महीने भर का राशन चुकने को हुआ तो सोचा, आज ही बाजार हो आऊं. आज और कहीं जाने का कार्यक्रम नहीं था और कोई खास काम भी करने के लिए नहीं था. यही सोच कर पर्स उठाया, पैसे रखे और बाजार चल दी.
दुकानदार को मैं अपने सौदे की सूची लिखवा रही थी कि अचानक पीछे से कंधे पर स्पर्श और आंखों पर हाथ रखने के साथसाथ ‘निंदी’ के उच्चारण ने उलझन में डाल दिया. यह तो मेरा मायके का घर का नाम है. कोई अपने शहर का निकट संबंधी ही होना चाहिए जो मेरे घर के नाम से वाकिफ हो. आंखों पर रखे हाथ को टटोल कर पहचानने में असमर्थ रही. आखिर उसे हटाते हुए बोली, ‘‘कौन?’’
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‘‘देख ले, नहीं पहचान पाई न.’’
‘‘उषा तू…तू यहां कैसे…’’ अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कालिज में साथ पढ़ी अपनी प्यारी सखी उषा को सामने खड़ी देख कर. मुखमंडल पर खेलती वही चिरपरिचित मुसकान, सलवारकमीज पहने, 2 चोटियों में उषा आज भी कालिज की छात्रा प्रतीत हो रही थी.
‘‘क्यों, बड़ी हैरानी हो रही है न मुझे यहां देख कर? थोड़ा सब्र कर, अभी सब कुछ बता दूंगी,’’ उषा आदतन खिलखिलाई.
‘‘किस के साथ आई?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा.
‘‘उन के साथ और किस के साथ आऊंगी,’’ शरारत भरे अंदाज में उषा बोली.
‘‘तू ने शादी कब कर ली? मुझे तो पता ही नहीं लगा. न निमंत्रणपत्र मिला, न किसी ने चिट्ठी में ही कुछ लिखा,’’ मैं ने शिकायत की.
‘‘सब अचानक हो गया न इसलिए तुझे भी चिट्ठी नहीं डाल पाई.’’
‘‘अच्छा, जीजाजी क्या करते हैं?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.
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‘‘वह टेलीफोन विभाग में आपरेटर हैं,’’ उषा ने संक्षिप्त उत्तर दिया.
‘‘क्या? टेलीफोन आपरेटर… तू डाक्टर और वह…’’ शब्द मेरे हलक में ही अटक गए.
‘‘अचंभा लग रहा है न?’’ उषा के मुख पर मधुर मुसकान थिरक रही थी.
‘‘लेकिन यह सब कैसे हो गया? तुझे अपने कैरियर की फिक्र नहीं रही?’’
‘‘बस कर. सबकुछ इसी राशन की दुकान पर ही पूछ लेगी क्या? चल, कहीं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठते हैं. वहीं आराम से सारी कहानी सुनाऊंगी.’’
‘‘रेस्तरां क्यों? घर पर ही चल न. और हां, जीजाजी कहां हैं?’’
‘‘वह विभाग के किसी कार्य के सिलसिले में कार्यालय गए हैं. उन्हीं के कार्य के लिए हम लोग यहां आए हैं. अचानक तेरे घर आ कर तुझे हैरान करना चाहते थे, पर तू यहीं मिल गई. हम लोग नीलम होटल में ठहरे हैं, कल ही आए हैं. 2 दिन रुकेंगे. मैं किसी काम से इस ओर आ रही थी कि अचानक तुझे देखा तो तेरा पीछा करती यहां आ गई,’’ उषा चहक रही थी.
कितनी निश्छल हंसी है इस की. पर एक टेलीफोन आपरेटर के साथ शादी इस ने किस आधार पर की, यह मेरी समझ से बाहर की बात थी.
‘‘हां, तेरे घर तो हम कल इकट्ठे आएंगे. अभी तो चल, किसी रेस्तरां में बैठते हैं,’’ लगभग मुझे पकड़ कर ले जाने सी उतावली वह दिखा रही थी.
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दुकानदार को सारा सामान पैक करने के लिए कह कर मैं ने बता दिया कि घंटे भर बाद आ कर ले जाऊंगी. उषा को ले कर निकट के ही राज रेस्तरां में पहुंची. समोसे और कौफी का आदेश दे कर उषा की ओर मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘हां, अब बता शादी वाली बात,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी.
