Latest Hindi Stories : उसी दहलीज पर बारबार – क्या था रोहित का असली चेहरा

Latest Hindi Stories : घड़ी की तरफ देख कर ममता ने कहा, ‘‘शकुन, और कोई बैठा हो तो जल्दी से अंदर भेज दो. मुझे अभी जाना है.’’

और जो व्यक्ति अंदर आया उसे देख कर प्रधानाचार्या ममता चौहान अपनी कुरसी से उठ खड़ी हुईं.

‘‘रोहित, तुम और यहां?’’

‘‘अरे, ममता, तुम? मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां इस तरह तुम से मुलाकात होगी. यह मेरी बेटी रिया है. 6 महीने पहले इस की मां की मृत्यु हो गई. तब से बहुत परेशान था कि इसे कैसे पालूंगा. सोचा, किसी आवासीय स्कूल में दाखिला करा दूं. किसी ने इस स्कूल की बहुत तारीफ की थी सो चला आया.’’

‘‘बेटे, आप का नाम क्या है?’’

‘‘रिया.’’

बच्ची को देख कर ममता का हृदय पिघल गया. वह सोचने लगी कि इतना कुछ खोने के बाद रोहित ने कैसे अपनेआप को संभाला होगा.

‘‘ममता, मैं अपनी बेटी का एडमिशन कराने की बहुत उम्मीद ले कर यहां आया हूं,’’ इतना कह कर रोहित न जाने किस संशय से घिर गया.

‘‘कमाल करते हो, रोहित,’’ ममता बोली, ‘‘अपनी ही बेटी को स्कूल में दाखिला नहीं दूंगी? यह फार्म भर दो. कल आफिस में फीस जमा कर देना और 7 दिन बाद जब स्कूल खुलेगा तो इसे ले कर आ जाना. तब तक होस्टल में सभी बच्चे आ जाएंगे.’’

‘‘7 दिन बाद? नहीं ममता, मैं दोबारा नहीं आ पाऊंगा, तुम इसे अभी यहां रख लो और जो भी डे्रस वगैरह खरीदनी हो आज ही चल कर खरीद लेते हैं.’’

‘‘चल कर, मतलब?’’

‘‘यही कि तुम साथ चलो, मैं इस नई जगह में कहां भटकूंगा.’’

‘‘रोहित, मेरा जाना कठिन है,’’ फिर उस ने बच्ची की ओर देखा जो उसे ही देखे जा रही थी तो वह हंस पड़ी और बोली, ‘‘अच्छा चलेंगे, क्यों रियाजी?’’

शकुन आश्चर्य से अपनी मैडम को देखे जा रही थी. इतने सालों में उस ने ऐसा कभी नहीं देखा कि प्रधानाचार्या स्कूल का जरूरी काम टाल कर किसी के साथ जाने को तैयार हुई हों. उस के लिए तो सचमुच यह आश्चर्य की ही बात थी.

‘‘मैडम, खाना?’’ शकुन ने डरतेडरते पूछा.

‘‘ओह हां,’’ कुछ याद करती हुई ममता चौहान बोलीं, ‘‘देखो शकुन, कोई फोन आए तो कह देना, मैं बाहर गई हूं. और खाना भी लौट कर ही खाएंगे. हां, खाना थोड़ा ज्यादा ही बना लेना.’’

मेज पर फैली फाइलों को रख देने का शकुन को इशारा कर ममता चौहान उठ गईं और रोहित व रिया को साथ ले कर गेट से बाहर निकल गईं.

‘‘रुको, रोहित, जीप बुलवा लेते हैं,’’ नर्वस ममता ने कहा, ‘‘पर जीप भी बाजार के अंदर तक नहीं जाएगी. पैदल तो चलना ही पड़ेगा.’’

यद्यपि रिया उन के साथ चल रही थी पर कोई भी बाल सुलभ चंचलता उस के चेहरे पर नहीं थी. ममता ने ध्यान दिया कि रोहित का चेहरा ही नहीं बदन  भी कुछ भर गया है. पूरे 8 साल के बाद वह रोहित को देख रही थी. अतीत में उस के द्वारा की गई बेवफाई के बाद भी ममता का दिल रोहित के लिए मानो प्रेम से लबालब भरा हुआ था.

ममता को विश्वविद्यालय के वे दिन याद आए जब सुनसान जगह ढूंढ़ कर किसी पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे रहते थे. कभीकभी वह भयभीत सी रोहित के सीने में मुंह छिपा लेती थी कि कहीं उस के प्यार को किसी की नजर न लग जाए.

जीप अपनी गति से चल रही थी. अतीत के खयालों में खोई हुई ममता रोहित को प्यार से देखे जा रही थी. उसे 8 साल बाद भी रोहित उसी तरह प्यारा लग रहा था जैसे वह कालिज के दिनों में लगताथा.

ममता ने रोहित को भी अपनी ओर देखते पाया तो वह झेंप गई.

‘‘तुम आज भी वैसी ही हो, ममता, जैसी कालिज के दिनों में थीं,’’ रोहित ने बेझिझक कहा, ‘‘उम्र तो मानो तुम्हें छू भी नहीं सकी है.’’

तभी जीप रुक गई और दोनों नीचे उतर कर एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान की ओर चल दिए. ममता ने रिया को स्कूल डे्रस दिलवाई. वह जिस उत्साह से रिया के लिए कपड़ों की नापजोख कर रही थी उसे देख कर कोई भी यह अनुमान लगा सकता था कि मानो वह उसी की बेटी हो.

दूसरी जरूरत की चीजें, खानेपीने की चीजें ममता ने स्वयं रिया के लिए खरीदीं. यह देख कर रोहित आश्वस्त हो गया कि रिया यहां सुखपूर्वक, उचित देखरेख में रहेगी.

ममता बाजार से वापस लौटी तो उस का तनमन उत्साह से लबालब भरा था. उस के इस नए अंदाज को शकुन ने पहली बार देखा तो दंग रह गई कि जो मैडमजी मुसकराती भी हैं तो लगता है उन के अंदर एक खामोशी सी है, वह आज कितना चहक रही हैं लेकिन उन का व्यक्तित्व ऐसा है कि कोई भी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता.

कौन है यह व्यक्ति और उस की छोटी बच्ची… क्यों मैडम इतनी खुश हैं, शकुन समझ नहीं पा रही थी.

ममता ने चाहा था कि कम से कम 2 दिन तो रोहित उस के पास रुके, लेकिन वह रुका नहीं… रोती हुई रिया को गोद में ले कर ममता ने ही संभाला था.

‘‘मैडमजी, इस बच्ची को होस्टल में छोड़ दें क्या?’’

‘‘अरी, पागल हो गई है क्या जो खाली पड़े होस्टल में बच्ची को छोड़ने की बात कह रही है. बच्चों को होस्टल में आने तक रिया मेरे पास ही रहेगी.’’

शकुन सोच रही थी कि सोमी मैडम भी घर गई हैं वरना वह ही कुछ बतातीं. जाने क्यों उस के दिल में उस अजनबी पुरुष और उस के बच्चे को ले कर कुछ खटक रहा था. उसे लग रहा था कि कहीं कुछ ऐसा है जो मैडमजी के अतीत से जुड़ा है. वह इतना तो जानती थी कि ममता मैडम और सोमी मैडम एकसाथ पढ़ी हैं. दोनों कभी सहेली रही थीं, तभी तो सोमी मैडम बगैर इजाजत लिए ही प्रिंसिपल मैडम के कमरे में चली जाती हैं जबकि दूसरी मैडमों को कितनी ही देर खड़े रहना पड़ता है.

दूसरे दिन सुबह शकुन उठी तो देखा मैडम हाथ में दूध का गिलास लिए रिया के पास जा रही थीं. प्यार से रिया को दूध पिलाने के बाद उस के बाल संवारने लगीं. तभी शकुन पास आ कर बोली, ‘‘लाओ, मैडम, बिटिया की चोटी मैं गूंथे दे रही हूं. आप चाय पी लें.’’

‘‘नहीं, तुम जाओ, शकुन… नाश्ता बनाओ…चोटी मैं ही बनाऊंगी.’’

चोटी बनाते समय ममता ने रिया से पूछा, ‘‘क्यों बेटे, तुम्हारी मम्मी को क्या बीमारी थी?’’

‘‘मालूम नहीं, आंटी,’’ रिया बोली, ‘‘मम्मी 4-5 महीने अस्पताल में रही थीं, फिर घर ही नहीं लौटीं.’’

एक हफ्ता ऐसे ही बीत गया. रिया भी ममता से बहुत घुलमिल गई थी. लड़कियां होस्टल में आनी शुरू हो गई थीं. सोमी भी सपरिवार लौट आई थी. शकुन ने ही जा कर सोमी को सारी कहानी सुनाई.

सोमी ने शकुन को यह कह कर भेज दिया कि ठीक है, शाम को देखेंगे.

शाम को सोमी ममता से मिलने उस के घर आई तो ममता ने बिना किसी भूमिका के बता दिया कि रिया रोहित की बेटी है और उस की मां का पिछले साल निधन हो गया है. रोहित हमारे स्कूल में अपनी बच्ची का दाखिला करवाने आया था.

‘‘रोहित को कैसे पता चला कि तुम यहां हो?’’ सोमी ने पूछा.

‘‘नहीं, उस को पहले पता नहीं था. वह भी मुझे देख कर आश्चर्य कर रहा था.’’

थोड़ी देर बैठ कर सोमी अपने घर लौट गई. उसे कुछ अच्छा नहीं लगा था यह ममता ने साफ महसूस किया था. वह बिस्तर पर लेट गई और अतीत के बारे में सोचने लगी. ममता और रोहित एक- साथ पढ़ते थे और वह उन से एक साल जूनियर थी. इन तीनों के ग्रुप में योगेश भी था जो उस की क्लास में था. योगेश की दोस्ती रोहित के साथ भी थी, उधर रोहित और ममता भी एक ही क्लास में पढ़ने के कारण दोस्त थे. फिर चारों मिले और उन की एकदूसरे से दोस्ती हो गई.

ममता का रंग गोरा और बाल काले व घुंघराले थे जो उस के खूबसूरत चेहरे पर छाए रहते थे.

रोहित भी बेहद खूबसूरत नौजवान था. जाने कब रोहित और ममता में प्यार पनपा और फिर तो मानो 2-3 साल तक दोनों ने किसी की परवा भी नहीं की. दोनों के प्यार को एक मुकाम हासिल हो इस प्रयास में सोमी व योगेश ने उन का भरपूर साथ दिया था.

ममता और रोहित ने एम.एससी. कर लिया था. सोमी बी.एड. करने चली गई और योगेश सरकारी नौकरी में चला गया. यह वह समय था जब चारों बिछड़ रहे थे.

रोहित ने ममता के घर जा कर उस के मातापिता को आश्वस्त किया था कि बढि़या नौकरी मिलते ही वे विवाह करेंगे और उस के बूढ़े मातापिता अपनी बेटी की ओर से ऐसा दामाद पा कर आश्वस्त हो चुके थे.

ममता की मां तो रोहित को देख कर निहाल हो रही थीं वरना उन के घर की जैसी दशा थी उस में उन्होंने अच्छा दामाद पा लेने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. पति रिटायर थे. बेटा इतना स्वार्थी निकला कि शादी करते ही अलग घर बसा लिया. पति के रिटायर होने पर जो पैसा मिला उस में से कुछ उन की बीमारी पर और कुछ बेटे की शादी पर खर्च हो गया.

एक दिन रोहित को उदास देख कर ममता ने उस की उदासी का कारण पूछा तो उस ने बताया कि उस के पापा उस की शादी कहीं और करना चाहते हैं. तब ममता बहुत रोई थी. सोमी और योगेश ने भी रोहित को बहुत समझाया लेकिन वह लगातार मजबूर होता जा रहा था.

आखिर रोहित ने शिखा से शादी कर ली. इस शादी से जितनी ममता टूटी उस से कहीं ज्यादा उस के मातापिता टूटे थे. एक टूटे परिवार को ममता कहां तक संभालती. घोर हताशा और निराशा में उस के दिन बीत रहे थे. वह कहीं चली जाना चाहती थी जहां उस को जानने वाला कोई न हो. और फिर ममता का इस स्कूल में आने का कठोर निर्णय रोहित की बेवफाई थी या कोई मजबूरी यह वह आज तक समझ ही नहीं पाई.

इस अनजाने शहर में ममता का सोमी से मिलना भी महज एक संयोग ही था. सोमी भी अपने पति व दोनों बच्चों के साथ इसी शहर में रह रही थी. दोनों गले मिल कर खूब रोई थीं. सोमी यह जान कर अवाक्  थी… कोई किसी को कितना चाह सकता है कि बस, उसी की यादों के सहारे पूरी जिंदगी बिताने का फैसला ले ले.

सोमी को भी ममता ने स्कूल में नौकरी दिलवा दी तो एक बार फिर दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ हो गई.

स्कूल ट्रस्टियों ने ममता की काबिलीयत और काम के प्रति समर्पण भाव को देखते हुए उसे प्रिंसिपल बना दिया. उस ने भी प्रिंसिपल बनते ही स्कूल की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उस की देखरेख में स्कूल अनुशासित हो प्रगति करने लगा.

अतीत की इन यादों में खोई सोमी कब सो गई उसे पता ही नहीं चला. जब उठी तो देखा दफ्तर से आ कर पति उसे जगा रहे हैं.

‘‘ममता, तुम जानती हो, रिया रोहित की लड़की है. इतना रिस्पांस देने की क्या जरूरत है?’’ एक दिन चिढ़ कर सोमी ने कहा.

‘‘जानती हूं, तभी तो रिस्पांस दे रही हूं. क्या तुम नहीं जानतीं कि अतीत के रिश्ते से रिया मेरी बेटी ही है?’’

अब क्या कहती सोमी? न जाने किस रिश्ते से आज तक ममता रोहित से बंधी हुई है. सोमी जानती है कि उस ने अपनी अलमारी में रोहित की बड़ी सी तसवीर लगा रखी है. तसवीर की उस चौखट में वह रोहित के अलावा किसी और को बैठा ही नहीं पाई थी.

ममता को लगता जैसे बीच के सालों में उस ने कोई लंबा दर्दनाक सपना देखा हो. अब वह रोहित के प्यार में पहले जैसी ही पागल हो उठी थी.

पापा की मौत हो चुकी थी और मां को भाई अपने साथ ले गया था. जब उम्र का वह दौर गुजर जाए तो विवाह में रुपयों की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती जितना जीवनसाथी के रूप में किसी को पाना.

विधुर कर्नल मेहरोत्रा का प्रस्ताव आया था और ममता ने सख्ती से मां को मना कर दिया था. स्कूल के वार्षिकोत्सव में एम.पी. सुरेश आए थे, उन की उम्र ज्यादा नहीं थी, उन्होंने भी ममता के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा था. इस प्रस्ताव के लिए सोमी और उस के पति ने ममता को बहुत समझाया था. तब उस ने इतना भर कहा था, ‘‘सोमी, प्यार सिर्फ एक बार किया जाता है. मुझे प्यारहीन रिश्तों में कोई विश्वास नहीं है.’’

प्यार और विश्वास ने ममता के भीतर फिर अंगड़ाई ली थी. रोहित आया तो उस ने आग्रह कर के उसे 3-4 दिन रोक लिया. पहले दिन रोहित, ममता और सोमी तीनों मिल कर घूमने गए. बाहर ही खाना खाया.

सोमी कुछ ज्यादा रोहित से बोल नहीं पाई… क्या पता रोहित ही सही हो… वह ममता की कोमल भावनाएं कुचलना नहीं चाहती थी. अगर ममता की जिंदगी संवर जाए तो उसे खुशी ही होगी.

अगले दिन ममता रोहित के साथ घूमने निकली. थोड़ी देर पहले ही बारिश हुई थी. अत: ठंड बढ़ गई थी.

‘‘कौफी पी ली जाए, क्यों ममता?’’ उसे रोहित का स्वर फिर कालिज के दिनों जैसा लगा.

‘‘हां, जरूर.’’

रेस्तरां में लकड़ी के बने लैंप धीमी रोशनी देते लटक रहे थे. रोहित गहरी नजरों से ममता को देखे जा रहा था और वह शर्म के मारे लाल हुई  जा रही थी. उस को कालिज के दिनों का वह रेस्तरां याद आया जहां दोनों एकदूसरे में खोए घंटों बैठे रहते थे.

‘‘कहां खो गईं, ममता?’’ इस आवाज से उस ने हड़बड़ा कर देखा तो रोहित का हाथ उस के हाथ के ऊपर था. सालों बाद पुरुष के हाथ की गरमाई से वह मोम की तरह पिघल गई.

‘‘रोहित, क्या तुम ने कभी मुझे मिस नहीं किया?’’

‘‘ममता, मैं ने तुम्हें मिस किया है. शिखा के साथ रहते हुए भी मैं सदा तुम्हारे साथ ही था.’’

रोहित की बातें सुन कर ममता भीतर तक भीग उठी.

पहाड़ खामोश थे… बस्ती खामोश थी… हर तरफ पसरी खामोशी को देख कर ममता को नहीं लगता कि जिंदगी कहीं है ही नहीं… फिर वह क्यों जिंदगी के लिए इतनी लालायित रहती है. वह भी उम्र के इस पड़ाव पर जब इनसान व्यवस्थित हो चुका होता है. वह क्यों इतनी अव्यवस्थित सी है और उस के मन में क्यों यह इच्छा होती है कि यह जो पुरुष साथ चल रहा है, फिर पुराने दिन वापस लौटा दे?

ममता ने महसूस किया कि वह अंदर से कांप रही है और उस ने शाल को सिर से ओढ़ लिया, फिर भी ठंड गई नहीं. उस पर रोहित ने जब उस  का हाथ पकड़ा तो वह और भी थरथरा उठी. गरमाई का एक प्रवाह उस के अंदर तिरोहित होने लगा तो वह रोहित से और भी सट गई. रोहित उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे अपनी ओर खींच कर बोला, ‘‘कांप रही हो तुम तो,’’ और फिर रोहित ने उसे समूचा भींच लिया था.

ममता को लगा कि बस, ये क्षण… यहीं ठहर जाएं. आखिर इसी लमहे व रोहित को पाने की चाहत में तो उस ने इतने साल अकेले बिताए हैं.

शकुन इंतजार कर के लौट गई थी. मेज पर खाना रखा था. उस ने ढीलीढाली नाइटी पहन ली और खाना लगाने लगी. फायरप्लेस में बुझती लकडि़यों में उस ने और लकडि़यां डाल दीं.

दोनों चुपचाप खाना खाते रहे. अचानक ममता ने पूछा, ‘‘अब क्या रुचि है तुम्हारी, रोहित? कुछ पढ़ते हो या… बस, गृहस्थी में ही रमे रहते हो?’’

‘‘अरे, अब कुछ भी पढ़ना कहां संभव हो पाता है, अब तो जिंदगी का यथार्थ सामने है. बस, काम और काम, फिर थक कर सो जाना.’’

बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे. फायरप्लेस में लकडि़यां डालने के बाद ममता अलमारी खोल कर वह नोटबुक निकाल लाई जिस में कालिज के दिनों की ढेरों यादें लिखी थीं. रोहित को यह देख कर आश्चर्य हुआ, ममता की अलमारी में उस की तसवीर रखी है.

नोटबुक के पन्ने फड़फड़ा रहे थे. अनमनी सी बैठी ममता का चेहरा रोहित ने अपने हाथों में ले कर अधरों का एक दीर्घ चुंबन लिया. ममता ने आंखें बंद कर लीं. उस के बदन में हलचल हुई तो उस ने रोहित को खींच कर लिपटा लिया. बरसों का बांध कब टूट गया, पता ही नहीं चला.

