं क्रिकेट खेलने चला जाता हूं. मैं वह सारी चीजें करता हूं, जो मेरे शरीर को चलाती हैं. लेकिन अपने आप को किसी एक चीज में बांधता. दूसरी बात मोटापा हो या फिटनेस, दिमाग को खुला छोड़ना जरूरी है.