रात के लगभग 2 बजे अवंतिका पानी पीने के लिए रसोई में गई तो बेटे साहिल के कमरे की खिड़की पर हलकी रोशनी दिखाई दी. रोशनी का कभी कम तो कभी अधिक होना जाहिर कर रहा था कि साहिल अपने मोबाइल पर व्यस्त है. गुस्से में भुनभुनाती अवंतिका ने धड़ाक से कमरे का दरवाजा खोल दिया.
साहिल को मां के आने का पता तक नहीं चला क्योंकि उस ने कान में इयरफोन ठूंस रखे थे और आंखें स्क्रीन की रोशनी में उलझ हुई थीं.
‘‘क्या देख रहे हो इतनी रात गए? सुबह स्कूल नहीं जाना क्या?’’ अवंतिका ने साहिल को झकझरा.
मां को देखते ही वह हड़बड़ा गया, लेकिन उसे मां की यह हरकत जरा भी पसंद नहीं आई.
‘‘यह क्या बदतमीजी है? प्राइवेसी क्या सिर्फ आप लोगों की ही होती है, हमारी नहीं? मैं तो कभी इस तरह से आप के कमरे में नहीं घुसा,’’
साहिल जरा जोर से बोला. बेटे की तीखी प्रतिक्रिया से हालांकि अवंतिका सकते में थी, लेकिन उस ने किसी तरह खुद को संयत किया.
‘‘क्या देख रहे थे मोबाइल पर?’’ अवंतिका ने सख्ती से पूछा.
‘‘वैब सीरीज,’’ साहिल ने जवाब दिया.
अवंतिका ने मोबाइल छीन कर देखा. सीरीज सिक्सटीन प्लस थी.
‘‘बारह की उम्र और वैब सीरीज. अभी तो तुम टीन भी नहीं हुए और इस तरह की सीरीज देखते हो,’’ अवंतिका पर गुस्सा फिर हावी होने लगा.
साहिल ने कुछ नहीं कहा, लेकिन बिना कहे भी उस ने जाहिर कर दिया कि उसे मां की यह दखलंदाजी जरा भी नहीं सुहाई. अवंतिका उसे इसी हालत में छोड़ कर अपने कमरे में आ गई. पानी से भरी आंखें बारबार उसे रोने के लिए मजबूर कर रही थीं, मगर वह उन्हें रोके बैठी थी. रोए भी तो आखिर किस के कंधे पर सिर रख कर.
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कोई एक कंधा थोड़ी नियत किया था उस ने अपनी खातिर. सुकेश का कंधा जरूर कहने को अपना था, लेकिन उस के अरमान थे ही इतने ऊंचे कि उसे कंधा नहीं आसमान चाहिए था.
अवंतिका ने आंखों को तो बहने से रोक लिया, लेकिन मन को बहने से भला कौन रोक सका है. इस बेलगाम घोड़े पर लगाम कोई बिरला ही लगा सकता है. अवंतिका ने भी मन के घोड़े की लगाम खोल दी. घोड़ा सरपट दौड़ता हुआ 15 बरस पीछे जा कर ठहर गया. यहां से अवंतिका को सबकुछ साफसाफ नजर आ रहा था…
अवंतिका को वह सब चाहिए था जो उस की निगाहों में ठहर जाए, फिर कीमत चाहे जो हो. कीमत की परवाह वह भला करती भी क्यों, हर समय कोई न कोई एटीएम सा उस की बगल में खड़ा जो होता था और उस एटीएम की पिन होती थी उस की अदाएं, उस की शोखियां.
जब वह अदा से अपने बाल झटक कर अपनी मनपसंद चीज पर उंगली रखती, तो क्या मजाल कि एटीएम काम न करे.
अवंतिका 24 की उस उम्र में महानगर आई थी जिसे वहां लोग बाली उम्र कहते थे. शादी के बाद छोटे शहर से महानगर में आई इस हसीन लड़की को अपनी खूबसूरती का बखूबी अंदाजा था. इस तरह का अंदाजा अकसर खूबसूरत लड़कियों को स्कूल छोड़तेछोड़ते हो ही जाता है. कालेज छोड़तेछोड़ते तो यह पूरी तरह से पुख्ता हो जाता है. भंवरे की तरह मंडराते लड़कों का एक मुख्य काम यह भी तो होता है.