‘‘क्या आज ही जाना जरूरी है, रोहित?’’ सुबह सो कर उठने के बाद रात की खामोशी को ममता ने ही तोड़ा था.

‘‘हां, ममता, अब और नहीं रुक सकता. वहां मुझे बहुत जरूरी काम है,’’ अटैची में कपड़े भरते हुए रोहित ने कहा.

ममता ने रिया को बुलवा लिया था. जाने का क्षण निकट था. रिया रो रही थी. ममता की आंखें भी भीगी हुई थीं. उस के मन में विचार कौंधा कि क्या अब भी रोहित से कहना पड़ेगा कि मुझे अपनालो… अकेले अब मुझ से नहीं रहा जाता. तुम्हारी चाहत में कितने साल मैं ने अकेले गुजारे हैं. क्या तुम इस सच को नहीं जानते?

सबकुछ अनकहा ही रह गया. रोहित लगातार खामोश था. उस को गए 5 महीने बीत गए. फोन पर वह रिया का हालचाल पूछ लेता. ममता यह सुनने को तरस गई कि ममता, अब बहुत हुआ. तुम्हें मेरे साथ चलना होगा.

वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गई थी. सभी बच्चे घर वापस जा रहे थे. रोहित का फोन उस आखिरी दिन आया था जब होस्टल बंद हो रहा था.

‘‘रिया की मौसी आ रही हैं. उन के साथ उसे भेज देना.’’

‘‘तुम नहीं आओगे, रोहित?’’

‘‘नहीं, मेरा आना संभव नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’ और उस के साथ फोन कट गया था. कानों में सीटी बजती रही और ममता रिसीवर पकड़े हतप्रभ रह गई.

दूसरे दिन रिया की मौसी आ गईं. होस्टल से रिया उस के घर ही आ गई थी क्योंकि होस्टल खाली हो चुका था.

‘‘रोहित को ऐसा क्या काम आ पड़ा जो अपनी बेटी को लेने वह नहीं आ सका?’’ ममता ने रिया की मौसी से पूछा.

‘‘सच तो यह है ममताजी कि शिखा दीदी की मौत के बाद रोहित जीजाजी के सामने रिया की ही समस्या है क्योंकि वह अब जिस से शादी करने जा रहे हैं, वह उन की फैक्टरी के मालिक की बेटी है. लेकिन वह रिया को रखना नहीं चाहती और मेरी भी पारिवारिक समस्याएं हैं, क्या करूं… शायद मेरी मां ही अब रिया को रखेंगी. एक बात और बताऊं, ममताजी कि रोहित जीजाजी हमेशा से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं. शिखा दीदी के सामने ही उन का प्रेम इस युवती से हो गया था… मुझे तो लगता है कि शिखा दीदी की बीमारी का कारण भी यही रहा हो, क्योंकि दीदी ने बीच में एक बार नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

इतना सबकुछ बतातेबताते रिया की मौसी की आवाज तल्ख हो गई थी और उन के चुप हो जाने तक ममता पत्थर सी बनी बिना हिलेडुले अवाक् बैठी रह गई. याद नहीं उसे आगे क्या हुआ. हां, आखिरी शब्द वह सुन पाई थी कि रोहित जीजाजी ने जहां कालिज जीवन में प्यार किया था, वहां विवाह न करने का कारण कोई मजबूरी नहीं थी बल्कि वहां भी उन का कैरियर और भारी दहेज ही कारण था.

तपते तेज बुखार में जब ममता ने आंखें खोलीं तो देखा रिया उस के पास बैठी उस का हाथ सहला रही है और शकुन माथे पर पानी की पट्टियां रख रहीहै.

ममता ने सोमी की तरफ हाथ बढ़ा दिए और फिर दोनों लिपट कर रोने लगीं तो शकुन रिया को ले कर बाहर के कमरे में चली गई.

‘‘सोमी, मैं ने अपनी संपूर्ण जिंदगी दांव पर लगा दी, और वह राक्षस की भांति मुझे दबोच कर समूचा निगल गया.’’

सोमी ने उस का माथा सहलाया और कहा, ‘‘कुछ मत बोलो, ममता, डाक्टर ने बोलने के लिए मना किया है. हां, इस सदमे से उबरने के लिए तुम्हें खुद अपनी मदद करनी होगी.’’

ममता को लगा कि जिन हाथों की गरमी से वह आज तक उद्दीप्त थी वही स्पर्श अब हजारहजार कांटों की तरह उस के शरीर में चुभ रहे हैं. काश, वह भी सांप के केंचुल की तरह अपने शरीर से उस केंचुल को उतार फेंकती जिसे रोहित ने दूषित किया था… कितना वीभत्स अर्थ था प्यार का रोहित के पास.

‘‘सोमी,’’ वह टूटी हुई आवाज में बोली, ‘‘मैं रिया के बगैर कैसे रहूंगी,’’ और उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. एक भयावह स्वप्न देख घबरा कर ममता ने आंखें खोलीं तो देखा सोमी फोन पर बात कर रही थी, ‘‘रोहित, तुम ने जो भी किया उस के बारे में मैं तुम से कुछ नहीं कहूंगी, लेकिन क्या तुम रिया को ममता के पास रहने दोगे? शायद ममता से बढ़ कर उसे मां नहीं मिल सकती…’’

रिया की मौसी ने रिया को ला कर ममता की गोद में डाल दिया और बोली, ‘‘मैं सब सुन चुकी हूं. सोमीजी… रिया अब ममता के पास ही रहेगी, इन की बेटी की तरह, इसे स्वीकार कीजिए.’’

Hindi Moral Tales : आंधी से बवंडर की ओर

Hindi Moral Tales :  फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’

‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’

‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’

मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’

सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

मुझे अभी भी याद है कि शादी की खरीदारी में जब सभी लड़कियों के फ्राक व सलवारसूट के लिए एक थान कपड़ा आ जाता और लड़कों की पतलून भी एक ही थान से बनती तो इस ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि लोग सब को एक ही तरह के कपड़ों में देख कर मजाक तो नहीं बनाएंगे…बस, सब नए कपड़े की खुशी में खोए रहते और कुछ दिन तक उन कपड़ों का ‘खास’ ध्यान रखा जाता, बाकी सामान्य दिन तो विरासत में मिले कपड़े, जो बड़े भाईबहनों की पायदान से उतरते हुए हम तक पहुंचते, पहनने पड़ते थे. फिर भी कोई दुख नहीं होता था. अब तो ब्रांडेड कपड़ों का ढेर और बदलता फैशन…सोचतेसोचते मैं अपनी बेटी के साथ गाड़ी में बैठ गई और जब मेरी दृष्टि अपनी बेटी के चेहरे पर पड़ी तो वहां मुझे खुशी नहीं दिखाई पड़ी. वह अपने विचारों में खोईखोई सी बोली, ‘‘गाड़ी जरा बुकशौप पर ले लीजिए, पिछले साल के पेपर्स खरीदने हैं.’’

सुन कर मेरा दिल पसीजने लगा. सच तो यह है कि खुशी महसूस करने का समय ही कहां है इन बच्चों के पास. ये तो बस, एक मशीनी जिंदगी का हिस्सा बन जी रहे हैं. कपड़े खरीदना और पहनना भी उसी जिंदगी का एक हिस्सा है, जो क्षणिक खुशी तो दे सकता है पर खुशी से सराबोर नहीं कर पाता क्योंकि अगले ही पल इन्हें अपना कैरियर याद आने लगता है.

इसी सोच में डूबे हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. मैं सारे पैकेट ले कर उन्हें अप्पी के कमरे में रखने के लिए गई. पूरे पलंग पर अप्पी की किताबें, कंप्यूटर आदि फैले थे…उन्हीं पर जगह बना कर मैं ने पैकेट रखे और पलंग के एक किनारे पर निढाल सी लेट गई. आज अपनी बेटी का खोयाखोया सा चेहरा देख मुझे अपना समय याद आने लगा…कितना अंतर है दोनों के समय में…

मेरा भाई गिल्लीडंडा खेलते समय जोर की आवाज लगाता और हम सभी 10-12 बच्चे हाथ ऊपर कर के हल्ला मचाते. अगले ही पल वह हवा में गिल्ली उछालता और बच्चों का पूरा झुंड गिल्ली को पकड़ने के लिए पीछेपीछे…उस झुंड में 5-6 तो हम चचेरे भाईबहन थे, बाकी पासपड़ोस के बच्चे. हम में स्टेटस का कोई टेंशन नहीं था.

देवीलाल पान वाले का बेटा, चरणदास सब्जी वाले की बेटी और ऐसे ही हर तरह के परिवार के सब बच्चे एकसाथ…एक सोच…निश्ंिचत…स्वतंत्र गिल्ली के पीछेपीछे, और यह कैच… परंतु शाम होतेहोते अचानक ही जब मेरे पिता की रौबदार आवाज सुनाई पड़ती, चलो घर, कब तक खेलते रहोगे…तो भगदड़ मच जाती…

धूल से सने पांव रास्ते में पानी की टंकी से धोए जाते. जल्दी में पैरों के पिछले हिस्से में धूल लगी रह जाती…पर कोई चिंता नहीं. घर जा कर सभी अपनीअपनी किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाते. रोज का पाठ दोहराना होता था…बस, उस के साथसाथ मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई अलग से थोड़ी करनी होती थी, अत: 9 बजे तक पाठ पूरा कर के निश्ंिचतता की नींद के आगोश में सो जाते पर आज…

रात को देर तक जागना और पढ़ना…ढेर सारे तनाव के साथ कि पता नहीं क्या होगा. कहीं चयन न हुआ तो? एक ही कमरे में बंद, यह तक पता नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है. इन का दायरा तो फेसबुक व इंटरनेट के अनजान चेहरे से दोस्ती कर परीलोक की सैर करने तक सीमित है, एक हम थे…पूरे पड़ोस बल्कि दूरदूर के पड़ोसियों के बच्चों से मेलजोल…कोई रोकटोक नहीं. पर अब ऐसा कहां, क्योंकि मुझे याद है कि कुछ साल पहले मैं जब एक दिन अपनी बेटी को ले कर पड़ोस के जोशीजी के घर गई तो संयोगवश जोशी दंपती घर पर नहीं थे. वहीं पर जोशीजी की माताजी से मुलाकात हुई जोकि अपनी पोती के पास बैठी बुनाई कर रही थीं. पोती एक स्वचालित खिलौना कार में बैठ कर आंगन में गोलगोल चक्कर लगा रही थी, कार देख कर मैं अपने को न रोक सकी और बोल पड़ी…

‘आंटी, आजकल कितनी अच्छी- अच्छी चीजें चल गई हैं, कितने भाग्यशाली हैं आज के बच्चे, वे जो मांगते हैं, मिल जाता है और एक हमारा बचपन…ऐसी कार का तो सपना भी नहीं देखा, हमारे समय में तो लकड़ी की पेटी से ही यह शौक पूरा होता था, उसी में रस्सी बांध कर एक बच्चा खींचता था, बाकी धक्का देते थे और बारीबारी से सभी उस पेटी में बैठ कर सैर करते थे. काश, ऐसा ही हमारा भी बचपन होता, हमें भी इतनी सुंदरसुंदर चीजें मिलतीं.’

‘अरे सोनिया, सोने के पिंजरे में कभी कोई पक्षी खुश रह सका है भला. तुम गलत सोचती हो…इन खिलौनों के बदले में इन के मातापिता ने इन की सब से अमूल्य चीज छीन ली है और जो कभी इन्हें वापस नहीं मिलेगी, वह है इन की आजादी. हम ने तो कभी यह नहीं सोचा कि फलां बच्चा अच्छा है या बुरा. अरे, बच्चा तो बच्चा है, बुरा कैसे हो सकता है, यही सोच कर अपने बच्चों को सब के साथ खेलने की आजादी दी. फिर उसी में उन्होंने प्यार से लड़ कर, रूठ कर, मना कर जिंदगी के पाठ सीखे, धैर्य रखना सीखा. पर आज इसी को देखो…पोती की ओर इशारा कर वे बोलीं, ‘घर में बंद है और मुझे पहरेदार की तरह बैठना है कि कहीं पड़ोस के गुलाटीजी का लड़का न आ जाए. उसे मैनर्स नहीं हैं. इसे भी बिगाड़ देगा. मेरी मजबूरी है इस का साथ देना, पर जब मुझे इतनी घुटन है तो बेचारी बच्ची की सोचो.’

मैं उन के उस तर्क का जवाब न दे सकी, क्योंकि वे शतप्रतिशत सही थीं.

हमारे जमाने में तो मनोरंजन के साधन भी अपने इर्दगिर्द ही मिल जाते थे. पड़ोस में रहने वाले पांडेजी भी किसी विदूषक से कम न थे, ‘क्वैक- क्वैक’ की आवाज निकालते तो थोड़ी दूर पर स्थित एक अंडे वाले की दुकान में पल रही बत्तखें दौड़ कर पांडेजी के पास आ कर उन के हाथ से दाना  खातीं और हम बच्चे फ्री का शो पूरी तन्मयता व प्रसन्न मन से देखते. कोई डिस्कवरी चैनल नहीं, सब प्रत्यक्ष दर्शन. कभी पांडेजी बोट हाउस क्लब से पुराना रिकार्ड प्लेयर ले आते और उस पर घिसा रिकार्ड लगा कर अपने जोड़ीदार को वैजयंती माला बना कर खुद दिलीप कुमार का रोल निभाते हुए जब थिरकथिरक कर नाचते तो देखने वाले अपनी सारी चिंता, थकान, तनाव भूल कर मुसकरा देते. ढपली का स्थान टिन का डब्बा पूरा कर देता. कितना स्वाभाविक, सरल तथा निष्कपट था सबकुछ…

सब को हंसाने वाले पांडेजी दुनिया से गए भी एक निराले अंदाज में. हुआ यह कि पहली अप्रैल को हमारे महल्ले के इस विदूषक की निष्प्राण देह उन के कमरे में जब उन की पत्नी ने देखी तो उन की चीख सुन पूरा महल्ला उमड़ पड़ा, सभी की आंखों में आंसू थे…सब रो रहे थे क्योंकि सभी का कोई अपना चला गया था अनंत यात्रा पर, ऐसा लग रहा था कि मानो अभी पांडेजी उठ कर जोर से चिल्लाएंगे और कहेंगे कि अरे, मैं तो अप्रैल फूल बना रहा था.

कहां गया वह उन्मुक्त वातावरण, वह खुला आसमान, अब सबकुछ इतना बंद व कांटों की बाड़ से घिरा क्यों लगता है? अभी कुछ सालों पहले जब मैं अपने मायके गई थी तो वहां पर पांडेजी की छत पर बैठे 14-15 वर्ष के लड़के को देख समझ गई कि ये छोटे पांडेजी हमारे पांडेजी का पोता ही है…परंतु उस बेचारे को भी आज की हवा लग चुकी थी. चेहरा तो पांडेजी का था किंतु उस चिरपरिचित मुसकान के स्थान पर नितांत उदासी व अकेलेपन तथा बेगानेपन का भाव…बदलते समय व सोच को परिलक्षित कर रहा था. देख कर मन में गहरी टीस उठी…कितना कुछ गंवा रहे हैं हम. फिर भी भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं, आंखें बंद कर के.

अभी मैं अपनी पुरानी यादों में खोई, अपने व अपनी बेटी के समय की तुलना कर ही रही थी कि मेरी बेटी ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मा, मैं कोचिंग क्लास में जा रही हूं…दरवाजा बंद कर लीजिए…’’

मैं उठी और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में ही बैठ गई. मन में अनेक प्रकार की उलझनें थीं… लाख बुराइयां दिखने के बाद भी मैं ने भी तो अपनी बेटी को उसी सिस्टम का हिस्सा बना दिया है जो मुझे आज गलत नजर आ रहा था.

सोचतेसोचते मेरे हाथ में रिमोट आ गया और मैंने टेलीविजन औन किया… ब्रेकिंग न्यूज…बनारस में बी.टेक. की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कामर्स पढ़ना चाहती थी…लड़की ने मातापिता द्वारा जोर देने पर इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था. मुझे याद आया कि बी.ए. में मैं ने अपने पिता से कुछ ऐसी ही जिद की थी… ‘पापा, मुझे भूगोल की कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि मेरी सारी दोस्त अर्थशास्त्र में हैं. मैं भूगोल छोड़ रही हूं…’

‘ठीक है, पर मन लगा कर पढ़ना,’ कहते हुए मेरे पिता अखबार पढ़ने में लीन हो गए थे और मैं ने विषय बदल लिया था. परंतु अब हम अपने बच्चों को ‘विशेष कुछ’ बनाने की दौड़ में शामिल हो कर क्या अपने मातापिता से श्रेष्ठ, मातापिता साबित हो रहे हैं, यह तो वक्त बताएगा. पर यह तो तय है कि फिलहाल इन का आने वाला कल बनाने की हवस में हम ने इन का आज तो छीन ही लिया है.

सोचतेसोचते मेरा मन भारी होने लगा…मुझे अपनी ‘अप्पी’ पर बेहद तरस आने लगा. दौड़तेदौड़ते जब यह ‘कुछ’ हासिल भी कर लेगी तो क्या वैसी ही निश्ंिचत जिंदगी पा सकेगी जो हमारी थी… कितना कुछ गंवा बैठी है आज की युवा पीढ़ी. यह क्या जाने कि शाम को घर के अहाते में ‘छिप्पीछिपाई’, ‘इजोदूजो’, ‘राजा की बरात’, ‘गिल्लीडंडा’ आदि खेल खेलने में कितनी खुशी महसूस की जा सकती थी…रक्त संचार तो ऐसा होता था कि उस के लिए किसी योग गुरु के पास जा कर ‘प्राणायाम’ करने की आवश्यकता ही न थी. तनाव शब्द तो तब केवल शब्दकोश की शोभा बढ़ाता था… हमारी बोलचाल या समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की खबरों की नहीं.

अचानक मैं उठी और मैं ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि मैं अपनी ‘अप्पी’ को इस ‘रैट रेस’ का हिस्सा नहीं बनने दूंगी. आज जब वह कोचिंग से लौटेगी तो उस को पूरा विश्वास दिला दूंगी कि वह जो करना चाहती है करे, हम बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. मेरा मन थोड़ा हलका हुआ और मैं एक कप चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी…तभी टेलीफोन की घंटी बजी…मेरी ननद का फोन था…

‘‘भाभीजी, क्या बताऊं, नेहा का रिश्ता होतेहोते रह गया, लड़का वर्किंग लड़की चाह रहा है. वह भी एम.बी.ए. हो. नहीं तो दहेज में मोटी रकम चाहिए. डर लगता है कि एक बार दहेज दे दिया तो क्या रोजरोज मांग नहीं करेगा?’’

उस के आगे जैसे मेरे कानों में केवल शब्दों की सनसनाहट सुनाई देने लगी, ऐसा लगने लगा मानो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई हो…अभी मैं अपनी अप्पी को आजाद करने की सोच रही थी और अब ऐसा समाचार.

क्या हो गया है हम सब को? किस मृगतृष्णा के शिकार हो कर हम सबकुछ जानते हुए भी अनजान बने अपने बच्चों को उस मशीनी सिस्टम की आग में धकेल रहे हैं…मैं ने चुपचाप फोन रख दिया और धम्म से सोफे पर बैठ गई. मुझे अपनी भतीजी अनुभा याद आने लगी, जिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहे अपने एक सहकर्मी से इसलिए शादी की क्योंकि आज की भाषा में उन दोनों की ‘वेवलैंथ’ मिलती थी. पर उस का परिणाम क्या हुआ? 10 महीने बाद अलगाव और डेढ़ साल बाद तलाक.

