बहू-बेटी: क्या सास को जया ने कैसे समझाया

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाड़ ूबुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

जया को मालूम था कि एक तो छुटकी मांजी की गोद में ज्यादा देर टिकती नहीं, दूसरे जहां उस ने कपड़े गंदे किए कि वह बहू को आवाज देने लगती हैं. स्वयं गंदे कपड़े नहीं छूतीं.

रश्मि को लगा, यहां भी कुछ गड़बड़ है. चुपचाप धीरे से छुटकी को गोद में ले कर बैठ गई और प्यार से उस का सुंदर मुख निहारने लगी. कुछ ही महीने की तो बात है, उस के घर भी मेहमान आने वाला है. वह भी ऐसे ही व्यस्त हो जाएगी. घर का पूरा काम न कर पाएगी तो उस की सास क्या कर लेगी, पर उस की सास तो सैलानी है, वह तो घर में ही नहीं टिकती. उस का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा है. गरदन को झटका दे कर रश्मि मन ही मन बोली, ‘देखा जाएगा.’

मुश्किल से 15 मिनट हुए थे कि बच्ची रो पड़ी. हाथ से टटोल कर देखा तो पोतड़ा गीला था. उस ने जल्दी से कपड़ा बदल दिया, पर बच्ची चुप न हुई. शायद भूखी है. अब तो भाभी को बुलाना ही पड़ेगा. भाभी ने टोस्ट सेंक दिए थे, आमलेट बनाने जा रही थी. पिताजी अभी गरमगरम जलेबियां ले कर आए थे.

भाभी को जबरदस्ती बाहर कर दिया. बच्ची की देखभाल आवश्यक थी. फुरती से आमलेट बना कर ट्रे में रख कर मेज पर पहुंचा दिए. कांटेचम्मच, प्यालेप्लेट सब सही तरह से सजा कर पिताजी और अपने पति को बुला लाई. मां अभी नहा रही थीं. उस ने सोचा वह मां और भाभी के साथ खाएगी बाद में.

नाश्ते के बाद रश्मि ने कुछ काम बता कर पति को बाजार भेज दिया. अब मैदान खाली था. झट से झाड़ ू उठा ली. सोचा कि पति के वापस आने से पहले ही सारा घर साफसुथरा कर देगी. वह नहीं चाहती थी कि पति के ऊपर उस के मायके का बुरा प्रभाव पड़े. घर का मानअपमान उस का मानअपमान था. पति को इस से क्या मतलब कि महरी आई या नहीं.

जैसे ही उस ने झाड़ ू उठाई कि जया आ गई. दोनों में खींचातानी होने लगी.

‘‘ननद रानी, यह क्या कर रही हो? लोग क्या कहेंगे कि 2 दिन के लिए मायके आई और झाड़ ूबुहारु, चौकाबरतन सब करवा लिए. चलो हटो, जा कर नहाधो लो.’’

‘‘नहीं जाती, क्या कर लोगी?’’ रश्मि ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा घर है, मैं कुछ भी करूं, तुम्हें मतलब?’’

‘‘है, मतलब है. तुम तो 2 दिन बाद चली जाओगी, पर मुझे तो सारा जीवन यहां बिताना है.’’

रश्मि ने इशारा समझा, फिर भी कहा, ‘‘अच्छा चलो, काम बांट लेते हैं. तुम उधर सफाई कर लो और मैं इधर.’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ जया ने दृढ़ता से कहा, ‘‘ऐसा नहीं होगा.’’

भाभी और ननद झगड़ ही रही थीं कि बच्ची ने रो कर फैसला सुना दिया. भाभी मैदान से हट गई. इधर मां ने दिन के खाने का काम संभाल लिया. छुटकी को नहलानेधुलाने व कपड़े साफ करने में ही बहू को घंटों लग जाते हैं. सास बहू की मजबूरी को समझती थी, पर एक अनकही शिकायत दिल में मसोसती रहती थी. बहू के आने से उसे क्या सुख मिला? वह तो जैसे पहले घरबार में फंसी थी वैसे ही अब भी. कैसेकैसे सपनों का अंबार लगा रखा था, पर वह तो ताश के पत्तों से बने घर की तरह बिखर गया.

वह कसक और बढ़ गई थी. नहीं, शायद कसक तो वही थी, केवल उस की चुभन बढ़ गई थी. दयावती के हाथ सब्जी की ओर बढ़ गए. फिर भी उस का मन बारबार कह रहा था, लड़की को देखो, 2 दिन के लिए आई है, पर घर का काम ऐसे कर रही है जैसे अभी विवाह ही न हुआ हो. आखिर लड़की है. मां को समझती है…और बहू…

संध्या हो चुकी थी. रश्मि और उस का पति विजय अभीअभी जनपथ से लौटे थे. कितना सारा सामान खरीद कर लाए थे. कहकहे लग रहे थे. चाय ठंडी हो गई थी, पर उस का ध्यान किसे था? विजय ने पैराशूटनायलोन की एक जाकेट अपने लिए और एक अपनी पत्नी के लिए खरीदी थी. रश्मि के लिए एक जींस भी खरीदी थी. उसे रश्मि दोनों चीजें पहन कर दिखा रही थी. कितनी चुस्त और सुंदर लग रही थी. दयावती का चेहरा खिल उठा था. दिल गर्व से भर गया था.