अवंतिका ने कालेज करने के बाद डिस्टैंस लर्निंग से एमबीए किया था. एक तो महानगर की ललचाती जिंदगी और दूसरे पति सुकेश के औफिस जाने के बाद काटने को दौड़ता अकेलापन… अवंतिका ने भी नौकरी करने का मानस बनाया. सुकेश ने भी थोड़ी हिचक के बाद अपनी रजामंदी दे दी तो हवा पर सवार अवंतिका अपने लिए काम तलाश करने लगी.
2-4 जगह बायोडाटा भेजने का बाद एक जगह से इंटरव्यू के लिए बुलावा आया. सुकेश के जोर देने पर वह साड़ी पहन कर इंटरव्यू देने के लिए गई. अवंतिका ने महसूस किया कि इंटरव्यू पैनल की दिलचस्पी उस के डौक्यूमैंट्स से अधिक उस की आकर्षक देहयष्टि में थी.
‘साड़ी से कातिल कोई पोशाक नहीं. तरीके से पहनी जाए तो कमबख्त बहुत कमाल लगती है,’ यह खयाल आते ही डाइरैक्टर के साथसाथ अवंतिका की निगाह भी साड़ी से झंकते अपनी कमर के कटाव पर चली गई. वह मुसकरा दी.
न जाने क्यों अवंतिका अपने चयन को ले कर आश्वस्त थी. और हुआ भी वही. अवंतिका का चयन डाइरैक्टर रमन की पर्सनल सैक्रेटरी के रूप में हो गया.
औफिस जौइन करने के लगभग 3 महीने बाद कंपनी की तरफ से उसे रिफ्रैशर कोर्स करने के लिए दिल्ली हैड औफिस भेजा गया. पहली बार घर से बाहर अकेली निकलती अवंतिका घबराई तो जरूर थी, लेकिन अंतत: वह अपना आत्मविश्वास बनाए रखने में कामयाब हुई.
इस कोर्स में कंपनी की अलगअलग शाखाओं से करीब 10 कर्मचारी आए थे. रोज शाम को क्लास के बाद कोई अकेले तो कोई किसी के साथ इधरउधर घूमने निकल जाता.
यह एक सप्ताह का कोर्स था. 5 दिन की ट्रेनिंग के बाद आज छठे दिन परीक्षा थी. अवंतिका सुखद आश्चर्य से भर उठी जब उस ने परीक्षक के रूप में अपने बौस रमन को देखा. 2 घंटे की परीक्षा के बाद पूरा दिन खाली था. अवंतिका की फ्लाइट अगले दिन सुबह की थी. रमन ने उस के सामने आउटिंग का प्रस्ताव रखा जिसे अवंतिका ने एक अवसर की तरह स्वीकार कर लिया.
मौल में घूमतेघूमते अवंतिका ने महसूस किया कि रमन उस की हर इच्छा पूरी करने को तत्पर लग रहा है. पहले तो अवंतिका ने इसे महज एक संयोग समझ, लेकिन फिर मन ही मन अपना वहम दूर करने का निश्चय किया.
टहलतेटहलते दोनों एक साडि़यों के शोरूम के सामने से गुजरे तो अवंतिका जानबूझ कर वहां ठिठक कर खड़ी हो गई. उस ने शरारत से साड़ी लपेट कर खड़ी डमी के कंधे से पल्लू उतारा और अपने कंधे पर डाल लिया. अब इतरा कर रमन की तरफ देखा. रमन ने अपनी अनामिका और अंगूठे को आपस में मिला कर ‘लाजवाब’ का इशारा किया. अवंतिका शरमा गई.
इस के बाद उस ने प्राइज टैग देखा और आश्चर्य से अपनी आंखें चौड़ी कीं. अवंतिका ने साड़ी का पल्लू वापस डमी के कंधे पर डाला और निराश सी वहां से हट गई. इस के बाद वे एक कैफे में चले गए.
अवंतिका अनमनी सी मेन्यू कार्ड पर निगाहों को सैर करवा रही थी और रमन की आंखें उस के चेहरे पर चहलकदमी कर रही थीं.
‘‘तुम और्डर करो, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर रमन कैफे से बाहर निकल गया.
15 मिनट बाद रमन वापस आया. अब तक अवंतिका कौफी और सैंडविच और्डर कर चुकी थी. खापी कर दोनों गैस्ट हाउस चले गए.