‘‘इस के लिए तो पूरा अतीत दोहराना पड़ेगा क्योंकि इस शादी का उस से बहुत गहरा संबंध है,’’ कुछ गंभीर हो कर उषा बोली.
‘‘अब यह दार्शनिकता छोड़, जल्दी बता न, डाक्टर हो कर टेलीफोन आपरेटर के चक्कर में कैसे पड़ गई?’’
3 भाइयों की अकेली बहन होने के कारण हम तो यही सोचते थे कि उषा मांबाप की लाड़ली व भाइयों की चहेती होगी, लेकिन इस के दूसरे पहलू से हम अनजान थे.
उषा ने अपनी कहानी आरंभ की.
बचपन के चुनिंदा वर्ष तो लाड़प्यार में कट गए थे लेकिन किशोरावस्था के साथसाथ भाइयों की तानाकशी, उपेक्षा, डांटफटकार भी वह पहचानने लगी थी. चूंकि पिताजी उसे बेटों से अधिक लाड़ करते थे अत: भाई उस से मन ही मन चिढ़ने लगे थे. पिता द्वारा फटकारे जाने पर वे अपने कोप का शिकार उषा को बनाते.
‘‘मां और पिताजी ने इसे हद से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखा है. जो फरमाइशें करती है, आननफानन में पूरी हो जाती हैं,’’ मंझला भाई गुबार निकालता.
‘‘क्यों न हों, आखिर 3-3 मुस्टंडों की अकेली छोटी बहन जो ठहरी. मांबाप का वही सहारा बनेगी. उन्हें कमा कर खिलाएगी, हम तो ठहरे नालायक, तभी तो हर घड़ी डांटफटकार ही मिलती है,’’ बड़ा भाई अपनी खीज व आक्रोश प्रकट करता.
कुशाग्र बुद्धि की होने के कारण उषा पढ़ाई में हर बार अव्वल आती. चूंकि सभी भाई औसत ही थे, अत: हीनभावना के वशीभूत हो कर उस की सफलता पर ईर्ष्या करते, व्यंग्य के तीर छोड़ते.
‘‘उषा, सच बता, किस की नकल की थी?’’
‘‘जरूर इस की अध्यापिका ने उत्तर बताए होंगे. उस के लिए यह हमेशा फूल, गजरे जो ले कर जाती है.’’
उषा तड़प उठती. मां से शिकायत करती लेकिन मांबेटों को कुछ न कह पाती, अपने नारी सुलभ व्यवहार के इस अंश को वह नकार नहीं सकती थी कि उस का आकर्षण बेटी से अधिक बेटों के प्रति था. भले ही वे बेटी के मुकाबले उन्नीस ही हों.
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यौवनावस्था आतेआते वह भली प्रकार समझ चुकी थी कि उस के सभी भाई केवल स्नेह का दिखावा करते हैं. सच्चे दिल से कोई स्नेह नहीं करता, बल्कि वे ईर्ष्या भी करते हैं. हां, अवसर पड़ने पर गिरगिट की तरह रंग बदलना भी वे खूब जानते हैं.
‘‘उषा, मेरी बहन, जरा मेरी पैंट तो इस्तिरी कर दे. मुझे बाहर जाना है. मैं दूसरे काम में व्यस्त हूं,’’ खुशामद करता छोटा भाई कहता.
‘‘उषा, तेरी लिखाई बड़ी सुंदर है. कृपया मेरे ये थोड़े से प्रश्नोत्तर लिख दे न. सिर्फ उस कापी में से देख कर इस में लिखने हैं,’’ कापीकलम थमाते हुए बड़ा कहता.
भाइयों की मीठीमीठी बातों से वह कुछ देर के लिए उन के व्यंग्य, उलाहने, डांट भूल जाती और झटपट उन के कार्य कर देती. अगर कभी नानुकर करती तो मां कहतीं, ‘‘बेटी, ये छोटेमोटे झगड़े तो सभी भाईबहनों में होते हैं. तू उन की अकेली बहन है. इसलिए तुझे चिढ़ाने में उन्हें आनंद आता है.’’
भाइयों में से किसी को भी तकनीकी शिक्षा में दाखिला नहीं मिला था. बड़ा बी.काम. कर के दुकान पर जाने लगा और छोटा बी.ए. में प्रवेश ले कर समय काटने के साथसाथ पढ़ाई की खानापूर्ति करने लगा. इस बीच उषा ने हायर सेकंडरी प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता सहित उत्तीर्ण कर ली. कालिज में उस ने विज्ञान विषय ही लिया क्योंकि उस की महत्त्वाकांक्षा डाक्टर बनने की थी.
