‘‘जया…’’
आवाज सुनते ही वह चौंकी थी. यहां मौल के इस भीड़ भरे वातावरण में किस ने आवाज दी. पीछे मुड़ कर देखा, ‘‘अरे वीणा तू…’’
अपनी पुरानी सहेली वीणा को देख कर सुखद आश्चर्य भी हुआ था.
‘‘तू कब आई बेंगलुरु से और यहां…’’
‘‘अरे, मैं तो पिछले 6 महीनों से यही हूं. यहां बेटे के पास आई हूं. बीच में सुना कि तेरी बेटी संजना की शादी तय हो गई है, मुझे उषा ने बताया था, पर कुछ ऐसे काम आ गए कि मिलना हो नहीं पाया.
“उषा ने तो तेरा नंबर भी दिया था, पर वह भी कहीं खो गया. नहीं तो मैं फोन पर ही तुझे बधाई दे ही देती…’’
‘‘अरे, यह सब तो ठीक है, पर अब बैठ कर कहीं बातें करते हैं, मेरी तो शापिंग भी अब पूरी हो गई है और थक भी गई हूं,’’ कहते हुए जया उसे कौफी शौप की तरफ ले गई.
‘‘हां तो अब यहां बैठ कर इतमीनान से बातें कर सकते हैं.’’
‘‘वो तो मैं देख ही रही हूं. लगता है कि बेटी की शादी के बाद तू भी अब काफी रिलेक्स फील कर रही है,’’
वीणा के कहने पर जया को हंसी आ गई थी.
‘‘शायद तू ठीक ही कह रही है.’’
फिर कौफी की चुसकियों के साथ देर तक बातें चलती रही. कैसे दिल्ली में शादी का इंतजाम था, दोनों परिवार के लोग वहीं इकट्ठे हो गए थे. एक बड़ा रिसोर्ट बुक करा लिया गया था. अब संजना और सुकांत अपनी पसंद से शादी कर रहे थे तो जैसा उन्होंने चाहा, वैसा ही इंतजाम कर दिया था.
‘‘ठीक किया तू ने,’’ वीणा ने भी हां में हां मिलाई.
‘‘जया, मैं सोचती हूं कि अगर लड़का, लड़की अपनी पसंद से शादी कर लें तो हम लोग कितनी परेशानियों से बच जाते हैं. अब हमारी पीढ़ी के बाद कितना अंतर भी तो आ गया है. हमारी पीढ़ी में जब मातापिता सब कुछ तय करते थे, तब हमें पता भी नहीं होता था कि कैसी ससुराल होगी, पति का स्वभाव कैसा होगा, कैसे हम एडजस्ट करेंगे.
कितनी तरफ की आशंकाएं थीं, हमें भी और हमारे मातापिता को भी, पर अब बच्चे जब एकदूसरे को अच्छी तरह समझ कर शादी का निर्णय लेते हैं तो बच्चों के साथ मातापिता भी सुकून का अनुभव करते हैं.’’
जया ने भी तब एक संतोष की सांस लेते हुए कहा था,
‘‘तू ठीक कह रही है वीणा, मैं बहुतकुछ ऐसा ही अनुभव कर रही हूं.’’
देर तक गपशप कर के जब जया घर लौटी, तो उस के दिमाग में वीणा की कही बातें ही गूंज रही थीं.
लाया हुआ सामान करीने से जमाया, खाना तो सुबह ही बना लिया था तो अब कोई जल्दी नहीं थी. कुछ फल काट कर प्लेट ले कर वह बालकनी में आ गई. नीचे लौन में कालोनी के बच्चे खेल रहे थे.
सांझ का अंधेरा अब गहराने लगा था, पर सबकुछ देखते हुए भी जया अपने ही खयालों में खोई हुई थी.
सचमुच एक सकून मिला है उसे संजना की शादी के बाद. इंजीनियरिंग कर के जब वह एमबीए करने दिल्ली गई, तभी उस की मुलाकात सुकांत से हुई थी.
फोन पर 2-4 बार उस ने जिक्र भी किया था, फिर दिल्ली में सुकांत से मिलवाया.