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रात लगभग 10 बजे रमन का कौल देख कर अवंतिका को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. लेकिन जब उस ने उसे अपने कमरे में आने को कहा तब वह अवश्य चौंकी. ‘इतनी रात गए क्या कारण हो सकता है,’ सोच कर अवंतिका ने अपने टू पीस पर गाउन डाला और बैल्ट कसती हुई रमन के रूम की तरफ चल दी. रमन उसी का इंतजार कर रहा था.
‘‘हां, कहिए हुजूर, कैसे याद फरमाया?’’ अवंतिका ने आंखें नचाईं. एक शाम साथ बिताने के बाद अवंतिका उस से इतना तो खुल ही गई थी कि चुहल कर सके. अब उन के बीच औपचारिक रिश्ता जरा सा पर्सनल हो गया था.
‘‘बस, यों ही. मन किया तुम से बातें करने का,’’ रमन उस के जरा सा नजदीक आया.
‘‘वे तो फोन पर भी हो सकती थीं,’’ अवंतिका उस की सांसें अपनी पीठ पर महसूस कर रही थी. यह पहला अवसर था जब वह सुकेश के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के इतना नजदीक खड़ी थी. वह सिहर कर सिमट गई.
‘‘फोन पर बातें तो हो सकती हैं लेकिन यह नहीं,’’ कहते हुए रमन ने अवंतिका को उस साड़ी में लपेटते हुए अपनी बांहों में कस लिया. साड़ी को देखते ही अवंतिका खुशी से उछलती हुई पलटी और रमन के गले में बांहें डाल दी.
‘‘वाऊ, थैंक्स सर,’’ अवंतिका ने कहा.
‘‘सरवर औफिस में, यहां सिर्फ रमन,’’ कह कर रमन ने दोनों के बीच से पहले साड़ी की और उस के बाद गाउन की दीवार भी हटा दी.
यही वह पल था जिस ने अवंतिका के इस विश्वास को और भी अधिक मजबूत कर दिया था कि हुस्न चाहे तो क्या कुछ हासिल नहीं हो सकता. संसार का कोई सुख नहीं जो उस के चाहने पर कदमों में झक नहीं सकता. दुनिया में ऐसा कोई पुरुष नहीं जो बहकाने पर बहक नहीं सकता.
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धीरेधीरे अवंतिका रमन की सैक्रेटरी कम और उस की पर्सनल अधिक होने लगी. कहीं आग लगे तो धुआं उठना स्वाभाविक है. अवंतिका और रमन को ले कर भी औफिस में थोड़ीबहुत गौसिप हुई, लेकिन आजकल किसे इतनी फुरसत है कि किसी के फटे में टांग अड़ाए. वैसे भी हमाम में सभी नंगे होते हैं.
लगभग 2 साल बाद रमन का ट्रांसफर हो गया. जातेजाते वह अंतिम उपहार के रूप में उसे वेतनवृद्धि दे गया. रमन के बाद अमन डाइरैक्टर के पद पर आए. कुछ दिन की औपचारिकता के बाद अब अवंतिका अमन की पर्सनल होने लगी.
धीरेधीरे अवंतिका के घर में सुखसुविधाएं जुटने लगीं, लेकिन मियां गालिब की, ‘‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,’’ की तरह अवंतिका की ख्वाहिशों की सूची आम लड़कियों से जरा लंबी थी. इस जन्म में तो खुद उस की और सुकेश की तनख्वाह से उन का पूरा होना संभव नहीं था.
अब यह भी तो संभव नहीं न कि बची हुई इच्छाएं पूरी करने के लिए किसी और जन्म का इंतजार किया जाए. सबकुछ विचार कर आखिर अवंतिका ने तय किया कि इच्छाएं तो इसी जन्म में पूरी करनी हैं, तरीका चाहे जो हो.
आजकल अवंतिका की निगाहें टीवी पर आने अपनी वाले हीरे के आभूषणों वाले विज्ञापनों पर अटक जाती है.
‘हीरा नहीं पहना तो क्या पहना,’ अपनी खाली उंगली को देख कर वह ठंडी सांस भर कर रह जाती.
‘समय कम है अवंतिका. 28 की होने को हो, 35 तक ढल जाओगी. जो कुछ हासिल करना है, इसी दरमियां करना है. फिर यह रूप, यह हुस्न रहे न रहे,’ अवंतिका अपनी सचाई से वाकिफ थी. वह जानती थी कि अदाओं के खेल की उम्र अधिक नहीं होती, लेकिन कमबख्त ख्वाहिशों की उम्र बहुत लंबी होती है. ये तो सांसें छूटने के साथ ही छूटती हैं.