‘‘मां, इसे डाक्टर बना कर हमें क्या फायदा होगा? यह तो अपने घर चली जाएगी. बेकार इस की पढ़ाई पर इतना खर्च क्यों करें,’’ बड़े भाई ने अपनी राय दी.
तड़प उठी थी उषा, जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो. भाई अपनी असफलता की खीज अपनी छोटी बहन पर उतार रहा था. ‘आखिर उसे क्या अधिकार है उस की जिंदगी के फैसलों में हस्तक्षेप करने का? अभी तो मांबाप सहीसलामत हैं तो ये इतना रोब जमा रहे हैं. उन के न होने पर तो…’ सोच कर के ही वह सिहर उठी.
पिताजी ने अकसर उषा का ही पक्ष लिया था. इस बार भी वही हुआ. अगले वर्ष उसे मेडिकल कालिज में दाखिला मिल गया.
डाक्टरी की पढ़ाई कोई मजाक नहीं. दिनरात किताबों में सिर खपाना पड़ता. एक आशंका भी मन में आ बैठी थी कि अगर कहीं पहले साल में अच्छे अंक नहीं आ सके तो भाइयों को उसे चिढ़ाने, अपनी कुढ़न निकालने और अपनी कुंठित मनोवृत्ति दर्शाने का एक और अवसर मिल जाएगा. वे तो इसी फिराक में रहते थे कि कब उस से थोड़ी सी चूक हो और उन्हें उसे डांटने- फटकारने, रोब जमाने का अवसर प्राप्त हो. अत: अधिकांश वक्त वह अपनी पढ़ाई में ही गुजार देती.
कालिज के प्रांगण के बाहर अमरूद, बेर तथा भुट्टे लिए ठेले वाले खड़े रहते थे. वे जानते थे कि कच्चेपक्के बेर, अमरूद तथा ताजे भुट्टों के लोभ का संवरण करना कालिज के विद्यार्थियों के लिए असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल तो है ही. उन का खयाल बेबुनियाद नहीं था क्योंकि शाम तक लगभग सभी ठेले खाली हो जाते थे.
अपनी सहेलियों के संग भुट्टों का आनंद लेती उषा उस दिन प्रांगण के बाहर गपशप में मशगूल थी. पीरियड खाली था. अत: हंसीमजाक के साथसाथ चहल- कदमी जारी थी. छोटा भाई उसी तरफ से कहीं जा रहा था. पूरा नजारा उस ने देखा. उषा के घर लौटते ही उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम कालिज पढ़ने जाती हो या मटरगश्ती करने?’’
उषा कुछ समझी नहीं. विस्मय से उस की ओर देखते हुए बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ? कैसी मटरगश्ती की मैं ने?’’
तब तक मां भी वहां आ चुकी थीं, ‘‘मां, तुम्हारी लाड़ली तो सहेलियों के साथ कालिज में भी पिकनिक मनाती है. मैं ने आज स्वयं देखा है इन सब को सड़कों पर मटरगश्ती करते हुए.’’
‘‘मां, इन से कहो, चुप हो जाएं वरना…’’ क्रोध से चीख पड़ी उषा, ‘‘हर समय मुझ पर झूठी तोहमत लगाते रहते हैं. शर्म नहीं आती इन को…पता नहीं क्यों मुझ से इतनी खार खाते हैं…’’ कहतेकहते उषा रो पड़ी.
‘‘चुप करो. क्या तमाशा बना रखा है. पता नहीं कब तुम लोगों को समझ आएगी? इतने बड़े हो गए हो पर लड़ते बच्चों की तरह हो. और तू भी तो उषा, छोटीछोटी बातों पर रोने लगती है,’’ मां खीज रही थीं.
तभी पिताजी ने घर में प्रवेश किया. भाई झट से अंदर खिसक गया. उषा की रोनी सूरत और पत्नी की क्रोधित मुखमुद्रा देख उन्हें आभास हो गया कि भाईबहन में खींचातानी हुई है. अकसर ऐसे मौकों पर उषा रो देती थी. फिर दोचार दिन उस भाई से कटीकटी रहती, बोलचाल बंद रहती. फिर धीरेधीरे सब सामान्य दिखने लगता, लेकिन अंदर ही अंदर उसे अपने तीनों भाइयों से स्नेह होने के बावजूद चिढ़ थी. उन्होंने उसे स्नेह के स्थान पर सदा व्यंग्य, रोब, डांटडपट और जलीकटी बातें ही सुनाई थीं. शायद पिताजी उस का पक्ष ले कर बेटों को नालायक की पदवी भी दे चुके थे. इस के प्रतिक्रियास्वरूप वे उषा को ही आड़े हाथों लेते थे.
