रिटायरमैंट के करीब पहुंचे एक सज्जन से मैं ने पूछा, ‘‘दीक्षा का मतलब क्या है?’’ वे बताने लगे, ‘‘दीक्षा का मतलब, दक्ष,’’ वे आगे बोले, ‘‘कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत के युद्ध में दीक्षा दी थी.’’
‘‘क्या दीक्षा दी थी?’’ मेरे दोबारा पूछने पर वे कुछ नहीं बोले. जाहिर है, वे अपने गुरु के अंधसमर्थक थे.
इस बारे में महाभारत से स्पष्ट है कि कृष्ण ने छलकपट से कुरुक्षेत्र का युद्ध जीता था. तो क्या उन्होंने अर्जुन को छलकपट की दीक्षा दी? आमतौर पर दीक्षा का मतलब होता है, गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान का सार, जिस पर शिष्य (छात्र) अपने जीवन में अमल कर सफलता की सीढ़ी चढ़ता है. स्कूल की पढ़ाई को तथाकथित गुरु अपर्याप्त शिक्षा मानते हैं. अनपढ़, गंवार गुरु अपने तप से जीवन में ऐसा कौन सा मंत्र प्राप्त करते हैं जो अपने शिष्यों में बांट कर उन का जीवन सुधारने का कार्य करते हैं, जबकि वे खुद असफल, जीवन के संघर्षों से भागने वाले लोग होते हैं.
गुरु के मर जाने के बाद भी दीक्षा का कार्यक्रम चलता है. यह समझ से परे है, क्योंकि गुरु खुद अपना ज्ञान दे तो समझ में आता है पर यह कार्य मरने के बाद उन के कुछ शिष्यों द्वारा चलता रहे, तो यही कहा जा सकता है कि यह गुरु की दुकानदारी है.
दीक्षा देने का तरीका सभी गुरुओं का एक जैसा नहीं होता. कुछ गुरु खास रंगों के वस्त्रों के साथ नहाधो कर ब्रह्ममुहूर्त में दीक्षा देते हैं, तो कुछ कभी भी, किसी भी अवस्था में. दीक्षा के लिए किस गुरु को चुना जाए, यह बुद्धि से ज्यादा गुरु के प्रचार पर निर्भर करता है जिस गुरु का जितना प्रचार होता है उस से दीक्षित होने के लिए लोग उतने ही उतावले होते हैं. इस के अलावा संपर्क भी एक माध्यम है. क्यों? जड़बुद्धि जनता के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं होता क्योंकि इतना सोचने के लिए उस के पास दिमाग ही नहीं होता. उसे तो बस यह पता हो कि उक्त गुरुजी बहुत पहुंचे हुए महात्मा हैं.
इन गुरुओं से संबंधित अनेक मनगढं़त कहानियां होती हैं जो नए ग्राहक (शिष्य) को फंसाने के लिए सुनाई जाती हैं. एक दीक्षा प्राप्त महिला ने अपने गुरु के बारे में बताया कि एक बार मेरा बेटा मोटरसाइकिल से आ रहा था. उसे अचानक चक्कर आया और वह गिर पड़ा. गिरते ही बेहोश होने की जगह उस ने गुरुमंत्र जपा. तभी गुरु समान सड़क पर पता नहीं कहां से एक रिकशा वाला आ गया, जो मेरे बेटे को उठा कर पास के अस्पताल में ले गया. आमतौर पर उस अस्पताल में औक्सीजन सिलिंडर नहीं होता पर उस रोज था और इस तरह बेटे की जान बच गई. रिकशे वाले की सदाशयता और अस्पताल की सारी मुस्तैदी का के्रडिट गुरुजी ले उड़े.
दूसरी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है : एक शिष्य साइकिल से जा रहा था. अचानक ट्रक ने पीछे से साइकिल में टक्कर मारी तो साइकिल सवार सड़क पर और साइकिल छिटक कर दूर जा पड़ी. सड़क पर गिरते ही उस का एक हाथ ट्रक के अगले पहिए के नीचे आ गया. तभी उस ने गुरुमंत्र जपा. मंत्र जपने के साथ ही उस में पता नहीं कहां से इतनी शक्ति आ गई कि उस ने सिर झटके से हटा लिया. इस तरह उस का सिर पिछले पहिए से कुचलने से बच गया.
समझने वाली बात है कि उस का ध्यान मंत्रजाप पर था या सिर बचाने पर. साफ पता लग रहा है कि सारी घटना में जानबूझ कर मंत्र का तड़का लगाया गया है.
गुरुमंत्र कानों में इस तरह फुसफुसाए जाते हैं ताकि कोई सुन न ले. ठीक पाकिस्तान के आणविक कार्यक्रम की तरह कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाए, वरना महाविनाश निश्चित है. गुरुमंत्र से दीक्षित हो कर वह आदमी उस फार्मूले (मंत्र) को अपने तक ही सीमित रखता है.