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‘क्या करूं, अमन सर ने तो पिछले दिनों ही उसे सोने के इयररिंग्स दिलाए थे. इतनी जल्दी हीरे की अंगूठी मुश्किल है. सुकेश से कहने का कोई मतलब भी नहीं. तो क्या किया जाए? कैसे अमन सर को शीशे में उतारा जाए,’ अवंतिका दिनरात इसी उधेड़बुन में थी कि अचानक अमन के ट्रांसफर और्डर आ गए. अवंतिका खुशी से झम उठी. अब आलोक उस के नए बौस थे.
‘हीरा तो नए बौस से ही लिया जाएगा,’ सोच कर उम्मीद की किरण से उस की आंखें चमक उठीं, लेकिन आलोक को प्रत्यक्ष देखने के बाद उस की यह चमक फक्क पड़ गई.
दरअसल, आलोक उस के पहले वाले दोनों बौस से अधिक जवान था. लगभग 40 के आसपास. उम्र का कम फासला ही अवंतिका की चिंता का कारण था क्योंकि इस उम्र में लगभग हरेक पुरुष अपने बैडरूम में संतुष्ट ही रहता है.
‘कौन जाने मुझ में दिलचस्पी लेगा भी या नहीं,’ आलोक को देख कर अवंतिका के होंठ सिकुड़ गए.
तभी विचार कौंधा कि वह औरत ही क्या जो किसी पुरुष में खुद के लिए दिलचस्पी पैदा ना कर सके और यह विचार आते ही अवंतिका ने आलोक को एक प्रोजैक्ट के रूप में देखना शुरू कर दिया.
‘लक्ष्य हासिल हो या न हो, लेकिन खेल तो मजेदार जरूर होने वाला है,’ सोच स्टाफ के अन्य कर्मचारियों के साथ मुसकराती हुई खड़ी अवंतिका ने आगे बढ़ कर अपना परिचय दिया. वह यह देख कर कुछ निराश हुई कि आलोक ने उसे ठीक से देखा तक नहीं, लेकिन अवंतिका हार मानने वालों में से नहीं थी. वह हर बाजी जीतना जानती थी. हुस्न, जवानी, अदाएं और शोखियां उस के हथियार थे.
पर्सनल सैक्रेटरी थी तो बहुत से पर्सनल काम जैसे बौस के लिए कौफी बनाना, लंच और्डर करना आदि भी अवंतिका ने खुद पर ले रखे थे. आलोक के लिए भी वह ये सब अपनी ड्यूटी समझ कर कर रही थी.
बैंगल बौक्स में रखी चूडि़यां आखिर कब तक न खनकतीं. आलोक भी धीरेधीरे उस से खुलने लगा. बातों ही बातों में अवंतिका ने जान लिया कि एक ऐक्सिडैंट के बाद से आलोक की पत्नी के कमर से नीचे के अंग काम नहीं करते. पिछले लगभग 5 वर्षों से उस का सारा दैनिक काम भी एक नर्स की मदद से ही हो रहा है. अवंतिका उस के प्रति सहानुभूति से भर गई.
कभीकभार वह उस से मिलने आलोक के घर भी जाने लगी. इस से आलोक के साथ उस के रिश्ते में थोड़ी नजदीकियां बढ़ीं. इसी दौरान एक रोज उसे आलोक के शायराना शौक के बारे में पता चला. डायरी देखी तो सचमुच कुछ उम्दा गजलें लिखी हुई थीं.
अवंतिका उस से गीतों, गजलों और कविताओं के बारे में अधिक से अधिक बात करने लगी. लंच भी वह उस के साथ उस के चैंबर में ही करने लगी. खाना खाते समय अकसर अवंतिका अपने मोबाइल पर धीमी आवाज में गजलें चला देती. कभीकभी कुछ गुनगुना भी देती. आलोक भी उस का साथ देने लगा. अवंतिका ने उस के शौक की शमा को फिर से रोशन कर दिया. बात शौक की हो तो कौन व्यक्ति भला पिघल न जाएगा.
‘‘सर प्लीज, कुछ लाइनें मुझ पर भी लिखिए न,’’ एक रोज अवंतिका ने प्यार से जिद की.