‘‘क्या हुआ हमारी बेटी को? जरूर किसी नालायक से झगड़ा हुआ है,’’ पिताजी ने लाड़ दिखाना चाहा.
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‘‘कुछ नहीं. आप बीच में मत बोलिए. मैं जो हूं देखने के लिए. बच्चों के झगड़ों में आप क्यों दिलचस्पी लेते हैं?’’ मां बात को बीच में ही खत्म करते हुए बोलीं.
असहाय सी उषा मां का मुंह देखती रह गई. मां भी तो आखिर बेटों का ही पक्ष लेंगी न. जब कभी भी पिताजी ने उस का पक्ष लिया, बेटों को डांटाफटकारा तो मां को अच्छा नहीं लगा. उस समय तो वह कुछ नहीं कहतीं लेकिन मन के भाव तो चेहरे पर आ ही जाते हैं. बाद में मौका मिलने पर टोकतीं, ‘‘क्यों अपने बड़े भाइयों से उलझती रहती है?’’
उषा पूछती, ‘‘मां, मैं तो सदा उन का आदर करती हूं, उन के भले की कामना करती हूं लेकिन वे ही हमेशा मेरे पीछे पड़े रहते हैं. अगर मैं पढ़ाई में अच्छी हूं तो उन्हें ईर्ष्या क्यों होती है?’’
मां कहतीं, ‘‘चुप कर, ज्यादा नहीं बोलते बड़ों के सामने.’’
दोनों बड़े भाइयों का?स्नातक होने के बाद विवाह कर दिया गया. दोनों बहुओं ने भी घर के हालात देखे, समझे और अपना आधिपत्य जमा लिया. उषा तो भाइयों की ओर से पहले ही उपेक्षित थी. भाभियों के आने के बाद उन की ओर से भी वार होने लगे. इस बीच हृदय के जबरदस्त आघात से पिताजी चल बसे. घर का पूरा नियंत्रण बहुओं के हाथ में आ गया. मां तो पहले से ही बेटों की हमदर्द थीं, अब तो उन की गुलामी तक करने को तैयार थीं. पूरी तरह से बहूबेटों के अधीन हो गईं.
उषा का डाक्टरी का अंतिम वर्ष था. घर के उबाऊ व तनावग्रस्त माहौल से जितनी देर वह दूर रहती, उसे राहत का एहसास होता. अत: अधिक से अधिक वक्त वह पुस्तकालय में, सहेली के घर या कैंटीन में गुजार देती. सच्चे प्रेम, विश्वास, उचित मार्गदर्शन पर ही तो जिंदगी की नींव टिकी है, चाहे वह मांबाप, भाईबहन, पतिपत्नी किसी से भी प्राप्त हो. लेकिन उषा को बीते जीवन में किसी से कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा था. प्रेम, स्नेह के लिए वह तरस उठती थी. पिताजी से जो स्नेह, प्यार मिल रहा था वह भी अब छिन चुका था.
मेडिकल कालिज की कैंटीन शहर भर में दहीबड़े के लिए प्रसिद्ध थी. अचानक जरूरत पड़ने पर या मेहमानों के लिए विशेषतौर पर लोग वहां से दहीबड़े खरीदने आते थे. बाहर के लोगों के लिए भी कैंटीन में आना मना नहीं था. स्वयंसेवा की व्यवस्था थी. लोगों को स्वयं अपना नाश्ता, चाय, कौफी वगैरह अंदर के काउंटर से उठा कर लाना होता था. कालिज के साथ ही सरकारी अस्पताल होता था. रोगियों के संबंधी भी अकसर कालिज की कैंटीन से चायनाश्ता खरीद कर ले जाते थे.
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कैंटीन में अकेली बैठी उषा चाय पी रही थी. सामने की सीट खाली थी. अचानक एक नौजवान चाय का कप ले कर वहां आया, ‘‘मैं यहां बैठ सकता हूं?’’ उस की बातों व व्यवहार से शालीनता टपक रही थी.