‘‘मां, हम लोग शादी करना चाहते हैं,’’ सुन कर वह और पति राकेश दोनों ही चौंक गए थे.
राकेश ने फिर कहा भी था,
‘‘बेटा, यहां तो तुझे पढ़ाई के लिए भेजा है. शादी के बारे में बाद में सोचना.’’
‘‘नहीं पापा, बहुत सोच कर ही मैं और सुकांत इस निर्णय पर पहुंचे हैं और अब हम लोग मैच्युर हैं, अपने निर्णय ले सकते हैं.’’
‘‘ठीक है. पहले पढ़ाई करो मन लगा कर, फिर अगर पढ़ाई पूरी करने के बाद भी तुम लोगों का यही निर्णय रहा तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी. पर शादीब्याह का निर्णय जल्दबाजी में लेना ठीक नहीं है.’’
जया ने यह कह कर बात समाप्त कर दी थी. वैसे, सुकांत उसे भी ठीक ही लगा था. परिवार भी भला था. अब बच्चों की यही मरजी है तो यही सही.
फिर भी पूरे साल उसे यही लगता रहा कि संजना दिल्ली में होस्टल में अकेली रहती है. कहीं बीच में कोई गलत कदम न उठा ले, जल्दी उस की पढ़ाई पूरी हो तो शादी कर के हम भी निश्चिंत हों. अच्छे नंबरों से एमबीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी संजना ने. वैसे पढ़ाई में वह शुरू से ही अव्वल रही थी. यहां तो बस एक भटकाव की आशंका थी जया को.
फिर दोनों परिवारों ने मिल कर सारी योजना बनाई. संजना को यहां भी जौब औफर हो गए थे, पर सुकांत को इसी बीच जरमनी से एक बड़ा औफर मिला था. तय यह हुआ कि शादी के बाद संजना भी जरमनी जाएगी.
सोचते हुए जया अपने खयालों में इतनी खो गई थी कि अब याद आया फलों की प्लेट तो तब से स्टूल पर वैसी ही पड़ी है.
प्लेट उठाते ही मन फिर कहीं दौड़ गया था. शादी के बाद संजना बेहद खुश थी. दोनों की जोड़ी लग भी बहुत सुंदर रही थी. सिंगापुर घूमने गए, तो वहां से भी संजना ने ढेरों फोटो भेजे थे और मोबाइल पर सारी जगहों का वर्णन करती रहती.
‘‘अरे, तुम लोग आराम से अपना टाइम साथ बिताओ, बातें तो बाद में भी हो जाएंगी.’’
जया ने फोन पर हंस कर कहा भी था.
फिर हनीमून से आते ही उन लोगों की जरमनी जाने की तैयारी शुरू हो गई थी.
फ्रेंकफर्ट में एक छोटा सुंदर सा फ्लैट मिल गया था. सुकांत को बड़े विस्तार से मां सुनैना मेल करती कि कैसे पतिपत्नी घर सजाने में लगे हुए हैं. सुकांत घर के कामों में बहुत मदद करते हैं.
‘‘मां, अब तुम और पापा भी इधर आने का प्रोग्राम बनाओ.’’
‘‘हां… हां आएंगे, पहले तुम लोग तो अच्छी तरह सैट हो लो.’’
बेटी का बचपना अब तक गया नहीं है. जरा सी बात पर खुश और कुछ मन लायक नहीं हुआ तो नाराज भी तुरंत.
जया को सोचते ही फिर हंसी आ गई.
अरे मोबाइल पर मैसेज आ रहा है. हां संजना का ही तो है, ‘‘मां, तुझे मेल किया था.’’
‘अरे, मेल खोला कुछ घर के फोटो थे, फिर लंबी दिनचर्या का वर्णन था.
‘मां, सुकांत ने अब औफिस जौइन कर लिया है, मैं ने भी कई इंटरव्यू दिए हैं. पर, अब तक कोई जवाब नहीं आया है.
‘क्या मेरी लाइफ अब चौकेचूल्हे में ही सिमट कर रह जाएगी.’