मुझे याद है कि मेरी मां हमेशा कहती थीं कि पति के दिल तक पेट के रास्ते से जाया जाता है. समय बदला, मूल्य बदले और दिल तक जाने का रास्ता भी बदल गया. अब वह पेट जेब का रास्ता बन चुका था…जितना मोटा वेतन, उतना ही दिल के करीब…पर पुरुष की मूल प्रकृति, समय के साथ कहां बदली…आफिस से घर पहुंचने पर भूख तो भोजन ही मिटा सकता है और उस को बनाने का दायित्व निभाने वाली आफिस से लौटी ही न हो तो पुरुष का प्रकृति प्रदत्त अहं उभर कर आएगा ही. वही हुआ भी. रोजरोज की चिकचिक, बरतनों की उठापटक से ऊब कर दोनों ने अलगाव का रास्ता चुन लिया…ये कौन सा चक्रव्यूह है जिस के अंदर हम सब फंस चुके हैं और उसे ‘सिस्टम’ का नाम दे दिया…

मेरा सिर चकराने लगा. दूर से आवाज आ रही थी, ‘दीदी, भागो, अंधड़ आ रहा है…बवंडर न बन जाए, हम फंस जाएंगे तो निकल नहीं पाएंगे.’ बचपन में आंधी आने पर मेरा भाई मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूर तक भगाता ले जाता था. काश, आज मुझे भी कोई ऐसा रास्ता नजर आ जाए जिस पर मैं अपनी ‘अप्पी’ का हाथ पकड़ कर ऐसे भागूं कि इस सिस्टम के बवंडर बनने से पहले अपनी अप्पी को उस में फंसने से बचा सकूं, क्योंकि यह तो तय है कि इस बवंडर रूपी चक्रव्यूह को निर्मित करने वाले भी हम हैं…तो निकलने का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व भी हमारा ही है…वरना हमारे न जाने कितने ‘अभिमन्यु’ इस चक्रव्यूह के शिकार बन जाएंगे.

Interesting Hindi Stories : हिमशैल – क्या सगे भाई विजय और अजय के आपसी रिश्तों में मधुरता आ पाई?

Interesting Hindi Stories :  ‘‘अजय, अब केवल तुम्हारे लिए हम चाचाजी के परिवार को तो छोड़ नहीं सकते. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाएंगे ही.’’

बड़े भाई विजय के पिघलते शीशे से ये शब्द अजय के कानों से होते हुए सीधे दिलोदिमाग तक पहुंच कर सारी कोमल भावनाओं को पत्थर सा जमाते चले गए थे, जो आज कई महीने बाद भी उन के पारिवारिक सौहार्द को पुनर्जीवित करने के प्रयास में शिलाखंड से राह रोके पड़ेथे.

आपसी भावनाओं के सम्मान से ही रिश्तों को जीवित रखा जा सकता है पर जब दूसरे का मान नगण्य और अपना हित ही सर्वोपरि हो जाए तो रिश्तों को बिखरते देर नहीं लगती. अजय ने अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाने के बजाय संयुक्त परिवार से निर्वासन स्वीकार कर लिया था.

धीरेधीरे नेहा की गोदभराई की तिथि नजदीक आती जा रही थी पर दोनों भाइयों के बीच की स्थिति ज्यों की त्यों थी और जब आज सुबह से ही विजय के घर में लाउडस्पीकर पर ढोलक की थापों की आवाज रहरह कर कानों में गूंजने लगी तो अजय की पत्नी आरती न चाहते हुए भी पुरानी यादों में खो सी गई.

वक्त कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है जब वह अपने पूरे वजूद के साथ सामने आता है. कल तक छोटी सी नेहा उस के आगेपीछे चाचीचाची कह कर भागती रहती थी. उस का कोई काम चाची के बिना पूरा ही नहीं होता था और आज वह एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही है तो एक बार भी उसे अपनी चाची की याद नहीं आई. शायद अब भी उस की मां ने उसे रोक लिया हो पर एक फोन तो कर ही सकती थी…ऊंह, जब उन लोगों को ही उस की याद नहीं आती तो वह क्यों परेशान हो. उस ने सिर झटक कर पुरानी यादों को दूर करना चाहा, पर वे किसी हठी बालक की तरह आसपास ही मंडराती रहीं. उस ने ध्यान हटाने के लिए खुद को व्यस्त रखना चाहा पर वे शरारती बच्चे की तरह उंगली पकड़ कर उसे फिर अतीत में खींच ले गईं.

तीनों भाइयों, विजय, अजय व कमल में कितना प्यार था. उस के ससुर रायबहादुर पत्नी के न होने की कमी महसूस करते हुए भी उन के द्वारा लगाई फुलवारी को फलताफूलता देख खुशी से भर उठते थे. उच्चपदासीन बेटे, आज्ञाकारी बहुएं व पोतेपोतियों से भरेपूरे परिवार के मुखिया अपने छोटे भाई के परिवार को भी कम मान व प्यार नहीं देते थे. जो उसी शहर में कुछ ही दूरी पर रहते थे.

हर तीजत्योहार पर दोनों परिवार जब एकसाथ मिल कर खुशियां मनाते तो घर की रौनक ही अलग होती थी. उन के खानदानी आपसी प्यार का शहर के लोग उदाहरण दिया करते थे पर न तो समय सदैव एक सा रहता है और न ही एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर होती हैं.

रायबहादुर के छोटे भाई भी उन्हीं की तरह सज्जन थे परंतु कलेक्टर पति के पद के मद में डूबी उन की पत्नी जानेअनजाने अपने बच्चों में भी अहंकार भर बैठी थीं. पिता के पद का दुरुपयोग उन्हें घर में विलासिता व कालिज में यूनियन का नेता तो बना गया पर न तो पढ़ाई में अव्वल बना सका और न ही मानवीय मूल्यों की इज्जत करने वाला संस्कारशील स्वभाव दे सका. जीवन में आगे बढ़ने के अवसर, व्यर्थ के कामों में समय गंवा कर वे खुद ही अपना रास्ता अवरुद्ध करते गए. बीता समय तो लौट कर आता नहीं, आखिर मन मार कर उन्हें साधारण नौकरियों पर ही संतोष करना पड़ा.

संतान ही मांबाप का सिर गर्व से ऊंचा कराती है. जब कलेक्टर की बीवी अपने जेठ रायबहादुर के परिवार पर निगाह डालतीं तो अपने बच्चों के साधारण भविष्य का एहसास उन्हें मन ही मन कुंठित कर देता पर उन्होंने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया था. उन जैसे लोग अपने सुख से इतना सुखी नहीं होते जितना कि दूसरे के सुख से दुखी. उन के अंदर के ईर्ष्यालु भाव से अनजान रायबहादुर की दोनों बहुएं आरती व भारती, जो देवरानीजेठानी कम, बहनें ज्यादा लगती थीं, अपनी सास की कमी चचिया सास की निकटता पा कर भूल जाती थीं. यद्यपि विवाह के कुछ वर्ष बाद ही आरती को चचिया सास का वैमनस्य से भरा व्यवहार उलझन में डालने लगा था. चाचीजी अकसर उस के कामों में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे शर्म्ंिदा करने का बहाना ढूंढ़ती रहती थीं और हर झिड़की के साथ वह यह जरूर कहती थीं, ‘अजय अपनी पसंद की लड़की ब्याह तो लाया है, देखते हैं कितना निभाती है. इतनी अच्छी लड़की बताई थी पर जरा कान नहीं दिया.’

अपनी बात न रखे जाने का मलाल वाणी से स्पष्ट झलकता था. शायद इसीलिए वह चाची की आंख में सदैव कांटा सी खटकती रही. चोट खाए अहं के कारण ही शायद चाची कभी किसी बात के लिए उस की प्रशंसा न कर सकीं. घर में शांति बनाए रखने के लिए व्यर्थ के वादविवाद में न पड़ कर, छोटीछोटी बातों को नजरअंदाज कर के वह उन के मनमुताबिक ही कर देती.

आरती जितनी झुकती गई उतना ही वे अजय व आरती के खिलाफ जहर घोलते हुए एक कूटनीति के तहत विजय व भारती के प्रति प्रेमप्रदर्शन करती गईं. दूध चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो, विष की एक बूंद ही उसे विषैला बनाने के लिए काफी होती है. शुरू में तो भारती व आरती एकदूसरे का सुखदुख बांट लेती थीं पर विजय व भारती का चाची के परिवार के प्रति बढ़ता झुकाव, साथ ही अपने सगे भाई अजय व पिता की उपेक्षा से उन के आपसी रिश्तों में दूरियां आने लगीं.

अच्छाई से अधिक बुराई अपना असर जल्दी दिखाती है. उन के इस पक्षपातपूर्ण रवैए का असर घर के निर्मल वातावरण को भी दूषित करने लगा था. आपसी प्यार का स्थान प्रतिस्पर्धा ने ले लिया. चचिया सास के प्रपंच से अनजान उन की आंखों का तारा बनी भारती को भी अब अजय व आरती की हर बात में स्वार्थ ही नजर आता. उन के भले के लिए कही गई सही बात भी गलत लगती.

कई कलाओं की जानकार आरती के पास जब जेठानी के बच्चे नेहा, नीतू व शिशिर अपने स्कूल की हस्तकला प्रतियोगिता के लिए वस्तुएं बनाना सीख रहे होते तो खुद को उपेक्षित समझ भारती इसे अपना अपमान समझती. अपने बच्चों का उन लोगों के प्रति स्नेह भी उसे आरती का षड्यंत्र ही लगता.

‘अब तो हर चीज बाजार में मिलती है, खरीद कर दे देना. समय क्यों खराब कर रहे हो तुम लोग, उठो यहां से और पढ़ने जाओ,’ कहती हुई भारती बच्चों को स्वयं कुछ करने या सीखने की प्रेरणा से विलग करती जा रही थी.

रायबहादुर घर में आए इस बदलाव को महसूस तो कर रहे थे पर कारण समझने में असमर्थ थे इसलिए केवल मूकदर्शक ही बन कर रह गए थे. इनसान बाहर के दुश्मनों से तो लड़ सकता है किंतु जब घर में ही कोई विभीषण हो तो कोई क्या करे. अपनों से धोखा खाना बेहद सरल है. कहते हैं कि औरत ही घर बनाती है और वही बिगाड़ती भी है. यदि परिवार में एक भी स्त्री गलत मंतव्य की आ जाए तो विनाश अवश्यंभावी है.

उम्र बढ़ने के साथसाथ आरती की चचिया सास के निरंकुश शासन का साम्राज्य भी बढ़ता रहा. इस बात का तकलीफदेह अनुभव तब हुआ जब चाचीजी के सौतेले भाई ने अपने बेटे के विवाह में बहन की नाराजगी के डर से अजय व रायबहादुर को विवाह का आमंत्रणपत्र ही नहीं भेजा. लोगों द्वारा उन के न आने का कारण पूछने पर उन का पैसों का अहंकार प्रचारित कर दिया गया. हालांकि चाचाजी ने इस का विरोध किया था किंतु तेजतर्रार चाची के सामने उन की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई थी.

मृतप्राय रिश्तों के ताबूत में आखिरी कील उन्होंने तब ठोंक दी जब अजय के बेटे अंशुल के जन्मदिन की पार्टी में रायबहादुर द्वारा सानुरोध सपरिवार आमंत्रित होेने के बाद भी केवल चाचाजी थोड़ी देर के लिए आ कर रस्म अदायगी कर गए. केवल लोकलाज के लिए रिश्तों को ढोते रहने का कोई अर्थ नहीं रह गया था. इसीलिए सगी भतीजी नेहा के विवाह आमंत्रण पर अजय ने साफ कह दिया कि यदि चाचाजी के परिवार को बुलाया गया तो हमारा परिवार नहीं जाएगा.

हमेशा की तरह बिना कारण पूछे विजय छूटते ही बोला, ‘अजय, तुम तो लड़ने का बहाना ढूंढ़ते रहते हो, इसीलिए सब तुम से दूर होते जा रहे हैं.’

‘अपने दूर क्यों हो रहे हैं, यह आप नहीं समझ सकते क्योंकि समझना ही नहीं चाहते. मैं न किसी से लड़ने जाता हूं और न अहंकारी हूं. हां, साफ कहने का माद्दा रखता हूं और गलत बात बरदाश्त नहीं करता. मुझे तो भाई आश्चर्य इस बात का है कि जब वे आप को गलत नहीं लगे तो मैं क्यों लग रहा हूं या तो आप को पूरी बातें पता ही नहीं हैं या मेरी इज्जत आप के लिए कोई माने नहीं रखती है. कोई हो या न हो पर पिताजी मेरे साथ हैं और यही मेरे लिए काफी है,’ अजय एक सांस में बोल गया.

‘तुम्हीं लोगों को शिकायतें रहती हैं. पिताजी तो मेरे यहां हर फंक्शन पर आते हैं और चाचाजी व अन्य सब से ठीक से बोलते भी हैं.’

‘संतान का मोह ही उन्हें खींच कर ले जाता है. संतान चाहे कितना भी दुख दे मांबाप का प्यार तो निस्वार्थ होता है. आप ने कभी उन का दर्द महसूस ही नहीं किया. रही बात चाचाजी से पिताजी के बोलने की, तो हम लोग उस स्तर तक असभ्य नहीं हो सकते कि कोई बात करे तो जवाब न दें या अपने घर फंक्शन पर बुला कर खाने तक के लिए न पूछें. क्या आप के लिए चाचाजी, सगे भाई व पिता की खुशी से भी ज्यादा बढ़ कर हैं?’

‘जो भी हो…पर अजय…अब केवल तुम्हारे लिए मैं चाचाजी के पूरे परिवार को तो नहीं छोड़ सकता. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाऊंगा ही,’ विजय जैसे कुछ सुननेसमझने को तैयार ही न था.

‘तो ठीक है, हमें ही छोड़ दीजिए,’ भारी मन से कह अजय सब के बीच से उठ कर चला गया था. पर इस एक पल में अंदर कितना कुछ टूट गया, कौन जान सका. एक क्षण को विजय अपने ही शब्दों की चुभन से आहत हो उठा था. किंतु बंदूक से निकली गोली और मुंह से निकली बोली तो वापस नहीं हो सकती.

उस दिन का व्याप्त सन्नाटा आज तक नहीं टूट पाया था. तभी महरी की आवाज से आरती की तंद्रा भंग हो गई.

‘‘बीबीजी, आप नहीं जाएंगी नेहा बिटिया की गोदभराई पर?’’ आंखों में कुटिल भाव लिए पल्लू से हाथ पोंछती महरी ने पूछा था.

‘‘तुम्हें इस से क्या मतलब है…जाओ, अपना काम करो,’’ उस की चुगलखोरी की आदत से अच्छी तरह परिचित आरती ने उसे झिड़क दिया. वह मुंह बनाती हुई चली गई. आरती ने जा कर दरवाजा बंद कर लिया. मन की थकान से तन भी क्लांत हो उठा था. वह कुरसी पर अधलेटी सी आंखें बंद कर बैठ गई.

घर में फैले तनाव को भांप कर दोनों बच्चे अंशुल व आकांक्षा स्कूल से आ कर चुपचाप खाना खा कर अपने कमरे में पढ़ने का उपक्रम कर रहे थे. अजय के आने में देर थी. विजय का बेटा शिशिर जब बुलाने आया तो पिताजी न चाहते हुए भी उस के साथ नेहा की गोदभराई में चले गए थे. घर के एकांत में लाउडस्पीकर पर गानों की आवाज से ज्यादा पुरानी यादों की गूंज थीं.

आपसी रिश्तों में ख्ंिचाव व नया मकान बन जाने पर अजय अपने परिवार व पिता के साथ पुश्तैनी मकान, जिस में विजय का परिवार भी रहता था, छोड़ कर पास ही बने अपने नए बंगले में शिफ्ट हो गया था. दिलों में एकदूसरे के प्रति प्यार होते हुए भी न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति उन के संबंधों को पुन: मधुर बनने से रोकती रही. स्थान की दूरी तो इनसान तय कर सकता है पर दिलों के फासले दूर करना इतना आसान नहीं है.

तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. अन्यमनस्क सी आरती ने उठ कर द्वार खोला तो सगे देवर कमल व उस की पत्नी पूजा को आया देख सुखद आश्चर्य से भर उठीं.

‘‘आइए, अंदर आइए, कमल भैया. पूजा…कब आए लंदन से?’’ अपनों से मिलने की प्रसन्नता आंखें नम कर गई.

‘‘भाभी, बस, अभी 2 घंटे पहले ही पहुंचे हैं. पर यह सब हम क्या सुन रहे हैं. आप लोग सगाई में शरीक नहीं होंगे?’’

अंदर आ कर कमल और पूजा ने आरती को पेर छूते हुए पूछा तो अनायास ही उस की आंखें भर आईं. पूजा को उठा कर गले से लगाती हुई बोली, ‘‘लोग तो अपने देश में रह कर भी आपसी सभ्यता व संस्कार याद नहीं रखते. तुम लोग विदेश जा कर भी भूले नहीं हो.’’

‘‘हां, भाभी, विदेश में सबकुछ मिलता है. हर चीज पैसों से खरीदी जा सकती है पर बड़ों का आशीर्वाद और प्यार बाजार में नहीं बिकता. सच, आप सब की वहां बहुत याद आती है. चलिए, तैयार हो जाइए. ऐसा भी कहीं हो सकता है, घर में शादी है और आप लोग यहां अकेले बैठे हैं,’’ पूजा मनुहार करती सी बोली.

आरती के चेहरे पर कई रंग आ कर चले गए. तभी अजय भी आ गए. बरसों बाद मिले सब एकदूसरे का सुखदुख बांटते रहे. आखिर, कमल के बहुत पूछने पर अजय ने उन को अपने न जाने की वजह बता दी.

‘‘यहां इतना कुछ हो गया और आप लोगों ने हमें कुछ बताया ही नहीं. उन सब की ज्यादतियों का हिसाब तो हम लोग ले ही लेंगे पर अभी तो आप लोग चलिए वरना हम भी नहीं जाएंगे और आप खुद को अकेला न समझें भैया. मैं हूं न आप के साथ,’’ कमल उत्तेजित हो कर बोला.

‘‘जहां इज्जत न हो वहां न जाना ही बेहतर है. यह हमारा अहंकार या जिद नहीं स्वाभिमान है. हद तो यह है कि चाचीजी के भाई सौतेले हो कर भी उन की गलत बात मान लेते हैं और हम अपने सगे भाइयों से सही बात मानने की आशा न रखें. वे मुझे ही गलत समझते हैं. और तो और पिताजी की इच्छा का भी उन के लिए कोई महत्त्व नहीं है,’’ उदासी अजय की आवाज से साफ झलक उठी थी. एक नजर सब पर डाल वह फिर कहने लगे, ‘‘इस निर्णय तक मुझे पहुंचने में तकलीफ तो बहुत हुई पर अब कोई दुख नहीं है. इसी बहाने मुझे अपने और बेगानों की पहचान तो हो गई.’’

‘‘हम लोगों के जाने न जाने से वहां किसी को क्या फर्क पड़ रहा है? एक बार भी किसी को इस परिवार की याद आई?’’ आरती कह ही रही थी कि…उस के कानों में नेहा के ये शब्द पड़े, ‘‘चाचीजी मुझे तो आप की बहुत याद आ रही थी…आना तो मैं बहुत पहले ही चाहती थी पर…बस…सोचती ही रह गई…अब तो जल्द ही मैं यह घर छोड़ कर चली जाऊंगी. मुझ से कैसी शिकायत?’’ नेहा की आवाज सुन कर सब चौंक कर दरवाजे की तरफदेखने लगे.

सितारों जड़ी गुलाबी साड़ी में सजी नेहा बेहद सुंदर लग रही थी. अचानक उसे यों अपनी छोटी बहन के साथ आया देख सब हतप्रभ रह गए थे.