आलोक केवल मुसकरा कर रह गया.
सप्ताहभर बाद ही आलोक को पास के गांव में एक किसान कैंप अटैंड करने की सूचना मिली. अवंतिका को भी साथ जाना था. दोनों औफिस की गाड़ी से अलसुबह ही निकल गए. अवंतिका घर से सैंडविच बना कर लाई थी. गाड़ी में बैठेबैठे ही दोनों ने नाश्ता किया. फिर एक ढाबे पर रुक कर चाय पी. 2 घंटे के सफर में दोनों के बीच बहुत सी इधरउधर की और कुछ व्यक्तिगत बातें भी हुईं. कच्ची सड़क पर गाड़ी के हिचकोले उन्हें और भी अधिक पास आने का अवसर दे रहे थे. अवंतिका ने महसूस किया कि आलोक की पहले झटके पर टकराने वाली ?िझक हर झटके के साथ लगातार कम होती जा रही है.
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‘मैन विल बी मैन,’ एक विज्ञापन का खयाल आते ही अवंतिका मुसकरा दी.
कैंप बहुत सफल रहा. हैड औफिस से मिली बधाई के मेल ने आलोक के उत्साह को कई गुना बढ़ा दिया. वापसी तक दोनों काफी कुछ अनौपचारिक हो चुके थे. खुशनुमा मूड में आलोक ने अपनी एक पुरानी लिखी गजल तरन्नुम में सुनाई तो अवंतिका दाद दिए बिना नहीं रह सकी.
‘‘मैं ने भी आप से कुछ पंक्तियां लिखने का आग्रह किया था. कब लिखोगे?’’ कहते हुए उस ने धीरे से अपना सिर आलोक के कंधे की तरफ झका दिया.
उस के समर्पित स्पर्श से आलोक किसी मूर्ति की भांति स्थिर रह गया.
‘‘अगली बार,’’ किसी तरह बोल पाया.
यह अगली बार जल्द ही आ गई. विभाग के सालाना जलसे में भाग लेने के लिए दोनों को सपरिवार गोवा जाने का निमंत्रण था. आलोक
की पत्नी का जाना तो नामुमकिन था ही, अवंतिका ने भी औपचारिक रूप से सुकेश को साथ चलने के लिए कहा, लेकिन उस ने औफिस में काम अधिक होने का कह कर असमर्थता जता दी तो अवंतिका ने भी अधिक जिद नहीं की.
उस की आंखों में एक बार फिर हीरे की अंगूठी नाचने लगी.
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गोवा का रोमांटिक माहौल अवंतिका के मंसूबों में सहायक सिद्ध हो रहा था. 5 साल स्त्री के सान्निध्य से दूर रहा युवा पुरुष बारूद से भरा होता है. अवंतिका को बस दियासलाई दिखानेभर की देर थी.
आलोक बिना अधिक प्रयास के ही पके फल सा अवंतिका के पहलू में टपकने को आतुर दिख रहा था. ढलती शाम, बीच का खूबसूरत नजारा और कंधे पर झका सिर… मौन की भाषा बहुत कुछ कह रही थी. अवंतिका की कमर को अपनी बांहों में लपेटे हुए आलोक उसे अपने कमरे में ले आया. दूरियां कम होने लगी तो अवंतिका ने गरम लोहे पर चोट की, ‘‘हमारे पहले मिलन को यादगार बनाने के लिए क्या उपहार दोगे?’’ अवंतिका ने आलोक का हाथ अपनी कमर से हटाते हुए पूछा.
‘‘जो तुम चाहो,’’ आलोक की आंखों में ढलता सूरज उतर आया.
‘‘सोच लो,’’ प्रेयसी इठलाई.
‘‘सोच लिया,’’ प्रियतम ने चांदतारे तोड़ लाने सा जज्बा दिखाया.
अभी अवंतिका कुछ और कहती उस से पहले ही आलोक खुद पर से नियंत्रण खो बैठा. अवंतिका ने लाख रोकने की कोशिश की, लेकिन आलोक के पास सुरक्षा उपाय अपनाने जितना सब्र कहां था.
‘देखा जाएगा. हीरे की अंगूठी की इतनी कीमत तो चुकानी ही होगी,’ सोचते हुए
अवंतिका ने अपने विचार झटके और उस का साथ देने लगी.