बहू रश्मि को देख कर हंस रही थी, पर दिल पर एक बोझ सा था. शादी के बाद सास ने उस की जींस व हाउसकोट बकसे में बंद करवा दिए थे, क्योंकि उन्हें पहन कर वह बहू जैसी नहीं लगती थी.

रात को गैस के तंदूर पर रश्मि ने बढि़या स्वादिष्ठ मुर्गा और नान बनाए. इस बार बहू अपने मायके से तंदूर ले कर आई थी, पर वह वैसा का वैसा ही बंद पड़ा था. उस पर खाना बनाने का अवकाश किसे था. सास को आदत न थी और बहू को समय न था. तंदूर का खाना इतना अच्छा लगा कि विजय ने रश्मि से कहा, ‘‘कल हम भी एक तंदूर खरीद लेंगे.’’

दयावती के मुंह से निकल गया, ‘‘क्यों पैसे खराब करोगे? यही ले जाना. यहां किस काम आ रहा है.’’

कमलनाथ ने कहा, ‘‘ठीक तो है, बेटा. तुम यही ले जाओ. हमें जरूरत पड़ेगी तो और ले लेंगे.’’

बहू चुप. उस के दिल पर तो जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. उस ने अपने पति की ओर देखा. बेटे ने मुंह फेर लिया. एक ही इलाज था. कल ही बहन के लिए एक नया तंदूर खरीद कर ले आए. लेकिन इस के लिए पैसे और समय दोनों की आवश्यकता थी.

बेटी को अपना माहौल याद आया. एक बार तंदूर ले गई तो उस के ससुर व पति दोनों जीवन भर उसे तंदूर पर ही बैठा देंगे. दोनों को खाने का बहुत शौक था. इस के अलावा उसे याद था कि जब मां का दिया हुआ शाल सास ने उस की ननद को बिना पूछे पकड़ा दिया था तो उसे कितना मानसिक कष्ट हुआ था. आंखों में आंसू आ गए थे. भाभी की हालत भी वही होगी.

बात बिगड़ने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘नहीं मां, यह तंदूर भाभी का है, मैं नहीं ले जाऊंगी. मेरे पड़ोस में एक मेजर रहते हैं. उन्होंने मुझे सस्ते दामों

पर फौजी कैंटीन से तंदूर लाने के

लिए कहा है. 2-2 तंदूर ले कर मैं

क्या करूंगी?’’

बेटी ने तंदूर के लिए मांग नहीं की थी, परंतु उस ने ससुराल लौटते ही मेजर साहब से तंदूर के लिए कहने का इरादा कर लिया था.

अगले दिन बेटी और दामाद चले गए. घर सूनासूना लगने लगा. चहलपहल मानो समाप्त हो गई थी. इस सूनेपन को तोड़ने वाली केवल एक आवाज थी और वह थी बच्ची के रोने की आवाज. वातावरण सामान्य होने में कुछ समय लगा. मां के मुंह से हर समय बेटी का नाम निकलता था. वह क्याक्या करती थी…क्या कर रही होगी…बच्चा ठीक से हो जाए…तुरंत बुला लूंगी. 3 महीने से पहले वापस नहीं भेजूंगी. बहू सोच रही थी, उसे तो पीछे पड़ कर 1 महीने बाद ही बुला लिया था.

दयावती की बहन की लड़की किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में आई थी, समय निकाल कर वह मौसी से मिलने भी आ गई.

‘‘क्या हो रहा है, मौसी?’’

‘‘अरे, तू कब आई?’’ दयावती ने चकित हो कर कहा, ‘‘कुछ खबर भी नहीं?’’

‘‘लो, जब खुद ही चली आई तो खबर क्या भेजनी? आई तो कल ही हूं. शादी है एक. कल वापस भी जाना है, पर अपनी प्यारी मौसी से मिले बिना कैसे जा सकती हूं? भाभी कहां हैं? सुना है, छुटकी बड़ी प्यारी है. बस, उसे देखने भर आई हूं.’’

‘‘अरे, बैठ तो सही. सब देखसुन लेना. देख कढ़ी बना रही हूं. खा कर जाना.’’

‘‘ओहो…बस, मौसी, तुम और तुम्हारी कढ़ी. हमेशा चूल्हाचौका. अब भाभी भी तो है, कुछ तो आराम से बैठा करो.’’

दयावती ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या आराम करना. काम तो जिंदगी की अंतिम सांस तक करना ही करना है.’’