‘‘पगली…तुझ से कैसी शिकायत. तुम तो हमारी बच्ची ही हो. पर तुम इस समय यहां…घर में तुम्हारी ससुराल वाले आते ही होंगे,’’ आरती ने प्यार से नेहा को अंदर ला कर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘नहीं, चाचीजी, उन को बता कर आई हूं, सब आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं. पापा अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकते तो मैं भी अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकती. जब तक आप लोग नहीं आएंगे, मैं भी गोदभराई पर नहीं बैठूंगी,’’ नेहा ने अपना निर्णय सुनाते हुए पास ही खड़े छोटे चचेरे भाईबहन को गले से लगा लिया, ‘‘और तुम भी तैयार हो जाओ. फेरों पर जीजाजी के जूते नहीं चुराओगी?’’

आकांक्षा व अंशुल आशा भरी नजरों से अजय व आरती को देखने लगे जो असमंजस में थे. तभी कमल उत्साहित हो कर बोल उठा, ‘‘ये हुई न बात. अब तो भैया आप को चलना ही होगा.’’

नेहा के प्यार व अपनत्व ने सब के दिलों को झकझोर दिया था. एकाएक नेहा कितनी समझदार व बड़ी लगने लगी थी. उस के आत्मविश्वास व प्यार भरे अधिकार ने एकबारगी सब को अभिभूत कर दिया था, कोई भी नफरत की दीवार अपनों के रिश्तों के प्यार से ज्यादा मजबूत नहीं होती, ढह ही जाती है. जरूरत केवल समय पर एक ईमानदार प्रयास करने की होती है. वर्षों तक हिमाच्छादित हिमखंड के अंदर बहते निर्मल जल के सोते जैसे अचानक राह मिलते ही बह निकलते हैं, यत्नपूर्वक अब तक रोके गए बहते आंसू ही उन के प्यार की अभिव्यक्ति बन गए थे.

‘‘हां, तुम लोगों को आना ही

होगा,’’ तभी दरवाजे से अंदर आते चाचाजी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘जाने- अनजाने तुम लोगों के साथ बहुत अन्याय हुआ है. मुझे इस का दुख है. खैर, अब दिल में कुछ न रखो. यह सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है. याद रखो. बंद मुट्ठी ही सवा लाख की होती है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, बहू,’’ चचिया सास पश्चात्ताप भरे स्वर में कह रही थीं, ‘‘नेहा ने मेरी आंखें खोल दी हैं. ईर्ष्या ने मुझे विवेकहीन बना दिया था…कहो तो मैं तुम दोनों के पैर भी…’’

सकपका कर आरती पीछे हट गई, ‘‘अरे, अरे, आप यह क्या कर रही हैं. आप तो हमारी बड़ी हैं.’’

‘‘हां, बड़ी तो हैं पर इन्हें बड़ों के फर्ज नहीं केवल अधिकार ही याद रहे,’’ पहली बार सब ने चाचाजी को गरजते सुना, ‘‘बड़प्पन बनाए रखने के लिए आचरण भी तो मर्यादित होना चाहिए.’’

चाचाजी के और अधिक उग्र क्रोध का लक्ष्य बनने से चाचीजी को बचाते हुए अजय बोला, ‘‘अब छोडि़ए भी, चाचाजी. पश्चात्ताप का एक आंसू ही सारे गिलेशिकवे दूर कर देता है. अपनी गलती का एहसास कर के क्षमाप्रार्थी होना ही सब से बड़ा बड़प्पन है. आप लोगों ने मेरे लिए इतना सोच लिया यही पर्याप्त है.’’

शाम का अंधेरा घिर आया था. कुरसी से जल्दी उठ कर उस ने स्विच आन किया तो कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा. रात्रि के 9 बज रहे थे. बाहर शाम से चीख रहे लाउडस्पीकर शांत हो चुके थे. सपनों की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर आने में उसे कुछ ही पल लगे थे. तब तक टेलीविजन देख रहे बच्चों ने दरवाजा खोल दिया था. अजय अंदर आते हुए उसे उनींदा सा देख पूछ रहे थे, ‘‘क्या हुआ…सो रही थीं?’’

‘‘हां…शायद झपकी सी आ गई थी…पर अब जाग गई हूं. आइए, खाना लगाती हूं.’’

रसोई की तरफ बढ़ती आरती सोच रही थी कि अवचेतन ने स्वप्न में उन की आशाओं को मूर्तरूप तो दे दिया था पर यथार्थ कितने कठोर होते हैं…बिलकुल हिमशैल की तरह जिस का केवल एकचौथाई भाग ही नजर आता है, शेष जलमग्न रहता है. जिंदगी स्लेट पर लिखी इबारत तो नहीं जिसे पसंद न आने पर मिटा कर पुन: लिख दें. यह तो अमिट शिलालेख है, जिसे चाहते न चाहते हुए भी हमें पढ़ना ही है.

Hindi Fiction Stories : भोर – राजवी को कैसे हुआ अपनी गलती का एहसास

Hindi Fiction Stories : उस दिन सवेरे ही राजवी की मम्मी की किट्टी फ्रैंड नीतू उन के घर आईं. उन की कालोनी में उन की छवि मैरिज ब्यूरो की मालकिन की थी. किसी की बेटी तो किसी के बेटे की शादी करवाना उन का मनपसंद टाइमपास था. वे कुछ फोटोग्राफ्स दिखाने के बाद एक तसवीर पर उंगली रख कर बोलीं, ‘‘देखो मीरा बहन, इस एनआरआई लड़के को सुंदर लड़की की तलाश है. इस की अमेरिका की सिटिजनशिप है और यह अकेला है, इसलिए इस पर किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं है. इस की सैलरी भी अच्छी है. खुद का घर है, इसलिए दूसरी चिंता भी नहीं है. बस गोरी और सुंदर लड़की की तलाश है इसे.’’

फिर तिरछी नजरों से राजवी की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘उस की इच्छा तो यहां हमारी राजवी को देख कर ही पूरी हो जाएगी. हमारी राजवी जैसी सुंदर लड़की तो उसे कहीं भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी.’’ यह सब सुन रही राजवी का चेहरा अभिमान से चमक उठा. उसे अपने सौंदर्य का एहसास और गुमान तो शुरू से ही था. वह जानती थी कि वह दूसरी लड़कियों से कुछ हट कर है.

चमकीले साफ चेहरे पर हिरनी जैसी आंखें और गुलाबी होंठ उस के चेहरे का खास आकर्षण थे. और जब वह हंसती थी तब उस के गालों में डिंपल्स पड़ जाते थे. और उस की फिगर व उस की आकर्षक देहरचना तो किसी भी हीरोइन को चैलेंज कर सकती थी. इस से अपने सौंदर्य को ले कर उस के मन में खुशी तो थी ही, साथ में जानेअनजाने में एक गुमान भी था. मीरा ने जब उस एनआरआई लड़के की तसवीर हाथ में ली तो उसे देखते ही उन की भौंहें तन गईं. तभी नीतू बोल पड़ीं, ‘‘बस यह लड़का यानी अक्षय थोड़ा सांवला है और चश्मा लगाता है.’’

‘लग गई न सोने की थाली में लोहे की कील,’ मीरा मन में ही भुनभुनाईं. उन्हें लगा कि मेरी राजवी शायद इसे पसंद नहीं करेगी. पर प्लस पौइंट इस लड़के में यह था कि यह नीतू के दूर के किसी रिश्तेदार का लड़का था, इसलिए एनआरआई लड़के के साथ जुड़ी हुई मुसीबतें व जोखिम इस केस में नहीं था. जानापहचाना लड़का था और नीतू एक जिम्मेदार के तौर पर बीच में थीं ही.

फिर कुछ सोच कर मीरा बोलीं, ‘‘ओह, बस इतनी सी बात है. आजकल ये सब देखता कौन है और चश्मा तो किसी को भी लग सकता है. और इंडियन है तो रंग तो सांवला होगा ही. बाकी जैसा तुम कहती हो लड़का स्मार्ट भी है, समझदार भी. फिर क्या चाहिए हमें… क्यों राजवी?’’

अपने ही खयालों में खोई, नेल पेंट कर रही राजवी ने कहा, ‘‘हूं… यह बात तो सही है.’’

तब नीतू ने कहा, ‘‘तुम भी एक बार फोटो देख लो तो कुछ बात बने.’’

‘‘बाद में देख लूंगी आंटी. अभी तो मुझे देर हो रही है,’’ पर तसवीर देखने की चाहत तो उसे भी हो गई थी.

मीरा ने नीतू को इशारे में ही समझा दिया कि आप बात आगे बढ़ाओ, बाकी बात मैं संभाल लूंगी. मीरा और राजवी के पापा दोनों की इच्छा यह थी कि राजवी जैसी आजाद खयाल और बिंदास लड़की को ऐसा पति मिले, जो उसे संभाल सके और समझ सके. साथ में उसे अपनी मनपसंद लाइफ भी जीने को मिले. उस की ये सभी इच्छाएं अक्षय के साथ पूरी हो सकती थीं.

नीतू ने जातेजाते कहा, ‘‘राजवी, तुम जल्दी बताना, क्योंकि मेरे पास ऐसी बहुत सी लड़कियों की लिस्ट है, जो परदेशी दूल्हे को झपट लेने की ख्वाहिश रखती हैं.’’

नीतू के जाने के बाद मीरा ने राजवी के हाथ में तसवीर थमा दी, ‘‘देख ले बेटा, लड़का ऐसा है कि तेरी तो जिंदगी ही बदल जाएगी. हमारी तो हां ही समझ ले, तू भी जरा अच्छे से सोच लेना.’’

पर राजवी तसवीर देखते ही सोच में डूब गई. तभी उस की सहेली कविता का फोन आया. राजवी ने अपने मन की उलझन उस से शेयर की, तो पूरे उत्साह से कविता कहने लगी, ‘‘अरे, इस में क्या है. शादी के बाद भी तो तू अपना एक ग्रुप बना सकती है और सब के साथ अपने पति को भी शामिल कर के तू और भी मजे से लाइफ ऐंजौय कर सकती है. फिर वह तो फौरेन कल्चर में पलाबढ़ा लड़का है. उस की थिंकिंग तो मौडर्न होगी ही. अब तू दूसरा कुछ सोचने के बजाय उस से शादी कर लेने के बारे में ही सोचना शुरू कर दे…’’

कविता की बात राजवी समझ गई तो उस ने हां कह दिया. इस के बाद सब कुछ जल्दीजल्दी होता गया. 2 महीने बाद नीतू का दूर का वह भतीजा लड़कियों की एक लिस्ट ले कर इंडिया पहुंच गया. उसे सुंदर लड़की तो चाहिए ही थी, पर साथ में वह भारतीय संस्कारों से रंगी भी होनी चाहिए थी. ऐसी जो उसे भारतीय भोजन बना कर प्यार से खिलाए. साथ ही वह मौडर्न सोच और लाइफस्टाइल वाली हो ताकि उस के साथ ऐडजस्ट हो सके. पर उस की लिस्ट की सभी मुलाकात के बाद एकएक कर के रिजैक्ट होती गईं. तब एक दिन सुबह राजवी के पास नीतू का फोन आया, ‘‘शाम को 7 बजे तक रेडी हो जाना. अक्षय के साथ मुलाकात करनी है. और हां, मीरा से कहना कि वे तुझे अच्छी सी साड़ी पहनाएं.’’

‘‘साड़ी, पर क्यों? मुझ पर जींस ज्यादा सूट करती है,’’ कहते हुए राजवी बेचैन हो गई.

‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. तुम साड़ी यही समझ कर पहनना कि उसी में तुम ज्यादा सुंदर और अटै्रक्टिव लगती हो.’’

नीतू आंटी की बात पर गर्व से हंस पड़ी राजवी, ‘‘हां, वह तो है.’’

और उस दिन शाम को वह जब आकर्षक लाल रंग की डिजाइनर साड़ी पहन कर होटल शालिग्राम की सीढि़यां चढ़ रही थी, उस की अदा देखने लायक थी. होटल के मीटिंग हौल में राजवी को दाखिल होता देख सोफे पर बैठा अक्षय उसे देखता ही रह गया. नीतू ने जानबूझ कर उसे राजवी का फोटो नहीं भेजा था, ताकि मिलने के बाद ही अक्षय उसे ठीक से जान ले, परख ले. नीतू को वहीं छोड़ कर दोनों होटल के कौफी शौप में चले गए.

‘‘प्लीज…’’ कह कर अक्षय ने उसे चेयर दी. राजवी उस की सोच से भी अधिक सुंदर थी. हलके से मेकअप में भी उस के चेहरे में गजब का निखार था. जैसा नाम वैसा ही रूप सोचता हुआ अक्षय मन ही मन में खुश था. फिर भी थोड़ी झिझक थी उस के मन में कि क्या उसे वह पसंद करेगी?

ऐसा भी न था कि अक्षय में कोई दमखम न था और अब तो कंपनी उसे प्रमोशन दे कर उस की आमदनी भी दोगुनी करने वाली थी. फिर भी वह सोच रहा था कि अगर राजवी उसे पसंद कर लेती है तो वह उस के साथ मैच होने के लिए अपना मेकओवर भी करवा लेगा. मन ही मन यह सब सोचते हुए अक्षय ने राजवी के सामने वाली चेयर ली. अक्षय के बोलने का स्मार्ट तरीका, उस के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक और उस का धीरगंभीर स्वभाव राजवी को प्रभावित कर गया. उस की बातों में आत्मविश्वास भी झलकता था. कुल मिला कर राजवी को अक्षय का ऐटिट्यूड अपील कर गया.

Interesting Hindi Stories : चाय – गायत्री की क्या इच्छा थी?

Interesting Hindi Stories :  गायत्री को अभी तक होश नहीं आया था. वैसे रविकांत गायत्री के लिए कभी परेशान ही नहीं हुए थे. उस की ओर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. बस, घर सुचारु रूप से चलता आ रहा था. घर से भी ज्यादा उन के अपने कार्यक्रम तयशुदा समय से होते आ रहे थे. सुबह वे सैर को निकल जाते थे, शाम को टैनिस जरूर खेलते, रात को टीवी देखते हुए डिनर लेते और फिर कोई पत्रिका पढ़तेपढ़ते सो जाते. उन की अपनी दुनिया थी, जिसे उन्होंने अपने इर्दगिर्द बुन कर अपनेआप को एक कठघरे में कैद कर लिया था. उन का शरीर कसा हुआ और स्वस्थ था.

रविकांत ने कभी सोचने की कोशिश ही नहीं की कि गायत्री की दिनचर्चा क्या है.? दिनचर्या तो बहुत दूर की बात, उन्हें तो उस का पुराना चेहरा ही याद था, जो उन्होंने विवाह के समय और उस के बाद के कुछ अरसे तक देखा था. सामने अस्पताल के पलंग पर बेहोश पड़ी गायत्री उन्हें एक अनजान औरत लग रही थी.

रविकांत को लगा कि अगर वे कहीं बाहर मिलते तो शायद गायत्री को पहचान ही न पाते. क्या गायत्री भी उन्हें पहचान नहीं पाती? अधिक सोचना नहीं पड़ा. गायत्री तो उन के पद्चाप, कहीं से आने पर उन के तन की महक और आवाज आदि से ही उन्हें पहचान लेती थी. कितनी ही बार उन्हें अपनी ही रखी हुई चीज न मिलती और वे झल्लाते रहते. पर गायत्री चुटकी बजाते ही उस चीज को उन के सामने पेश कर देती.

पिछले कई दिनों से रविकांत, बस, सोचविचार में ही डूबे हुए थे. बेटे ने उन से कहा था, ‘‘पिताजी, आप घर जा कर आराम कीजिए, मां जब भी होश में आएंगी, आप को फोन कर दूंगा.’’

बहू ने भी बहुतेरा कहा, पर वे माने नहीं. रविकांत का चिंतित, थकाहारा और निराश चेहरा शायद पहले किसी ने भी नहीं देखा था. हमेशा उन में गर्व और आत्मविश्वास भरा रहता. यह भाव उन की बातों में भी झलकता था. वे अपने दोस्तों की हंसी उड़ाते थे कि बीवी के गुलाम हैं. पत्नी की मदद करने को वे चापलूसी समझते.

रविकांत सोच रहे थे कि गायत्री से हंस कर बातचीत किए कितना समय बीत चुका है. बेचारी मशीन की तरह काम करती रहती थी. उन्हें कभी ऐसा क्यों नहीं महसूस हुआ कि उसे भी बदलाव चाहिए?

एक शाम जब वे क्लब से खेल कर लौटे, तो देखा कि घर के बाहर एंबुलैंस खड़ी है और स्ट्रैचर पर लेटी हुई गायत्री को उस में चढ़ाया जा रहा है. उस समय भी तो अपने खास गर्वीले अंदाज में ही उन्होंने पूछा था, ‘एंबुलैंस आने लायक क्या हो गया?’

फिर बेटेबहू का उतरा चेहरा और पोते की छलछलाती आंखों ने उन्हें एहसास दिलाया कि बात गंभीर है. बहू ने हौले से बताया, ‘मांजी बैठेबैठे अचानक बेहोश हो गईं. डाक्टर ने नर्सिंगहोम में भरती कराने को कहा है.’

तब भी उन्हें चिंता के बजाय गुस्सा ही आया, ‘जरूर व्रतउपवास से ऐसा हुआ होगा या बाहर से समोसे वगैरह खाए होंगे.’

यह सुन कर बेटा पहली बार उन से नाराज हुआ, ‘पिताजी, कुछ तो खयाल कीजिए, मां की हालत चिंताजनक है, अगर उन्हें कुछ हो गया तो…?’

13 वर्षीय पोता मनु अपने पिता को सांत्वना देते हुए बोल रहा था, ‘नहीं पिताजी, दादी को कुछ नहीं होगा,’ फिर वह अपने दादा की ओर मुड़ कर बोला, ‘आप को यह भी नहीं पता कि दादी बाजार का कुछ खाती नहीं.’

उस समय उन्होंने पोते के चेहरे पर खुद के लिए अवज्ञा व अनादर की झलक सी देखी. उस के बाद कुछ भी बोलने का रविकांत का साहस न हुआ. उन का भय बढ़ता जा रहा था. डाक्टर जांच कर रहे थे. एकदम ठीकठीक कुछ भी कहने की स्थिति में वे भी नहीं थे कि गायत्री की बेहोशी कब टूटेगी. इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं था.

कुछ बरस पहले गायत्री के घुटनों में सूजन आने लगी थी. वह गठिया रोग से परेशान रहने लगी थी. दोपहर 3 बजे उसे चाय की तलब होती. वह सोचती कि कोई चाय पिला दे तो फिर उठ कर कुछ और काम कर ले. बहू दफ्तर से शाम तक ही आती. एक दिन असहनीय दर्द में गायत्री ने रविकांत से कहा, ‘मुझे अच्छी सी चाय बना कर पिलाइए न, अपने ही हाथ की पीपी कर थक गई हूं.’

रविकांत झल्लाते हुए बोले, ‘और भेजो बहू को दफ्तर. वह अगर घर संभालती तो तुम्हें भी आराम होता.’

हालांकि रविकांत अच्छी तरह जानते थे कि अब महिलाओं को केवल घर से बांध कर रखने का जमाना नहीं रहा, पर अपनी गलत बात को भी सही साबित करने से ही तो उन के अहं की पुष्टि होती थी.

कुछ माह पूर्व रात को सब साथ बैठ कर खाना खा रहे थे. रविकांत हमेशा की तरह अपना खाना जल्दीजल्दी खत्म कर हाथ धो कर वहीं दूसरी कुरसी पर बैठ गए और टीवी देखने लगे. अचानक मनु ने पूछा, ‘दादाजी, क्या आप दादीजी में कुछ फर्क देख रहे हैं?’

रविकांत ने टीवी पर से आंखें हटाए बिना पूछा, ‘कैसा फर्क?’

‘पहले दादीजी को देखिए न, तब तो पता चलेगा.’