‘‘हां, हां, क्यों नहीं,’’ कह कर उषा ने अपनी कुरसी थोड़ी पीछे खिसका ली.
‘‘मेरी मां अस्पताल में दाखिल हैं,’’ बातचीत शुरू करने के लहजे में वह नौजवान बोला.
‘‘अच्छा, क्या हुआ उन को? किस वार्ड में हैं?’’ सहज ही पूछ बैठी थी उषा.
‘‘5 नंबर में हैं. गुरदे में पथरी हो गई थी. आपरेशन हुआ है,’’ धीरे से युवक बोला.
शाम को घर लौटने से पहले उषा अपनी सहेली के साथ वार्ड नंबर 5 में गई तो वहां वही युवक अपनी मां के सिरहाने बैठा हुआ था. उषा को देखते ही उठ खड़ा हुआ, ‘‘आइए, डाक्टर साहब.’’
‘‘अभी तो मुझे डाक्टर बनने में 6 महीने बाकी हैं,’’ कहते हुए उषा के चेहरे पर मुसकान तैर गई.
उस युवक की मां ने पूछा, ‘‘शैलेंद्र, कौन है यह?’’
‘‘मेरा नाम उषा है. आज कैंटीन में इन से मुलाकात हुई तो आप की तबीयत पूछने आ गई. कैसी हैं आप?’’ शैलेंद्र को असमंजस में पड़ा देख कर उषा ने ही जवाब दे दिया.
‘‘अच्छी हूं, बेटी. तू तो डाक्टर है, सब जानती होगी. यह देखना जरा,’’ कहते हुए एक्सरे व अन्य रिपोर्टें शैलेंद्र की मां ने उषा के हाथ में दे दीं. शैलेंद्र हैरान सा मां को देखता रह गया. एक नितांत अनजान व्यक्ति पर इतना विश्वास?
बड़े ध्यान से उषा ने सारे कागजात, एक्सरे देखे और बोली, ‘‘अब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी. आप की सेहत का सुधार संतोषजनक रूप से हो रहा है.’’
मां के चेहरे पर तृप्ति के भाव आ गए. अगले सप्ताह उषा की शैलेंद्र के साथ अस्पताल में कई बार मुलाकात हुई. जब भी मां की तबीयत देखने वह गई, न जाने क्यों उन की बातों, व्यवहार से उसे एक सुकून सा मिलता था. शैलेंद्र के नम्र व्यवहार का भी अपना आकर्षण था.
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शैलेंद्र टेलीफोन विभाग में आपरेटर था. मां की अस्पताल से छुट्टी होने के बाद भी वह अकसर कैंटीन आने लगा और उषा से मुलाकातें होती रहीं. दोनों ही एकदूसरे की ओर आकर्षित होते चले गए और आखिर यह आकर्षण प्रेम में बदल गया. अपने घर के सदस्यों द्वारा उपेक्षित, प्रेम, स्नेह को तरस रही, अपनेपन को लालायित उषा शैलेंद्र के प्रेम को किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी. वह सोचती, मां और भाई तो इस रिश्ते के लिए कदापि तैयार नहीं होंगे…अब वह क्या करे?
आखिर बात भाइयों तक पहुंच ही गई.
‘‘डाक्टर हो कर उस टुटपुंजिए टेलीफोन आपरेटर से शादी करेगी? तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया?’’ सभी भाइयों के साथसाथ मां ने भी लताड़ा था.
‘‘हां, मुझे उस में इनसानियत नजर आई है. केवल पैसा ही सबकुछ नहीं होता,’’ उषा ने हिम्मत कर के जवाब दिया.
‘‘देख लिया अपनी लाड़ली बहन को? तुम्हें ही इनसानियत सिखा रही है.’’ भाभियों ने भी तीर छोड़ने में कोई कसर नहीं रखी.
‘‘अगर तू ने उस के साथ शादी की तो तेरे साथ हमारा संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा. अच्छी तरह सोच ले,’’ भाइयों ने चेतावनी दी.
जिंदगी में पहली बार किसी का सच्चा प्रेम, विश्वास, सहानुभूति प्राप्त हुई थी, उषा उसे खोना नहीं चाहती थी. पूरी वस्तुस्थिति उस ने शैलेंद्र के सामने स्पष्ट कर दी.