दीक्षा मुफ्त में नहीं मिलती. इस के लिए बाकायदा चढ़ावा निश्चित है. ‘माया महा ठगिति हम जानी’, तिस पर गुरु व उन के खासमखास चेले बिना रुपया हाथ में लिए दीक्षा नहीं देते. यहां तक कि मर चुके गुरु के फोटो तक के पैसे शिष्यों से वसूल लिए जाते हैं. एकाधिकार बना रहे तभी कानों में मंत्र फूंकने का काम वह अपने तक ही सीमित रखता है. हां, मरने के बाद गुरु की दुकानदारी चलती रहे, सो अपने किसी प्रिय शिष्य को वह यह कार्य सौंप कर जाता है.
दीक्षा में कुछ नहीं है. कानों में गुरु अपना उपनाम बताता है, जिसे दीक्षित आदमी से हर वक्त जपने को कहा जाता है. यह एक तरह से व्यक्ति पूजा है ताकि कथित भगवानों से ऊपर लोग उसे जानें. तथाकथित गुरु का यह आत्ममोह से ज्यादा कुछ नहीं.
गुरु कितने आध्यात्मिक व ताकतवर हैं, यह सब को मालूम है. सुधांशु महाराज, जयगुरुदेव, कृपालु महाराज, आसाराम बापू, प्रभातरंजन सरकार (आनंदमार्गी) इन सब के क्रियाकलापों से सारा देश परिचित है. इन्होंने समाज को कौन सी सीख दी? क्या मंत्र दिया? उन का गुरुशिष्य के खेल में कितना कल्याण हुआ? यह बताने की जरूरत नहीं. हां, इतना जरूरी है कि दीक्षा के नाम पर करोड़ों रुपए कमा चुके ये महात्मा खुद आलीशान जीवन जी रहे हैं और दीक्षा लेने वाला शिष्य भूखे पेट इन के नाम का जाप कर इन्हें धन्य कर रहा है.
अपनी गिरफ्तारी पर आसाराम बापू ढिठाई से कहते हैं, ‘‘नरेंद्र मोदी की सत्ता बच न सकेगी.’’ मानो वे कोई अंतर्यामी व सर्वशक्तिमान हैं. उन के गिरफ्तार होते ही प्रलय आ जाएगी. दुनिया तहसनहस हो जाएगी. अपनी दुकानदारी चलाने की नीयत से इन गुरुओं द्वारा, यदि दिवंगत हुए तो शिष्यों द्वारा साल में 1 या 2 बार विभिन्न धार्मिक शहरों में भंडारे का आयोजन होता है. जहां इन के शिष्य जुटते, खातेपीते, सत्संग (चुगलखोरी) करते हैं. कहने को सभी शिष्य आश्रम में गुरुभाई हैं पर जैसे ही भंडारा खत्म होता है फिर से वे जातिपांति, भाषा में बंटे अपने घरों को लौट जाते हैं. सिवा पिकनिक के इन भंडारों से कोई लाभ नहीं होता. भंडारे के लिए धन कहां से आता है? इस के लिए हर शिष्य चंदा देता है. कुछ पैसे वाले व्यापारी तो गुरु महाराज की इच्छा के नाम पर भंडारे का सारा खर्च अपने ऊपर ले लेते हैं. दरअसल, जमाखोरी कर के वे जो पाप की कमाई करते हैं उसे थोड़ा खर्च कर के अपने पाप को धोने की कोशिश करते हैं.
दीक्षित होने के बाद बताया जाता है कि गुरु की तसवीर के सामने बिना होंठ व जबान हिलाए मंत्र (गुरु नाम) का स्मरण करना चाहिए. यह प्रक्रिया दिनरात कभी भी की जा सकती है. सुबह अनिवार्य है. ऐसा कर के शिष्य के ऊपर कभी भी संकट नहीं आ सकता. तो क्या गुरुजी उस आदमी के लिए ‘बुलेटप्रूफ जैकेट’ का काम करते हैं? अगर गुरुजी पर संकट आए तब जैसा आसाराम बापू के साथ हुआ? तब मीडिया को कोसने का मंत्र गला फाड़फाड़ कर बोलने का नियम शायद लागू होता है.
कुल मिला कर दीक्षा वक्त व धन की बरबादी है. जो धर्मभीरु हैं, बेकार हैं व भाग्य के भरोसे रहने वाले हैं वे ही इन गुरुओं के चक्कर में पड़ते हैं. जो गुरु खुद दिग्भ्रमित हो वह क्या लोगों को रास्ता दिखाएगा. दोष कबीर का ही है, न वे कहते, ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय. बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय.’ न आम लोगों में यह धारणा बनती कि गुरु ही भगवान के पास जाने का रास्ता जानते हैं.