आलोक को इस सुख के सामने कोहिनूर
भी सस्ता लग रहा था. गोवा से वापसी पर अवंतिका के हाथ में हीरे की अंगूठी ?िलमिल कर रही थी. लेकिन काले को सफेद भी तो करना था न.
सुकेश के साथ उस ने 1-2 बार असुरक्षित संबंध बनाए और निश्चिंत हो गई.
अगले ही महीने अवंतिका को अपने गर्भवती होने का पता चला. वह तय नहीं कर पाई कि बच्चा प्रेम की परिणति है या हीरे की अंगूठी का बिल.
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गर्भ की प्रारंभिक जटिलताओं के चलते
उसे जौब से ब्रेक लेना पड़ा और फिर साहिल के 3 साल का होने तक वह औफिस नहीं जा पाई. इस बीच आलोक का ट्रांसफर हो गया और खुद अवंतिका की जौब भी छूट गई. एक बार सिरा हाथ से छूटा तो छूटा. दोबारा पकड़ा ही नहीं
गया. अवंतिका भी बच्चे और गृहस्थी में उलझती चली गई.
अवंतिका की दास्तान यहीं समाप्त
नहीं होती है. उस की जिंदगी
को तो अभी यूटर्न लेना बाकी था. साहिल के
10 साल का होतेहोते एक दिन अचानक सड़क दुर्घटना में सुकेश उन दोनों को छोड़ कर परमधाम को चला गया. 40 की उम्र में अवंतिका को फिर से नौकरी करनी पड़ी.
नौकरी और बच्चा… अवंतिका दोनों को एकसाथ नहीं संभाल पा रही थी. किशोरवय की तरफ बढ़ता साहिल शरारती से उद्दंड होने लगा. स्कूल और पासपड़ोस… हर जगह से उस की शिकायतें आने लगीं. अवंतिका भी क्या करती, नौकरी करनी भी जरूरी थी.
साहिल के अकेलेपन, उस की सुरक्षा और किसी हद तक उसे व्यस्त रखने के खयाल से अवंतिका ने उस के हाथ में स्मार्ट फोन थमा दिया. बस, अब तो रहीसही कसर भी पूरी हो गई. मां की गैरमौजूदगी में साहिल फोन पर जाने क्याक्या देखता रहता था. धीरेधीरे वह फोन का आदी होने लगा. उसे वैब सीरीज और औनलाइन गेम्स की लत लग गई. देर रात तक फोन पर लगे रहने के कारण उस का दिन का शैड्यूल बिगड़ने लगा. स्कूल में पिछड़ने लगा तो क्लास बंक करने की आदत पड़ने लगी.
साहिल की किताबों के बीच सस्ता साहित्य मिलना तो आम बात हो गई थी. 1-2 बार अवंतिका को उस के कमरे से सिगरेट के धुएं की गंध भी महसूस हुई थी. कई बार पर्स से पैसे गायब हुए सो अलग. अवंतिका के रोकनेटोकने पर वह आक्रामक होने लगा.
कुल मिला कर अवंतिका को विश्वास हो गया कि लड़का उस के हाथ से निकल गया है. वह स्वयं को पेरैंटिंग में असफल मानने लगी. लेकिन उसे रास्ते पर लाने का कोई भी तरीका उसे समझ में नहीं आ रहा था.
‘‘पता नहीं किस का अंश है यह सुकेश का या आलोक का? किसी का भी हो, आधा तो मेरा ही है. इस में तो कोई शंका ही नहीं. शायद मेरे जींस ही हावी हो रहे हैं साहिल पर. तभी इतना बेकाबू हो रहा है. मैं ने कब खुद को काबू में रखा था जो इसे दोष दूं? बबूल का यह पौधा तो खुद मेरा ही बोया हुआ है. किसी ने सच ही तो कहा है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय,’’ अवंतिका की रात काली होने लगी.
विचारों का अंधेरा इतना घना होने लगा कि दो कदम की दूरी पर भी कुछ
न सू?ो. उतरती सुबह कहीं जा कर आंख लगी तो सूरज चढ़ने तक सोती ही रही.
उठ कर देखा तो साहिल घर में नहीं था. स्कूल बैग सामने पड़ा देख कर उस ने अंदाजा लगा लिया कि साहिल ने आज भी स्कूल से बंक मार लिया. अवंतिका ने भी फोन कर के आज औफिस से छुट्टी ले ली.