बेचारी गायत्री अपने में ही सिमटी जा रही थी. रविकांत ने एक उड़ती नजर उस पर डाली और बोले, ‘नहीं, मुझे तो कोई फर्क नहीं लग रहा है.’

‘आप ठीक से देख ही कहां रहे हैं, फर्क कैसे महसूस होगा?’ मनु निराशा से बोला. इस बीच बहूबेटा मुसकराते रहे.

‘पिताजी, बोलिए न, दादाजी को बता दूं?’ मनु ने लाड़ से पूछा.

फिर वह गंभीर स्वर में बोला, ‘दादाजी, दादी को दोपहर की चाय कौन बना कर पिलाता है, बता सकते हैं?’

दादाजी कुछ बोलें, उस से पहले ही छाती तानते हुए वह बोला, ‘और कौन, सिवा मास्टर मनु के…’

‘तू चाय बना कर पिलाता है?’ रविकांत अविश्वास से हंसते हुए बोले.

‘क्यों, मैं क्या अब छोटा बच्चा हूं? दादीजी से पूछिए, उन की पसंद की कितनी बढि़या चाय बनाता हूं.’

उस समय रविकांत को लगा था कि पोते ने उन्हें मात दे दी. उन के बेटे ने उन से कभी खुल कर बात नहीं की थी. उन का स्वाभिमान, भले ही वह झूठा हो, उन्हें बाध्य कर रहा था कि मनु के बारे में वही खयाल बनाएं जो अन्य पुरुषों के बारे में थे. उन्हें लगा, मनु भी बस अपनी बीवी की मदद करते हुए ही जिंदगी बिता देगा. ऐसे लोगों के प्रति उन की राय कभी भी अच्छी नहीं रही.

अस्पताल में बैठेबैठे न जाने क्यों उन्हें ऐसा लग रहा था कि अब चाय बनाना सीख ही लें. गायत्री को होश आते ही अपने हाथ की बनी चाय पिलाएं तो उसे कितना अच्छा लगेगा. अपनी सोच में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन से वे खुद भी आश्चर्य से भर गए.

एक दिन रविकांत मनु से बोले, ‘‘आज जब भी तू चाय बनाए तो मुझे बताना कि कितना पानी, कितनी चीनी और दूध वगैरह कब डालना है. सब बताएगा न?’’

‘‘ठीक है, जब बनाऊंगा, आप खुद ही देख लीजिएगा. आजकल तो केवल आप के लिए बनती है. वैसे दादी की और मेरी चाय में दूध और चीनी कुछ ज्यादा होती है.’’

‘‘तुम नहीं पियोगे?’’

‘‘जब से दादी अस्पताल गई हैं, मैं ने चाय पीनी छोड़ दी है,’’ कहतेकहते मनु की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘आज से हम दोनों साथसाथ चाय पिएंगे. आज मैं बनाना सीख लूंगा तो कल से खुद बनाऊंगा.’’

मनु सुबकसुबक कर रोने लगा, ‘‘नहीं दादाजी, जब तक दादीजी ठीक नहीं हो जाएंगी, मैं चाय नहीं पिऊंगा.’’

रविकांत को पहली बार लगा कि गायत्री की घर में कोई हैसियत है, बल्कि हलकी सी ईर्ष्या भी हुई कि उस ने बहू व पोते पर जादू सा कर दिया है. मनु को गले लगाते हुए वे बोले, ‘‘तुम अपनी दादी को बहुत चाहते हो न?’’

‘‘क्यों नहीं चाहूंगा, मेरे कितने दोस्तों की दादियां दिनभर ‘चिड़चिड़’ करती रहती हैं. घर में सब को डांटती रहती हैं, पर मेरी दादी तो सभी को केवल प्यार करती हैं और मुझे अच्छीअच्छी कहानियां सुनाती हैं. मालूम है, मुझे उन्होंने ही कैरम व शतरंज खेलना सिखाया. मां भी हमेशा दादी की तारीफ करती हैं. बिना दादीजी के तो हम लोग उन के प्यार को तरस जाएंगे.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा मत बोल. तेरी दादी को जल्दी ही होश आ जाएगा. फिर हम तीनों साथसाथ चाय पिएंगे,’’ पहली बार रविकांत को अपनी आवाज में कंपन महसूस हुआ.

उस दिन उन्होंने चाय बनानी सीख ही ली. मनु को खुश करने को उन्हें अचानक एक तरकीब सूझी, ‘‘क्यों न ऐसा करें, हम रोज दोपहर की चाय बना कर अस्पताल ले जाएं, किसी दिन तो तुम्हारी दादी होश में आएंगी, फिर तीनों साथसाथ चाय पिएंगे.’’

मनु उन की बात से बहुत उत्साहित तो नहीं हुआ, पर न जाने क्यों दिल उन की बात मानने को तैयार हो रहा था.

अगले दिन दोपहर को अस्पताल से फोन आया, बहू बोल रही थी, ‘‘पिताजी, मांजी होश में आ गई हैं, आप मनु को ले कर तुरंत आ जाइए.’’

रविकांत बच्चों की तरह उत्साह से भर उठे. जल्दीजल्दी चाय बना कर थर्मस में भर कर साथ ले गए. वहां गायत्री पलंग पर लेटी जरूर थी, पर डाक्टरों, नर्सों और दूसरे कर्मचारियों के खड़े रहने से दिख नहीं पा रही थी. मनु किसी तरह पलंग के पास पहुंच कर दादी की नजर पड़ने का इंतजार करने लगा.

रविकांत के मन में बस एक ही बात थी कि थर्मस में से अपने हाथ की बनी चाय पिला कर गायत्री को चकित कर दें, उन्होंने यह भी नहीं देखा कि वह वास्तव में होश में आ गई है या नहीं और डाक्टर क्या कह रहे हैं? बस, कप में चाय भर कर गायत्री के पास खड़े हो गए. गायत्री मनु को देख रही थी और मनु उस के हाथ को सहला रहा था.

डाक्टर ने रविकांत को देखा, ‘‘यह आप कप में क्या लाए हैं?’’

‘‘जी, इन्हें पिलाने के लिए चाय लाया हूं,’’ रविकांत की इच्छा हो रही थी कि कहें, ‘अपने हाथ की बनी,’ पर संकोच आड़े आ रहा था.

‘‘नहीं, अब आप को इन का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. मैं पूरा डाइट चार्ट बना कर देता हूं. उसी हिसाब और समय से इन्हें वही चीजें दें, जो मैं लिख कर दूं. चीनी, चावल, आलू, घी, वसा सब एकदम बंद. शक्कर वाली चाय तो इन के पास भी मत लाइए.’’

रविकांत चाय का प्याला हाथ में लिए बुत की तरह खड़े रहे. मनु नर्स द्वारा लाया गया सूप छोटे से चम्मच से बड़े जतन से दादी के मुंह में डाल रहा था.

Latest Hindi Stories : वजूद – क्या छिपा रही थी शहला

Latest Hindi Stories : ‘‘शहला… अरी ओ शहला… सुन रही है न तू? जा, जल्दी से तैयार हो कर अपने कालेज जा,’’ आंगन में पोंछा लगाती अम्मी ने कहा, तो रसोईघर में चाय बनाती शहला को एकबारगी अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

हैरान सी शहला ने नजर उठा कर इधरउधर देखा. अम्मी उस से ही यह सब कह रही थीं.

शहला इतना ही कह पाई, ‘‘अम्मी, वह चाय…’’

‘‘मैं देख लूंगी. तू कालेज जा.’’

फिर क्या था, शहला को मानो पर लग गए थे. अगले 10 मिनट में वह तैयार हो कर किताबें संभाल अपनी साइकिल साफ कर के चलने को हुई, तो अम्मी ने आवाज लगाई, ‘‘रोटी सेंक दी है तेरे लिए. झटपट चाय के साथ खा ले, नहीं तो भूखी रहेगी दिनभर.’’

अम्मी में आए इस अचानक बदलाव से हैरान शहला बोल उठी, ‘‘अरे अम्मी, रहने दो न. मैं आ कर खा लूंगी. कालेज को देर हो जाएगी.’’

हालांकि शहला का पेट अम्मी द्वारा दी गई खुशी से लबालब था, फिर भी ‘अच्छाअच्छा, खा लेती हूं’ कह कर उस ने बात को खत्म किया.

शहला अम्मी को जरा सा भी नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए जल्दी से नाश्ता किया, बीचबीच में वह चोर निगाहों से अम्मी के चेहरे की तरफ देखती रही, फिर उस ने नजरें इधरउधर घुमा कर अपनी खुशी बांटने के लिए अब्बू को तलाशा. इस उम्मीद में कि शायद वे खेत से लौट आए हों, पर भीतर से वह जानती थी कि उन के लौटने में अभी देरी है.

सो, नफीसा के सिर पर हाथ फेर कर जावेद को स्कूल के लिए तैयार होने की कह कर मन ही मन अब्बू को सलाम कर के शहला ने अपनी साइकिल आंगन से बाहर निकाल ली. बैग कैरियर में लगाने के बाद वह ज्यों ही साइकिल पर सवार हुई, तो लगा मानो आज उस की साइकिल को पर लग गए हों.

चाय की इक्कादुक्का दुकानों को छोड़ कर शहर के बाजार अभी बंद ही थे. तेजी से रास्ता पार कर शहला अपने कालेज जा पहुंची.

चौकीदार राजबीर काका के बच्चे स्कूल जाने को तैयार खड़े थे. उन्होंने उसे नमस्ते किया और उस ने राजबीर काका को. स्टैंड पर साइकिल खड़ी कर के वह तकरीबन दौड़ती हुई पीछे मैदान में उस के पास जा पहुंची.

एक पल ठिठक कर उसे देखा और लिपट गई उस से. अब तक ओस की ठिठुरन से सिकुडा सा खड़ा वह अचानक उस की देह की छुअन, लिपटी बांहों की गरमी पा कर खुशी में झरने लगा था और उस को सिर से पैर तक भर दिया नारंगी डंडी वाले दूधिया फूलों से.

शहला कहने लगी, ‘‘बस बाबा, बस, अब बंद करो ये शबनम भीगे फूलों को बरसाना और जल्दी से मेरी बात सुनो,’’ वह उतावली हो रही थी.

शहला के गांव का स्कूल 12वीं जमात तक ही था. उस की जिगरी सहेलियों विद्या और मीनाक्षी को उन की जिद पर उन के मातापिता शहर के कालेज में भेजने को राजी हो गए, लेकिन शहला के लाख कहने पर भी उसे आगे पढ़ने की इजाजत नहीं मिली.

इस बात से शहला बहुत दुखी थी. उस की अम्मी की जिद के आगे किसी की न चली और उसे अपनी पक्की सहेलियों से बिछुड़ जाना पड़ा. यहां कुछ लड़कियों से उस की दोस्ती हो गई थी, पर विद्या और मीनाक्षी से जो दिल का रिश्ता था, वह किसी से न बन पाया, इसलिए वह खाली समय में अपने दिल की बात कहनेबांटने के लिए कालेज के बड़े से बगीचे के इस हरसिंगार के पेड़ के पास चली आती.

यह हरसिंगार भी तो रोज फूल बरसा कर उस का स्वागत करता, सब्र के साथ उस की बात सुनता, उसे मुसकराने की प्रेरणा दे कर उस को हौसला देता.

पर आज की बात ही कुछ और है, इसलिए शहला हरसिंगार के तने से पीठ टिका कर बैठी और कहने लगी, ‘‘आज अम्मी ने मुझे खुद कालेज आने के लिए कहा. उन्होंने मन लगा कर पढ़ने को कहा. अव्वल रहने को कहा और आगे ऊंची पढ़ाई करने को भी कहा.

‘‘मालूम है, उन अम्मी ने, उन्होंने… हरसिंगार तू जानता है न मेरी पुराने खयालात वाली अम्मी को. इसी तंगखयाली के मारे उन्होंने मुझे 12वीं के आगे पढ़ाने से मना कर दिया था. उन पर तो बस मेरे निकाह का भूत सवार था. दिनरात, सुबहशाम वे अब्बू को मेरे निकाह के लिए परेशान करती रहतीं.

‘‘इसी तरह अब्बू से दिनरात कहसुन कर उन्होंने कुछ दूर के एक गांव में मेरा रिश्ता तय करवा दिया था. लड़के वालों को तो और भी ज्यादा जल्दी थी. सो, निकाह की तारीख ही तय कर दी.

‘‘अच्छा, क्या कह रहा है तू कि मैं ने विरोध क्यों नहीं किया? अरे, किया…   अब्बू ने मेरी छोटी उम्र और पढ़ाई की अहमियत का वास्ता दिया, पर अम्मी ने किसी की न सुनी.

‘‘असल में मेरी छोटी बहन नफीसा  बहुत ही खूबसूरत है, पर कुदरत ने उस के साथ बहुत नाइंसाफी की. उस की आंखों का नूर छीन लिया.

‘‘3-4 साल पहले सीढ़ी से गिर कर उस के सिर पर चोट लग गई थी. इसी चोट की वजह से उस की आंखों की रोशनी चली गई थी. उस से छोटा मेरा भाई जावेद…

‘‘इसलिए… अब तू ही कह, जब अम्मी की जिद के आगे अब्बू की नहीं चली, तो मेरी मरजी क्या चलती?

‘‘हरसिंगार, तब तक तुम से भी तो मुलाकात नहीं हुई थी. यकीन मानो, बहुत अकेली पड़ गई थी मैं… इसलिए बेचारगी के उस आलम में मैं भी निकाह के लिए राजी हो गई.

‘‘पर तू जानता है हरसिंगार… मेरा निकाह भी एक बड़े ड्रामे या कहूं कि किसी हादसे से कम नहीं था…’’

हरसिंगार की तरफ देख कर शहला मुसकराते हुए आगे कहने लगी, ‘‘हुआ यों कि तय किए गए दिन बरात आई.

‘‘बरात को मसजिद के नजदीक के जनवासे में ठहराया गया था और वहीं सब रस्में होती रहीं. फिर काजी साहब ने निकाह भी पढ़वा दिया.

‘‘सबकुछ शांत ढंग से हो रहा था कि अम्मी की मुरादनगर वाली बहन यानी मेरी नसीम खाला रास्ते में जाम लगा होने की वजह से निकाह पढ़े जाने के थोड़ी देर बाद घर पहुंचीं.

‘‘बड़ी दबंग औरत हैं वे. जल्दबाजी में तय किए गए निकाह की वजह से वे अम्मी से नाराज थीं…’’ कहते हुए शहला ने हरसिंगार के तने पर अपनी पीठ को फिर से टिका लिया और आगे बोली, ‘‘इसलिए बिना ज्यादा किसी से बात किए वे दूल्हे को देखनेमिलने की मंसा से जनवासे में चली गईं. उस वक्त बराती खानेपीने में मसरूफ थे. उन्हें खाला की मौजूदगी का एहसास न हो पाया.

‘‘वे जनवासे से लौटीं और अचानक अम्मी पर बरस पड़ीं, ‘आपा, शहला का दूल्हा तो लंगड़ा है. तुम्हें ऐसी भी क्या जल्दी पड़ रही थी कि अपनी शहला के लिए तुम ने टूटाफूटा लड़का ढूंढ़ा?’

‘‘यह जान कर अम्मी, अब्बू और बाकी रिश्तेदार सब सकते में आ गए. मामले की तुरंत जांचपड़ताल से पता चला कि दूल्हा बदल दिया गया था.

‘‘लड़के वालों ने अब्बू के भोलेपन का फायदा उठा कर चालाकी से असली दूल्हे की जगह उस के बड़े भाई से मेरा निकाहनामा पढ़वा दिया था.

‘‘बात खुलते ही बिचौलिया और कुछ बराती दूल्हे को ले कर मौके से फरार हो गए.

‘‘हमारे खानदान व गांव के लोग इस धोखाधड़ी के चलते बहुत गुस्से में थे. सो, गांव की पंचायत व दूसरे लोगों के साथ मिल कर उन्होंने बाकी बरातियों को जनवासे के कमरे में बंद कर दिया.

‘‘अब मरता क्या न करता वाली बात होने पर दूल्हे के गांव की पंचायत और कुछ लोग बंधक बरातियों को छुड़ाने पहुंच गए. दोनों गांवों की पंचायतों और बुजुर्गों ने आपस में बात की. लड़के वाले किसी भी तरह से निकाह को परवान चढ़ाए रखना चाहते थे.

‘‘वे कहने लगे, ‘विकलांग का निकाह कराना कोई जुर्म तो नहीं, जो तुम इतना होहल्ला कर रहे हो. वैसे भी अब तो निकाह हो चुका है. बेहतर यही है कि तुम लड़की की रुखसती कर दो.

‘‘‘तुम लड़की वाले हो और लड़कियां तो सीने का पत्थर हुआ करती हैं. अब तुम ने तो लड़की का निकाह पढ़वा दिया है न. छोटे भाई से नहीं, तो बड़े से सही. क्या फर्क पड़ता है. तुम समझो कि तुम्हारे सिर से तो लड़की का बोझ उतर ही गया.’

‘‘सच कहूं, उस समय मुझे एहसास हुआ कि हम लड़कियां कितनी कमजोर होती हैं. हमारा कोई वजूद ही नहीं है. तभी अब्बू की भर्राई सी आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘मेरी बेटी कोई अल्लाह मियां की गाय नहीं, जो किसी भी खूंटे से बांध दी जाए और न ही वह मेरे ऊपर बोझ है. वह मेरी औलाद है, मेरा खून है. उस का सुख मेरी जिम्मेदारी है, न कि बोझ… अगर वह लड़की है, तो उसे ऐसे ही कैसे मैं किसी के भी हवाले कर दूं.’

‘‘और कुछ देर बाद हौसला कर के उन्होंने पंचायत से तलाकनामा के लिए दरख्वास्त करते हुए कहा, ‘जनाब, यह ठीक है कि विकलांग होना या उस का निकाह कराना कोई जुर्म नहीं, पर दूसरों को अंधेरे में रख कर या दूल्हा बदल कर ऐसा करना तो दगाबाजी हुई न?

‘‘‘मैं दगाबाजी का शिकार हो कर अपनी पढ़ीलिखी, सलीकेदार, जहीन लड़की को इस जाहिल, बेरोजगार और विकलांग के हाथ सौंप दूं, क्या यही पंचायत का इंसाफ है?’

‘‘यकीन मानो, मुझे उस दिन पता चला कि मैं कोई बोझ नहीं, बल्कि जीतीजागती इनसान हूं. उस दिन मेरी नजर में अब्बू की इज्जत कई गुना बढ़ गई थी, क्योंकि उन्होंने मेरी खातिर पूरे समाज, पंचायत से खिलाफत करने की ठान ली थी.

‘‘लेकिन, पुरानी रस्मों को एक झटके से तोड़ कर मनचाहा बदलाव ले आना, चाहे वह समाज के भले के लिए ही क्यों न हो, इतना आसान तो नहीं. चारों तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई थी… दोनों गांवों के लोग और पंचायत अभी भी सुलह कर के निकाह बरकरार रखने की सिफारिश कर रहे थे.

‘‘अब्बू उस समय बेहद अकेले पड़ गए थे. उस बेबसी के आलम में हथियार डालते हुए उन्होंने गुजारिश की, ‘ठीक है जनाब, पंच परमेश्वर होते हैं. मैं ने अपनी बात आप के आगे रखी, फिर भी अगर मेरी बच्ची की खुशियां लूट कर और उसे हलाल करने का गुनाह मुझ से करा कर शरीअत की आन और आप लोगों की आबरू बचती है, तो मैं निकाह को बरकरार रखते हुए अपनी बच्ची की रुखसती कर दूंगा, लेकिन मेरी भी एक शर्त है.