‘ओफ्फो… यह लड़की भी…’’ जया के मुंह से निकला था. जरा भी धैर्य नहीं है. अब इंटरव्यू दिए हैं तो कुछ समय तो लगेगा ही. सुकांत अच्छा जौब कर तो रहा है, पर नहीं, यह नई पीढ़ी भी बस…
सोचते हुए जया फिर घर के कामों में लग गई थी. थोड़ा समझा कर ईमेल का जवाब भी भेज दिया था. फिर कुछ दिनों बाद सुकांत का भी मेल था, ‘मां, जरमनी में यहां की भाषा सीखना भी जरूरी होता है. मैं ने संजना को भी भाषा की क्लास जौइन करवा दी है.’’
‘चलो ठीक है, व्यस्त रहेगी तो कम सोचेगी…’ जया के मुंह से निकला.
पर उस दिन उस का फोन आने पर वह चौंक गई,
‘‘मां, मैं अगले हफ्ते इंडिया आ रही हूं.”
‘‘अरे… इतनी जल्दी? एकाएक कैसे? सब ठीक तो है, सुकांत भी आ रहे हैं क्या…?”
जया तो एकदम हड़बड़ा ही गई थी.
‘‘नहीं मां, मैं अकेली ही आ रही हूं, और तुम इतना घबरा क्यों रही हो? मेरा आना अच्छा नहीं लग रहा है क्या?”
‘नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं है, तू आएगी तो अच्छा क्यों नहीं लगेगा… पर… और तेरी जौब का क्या हुआ?’
‘‘अब जब आऊंगी तब और बातें करेंगे,” कह कर बेटी ने फोन भी रख दिया था.
जया फिर उलझनों में घिरने लगी. ये लड़की भी बस पहेलियां ही बुझाती रहेगी. अब जब आएगी तब पता चलेगा कि एकाएक यहां आने का प्रोग्राम क्यों बन गया.
जया के लिए यह पूरा हफ्ता काटना मुश्किल हो रहा था. यह तो अच्छा था कि पति आजकल अपने कार्यभार के सिलसिले में लंबे टूर पर थे… नहीं तो और सवाल करते.
बेटी ने यह भी तो नहीं बताया कि कब कौन सी फ्लाइट से आ रही है. एयरपोर्ट पर किसी को भेजना तो नहीं है.
जया अपने ही प्रश्नजाल में उलझती जा रही थी.
उस दिन सुबहसुबह जब वह चाय बना रही थी, तब दरवाजे की घंटी बजी. दौड़ कर दरवाजा खोला…
‘मां,’ कहते हुए संजना उस से लिपट गई थी.
‘‘संजू कैसी है तू… अचानक इस तरह आ कर तो तू ने मुझे चौंका ही दिया.’’
‘‘वही तो मां, मैं ऐसी ही तो हूं. हमेशा आप को चौंकाती रहती हूं.’’
संजना ने फिर मजाक किया था.
‘‘चल, अब अंदर चल, मैं चाय ही बना रही थी.’’
सूटकेस और बैग उठा कर संजना अंदर आ गई.
‘अरे, घर तो आप ने काफी व्यवस्थित कर रखा है,’
अलमारी में सजे अपने और सुकांत के फोटोग्राफ पर नजर डाल कर उस ने फिर मां की ओर देखा था.
‘‘और बताओ मां, क्या खिला रही हो, मुझे तो जोरों की भूख लग रही है, फ्लाइट में भी कुछ नहीं खाया.’’
‘‘अब जो कहेगी वही बना दूंगी, पहले चाय तो पी,’’ कह कर जया चाय के साथ कुछ हलका नाश्ता ले आई थी.
चाय के साथ भी संजना ने बस अपनी फ्लाइट की और जरमनी के सामान्य जीवन के बातें कही थीं.
जया जानने को उत्सुक थी कि आखिरकार यह अचानक यहां आने का प्रोग्राम क्यों बन गया.
ठीक है, शायद अपनेआप ही बताए फिर भी उस की चिंता कम नहीं हो पा रही थी.