अवंतिका ने एक कप चाय बनाई और कप ले कर बालकनी में बैठ गई. सोच की घड़ी फिर से चलने लगी. तभी उसे आलोक याद आया. मोबाइल में देखा तो अभी भी आलोक का नंबर सेव था. कुछ सोच कर अवंतिका ने फोन लगा दिया.
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‘‘अरे अवंतिका तुम, इतने सालों बाद याद किया. कैसी हो तुम? सौरी यार, सुकेश के बारे में सुन कर बहुत बुरा लगा,’’ आलोक ने अपनत्व
से कहा.
‘‘बस ठीक ही हूं. तुम्हारे बिगड़ैल बेटे को ?ोल रही हूं,’’ अवंतिका ने गहरी उदासी से कहा.
‘‘बेटे को ?ोल रही हो यह सच हो सकता है, लेकिन साहिल मेरा बेटा है
इस की क्या गारंटी है?’’ आलोक ने हंस कर पूछा.
‘‘क्योंकि सुकेश तो बहुत सीधा था. शौकीन तो तुम ही थे,’’ अवंतिका भी हंसी.
‘‘तुम कहती हो तो चलो मान लेता हूं, लेकिन असल बात बताओ न कि क्या चाहती हो? आज इतने दिनों बाद कैसे याद किया?’’ आलोक ने आगे पूछा तो अवंतिका कुछ देर के लिए चुप हो गई.
‘‘बस यों ही जरा परेशान थी. बेटा मेरे कहने में नहीं है. शायद पिता का साया किशोर होते बेटों के लिए जरूरी होता है, लेकिन अब पिता कहां से लाऊं. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा. साहिल दिनोंदिन बदतमीज होता जा रहा है. कुछ भी कहो तो पलट कर जवाब देता है,’’ अवंतिका ने रात की बात बताते हुए आलोक के सामने दिल खोल कर रख दिया.
‘‘देखो अवंतिका, यह सही है कि पिता का साया बच्चों के लिए बहुत जरूरी होता है, लेकिन क्या पिता के होते बच्चे नहीं बिगड़ते? दरअसल, यह उम्र सागर की लहरों की तरह होती है. इस में उछाल आना स्वाभाविक है. यह अलग बात है कि किसी में उछाल कम तो किसी में अधिक होता है. जिस तरह किनारे से लगतेलगते लहर शांत हो जाती है उसी तरह उम्र का उफान भी समय के साथ धीमा पड़ने लगता है.
‘‘आज की टीनऐज पीढ़ी को अपने रास्ते में बाधा स्वीकार नहीं. हमें धीरज रखना होगा. कभीकभी कुछ समस्याओं का हल सिर्फ समय होता है,’’ आलोक ने कहा तो अवंतिका को उस की बात में सचाई नजर आई.
‘‘सुनो, क्यों न तुम साहिल को किसी होस्टल भेज दो. हो सकता है कि वहां के अनुशासन से कुछ बात बन जाए. मेरी मदद चाहिए तो बेझिझक कहो,’’ आलोक ने आगे कहा तो अवंतिका को एक राह सूझ.
‘आलोक सही ही तो कह रहा है. कुछ समस्याएं समय के साथ अपनेआप हल हो जाती हैं या हम ही उन के साथ जीने की आदत डाल लेते हैं. डांटनेफटकारने से तो उलटे बात और बिगड़ेगी. हो सकता है कि समय के साथ समझदारी खुदबखुद आ जाए. न भी आएगी तो क्या कर लूंगी. बांधे हुए तो जानवर भी नहीं टिकते. इसे होस्टल में भेजने की कोशिश भी कर के देखी जा सकती है,’ अवंतिका सोचने लगी.
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‘‘हैलोहैलो,’’ आलोक फोन पर ही था.
उस की आवाज सुन कर अवंतिका वर्तमान में आई. बोली, ‘‘तुम सही कह रहे हो. यही ठीक रहेगा. अच्छा सुनो, तुम साहिल के लिए किसी अच्छे होस्टल का पता कर के बताओ न,’’ और फिर अवंतिका ने कुछ देर इधरउधर की बातें कर के फोन रख दिया.
‘कौन जाने कभी बबूल का पौधा अपने असली गुण ही पहचान ले,’ सोच अवंतिका ने एक लंबी सांस खींची. सोच की दिशा बदलते ही वह बेहद हलकी हो गई थी.