‘‘‘बात यह है कि शहला की छोटी बहन नफीसा बहुत ही खूबसूरत है और जहीन भी, लेकिन एक हादसे में उस की नजर जाती रही. बस, यही एक कमी है उस में.

‘‘‘आप के कहे मुताबिक जब बेटियों को हम बोझ ही समझते हैं और आप सब मेरे खैरख्वाह एक बोझ को उतारने में मेरी इतनी मदद कर रहे हैं. मुझे तो अपने दूसरे बोझ से भी नजात पानी है और फिर किसी शारीरिक कमी वाले शख्स का निकाह कराना कोई गुनाह भी नहीं, तो क्यों न आप नफीसा का निकाह इस लड़के के छोटे भाई यानी जिसे हम ने अपनी शहला के लिए पसंद किया था, उस से करा दें? हिसाबकिताब बराबर हो जाएगा और दोनों बहनें एकसाथ एकदूसरे के सहारे अपनी जिंदगी भी गुजार लेंगी.’

‘‘बस, फिर क्या था, हमारे गांव की पंचायत व बाकी लोग एक आवाज में अब्बू की बात की हामी भरने लगे, पर दूल्हे वालों को जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘हां, उस के बाद जो कुछ भी हुआ, मेरे लिए बेमानी था. मैं उस दिन जान पाई कि मेरा भी कोई वजूद है और मैं भेड़बकरी की तरह कट कर समाज की थाली में परोसे जाने वाली चीज नहीं हूं.

‘‘मेरे अब्बू अपनी बेटी के हक के लिए इस कदर लड़ाई लड़ सकते हैं, मैं सोच भी नहीं सकती थी. फिर तो… दूल्हे वालों ने मुझे तलाक देने में ही अपनी भलाई समझी. मैं तो वैसे भी इस निकाह के हक में नहीं थी, बल्कि आगे पढ़ना चाहती थी.

‘‘हां, उस के बाद कुछ दिन तक घर में चुप्पी का माहौल रहा, फिर परेशानी के आलम में अम्मी अब्बू से कहने लगीं, ‘जावेद के अब्बू, तुम्हीं कहो कि अब इस लड़की का क्या होगा. क्या यह बोझ सारी उम्र यों ही हमारे गले में बंधा रहेगा?’

‘‘हरसिंगार, तू जानना चाहता है कि अब्बू ने अम्मी से क्या कहा?’’ अब्बू बोले, ‘नुसरत, बेटियां बोझ नहीं हुआ करतीं. वे तो घर की रौनक होती हैं. बोझ होतीं तो कोई हमारे घर के बोझ को यों मांग कर के अपने घर ले जाता. बेटियां तो एक छोड़ 2-2 घर आबाद करती हैं. अब मत कोसना इन्हें.

‘‘‘कल मैं शहर के अस्पताल में नफीसा की आंखों के आपरेशन के लिए बात करने गया था. वहां आधे से ज्यादा तो लेडी डाक्टर थीं और वे भी 25-26 साल की लड़कियां. उन में से 2 तो मुसलिम हैं, डाक्टर जेबा और डाक्टर शबाना. क्या वे किसी की लड़कियां नहीं हैं?

‘‘‘हां, डाक्टर ने उम्मीद दिलाई है कि हमारी नफीसा फिर से देख सकेगी. और हां, तू इन के निकाह की चिंता मत कर. सब ठीक हो जाएगा.

‘‘‘अरे हां नुसरत, तब तक क्यों न शहला को आगे पढ़ने दें? कोई हुनर हाथ में होगा, तो समाजबिरादरी में सिर उठा कर जी सकेगी हमारी शहला.

‘‘‘अब जमाना बदल चुका है. तू भी लड़कियों के लिए अपनी तंगखयाली छोड़ उन के बारे में कुछ बढि़या सोच…’

‘‘और हरसिंगार, अब्बू ने जमाने की ऊंचनीच समझा कर, मेरी भलाई का वास्ता दे कर अम्मी को मना तो लिया, पर मुझे बड़े शहर भेज कर पढ़ाने को वे बिलकुल राजी नहीं हुईं, इसलिए अब्बू ने उन की रजामंदी से यहां कसबे के इस आईटीआई में कटिंगटेलरिंग और ड्रैस डिजाइनिंग कोर्स में मेरा दाखिला भी करा दिया.

‘‘अब मैं हर रोज साइकिल से यहां पढ़ने आने लगी. यहां नए लोग, नया माहौल, नया इल्म तो मिला ही, उस के साथसाथ हरदम व हर मौसम में खिलखिलाने वाले एक प्यारे दोस्त के रूप में तुम भी मिल गए और मेरी जिंदगी के माने ही बदल गए.

‘‘पर अम्मी अभी भी अंदर से घबराई हुईं और परेशान रहती हैं. जबतब मुझे कोसती रहती हैं, ताने मारती हैं और छोटेबड़े काम के लिए मुझे छुट्टी करने पर मजबूर करती हैं.

‘‘इसी बीच पिछले हफ्ते शहर के एक बड़े अस्पताल में अब्बू ने नफीसा की आंखों का आपरेशन करा दिया. उस दिन अम्मी भी हमारे साथ अस्पताल गई थीं और आपरेशन थिएटर के बाहर खड़ी थीं.

‘‘तभी आपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला और डाक्टर शबाना ने मुसकराते हुए कहा, ‘आंटीजी, मुबारक हो. आपरेशन बहुत मुश्किल था, इसलिए ज्यादा समय लग गया, पर पूरी तरह से कामयाब रहा.’

‘‘जानता है हरसिंगार, अम्मी हैरत में पड़ी उन्हें बहुत देर तक देखती रहीं, फिर उन से पूछने लगीं, ‘बेटी, यह आपरेशन तुम ने किया है क्या?’

‘‘वे बोलीं, ‘जी हां.’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘कुछ नहीं बेटी, मैं तो बस…’

‘‘उस के बाद अम्मी जितना वक्त अस्पताल में रहीं, वहां की लेडी डाक्टरों और नर्सों को एकटक काम करते देखती रहती थीं.

‘‘उस दिन से अम्मी काफी चुपचाप सी रहने लगी थीं. कल नफीसा के घर लौटने के बाद अब्बू से कहने लगीं, ‘शहला के अब्बू, सुनो…’

‘‘अब्बू ने अम्मी से पूछ ही लिया, ‘नुसरत, आज कुछ खास हो गया क्या, जो तुम मुझे जावेद के अब्बू की जगह शहला के अब्बू कह कर बुलाने लगी?’

‘‘अम्मी ने कहा, ‘अरे, तुम ही तो कहते हो कि लड़का और लड़की में कोई फर्क नहीं होता और फिर तुम शहला के बाप न हो क्या?’

‘‘वे आगे कहने लगीं, ‘मैं तो यह कह रही थी कि नफीसा की आंख ठीक हो जाए, तो उसे भी दोबारा स्कूल पढ़ने भेज देंगे. पढ़लिख कर वह भी डाक्टर बन जाए, तो कैसा रहेगा?’

‘‘यह सुन कर अब्बू ने कहा, ‘अब तुम कह रही हो, तो ठीक ही रहेगा.’

‘‘इतना कह कर अब्बू मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगे थे और आज सुबह अम्मी ने मेरे कालेज जाने पर मुहर लगा दी.’’

खुशी में सराबोर शहला खड़ी हो कर फिर से लिपट गई अपने दोस्त से और आसमान की तरफ देख कर कहने लगी, ‘‘देखो न हरसिंगार, आज की सुबह कितनी खुशनुमा है… बेदाग… एकदम सफेद… है न?

‘‘आज तुझ से सब कह कर मैं हलकी हो गई हूं. निकाह के वाकिए को तो मैं एक बुरा सपना समझ कर भूल चुकी हूं. याद है तो मुझे अपनी पहचान, जिस से रूबरू होने के बाद अब जिंदगी मुझे बोझ नहीं, बल्कि एक सुरीला गीत लगती है,’’ कहतेकहते शहला की आंखों में जुगनू झिलमिलाने लगे.

Hindi Stories Online : ममता – क्या थी गायत्री और उसकी बेटी प्रिया की कहानी

Hindi Stories Online : दालान से गायत्री ने अपनी बेटी की चीख सुनी और फिर तेजी से पेपर वेट के गिरने की आवाज आई तो उन के कान खड़े हो गए. उन की बेटी प्रिया और नातिन रानी में जोरों की तूतू, मैंमैं हो रही थी. कहां 10 साल की बच्ची रानी और कहां 35 साल की प्रिया, दोनों का कोई जोड़ नहीं था. एक अनुभवों की खान थी और दूसरी नादानी का भंडार, पर ऐसे तनी हुई थीं दोनों जैसे एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों.

‘‘आखिर तू मेरी बात नहीं सुनेगी.’’

‘‘नहीं, मैं 2 चोटियां करूंगी.’’

‘‘क्यों? तुझे इस बात की समझ है कि तेरे चेहरे पर 2 चोटियां फबेंगी या 1 चोटी.’’

‘‘फिर भी मैं ने कह दिया तो कह दिया,’’ रानी ने अपना अंतिम फैसला सुना डाला और इसी के साथ चांटों की आवाज सुनाई दी थी गायत्री को.

रात गहरा गई थी. गायत्री सोने की कोशिश कर रही थीं. यह सोते समय चोटी बांधने का मसला क्यों? जरूर दिन की चोटियां रानी ने खोल दी होंगी. वह दौड़ कर दालान में पहुंचीं तो देखा कि प्रिया के बाल बिखरे हुए थे. साड़ी का आंचल जमीन पर लोट रहा था. एक चप्पल उस ने अपने हाथ में उठा रखी थी. बेटी का यह रूप देख कर गायत्री को जोरों की हंसी आ गई. मां की हंसी से चिढ़ कर प्रिया ने चप्पल नीचे पटक दी. रानी डर कर गायत्री के पीछे जा छिपी.

‘‘पता नहीं मैं ने किस करमजली को जन्म दिया है. हाय, जन्म देते समय मर क्यों नहीं गई,’’ प्रिया ने माथे पर हाथ मार कर रोना शुरू कर दिया.

अब गायत्री के लिए हंसना मुश्किल हो गया. हंसी रोक कर उन्होंने झिड़की दी, ‘‘क्या बेकार की बातें करती है. क्या तेरा मरना देखने के लिए ही मैं जिंदा हूं. बंद कर यह बकवास.’’

‘‘अपनी नातिन को तो कुछ कहती नहीं हो, मुझे ही दोषी ठहराती हो,’’ रोना बंद कर के प्रिया ने कहा और रानी को खा जाने वाली आंखों से घूरने लगी.

‘‘क्या कहूं इसे? अभी तो इस के खेलनेखाने के दिन हैं.’’

इस बीच गायत्री के पीछे छिपी रानी, प्रिया को मुंह चिढ़ाती रही.

प्रिया की नजर उस पर पड़ी तो क्रोध में चिल्ला कर बोली, ‘‘देख लो, इस कलमुंही को, मेरी नकल उतार रही है.’’

गायत्री ने इस बार चौंक कर देखा कि प्रिया अपनी बेटी की मां न लग कर उस की दुश्मन लग रही थी. अब उन के लिए जरूरी था कि वह नातिन को मारें और प्रिया को भी कस कर फटकारें. उन्होंने रानी का कान ऐंठ कर उसे साथ के कमरे में धकेल दिया और ऊंची आवाज में बोलीं, ‘‘प्रिया, रानी के लिए तू ऐसा अनापशनाप मत बका कर.’’

प्रिया गायत्री की बड़ी लड़की है और रानी, प्रिया की एकलौती बेटी. गरमियों में हर बार प्रिया अपनी बेटी को ले कर मां के सूने घर को गुलजार करने आ जाती है.

गायत्री ने अपने 8 बच्चों को पाला है. उन की लड़कियां भी कुछ उसी प्रकार बड़ी हुईं जिस तरह आज रानी बड़ी हो रही है. बातबात पर तनना, ऐंठना और चुप्पी साध कर बैठ जाना जैसी आदतें 8-10 वर्ष की उम्र से लड़कियों में शुरू होने लगती हैं. खेलने से मना करो तो बेटियां झल्लाने लगती हैं. पढ़ने के लिए कहो तो काटने दौड़ती हैं. घर का थोड़ा काम करने को कहो तो भी परेशानी और किसी बात के लिए मना करो तो भी.

प्रिया के साथ जो पहली घटना घटी थी वह गायत्री को अब तक याद है. उन्होंने पहली बार प्रिया को देर तक खेलते रहने के लिए चपत लगाई थी तो वह भी हाथ उठा कर तन कर खड़ी हो गई थी. गायत्री बेटी का वह रूप देख कर अवाक् रह गई थीं.

प्रिया को दंड देने के मकसद से घर से बाहर निकाला तो वह 2 घंटे का समय कभी तितलियों के पीछे भागभाग कर तो कभी आकाश में उड़ते हवाई जहाज की ओर मुंह कर ‘पापा, पापा’ की आवाज लगा कर बिताती रही थी पर उस ने एक बार भी यह नहीं कहा कि मां, दरवाजा खोल दो, मैं ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.

घड़ी की छोटी सूई जब 6 को भी पार करने लगी तब गायत्री स्वयं ही दरवाजा खोल कर प्रिया को अंदर ले आई थीं और उसे समझाते हुए कहा था, ‘ढीठ, एक बार भी तू यह नहीं कह सकती थी कि मां, दरवाजा खोल दो.’

प्रिया ने आंखें मिला कर गुस्से से भर कर कहा था, ‘मैं क्यों बोलूं? मेरी कितनी बेइज्जती की तुम ने.’

अपने नन्हे व्यक्तित्व के अपमान से प्रिया का गला भर आया था. गायत्री हैरान रह गई थीं. उस दिन के बाद से प्रिया का व्यवहार ही जैसे बदल सा गया था.

ऐसी ही एक दूसरी घटना गायत्री को नहीं भूलती जब वह सिरदर्द से बेजार हो कर प्रिया से बोली थीं, ‘बेटा, तू ये प्लेटें धो लेना, मैं डाक्टर के पास जा रही हूं.’

प्रिया मां की गोद में बिट्टो को देख कर ही समझ गई थी कि बाजार जाने का उस का पत्ता काट दिया गया है.

गायत्री बाजार से घर लौट कर आईं तो देखा कि प्रिया नदारद है और प्लेट, पतीला सब उसी तरह पड़े हुए थे. गायत्री की पूरी देह में आग लग गई पर बेटी से उलझने का साहस उन में न हुआ था. क्योंकि पिछली घटना अभी गायत्री भूली नहीं थीं. गोद के बच्चे को पलंग पर बैठा कर क्रोध से दांत किटकिटाते हुए उन्होंने बरतन धोए थे. चूल्हा जला कर खाना बनाने बैठ गई थीं.

इसी बीच प्रिया लौट आई थी. गायत्री ने सभी बच्चों को खाना परोस कर प्रिया से कहा था, ‘तुझे घंटे भर बाद खाना मिलेगा, यही सजा है तेरी.’

प्रिया का चेहरा फक पड़ गया था. मगर वह शांत रह कर थोड़ी देर प्रतीक्षा करती रही थी. उधर गायत्री अपने निर्णय पर अटल रहते हुए 1 घंटे बाद प्रिया को बुलाने पहुंचीं तो उस ने देखा कि वह दरी पर लुढ़की हुई थी.

गायत्री ने उसे उठ कर रसोई में चलने को कहा तो प्रिया शांत स्वर में बोली थी, ‘मैं न खाऊंगी, अम्मां, मुझे भूख नहीं है.’

गायत्री ने बेटी को प्यार से घुड़का था, ‘चल, चल खा और सो जा.’

प्रिया ने एक कौर भी न तोड़ा. गायत्री के पैरों तले जमीन खिसक गई थी. इस के बाद उन्होंने बहुत मनाया, डांटा, झिड़का पर प्रिया ने खाने की ओर देखा भी नहीं था. थक कर गायत्री भी अपने बिस्तर पर जा बैठी थीं. उस रात खाना उन से भी न खाया गया था.

दूसरे दिन प्रिया ने जब तक खाना नहीं खाया गायत्री का कलेजा धकधक करता रहा था.

उस दिन की घटना के बाद गायत्री ने फिर खाने से संबंधित कोई सजा प्रिया को नहीं दी थी. प्रिया कई बार देख चुकी थी कि गायत्री उस की बेहद चिंता करती थीं और उस के लिए पलकें बिछाए रहती थीं. फिर भी वह मां से अड़ जाती थी, उस की कोई बात नहीं मानती थी. इतना ही नहीं कई बार तो वह भाईबहन के युद्ध में अपनी मां गायत्री पर ताना कसने से भी बाज नहीं आती, ‘हां…हां…अम्मां, तुम भैया की ओर से क्यों न बोलोगी. आखिर पूरी उम्र जो उन्हीं के साथ तुम्हें रहना है.’

गायत्री ने कई घरों के ऐसे ही किस्से सुन रखे थे कि मांबेटियों में इस बात पर तनातनी रहती है कि मां सदा बेटों का पक्ष लेती हैं. वह इस बात से अपनी बेटियों को बचाए रखना चाहती थीं पर प्रिया को मां की हर बात में जैसे पक्षपात की बू आती थी.

ऐसे ही तानों और लड़ाइयों के बीच प्रिया जवानी में कदम रखते ही बदल गई थी. अब वह मां का हित चाहने वाली सब से प्यारी सहेली हो गई थी. जिस बात से मां को ठेस लग सकती हो, प्रिया उसे छेड़ती भी नहीं थी. मां को परेशान देख झट उन के काम में हाथ बंटाने के लिए आ जाती थी. मां के बदन में दर्द होता तो उपचार करती. यहां तक कि कोई छोटी बहन मां से अकड़ती, ऐंठती तो वही प्रिया उसे समझाती कि ऐसा न करो.

बेटों के व्यवहार से मां गायत्री परेशान होतीं तो प्रिया उन की हिम्मत बढ़ाती. गायत्री उस के इस नए रूप को देख चकित हो उठी थीं और उन्हें लगने लगा था कि औरत की दुनिया में उस की सब से पक्की सहेली उस की बेटी ही होती है.

यही सब सोचतेविचारते जब गायत्री की नींद टूटी तो सूरज का तीखा प्रकाश खिड़की से हो कर उन के बिछौने पर पड़ रहा था. रात की बातें दिमाग से हट गई थीं. अब उन्हें बड़ा हलका महसूस हो रहा था. जल्दी ही वह खाने की तैयारी में जुट गईं.

आटा गूंधते हुए उन्होंने एक बार खिड़की से उचक कर प्रिया के कमरे में देखा तो उन के होंठों पर हंसी आ गई. प्रिया रानी के सिरहाने बैठी उस का माथा सहला रही थी. गायत्री को लगा वह प्रिया नहीं गायत्री है और रानी, रानी नहीं प्रिया है. कभी ऐसे ही तो ममता और उलझन के दिन उन्होंने भी काटे हैं.

गायत्री ने चाहा एक बार आवाज दे कर रानी को उठा ले फिर कुछ सोच कर वह कड़ाही में मठरियां तलने लगीं. उन्हें लगा, प्रिया उठ कर अब बाहर आ रही है. लगता है रानी भी उठ गई है क्योंकि उस की छलांग लगाने की आवाज उन के कानों से टकराई थी.

अचानक प्रिया के चीखने की आवाज आई, ‘‘मैं देख रही हूं तेरी कारस्तानी. तुझे कूट कर नहीं धर दिया तो कहना.’’

कितना कसैला था प्रिया का वाक्य. अभी थोड़ी देर पहले की ममता से कितना भिन्न पर गायत्री को इस वाक्य से घबराहट नहीं हुई. उन्होंने देखा रानी, प्रिया के हाथों मंजन लेने से बच रही है. एकाएक प्रिया ने गायत्री की ओर देखा तो थोड़ा झेंप गई.