‘‘उषा, यह ठीक है कि मैं संपन्न परिवार से नहीं हूं. मेरी नौकरी भी मामूली सी है, आय भी अधिक नहीं. तुम मेरे मुकाबले काफी ऊंची हो. पद में भी, संपन्नता में भी. लेकिन इतना विश्वास दिलाता हूं कि मेरा प्रेम, विश्वास बहुत ऊंचा है. इस में तुम्हें कभी कंजूसी, धोखा, फरेब नहीं मिलेगा. जो तुम्हारी मरजी हो, चुन लो. तुम पद, प्रतिष्ठा, धन को अधिक महत्त्व देती हो या इनसानियत, सच्चे प्रेम, स्नेह, विश्वास को. यह निर्णय लेने का तुम्हें अधिकार है,’’ शैलेंद्र बोला.
‘‘और फिर परीक्षाएं होने के बाद हम ने कचहरी में जा कर शादी कर ली. मेरी मां, भाई, भाभी कोई भी शादी में हाजिर नहीं हुए. हां, शैलेंद्र के घर से काफी सदस्य शामिल हुए. तुझ से सच कहूं?’’ मेरी आंखों में झांकते हुए उषा आगे बोली, ‘‘मुझे अपने निर्णय पर गर्व है. सच मानो, मुझे अपने पति से इतना प्रेम, स्नेह, विश्वास प्राप्त हुआ है, जिस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. अपनी मां, भाई, भाभियों से स्नेह, प्यार के लिए तरस रही मुझ बदनसीब को पति व उस के परिवार से इतना प्रेम स्नेह मिला है कि मैं अपना अतीत भूल सी गई हूं.
‘‘अगर मैं किसी बड़े डाक्टर या बड़े व्यवसायी से शादी करती तो धनदौलत व अपार वैभव पाने के साथसाथ मुझे पति का इतना प्रेम, स्नेह मिल पाता, मुझे इस में संदेह है. धनदौलत का तो मांबाप के घर में भी अभाव नहीं था लेकिन प्रेम व स्नेह से मैं वंचित रह गई थी.
‘‘धनदौलत की तुलना में प्रेम का स्थान ऊंचा है. व्यक्ति रूखीसूखी खा कर संतोष से रह सकता है, बशर्ते उसे अपनों का स्नेह, विश्वास, आत्मीयता, प्राप्त हो. लेकिन अत्यधिक संपन्नता और वैभव के बीच अगर प्रेम, सहिष्णुता, आपसी विश्वास न हो तो जिंदगी बोझिल हो जाती है. मैं बहुत खुश हूं, मुझे जीवन की असली मंजिल मिल गई है.
‘‘अब मैं अपना दवाखाना खोल लूंगी. पति के साथ मेरी आय मिल जाने से हमें आर्थिक तंगी नहीं हो पाएगी.’’
‘‘उषा, तू तो बड़ी साहसी निकली. हम तो यही समझते रहे कि 3-3 भाइयों की अकेली बहन कितनी लाड़ली व सुखी होगी, लेकिन तू ने तो अपनी व्यथा का भान ही नहीं होने दिया,’’ सारी कहानी सुन कर मैं ने कहा.
‘‘अपने दुखडे़ किसी के आगे रोने से क्या लाभ? फिर वैसे भी मेरा मेडिकल में दाखिला होने के बाद तुम से मुलाकातें भी तो कम हो गई थीं.’’
मुझे याद आया, उषा मेडिकल कालिज चली गई तो महीने में ही मुलाकात हो पाती थी. विज्ञान में स्नातक होने के पश्चात मेरी शादी हो गई और मैं यहां आ गई. कभीकभार उषा की चिट्ठी आ जाती थी, लेकिन उस ने कभी अपनी व्यथा के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा.
मायके जाने पर जब भी मैं उस से मिली, तब मैं यह अंदाज नहीं लगा सकती थी कि उषा अपने हृदय में तनावों, मानसिक पीड़ा का समंदर समेटे हुए है.
दूसरे दिन आने का वादा कर के वह चली गई. मैं बड़ी बेसब्री से दूसरे दिन का इंतजार कर रही थी ताकि उस व्यक्ति से मिलने का अवसर मिले जिस ने अपने साधारण से पद के बावजूद अपनी शख्सियत, अपने व्यवहार, मृदुस्वभाव व इनसानियत के गुणों के चुंबकीय आकर्षण से एक डाक्टर को जीवन भर के लिए अपनी जिंदगी की गांठ से बांध लिया था.