खाना खा कर फिर संजना गहरी नींद में सो भी गई थी.
जया ने चुपचाप उस के बिखरे सामान को व्यवस्थित किया. पता नहीं क्या सोच कर आई है यह लड़की. अगर कुछ ही दिनों के लिए आना था, तो इतने बड़े 2 सूटकेस और बड़ा सा बैग लाने की क्या जरूरत थी.
फिर शाम को उस ने संजना को अपने पास बिठाते हुए पूछा, ‘‘हां, अब इतमीनान से बता, सब ठीक तो है न. अचानक इस तरह आने का प्रोग्राम कैसे बन गया. सुकांत तो आए नहीं,’’ सुनते ही संजना ने कुछ चिढ़ कर जवाब दिया, ‘‘मां, सुकांत क्यों आएंगे? उन का जौब है, ठाट से औफिस जा रहे हैं, बेकार तो मैं थी तो आ गई.’’
‘‘बेकार… तू क्यों बेकार होने लगी?’’
ज्यादा कुछ समझ नहीं पा रही थी वह.
‘‘क्यों…? मैं बेकार नहीं हो सकती, जब मुझे वहां जौब नहीं मिली तो बेकार तो हो ही जाऊंगी और बेकार वहां बैठ कर क्या करूंगी, इसलिए यहां आ गई. अब इंडिया में जौब देखूंगी.’’
यह सुन कर जया तो और चकरा गई.
‘‘यहां जौब… मतलब, तू यहां रहेगी और सुकांत जरमनी में.”
‘‘मां, अब अधिक सवाल मत करो. सुकांत को जहां रहना है, रहेंगे. बस मैं यहां रहूंगी. कल से कुछ कंपनियों से बात करती हूं. गलती की जो जल्दबाजी में चली गई. मुझे तो यहां इतने अच्छे औफर आ रहे थे.’’
‘‘बेटी, जौब ही तो सबकुछ नहीं है, तुम्हारी लाइफ, परिवार.’’
‘‘कैसा परिवार…?’’ संजना ने फिर टोक दिया था, ‘‘मां, मैं ने पहले ही सुकांत को बता दिया था कि मुझे कुकिंग और घर के कामों में कोई दिलचस्पी नहीं है, आखिर इतनी मेहनत से पढ़ाई की है तो कुछ काम तो करूंगी, तब सुकांत को भी सब ठीक लगा और अब… अब जरमनी जाते ही बदल गए.
“मैं सुबह, शाम खाना बनाऊं, घर व्यवस्थित करूं, सब काम करूं, क्यों… क्योंकि जौब तो मेरे पास है नहीं और सब करूं तब भी सुकांत की फटकार सुनूं, घर क्यों अस्तव्यस्त है, खाना बिलकुल बेस्वाद है, रोटियां कच्ची हैं, सब्जी जल गई है, यह ठीक नहीं, वो ठीक नहीं, आखिर यह सब सुनने के लिए तो मैं गई नहीं थी उन के साथ, न ही इसलिए शादी की.’’
संजना जैसे आवेश में थी. जया ने शांत करने का प्रयास किया. जया बोली, ‘‘बेटी, तुम दोनों ने सबकुछ देखसुन कर ही तो शादी का फैसला लिया था, तो अब इतनी जल्दी किसी निर्णय पर पहुंचना…’’
‘‘हां, फैसला लिया था. अपनी गलती को भी तो मैं ही सुधारूंगी. मैं ही ठीक करूंगी और कौन करेगा.’’
जया समझ नहीं पा रही थी कि क्या कह कर समझाए बेटी को. ठीक है, अभी आवेश में है, 2-4 दिन बाद बात करूंगी. सोच कर चुप रह गई थी.
2-4 दिन भी फिर ऐसे ही निकल गए थे, कंप्यूटर पर पता नहीं क्याक्या टटोलती रहती है यह लड़की, क्या जौब सर्च कर रही है, आजकल बात भी तो बहुत कम कर रही है.
‘‘सुकांत से बात की,’’
उस दिन जया ने पूछ ही लिया था.