‘‘देखती हो अम्मां,’’ प्रिया चिड़चिड़ा कर बोली, ‘‘कैसे लक्षण हैं इस के? कल थोड़ा सा डांट क्या दिया कि कंधे पर हाथ नहीं धरने दे रही है. रात मेरे साथ सोई भी नहीं. मुझ से ही नहीं बोलती है मेरी लड़की. तुम्हीं बोलो, क्या पैरों में गिर कर माफी मांगूं तभी बोलेगी यह,’’ कह कर प्रिया मुंह में आंचल दे कर फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐंठी, तनी रानी का सारा बचपन उड़ गया. वह थोड़ा सहम कर प्रिया के हाथ से मंजनब्रश ले कर मुंह धोने चल दी.

गायत्री ने जा कर प्रिया के कंधे पर हाथ रखा और झिड़का, ‘‘यह क्या बचपना कर रही है. रानी आखिर है तो तेरी ही बच्ची.’’

‘‘हां, मेरी बच्ची है पर जाने किस जन्म का बैर निकालने के लिए मेरी कोख से पैदा हुई है,’’ प्रिया ने रोतेसुबकते कहा, ‘‘यह जैसेजैसे समझदार होती जा रही है, इस के रंगढंग बदलते जा रहे हैं.’’

‘‘तो चिंता क्यों करती है?’’ गायत्री ने फुसफुसा कर बेहद ममता से कहा, ‘‘थोड़ा धीरज से काम ले, आज की सूखे डंडे सी तनी यह लड़की कल कच्चे बांस सी नरम, कोमल हो जाएगी. कभी इस उम्र में तू ने भी यह सब किया था और मैं भी तेरी तरह रोती रहती थी पर देख, आज तू मेरे सुखदुख की सब से पक्की सहेली है. थोड़ा धैर्य रख प्रिया, रानी भी तेरी सहेली बनेगी एक दिन.’’

‘‘क्या?’’ प्रिया की आंखें फट गईं.

‘‘क्यों अम्मां, मैं ने भी कभी आप का इसी तरह दिल दुखाया था? कभी मैं भी ऐसे ही थी सच? ओह, कैसा लगता होगा तब अम्मां तुम्हें?’’

बेटी की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू देख कर गायत्री की ममता छलक उठी और उन्होंने बेटी के आंसुओं को आंचल में समेट कर उसे गले से लगा लिया.

Hindi Fiction Stories : तुम्हारे अपनों के लिए – क्या श्रेया और सारंग के रिश्तों का तानाबाना उलझा रहा

Hindi Fiction Stories : दिल्ली से भोपाल तक का सफर  बहुत लंबा नहीं है, लेकिन भैया से मिलने की चाह में श्रेया को वह रात काफी लंबी लगी थी. ज्यादा खुशी और दुख दोनों में ही आंखों से नींद उड़ जाती है. बस, वही हाल दिल्ली से भोपाल आते हुए श्रेया का होता है. नींद उस की आंखों से कोसों दूर भाग जाती है. रातभर अपनी बर्थ पर करवटें बदलते हुए वह हर स्टेशन पर झांक कर देखती है.

‘भोपाल आ तो नहीं गया?’

‘अभी कितनी दूर है?’

जैसेतैसे सफर खत्म हुआ और टे्रन भोपाल पहुंची. खिड़की से ही उसे भैया दिख गए. वे फोन पर बातें कर रहे थे. ट्रेन रुकते ही भैया लपक कर डब्बे में उस की बर्थ ढूंढ़ते हुए आ गए. श्रेया बड़े भैया से लिपट गई. उस की आंखें भीग गईं. उस के बड़े भाई श्रेयस की आंखें भी छोटी बहन को देखते ही छलक गईं.

दोनों स्टेशन से बाहर निकले और कार में बैठ कर घर की ओर चल दिए. श्रेया भाई से बातें करने के साथ ही एकएक सड़क और आसपास की हर एक घरदुकान को बड़े कुतूहल से देख रही थी. वह अकसर ही भाई के यहां आती रहती थी. जहां बचपन गुजरा हो उस जगह का मोह सब चीजों से ऊपर ही होता है. जल्दी ही कार उन के पुश्तैनी मकान के आगे रुकी. श्रेया ने नजरभर घर को देखा और भैया के साथ अंदर चली गई.

रसोई से श्रेया के पसंदीदा व्यंजनों की खुशबू आ रही थी. कार की आवाज सुनते ही उस की भाभी स्नेहा लपक कर बाहर आई.

‘‘भाभी, कैसी हो?’’ श्रेया भाभी स्नेह के गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘इतनी बड़ी हो गई पर अभी तक बचपना नहीं गया,’’ स्नेहा ने प्यार से उस का गाल थपथपाते हुए कहा.

‘‘मैं कितनी भी बड़ी हो जाऊं मगर तुम्हारी तो बेटी ही रहूंगी न भाभी,’’ श्रेया ने लाड़ से कहा.

‘‘वह तो है. जा अपने कमरे में जा कर फ्रैश हो जा, मैं नाश्ता लगाती हूं,’’ स्नेहा बोली. श्रेया अपने कमरे में चली आई.

2 साल हो गए उस की शादी को लेकिन उस का कमरा आज भी बिलकुल वैसा का वैसा ही है. समय पर कमरे की सफाई हो जाती है. शादी के पहले की उस की जो भी चीजें, किताबें, सामान था सब ज्यों का त्यों करीने से रखा था. श्रेया का मन अपनी भाभी के लिए आदर से भर उठा. भैया उस से पूरे 10 साल बड़े थे. वह 12वीं में ही थी कि मां चल बसी. जल्दी ही पिताजी भी चले गए. भैयाभाभी ने ही उसे मांबाप का प्यार दिया और शादी की.

श्रेया बाहर आई तो टेबल पर नाश्ता लग चुका था. सारी चीजें उस की पसंद की बनी थीं, सूजी का हलवा, पनीर के पकौड़े व फ्रूट क्रीम नाश्ता करने के बाद तीनों बैठ कर बातें करने लगे.

दोपहर को श्रेया के दोनों भतीजे 7 साल का अंकुर और 4 साल का अंशु स्कूल से लौटे, तो बूआ को देख कर वे खुशी से उछल गए. श्रेया दोनों को साथ ले कर अपने कमरे में चली गई और उन के लिए लाई चीजें उन्हें दिखाने लगी.

रात को दोनों भतीजे श्रेया के साथ ही सोते थे. स्नेहा जब अपने काम निबटा कर कमरे में आई तो उस ने देखा कि श्रेयस तकिये से पीठ टिकाए बैठे हैं.

‘‘क्या बात है, किस चिंता में डूबे हुए हैं इतना?’’ स्नेहा ने पास बैठते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं, बस, श्रेया के लिए ही परेशान हूं. उस का बारबार इस तरह यहां चले आना, ऐसा बचपना ठीक नहीं है,’’ श्रेयस ने चिंता जाहिर की.

‘‘अभी छोटी है, समझ जाएगी,’’ स्नेहा ने दिलासा दिया.

‘‘स्नेहा, अब इतनी छोटी भी नहीं रही वह. सारंग भी आखिर कब तक सहन करेगा. तुम समझाओ न उसे. तुम्हारे तो बहुत नजदीक है वह.’’

‘‘हां, नजदीक तो है लेकिन उस के साथ जो समस्या है उस विषय पर मेरा उस के साथ बात करना ठीक नहीं रहेगा. कुछ रिश्ते बहुत नाजुक डोर से बंधे होते हैं. इस बारे में तो आप ही उस से बात करना,’’ स्नेहा ने श्रेयस को समझाते हुए कहा.

‘‘शायद तुम ठीक कहती हो, मैं ही मौका देख कर बात करता हूं उस से,’’ श्रेयस ने कहा.

आंख बंद कर के वह पलंग पर लेट गया, लेकिन नींद तो आंखों से कोसों दूर थी. 2 साल हो गए श्रेया और सारंग की शादी को. सारंग बहुत अच्छा और समझदार लड़का है. श्रेया को प्यार भी बहुत करता है. दोनों ही एकदूसरे के साथ बहुत खुश थे. परंतु अपने वैवाहिक जीवन में श्रेया ने खुद ही समस्या खड़ी कर ली.

सारंग दिल्ली में एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्चपद पर आसीन है. उस के मातापिता उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर में रहते हैं. सारंग पढ़ाई में बहुत तेज था. वह दिल्ली में रह कर पढ़ा और वहीं जौब भी लग गई. भले ही उस का उठनाबैठना दिल्ली के उच्चवर्ग के साथ है, मगर वह खुद जमीन से जुड़ा हुआ है.

श्रेया अपने जीवन में बस, सारंग का साथ चाहती है. उसे सारंग की फैमिली, मातापिता, बहनजीजा सब बैकवर्ड लगते हैं. वह न तो उन लोगों का अपने घर आनाजाना पसंद करती है और न ही सारंग का वहां जाना उसे पसंद है. दीवाली पर भी श्रेया खुद तो अपनी ससुराल जाती नहीं है और सारंग को भी जाने नहीं देती. हर त्योहार वह चाहती है कि सारंग भोपाल आ कर मनाए. राखी व भाईदूज पर भी सारंग सालभर से घर नहीं जा पाया है. इस वजह से वह अंदर ही अंदर घुटता रहता है.

अब तो उस के घर वालों को भी श्रेया का स्वभाव समझ आ गया है इसलिए वे भी खुद उस से कटेकटे रहने लगे हैं. लेकिन सारंग बेचारा तो 2 पाटों के बीच पिस रहा है. वह श्रेया से भी बहुत प्यार करता है और अपने घर वालों से भी. उस के घर वाले इतने भले लोग हैं कि उन्होंने सारंग से यही कहा कि उन की चिंता वह न करे, बस, श्रेया को खुश रखे.

लेकिन श्रेया है कि खुश नहीं है. तब भी उसे यही लगता है कि सारंग उस से ज्यादा अपने घर वालों की परवा करता है. श्रेया से तो उसे प्यार है ही नहीं. सारंग के प्रति श्रेया यही सोच पाले बैठी है. मगर उसे यह समझ नहीं आता कि घर वालों से अलग रह कर सारंग गुमसुम सा क्यों न रहेगा. बस, उसे यही शिकायत है कि वह तो सारंग के लिए सबकुछ करती है, तब भी सारंग खुश नहीं है और वह उस की जरा भी कद्र नहीं करता.

आजकल श्रेया इसी दुख में जबतब भोपाल आ जाती है. श्रेयस को बहन का घर आना बुरा नहीं लगता, लेकिन वह अपने घर को उपेक्षित कर के और सारंग के प्रति मन में गांठ बांध कर आती है, वह ठीक नहीं है.

सारंग के आगे श्रेयस खुद को अपराधी महसूस करता है, क्योंकि उस की बहन की वजह से वह अपने मांबाप से दूर हो रहा है.

दूसरे दिन औफिस से आ कर जब  श्रेयस चाय पी चुका तो स्नेहा ने  उसे इशारा किया कि दोनों बच्चों को पार्क में ले जाने के बहाने एकांत में बैठ कर वह श्रेया से बात करे. श्रेयस दोनों बच्चों और श्रेया के साथ पार्क में चला आया. दोनों बच्चे आते ही दूसरे बच्चों के साथ खेलने और झूला झूलने में मगन हो गए. श्रेयस और श्रेया पास ही एक बैंच पर बैठ कर दोनों को देखने लगे.

‘‘सारंग से कुछ बात हुई? कैसा है वह?’’ श्रेयस ने बात शुरू की.

‘‘नहीं, कोई बात नहीं, कोई फोन नहीं. उसे मेरी फिक्र होती तो मुझे बारबार यहां भाग कर आने का मन क्यों होता.’’ श्रेया उदास हो गई.

‘‘ये भी तुम्हारा ही घर है. जब चाहो, जितनी भी बार चाहो, आ जाओ. लेकिन सारंग को तुम्हारी फिक्र नहीं है, ऐसी गलतफहमी मन में मत पालो, श्रेया.’’

‘‘तो आप ही बताइए, मुझे यहां आए 2 दिन हो गए हैं, एक बार भी उस का फोन नहीं आया. उस ने यह तक नहीं पूछा कि मैं पहुंच गई या नहीं. अब मैं और क्या सोचूं.’’ श्रेया बोली.

‘‘तो क्या तुम ने भी उसे मैसेज डाला या फोन किया कि तुम पहुंच गई. तुम भी तो कर सकती थी. और यह मत सोचो कि उसे तुम्हारी फिक्र नहीं है. कल तुम्हारी ट्रेन पहुंचने से पहले से ही उस के फोन आ रहे थे कि मैं स्टेशन पहुंचा या नहीं, तुम ठीक से पहुंच गई कि नहीं,’’ श्रेयस ने बताया, ‘‘तुम ही उसे गलत समझ रही हो.’’

‘‘मैं गलत नहीं समझ रही भैया. आप भाभी से कितने अटैच्ड हो, उन का हर कहा मानते हो. मगर सारंग को तो वह मुझ से लगाव है नहीं,’’ श्रेया की आवाज में उदासी थी.

‘‘रिश्तों में प्यार एकतरफा नहीं होता श्रेया, पाने से पहले हमें खुद देना पड़ता है. तुम सिर्फ लेना चाह रही हो, देना नहीं.’’

‘‘भैया, मैं क्या कमी करती हूं सारंग के लिए, उस के कपड़े धोना, उस का पसंदीदा खाना बनाना, उस का पूरा ध्यान रखती हूं और अब इस से ज्यादा क्या करूं?’’ श्रेया ने तुनक कर कहा.

‘‘शादी के बाद लड़की सिर्फ पति के साथ ही नहीं जुड़ती है, बल्कि उस के पूरे परिवार के साथ भी जुड़ती है. तुम्हारी समस्या यह है कि तुम परिवार के नाम पर सिर्फ और सिर्फ सारंग को ही चाहती हो, उस के घर वालों को अपनाना नहीं चाहती. तुम ने उस बेचारे को अनाथ बना कर रख दिया है. उसे उस के अपनों से अलगथलग कर दिया है. फिर तुम उम्मीद करती हो कि वह तुम से दिल से अटैच्ड रहे? तब भी वह अभी तक तो तुम से बहुत प्यार करता है श्रेया, लेकिन अगर तुम्हारा ऐसा ही रवैया रहा तो जल्दी ही वह तुम से दूर हो जाएगा,’’ श्रेयस ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘भैया, मैं ने सारंग से शादी की है, उस के बैकवर्ड घर वालों के साथ नहीं,’’ श्रेया की आवाज में अहं की झलक थी.

‘‘ऐसी मतलबी सोच रख कर चलने से रिश्ते नहीं निभाए जाते श्रेया,’’ श्रेयस की आवाज में बहन की सोच पर गहरा अफसोस छलक रहा था, ‘‘जीवनसाथी के दिल को जीतने के रास्ते बहुत सी राहों से गुजरते हैं, उन में सब से महत्त्वपूर्ण उस के अपने हैं. तुम सारंग के मन पर तभी राज कर सकती हो, जब उस के अपनों के मन को अपने प्यार से जीत लोगी.’’

‘‘मुझे किसी का मन जीतने की जरूरत नहीं है,’’ श्रेया रूखे स्वर में बोली.

‘‘फिर तो तुम बहुत जल्दी ही सारंग को खो दोगी और ताउम्र उस के प्यार के लिए तरसती रहोगी,’’ श्रेयस सख्ती से बोला, ‘‘अच्छा श्रेया, जैसा व्यवहार तुम सारंग के घर वालों के साथ करती हो, वैसे ही अवहेलना स्नेहा तुम्हारी करने लगे तो तब तुम्हें कैसा लगेगा?’’

‘‘भैया…’’ श्रेया अवाक हो कर उस का मुंह देखने लगी.

‘‘मैं सच बताऊं, मैं स्नेहा से क्यों इतना अटैच्ड हूं, क्यों उस पर इतना भरोसा करता हूं? क्योंकि वह तुम पर और मेरे बाकी अपनों पर जान छिड़कती है. मुझ से भी ज्यादा तुम सब से वह प्यार करती है. तुम जब भी आने वाली होती हो, वह अलार्म लगा कर सोती है ताकि तुम्हें स्टेशन लेने जाने में मुझे देरी न हो जाए. तुम्हारा कमरा भी पिछले 2 वर्षों से उसी की जिद से वैसा का वैसा रखा गया है ताकि तुम्हें कभी यह न लगे कि यहां किसी भी तरह से हम लोगों में या परिस्थितियों में फर्क आ गया है. तुम जब भी आओ, तुम्हें वही माहौल और घर मिले. उस की सोच भी तुम्हारी तरह होती तो क्या आज तुम बारबार यहां आ पाती, क्या मैं ही उस से इतना प्यार कर पाता?

‘‘जितना प्यार मैं स्नेहा से करता हूं श्रेया, बिना मांगे, बिना कहे उस ने उस से कहीं अधिक मुझे और मेरे अपनों को दिया है. तुम्हें तो फिर भी कुछ न दे कर बहुतकुछ मिल रहा है अब तक. अफसोस यह है कि तुम सिर्फ स्नेहा का प्राप्य देख रही हो पर अपनी छोटी सोच के चलते तुम यह देखना भूल गई कि उस ने इस घर में पैर रखते ही हम सब को कितना अधिक दिया है.

‘‘सारी जिम्मेदारियां उस ने कितनी कुशलता से निभाई हैं. औरत पति से पूरा लगाव, पूरी तवज्जुह चाहती है तो उसे भी पति के अपनों को पूरी तवज्जुह और प्यार देना आना चाहिए. स्नेहा ने यह बात समझी, तभी वह सब को साथ ले कर सब का प्यार, सम्मान और साथ पा रही है. मगर तुम ने…’’ एक गहरी सांस ले कर श्रेयस चुप हो गया.

अंधेरा घिरने लगा था. दोनों बच्चों को ले कर वे घर आ गए. दूसरे दिन चाय की ट्रे ले कर श्रेयस और स्नेहा गैलरी में आए तो देखा  श्रेया फोन पर बात कर रही थी. ‘‘न, न, अम्मा, कोई बहाना नहीं चलेगा. इस बार की दीवाली आप सब हमारे साथ ही मनाएंगे, बस.’’ अम्मा आगे कुछ बोलती उस से पहले श्रेया ने अम्मा की बात काटते हुए कहा, ‘‘इस बार मैं भैयाभाभी को भी अपने पास दिल्ली बुला लूंगी तो एकसाथ सब की भाईदूज एक ही जगह हो जाएगी और हां, गुड्डी से कहिए, लहंगा व पायल न खरीदे, मैं यहां ले कर रखूंगी.

‘‘और अम्मा, आते समय मेरे लिए मावे वाली गुझिया और अनरसे जरूर बना कर लाइएगा. मुझे आप के हाथ के बने बहुत पसंद हैं. अच्छा अम्मा रखती हूं, बाबूजी को प्रणाम कहिएगा. गुड्डी स्कूल से आ जाए, फिर शाम को उस से बात करती हूं.’’

स्नेहा और श्रेयस ने संतोषभरी मुसकान के साथ एकदूसरे की ओर देखा और दोनों की आंखें भीग गईं. अब श्रेया को सारंग से कभी कोई शिकायत नहीं होगी क्योंकि वह उस के अपनों का महत्त्व जान कर उन की कद्र करना सीख गईर् थी.