‘‘हाय, दीदी, तुम्हारा कितना काम करती थी. सच, तुम्हें रश्मि दीदी की बहुत याद आती होगी, मौसी?’’

‘‘अब फर्क तो होता ही है बहू और बेटी में,’’ दयावती ने फिर गहरी सांस ली.

जया सुन रही थी. उस के दिल पर चोट लगी. क्यों फर्क होता है बहू और बेटी में? एक को तीर तो दूसरे को तमगा. जब सास की बहन की लड़की चली गई तो जया सोचने लगी कि इस स्थिति में बदलाव आना जरूरी है. सास और बहू के बीच औपचारिकता क्यों? वह सास से साफसाफ कह सकती है कि बारबार बेटी की रट न लगाएं. पर ऐसा कहने से सास को अच्छा न लगेगा. अब उसे ही बेटी की भूमिका अदा करनी पड़ेगी. न सास रहेगी, न बहू. हर घर में बस, मांबेटी ही होनी चाहिए.

वह मुसकराई. उसे एक तरकीब सूझी. परिणाम बुरा भी हो सकता था, परंतु उस ने खतरा उठाने का निर्णय ले ही लिया. अगले सप्ताह होली का त्योहार था. अगर कुछ बुरा भी लगा तो होली के माहौल में ढक जाएगा. उस ने छुटकी को उठा कर चूम लिया.

प्रात: जब वह कमरे से निकली तो जींस पहने हुए थी और ऊपर से चैक का कुरता डाल रखा था. हाथ में गुलाल था.

‘‘होली मुबारक हो, मांजी,’’ कहते हुए जया ने ननद की नकल करते हुए सास के गालों पर चुंबन जड़ दिए और मुंह पर गुलाल मल दिया. दयावती की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई. इस से पहले कि सास संभलती, जया ने खिलखिला कर ‘होली है…होली है’ कहते हुए सास को पकड़ कर नाचना शुरू कर दिया. होहल्ला सुन कर कमलनाथ भी बाहर आ गए और यह दृश्य देख कर हंसे बिना न रह सके.

‘‘यह क्या हो रहा है, बहू?’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा.

‘‘होली है, पिताजी, और सुनिए, आज से मैं बहू नहीं हूं, बेटी हूं…सौ फीसदी बेटी,’’ यह कहते हुए उस ने ससुर के मुंह पर भी गुलाल पोत दिया.

इस से पहले कि कुछ और हंगामा खड़ा होता, पासपड़ोस के लोग मिलने आने लगे. स्त्रियां तो घर में ही घुस आईं. इसी बीच छुटकी रोने लगी. जया ने दौड़ कर छुटकी को उठा लिया और उस के कपड़े बदल कर सास की गोदी में बैठा दिया.

‘‘मांजी, आप मिलने वालों से निबटिए, मैं चायनाश्ता लगा रही हूं.’’

‘‘पर, बहू…’’

‘‘बहू नहीं, बेटी, मांजी. अब मैं बेटी हूं. देखिए मैं कितनी फुरती से काम निबटाती हूं.’’

लोग आ रहे थे और जा रहे थे. जया फुरती से नाश्ता लगालगा कर दे रही थी. रसोई का काम भी संभाल रही थी. गरमागरम पकौडि़यां बना रही थी, जूठे बरतन इकट्ठा नहीं होने दे रही थी. साथ ही साथ धो कर रखती जाती थी. सास को 2 बार रसोई से बाहर किया. उस का काम केवल छुटकी को रखना और मिलने वालों से बात करना था. सास को मजबूरन 2 बार छुटकी के कपड़े बदलने पड़े. सब से बड़ी बात तो यह थी कि दादी की गोद में छुटकी आज चुप थी, रोने का नाम नहीं. लगता था कि वह भी षडयंत्र में शामिल थी.

जब मेहमानों से छुट्टी मिली तो दयावती ने महसूस किया कि छुटकी कुछ बदल गई है. रोई क्यों नहीं आज? बल्कि शैतान हंस ही रही थी.

कमलनाथ ने आवाज दी, ‘‘बहू, जरा एक दहीबड़ा और दे जाना, बहुत अच्छे बने हैं.’’

रसोई से आवाज आई, ‘‘यहां कोई बहूवहू नहीं है, पिताजी.’’

‘‘बड़ी भूल हो गई बेटी,’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब तो मिलेगा न?’’

‘‘और हां बेटी,’’ सास ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अपनी मां का भी ध्यान रखना.’’

सास के गले में बांहें डालते हुए जया ने कहा, ‘‘क्योें नहीं, मां, आप लोगों को पा कर मैं कितनी धन्य हूं.’’

रमेश ने जो यह नाटक देख रहा था, गंभीरता से कहा, ‘‘इन हालात में मेरी क्या स्थिति है?’’ और सब हंस पड़े.

बहू-बेटी

लेखक- प्रबोधकुमार गोविल

जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाड़ ूपोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’

और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

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यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

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उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साडि़यां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साडि़यां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

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सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

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