‘‘क्यों…? मैं क्यों बात करूं…?’’ संजना का तीखा उत्तर.
‘‘अरे, अपने यहां पहुंचने की सूचना तो दे देती.’’
‘‘जब सामने वाले को जरूरत नहीं तो मैं क्या बात करूं…?’’
संजना का दोटूक उत्तर.
‘‘देख बेटा, उस दिन मैं ने तुझ से कुछ नहीं कहा था. पर अब सुन, शादीब्याह कोई गुड्डेगुड़ियों का खेल नहीं है और इस प्रकार लड़नेझगड़ने से दूरियां बढ़ती हैं, हमें थोड़ाबहुत एडजस्ट भी करना होता है, नहीं तो शादी टिकेगी कैसे?’’
‘‘न टिके, मुझे कोई परवाह नहीं. मैं क्यों एडजस्ट करूं, सुकांत का क्या कोई फर्ज नहीं बनता है, क्यों की फिर मुझ से शादी, कर लेते किसी घरेलू लड़की से जो उन का चूल्हाचौका संभालती, और मां, मुझे अब इस बारे में कोई बात करनी भी नहीं है,’’ कहती हुई संजना तेजी से उठ कर अपने कमरे में चली गई.
जया जड़ हो कर रह गई, तो क्या यह पति से अलग होने का मन बना कर आई है, अभी तो मुश्किल से 6 महीने भी नहीं हुई होंगे शादी के.
क्या करे, आजकल तो राकेश भी यहां नहीं हैं, नहीं तो वे ही समझाते अपनी बेटी को. पर अभी तो यह कुछ समझना भी नहीं चाह रही है.
क्या करे, क्या सुकांत से बात की जाए, पर बात क्या करे, पहले यह खुल कर तो बताए कि चाहती क्या है, क्यों अचानक इस प्रकार यहां आ गई.
जया का जैसे दिमाग काम ही नहीं कर रहा था.
बेटी खुद समझदार है, अपने निर्णय लेना जानती है, कोई फैसला उस पर थोपा भी तो नहीं जा सकता.
उस रात ठीक से सो भी नहीं पाई थी. रातभर लगता रहा कि कहीं कोई गलती उस से हो गई है, ठीक है बेटी की पढ़ाई पर ध्यान दिया, पर शायद जिंदगी के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा वह नहीं दे पाई.
उसे अपने विवाह के शुरुआती दिन याद आ रहे थे. उस की शादी तो मातापिता की मरजी से हुई थी, ससुराल में ननदें, जो हर काम में नुक्स निकालती रहतीं, राकेश तो अपने काम के सिलसिले में अकसर बाहर ही रहते.
पर उसे अपनी मां की सीख याद थी, धीरेधीरे अपने व्यवहार से तुम सब का मन जीत लोगी.
और फिर हुआ भी यही था. सालभर के अंदर ही वह अपनी सास की चहेती बहू बन गई थी. ननदें भी अब लाड़ करने लगी थीं, पर यहां… यहां तो संजना और सुकांत पहले से ही आपस में अच्छी तरह परिचित थे. ससुराल का भी कोई दखल नहीं. फिर…
दूसरे दिन संजना ने ही फरमाइश की थी, ‘‘मां, कुछ अच्छा खाना बनाओ न, यह क्या रोज वही दालरोटी.’’
‘‘हां, आज कचौड़ी बना रही हूं, सुकांत को भी पसंद थी न…’’ जया के मुंह से निकल ही गया था.
‘‘मां, मेरी भी तो कोई पसंद हो सकती है या नहीं…’’
संजना का आक्षेप भरा स्वर…
‘‘नहीं बेटे, मेरा यह मतलब नहीं था, अच्छे खाने का सभी को शौक होता है तो सीख लेना चाहिए. फिर वहां विदेश में…”
“कोई बात नहीं, मैं कहां विदेश जा रही हूं…’’
संजना ने कह तो दिया था, पर जया देख रही थी कि वह ध्यान से कचौड़ी बनते देख रही है.
‘‘खाना बनाना कोई बहुत कठिन काम तो है नहीं. और तुम जैसी लड़कियां तो चटपट सब सीख सकती हैं.’’
जया ने उसे और उत्साहित करना चाहा था, पर संजना ने कोई जवाब नहीं दिया.
पर हफ्तेभर बाद ही जया को लगने लगा कि बेटी अब कुछ खोईखोई सी रहने लगी है. मोबाइल पर भी पता नहीं क्या टटोलती रहती है.
‘‘तू जौब की ज्यादा चिंता मत कर. पापा आ जाएं तो उन से बात करना. कुछ कंपनियों में उन की पहचान भी है.”
जया ने टटोलना चाहा था, पर संजना चुप थी. चेहरा भी सपाट था.
‘‘बेटी, सुकांत से मैं बात करूं?’’ कुछ झिझक के बाद जया के मुंह से निकला था.
‘‘मां, तुम क्यों बात करोगी…? जिसे बात करनी है, वह करेगा.’’
जया को पहली बार लगा कि बेटी के स्वर में कुछ दर्द है. वह चुप रह गई.
फिर उस दिन मोबाइल की घंटी बजी. संजना का फोन जया के पास ही पड़ा था,
‘सुकांत…’
‘‘संजना, सुकांत का फोन है, बात करना. और हां, स्पीकर पर डाल, मुझे भी बात करनी है.’’
जया के आदेश भरे स्वर को संजना टाल नहीं पाई थी.
जया उठ कर अपने कमरे में आ गई थी. आवाज यहां भी आ रही थी.
‘‘संजू बेबी, कितनी बार फोन किया, उठाती क्यों नहीं हो? अच्छा बाबा, मैं अब माफी मांगता हूं तुम से, अब कभी तुम्हारे काम में कोई मीनमेख नहीं निकालूंगा. अब तो गुस्सा थूक दो.’’
संजना ने भी धीरे से कुछ कहा था. फिर सुकांत की ही आवाज गूंजी, “हां, अब कभी तुम्हारी किसी और से तुलना भी नहीं करूंगा, अब तो खुश. अब जल्दी से लौट आओ, नहीं तो फिर मैं ही पहुंच जाऊंगा.
“और हां, सारी बातों के बीच में मैं यह तो कहना ही भूल गया कि तुम्हारे दो इंटरव्यू काल आए हुए हैं, 5 दिन के अंदर ही आ जाओ, टिकट मैं भेज रहा हूं, सुनो बेबी…’’
कुछ फुसफुसे से स्वर, संजना ने शायद फिर स्पीकर औफ कर दिया था.
पर जया सबकुछ समझ गई थी. आज इतने दिनों बाद उसे गहरी नींद आई थी.
सुबह भी शायद देर तक सोती रही थी, संजना की आवाज से ही नींद टूटी थी,
‘‘मां उठो, मैं ने चाय बना दी है, फिर आप को सुबह की सैर के लिए भी जाना है, मेरे आते ही आप की दिनचर्या बिगड़ गई है.’’
वह फिर संजना के प्रफुल्लित चेहरे को देख रही थी.
‘‘मां, अब 2-4 दिन में मुझे जरमनी जाना है, पर सोच रही हूं कि आप मुझे कुछ अच्छी डिशेज बनाना सिखा दो. वैसे, फोन पर भी मैं आप से पूछती रहूंगी,’’ कह कर संजना मां के पास ही बैठ गई थी.
‘‘और… और…इतनी जल्दी तेरी वापसी का प्रोग्राम…’’
जया ने मजाक किया था.
‘‘तो मैं ने कब कहा था कि मैं वापस जरमनी नहीं जाऊंगी. आखिर मेरा घर तो वहीं है, आप भी मां पता नहीं क्याक्या सोच लेती हो,’’ कहते हुए वह मां से लिपट गई थी.
और जया सोच रही थी कि यह आधुनिक पीढ़ी भी बस… सच अब तक तो वह इसे समझ ही नहीं पाई है…
पर एक संतोष भरी मुसकान जया के चेहरे पर भी थी.