Famous Hindi Stories : सौतेले लोग – क्या हुआ कौशल के साथ

Famous Hindi Stories : कौशल के जीवन में जैसे कोई सुनामी आ गई थी. वे अपने दफ्तर के दौरे पर थे. पत्नी अंकिता बच्चों को स्कूल भेज कर घर की साफसफाई कर रही थी. आज जाने उसे क्या सूझा था कि उस ने घर को धो डालने का प्लान बना लिया था. जैसे ही उस ने पाइप लगा कर कमरे में पानी डाला, अचानक बिजली आ गई. उसे आहट भी नहीं हुई होगी कि बिजली उस की मौत का पैगाम ले कर आई है. कमरे में कूलर लगा था और उसी के करैंट में वह बिलकुल स्याह हो चुकी थी. पूरा घर अंदर से बंद था. लगभग 3 बजे जब दोनों बच्चे स्कूल से आए और दरवाजा खोलने की कोशिश की तो पता ही नहीं चला अंदर क्या हुआ है. अड़ोसीपड़ोसी इकट्ठे हो गए. दरवाजा खुला तो कौशल को फोन से सारी बातें बताई गईं. पुलिस बुलाई गई. ससुराल से ले कर स्वजनों तक खबर करैंट की भांति दौड़ गई.

2 मासूम बच्चे 3 साल की बेटी और 5 साल का बेटा. सभी सहमे और डरे हुए थे. नियति को तो जो करना था उस ने अपना खेल, खेल लिया था. कौशल उजड़ गए थे. न बच्चे संभलते, न गृहस्थी, न नौकरी. दोनों बच्चों को उन्होंने ननिहाल भेज दिया था. तब उन्हें अपनी मां की बड़ी याद आई थी. एक वर्ष पहले ही उन की मौत हुई थी. वे होतीं तो बच्चे आज बिना घरघाट के नहीं रहते. कौशल का सबकुछ लुट चुका था. दिमाग और दिल से भी वे डर गए थे. पत्नी का नीलावर्ण उन की आंखों से दूर नहीं हो पा रहा था. कौशल की नजर अब अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों और मैरिज पोर्टल्स पर भी जाती पर उन की नैया को दोबारा कौन पार उतारेगा, कहीं आस न बंधती. ड्यूटी पर जाते तो दोनों बच्चों का मासूम चेहरा याद आता. पत्नी का स्नेह याद आता. सोचते कि अब जाने कैसे होंगे दोनों.

वे जब भी ससुराल जाते, उन्हें दोनों बच्चों के रूखे बाल दिखाई देते और उन के भोले प्रश्न उन्हें अंदर से कुरेद देते, पापा, ‘आप हम लोगों के साथ क्यों नहीं रहते? मम्मी रहतीं तो हम लोग आप के पास ही होते न.’ उन्हें बच्चों से अलग रहना इसलिए भी नहीं भाता कि ये उन के अक्षरज्ञान का समय था. मां नहीं है और पिता भी इतनी दूर. इस से वे तड़प जाते. हजार कोशिशों के बाद जो रिश्ते मिलते, उन में संदेह ज्यादा जबकि संभावना कम दिखाई देती. एक टीचर उन से ब्याह के लिए राजी थी. उस का नाम था कला. उस से कौशल कुमार ने शादी से संबंधित बातें कीं. वह बहुत ही व्यस्त टीचर थी. स्कूल में पढ़ाने के बाद भी बच्चों के 3 बैच उस से ट्यूशन पढ़ने आते. उस के लिए शादी सामान्य सी बात थी. क्या हुआ, आप के 2 बच्चे हैं तो वे भी मेरे साथ मेरे ही स्कूल में पढ़ लेंगे. मैं शादी के लिए राजी हूं, पर नौकरी छोड़ पाना मेरे लिए संभव नहीं होगा.

कौशल कला की नौकरी छोड़ने वाली बात को दिल से लगा बैठे थे. बच्चों के लिए मां ढूंढ़ रहे थे. पर मां कहां मिली. वह तो मास्टरनी ही होगी. टुकुरटुकुर बेचारे बिना मुंह के बच्चे देखते रह जाएंगे. ‘मम्मा खीर बनाओ,’ बेटा तो मम्मी से पीले चावल की फरमाइश करता था. बच्चे नहीं खाते तो पत्नी सुबह ही पुआपूरी बना कर खिला देती थी. अब सिर्फ उंगली पकड़ कर तीनों भागते ही नजर आएंगे. उन की आंखों के कोर भीग गए.

कौशल की चिंता जायज थी. एक जीवन खुशियों से भरा था, दूसरा डरावना महसूस हो रहा था. 2 नादान मासूम बच्चे और हजार प्रश्नों से घिरे कौशल. किसी ने उन्हें दूसरी लड़की का पता भी बताया पर मालूम हुआ उस के तो विवाहपूर्व ही प्रेमप्रसंग काफी चर्चे में हैं. वह भी कौशल से ब्याह करना चाहती थी. इस विषय पर पूछे जाने पर उस ने बड़ी बेबाकी से कहा, इतने दिनों तक ब्याह नहीं हुआ तो थोड़ाबहुत तो चलता है और आप कौन सा मुझ से पहली शादी करने वाले हैं, आप के साथ मुझे आप के बच्चों को भी तो संभालना पड़ेगा. कौशल उस की बातों से दुखी हो गए. वे जानबूझ कर विवाह के लिए कैसे हां करते. उस के चरित्र का प्रभाव बच्चों पर भी पड़ेगा. इतने बोल्ड तो कौशल नहीं हो पाते. उन्हें लगता वे मर जाते तो पत्नी कुछ भी कर के बच्चों को पाल लेती पर वे अकेले 2 बच्चों की नैया पार नहीं लगा सकते. वे अपने दोस्तों के घर भी जाते तो उन के लिए सिर्फ संवेदना दी जाती.

उन्हें तो जीवन चाहिए था. एक खुशगवार घर का, एक मुसकराती पत्नी का, 2 हंसतेखेलते बच्चों के विकास का. पता नहीं वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे. उन्हें अपने विधुर जीवन पर तरस आता. अंकिता और दोनों बच्चों की तसवीर ले कर वे घंटों रो लेते पर जीवन का हल नहीं दिखाई पड़ता. कईकई दिनों तक वे छुट्टियां ले कर बिना खाए घर में ही रह जाते. न किसी से मिलते न बातें करते. अखबार के विज्ञापन में पत्नी ढूंढ़ते. इसी तलाश में वे गरीब से गरीब घर की लड़कियों को भी देख आए थे. विधवा और छोड़ दी गई महिलाओं के साथ भी वे गठबंधन को राजी थे पर कुछ न कुछ फेरे सामने आते ही गए. विधवा स्त्री भी 2 बच्चों के पिता के नाम पर तैयार नहीं हुई थी. एक महिला तो कौशल से पूछ बैठी थी, पत्नी दुर्घटना में मरी या मारा था. कौशल टूट चुके थे. हालांकि वे बच्चों के लिए सौतेली मां नहीं लाना चाहते थे. यह उन के जीवन की मजबूरी थी. उन्होंने मन को कड़ा किया और एक विवाह प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. जीवन की मजबूरियों ने उन्हें बहुत मजबूर किया था. इस बार अनामिका से विवाह की सहमति उन्होंने दे दी.

कौशल एक अच्छे इंसान थे. अनामिका उन के सामने दुबली सी आम लड़की थी. उस ने उन की मजबूरियों को सुना था, जाना था और अपनी सहमति दे दी थी. विवाह हो गया. अनामिका ने गृहस्थी संभाल ली. सभी कहते थे, ‘सौतेली मां बच्चों का खयाल नहीं रखेगी, अपनी ही सुखसुविधाओं का खयाल रखेगी.’ वर्षों की धारणा को अनामिका ने मिट्टी में मिला दिया था. बेटी को उस ने कंठहार बना लिया था. बेटे को भी वह पूरी देखरेख में रखती. कौशल का अब समय अच्छा था कि उन्हें अनामिका जैसी पत्नी मिली थी. खानापीना, झाड़ूबुहारू, बरतनकपड़े और आखिर में पति के पांव दबा कर सोना उस की आदत थी. कौशल के घर वाले दबाव बनाते कि एक कामवाली बाई को क्यों नहीं रखते. बच्चों के लिए ट्यूटर क्यों नहीं रखते. पत्नी को मशीन क्यों बनाया है. कईर् बार उन्होंने अनामिका से कहा पर उस ने कहा कि वह सारे दिन घर में क्या करेगी.

वे कहते थे कि घर अनामिका का अधिकार क्षेत्र है, वही जाने कैसे घर चलाना है. अनामिका भी तुरंत कौशल के पक्ष में खड़ी हो जाती. मुझे सारे काम करने पसंद हैं. मैं कर पाती हूं, फिर क्या जरूरत है इन सब की. धीरेधीरे बच्चे पढ़ने लगे. नौकरी में आ गए. अनामिका वैसे ही सेवाभाव से कार्यरत रही. पुरानी मान्यताएं और परंपराएं उस के सामने गलत साबित होती गईं. समझ में नहीं आता किस के कैसे रूप हैं. घर वालों को लगता कौशल ही सौतेला व्यवहार कर रहे हैं. पर उन्हें खाना मिलता है. बच्चे खुशीखुशी पढ़ाई कर रहे हैं. जब सबकुछ दिखाई पड़ रहा है तो कोई चाहे जैसे अपनी गृहस्थी चलाए. सब के रिश्ते तो सौतेले ही हैं. बच्चे मां को आदर देना सीख गए थे. कोई काम बिना बताए नहीं करते.

दूसरों को गृहस्थी में टांग अड़ाने की न तो गुंजाइश थी, न जरूरत. इसलिए सभी मन मसोस कर चुप रहते. तभी पड़ोस में मदन भैया की अचानक मौत हो गई. सुना था कि उन्होंने अपनी पत्नी के मरने के बाद दूसरा विवाह किया था जबकि उन के 4 बच्चे थे. पर मदन भैया की दूसरी पत्नी बीमारी का ऐसा स्वांग रचती कि बेचारे मदन भैया ही खाना बना कर पत्नी व बच्चों को खिलाते.

पैसों के लिए भी तकरार होती. इसी बीच मदन भैया को हार्टअटैक हो गया. अब पत्नी सौतेले बच्चों से बातें भी नहीं करती. कैसे चलेगी गृहस्थी उन पांचों की. मदन भैया के क्रियाकर्म के बाद सौतेले लोग क्या कहेंगे, समझ में नहीं आया पर अनामिका की सेवा, उस की कर्तव्यनिष्ठा ने सारे रिश्तों को मात दे दी थी.

अनामिका से जब मुलाकात हुई तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘दीदी, हर कोई अपनाअपना वर्तमान बनाता है. क्या फर्क पड़ता है अगर मैं सुबह से शाम तक खटती हूं. ऐसा तो हर मां करती है. मेरी मां भी किया करती थीं. फिर मेरा तो परिवार ही छोटा है.’ तब लगने लगा कि कौशल मेरी नजरों में, पत्नी के साथ जो सौतेला व्यवहार करता है वह सौतेला नहीं, बल्कि मोहब्बत से भरा अपनापन है. मैं अपने नजरिए से उन का अपनापन नहीं जान पाई थी. आखिर, मैं भी कितना जानती थी अनामिका और कौशल को. पर मुझे उन के बीच सौतेलापन दिखाई पड़ता था. पर अब लगा, सौतेले लोगों को समझ पाना इतना भी आसान नहीं. सचमुच जीवन जीना एक कला है, सभी इसे समझ नहीं पाते.

Latest Hindi Stories : अर्पण – क्यों रो बैठी थी अदिति

Latest Hindi Stories :  आदमकद आईने के सामने खड़ी अदिति खुद के ही प्रतिबिंब को मुग्धभाव से निहार रही थी. उस ने कान में पहने डायमंड के इयररिंग को उंगली से हिला कर देखा. खिड़की से आ रही साढ़े 7 बजे की धूप इयररिंग से रिफ्लैक्ट हो कर उस के गाल पर पड़ रही थी, जिस से वहां इंद्रधनुष चमक रहा था. अदिति ने आईने में दिखाई देने वाले अपने प्रतिबिंब पर स्नेह से हाथ फेरा, फिर वह अचानक शरमा सी गई. इसी के साथ वह बड़बड़ाई, ‘वाऊ, आज तो हिमांशु मुझे जरूर कौंपलीमैंट देगा.’

फिर उस के मन में आया, यदि यह बात मां सुन लेतीं तो कहतीं, ‘हिमांशु कहती है? वह तेरा प्रोफैसर है.’

‘सो व्हाट?’ अदिति ने कंधे उचकाए और आईने में स्वयं को देख कर एक बार फिर मुसकराई.

अदिति शायद कुछ देर तक स्वयं को इसी तरह आईने में देखती रहती लेकिन तभी उस की मां की आवाज  उस के कानों में पड़ी, ‘‘अदिति, खाना तैयार है.’’

‘‘आई, मम्मी,’’ अदिति बाल ठीक करते हुए डाइनिंग टेबल की ओर भागी.

अदिति का यह लगभग रोज का कार्यक्रम था. प्रोफैसर साहब के यहां जाने से पहले आईने के सामने ही वह अपना अधिक से अधिक समय स्वयं को निहारते हुए बिताती थी. शायद आईने को यह सब अच्छा लगने लगा था, इसलिए वह भी अदिति को थोड़ी देर बांधे रखना चाहता था. इसीलिए तो उस का इतना सुंदर प्रतिबिंब दिखाता था कि अदिति स्वयं पर ही मुग्ध हो कर निहारती रहती. आईना ही क्यों अदिति को तो जो भी देखता, देखता ही रह जाता. वह थी ही इतनी सुंदर. छरहरी, गोरी काया, मछली जैसी काली आंखें, घने काले रेशम जैसे बाल. वह हंसती तो सुंदरता में चारचांद लगाने के लिए गालों में गड्ढे पड़ जाते थे. अदिति की मम्मी उस से अकसर कहती थीं, ‘तू एकदम अपने पापा जैसी लगती है. एकदम उन की कार्बनकौपी.’ इतना कहतेकहते अदिति की मम्मी की आंखें भर आतीं और वे दीवार पर लटक रही अदिति के पापा की तसवीर को देखने लगतीं.

अदिति जब ढाई साल की थी, तभी उस के पापा का देहांत हो गया था. अदिति को तो अपने पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं था. उस की मम्मी जिस स्कूल में नौकरी करती थीं उसी स्कूल में अदिति की पढ़ाई हुई थी. अदिति स्कूल की ड्राइंगबुक में जब भी अपने परिवार का चित्र बनाती, उस में नानानानी और मम्मी के साथ वह स्वयं होती थी. अदिति के लिए उस का इतना ही परिवार था.

अदिति के लिए पापा घर की दीवार पर लटकती तसवीर से अधिक कुछ नहीं थे. कभी मम्मी की वह आंखों से बहते आंसुओं में पापा की छवि महसूस करती तो कभी अलबम की ब्लैक ऐंड ह्वाइट तसवीर में वह स्वयं को जिस पुरुष की गोद में पाती वह ही तो उस के पापा थे. अदिति की क्लासमेट अकसर अपनेअपने पापा के बारे में बातें करतीं. टैलीविजन के विज्ञापनों में पापा के बारे में देख कर अदिति शुरूशुरू में कच्ची उम्र में पापा को मिस करती थी. परंतु धीरेधीरे उस ने मान लिया कि उस के घर में 2 स्त्रियां वह और उस की मम्मी रहती हैं और आगे भी वही दोनों रहेंगी.

बिना बाप की छत्रछात्रा में पलीबढ़ी अदिति कालेज की अपनी पढ़ाई पूरी कर के कब कमाने लगी, उसे पता  ही नहीं चला. वह ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर में पढ़ रही थी, तभी वह अपने एक प्रोफैसर हिमांशु के यहां पार्टटाइम नौकरी करने लगी थी. डा. हिमांशु जानेमाने साहित्यकार थे. यूनिवर्सिटी में हैड औफ द डिपार्टमैंट. अदिति इकोनौमिक्स ले कर बीए करना चाहती थी परंतु डा. हिमांशु का लैक्चर सुनने के बाद उस ने हिंदी को अपना मुख्य विषय चुना था.

डा. हिमांशु अदिति में व्यक्तिगत रुचि लेने लगे थे. उसे नईनई पुस्तकें सजैस्ट करते, किसी पत्रिका में कुछ छपा होता तो पेज नंबर सहित रैफरेंस देते. यूनिवर्सिटी की ओर से. प्रमोट कर के 2 सेमिनारों में भी अदिति को भेजा. अदिति डा. हिमांशु की हर परीक्षा में प्रथम आने के लिए कटिबद्ध रहती थी. इसी लिए वे अदिति से हमेशा कहते थे कि वे उस में बहुतकुछ देख रहे हैं. वह जीवन में जरूर कुछ बनेगी.

वे जब भी अदिति से यह कहते, तो कुछ बनने की लालसा अदिति में जोर मारने लगती. उन्होंने अदिति को अपनी लाइब्रेरी में पार्टटाइम नौकरी दे रखी थी. वे जानेमाने नाट्यकार, उपन्यासकार और कहानीकार थे. उन की हिंदी की तमाम पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगी हुई थीं. उन का लैक्चर सुनने और उन से मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी. नवोदित लेखकों से ले कर नाट्य जगत, साहित्य जगत और फिल्मी दुनिया के लोग भी उन से मिलने आते थे.

अदिति यूनिवर्सिटी में डा. हिमांशु को मात्र अपने प्रोफैसर के रूप में जानती थी. वे पूरे क्लास को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, यह भी उसे पता था. उसी क्लास में अदिति भी तो थी. अदिति उन की क्लास कभी नहीं छोड़ती थी. पहली बैंच पर बैठ कर उन्हें सुनना अदिति को बहुत अच्छा लगता था. लंबे, स्मार्ट, सुदृढ़ शरीर वाले डा. हिमांशु की आंखों में एक अजीब सा तेज था. सामान्य रूप से हल्के रंग की शर्ट और ब्लू डेनिम पहनने वाले डा. हिमांशु पढ़ने के लिए सुनहरे फ्रेमवाला चश्मा पहनते, तो अदिति मुग्ध हो कर उन्हें देखती ही रह जाती. जब वे अदिति के नोट्स या पेपर्स की तारीफ करते, तो उस दिन अदिति हवा में उड़ने लगती.

फाइनल ईयर में जब डा. हिमांशु की क्लास खत्म होने वाली थी तो एक दिन उन्होंने मिलने के लिए उसे डिपार्टमैंट में बुलाया. अदिति उन के कक्ष में पहुंची तो उन्होंने कहा, ‘अदिति, मैं देख रहा हूं कि इधर तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में नहीं लग रहा है. तुम अकसर मेरी क्लास में नहीं रहती हो. पहले 2 सालों में तुम फर्स्ट आई हो. यदि तुम्हारा यही हाल रहा तो इस साल तुम पिछले दोनों सालों की मेहनत पर पानी फेर दोगी.’

डा. हिमांशु अपनी कुरसी से उठ कर अदिति के पास आ कर खड़े हो गए. उन्होंने अपना हाथ अदिति के कंधे पर रख दिया. उन के हाथ रखते ही अदिति को लगा, जैसे वह हिमाच्छादित शिखर के सामने खड़ी है. उस के कानों में घंटियों की मधुर आवाज गूंजने लगी थीं.

‘तुम्हें किसी से प्रेम हो गया है क्या?’ उन्होंने पूछा.

अदिति ने रोतेरोते गरदन हिला कर इनकार कर दिया.

‘तो फिर?’

‘सर, मैं नौकरी करती हूं, इसलिए पढ़ने के लिए समय कम मिलता है.’

‘क्यों? डा. हिमांशु ने आश्चर्य से कहा, ‘शायद तुम्हें शिक्षा का महत्त्व पता नहीं है. शिक्षा केवल कमाई का साधन ही नहीं है. शिक्षा संस्कार, जीवनशैली और हमारी परंपरा है. कमाने के चक्कर में तुम्हारी पढ़ाई में रुचि खत्म हो गई है. इस तरह मैं ने तमाम विद्यार्थियों की जिंदगी बरबाद होते देखी है.’

‘सर,’ अदिति ने हिचकी लेते हुए कहा, ‘मैं पढ़ना चाहती हूं, इसीलिए तो नौकरी करती हूं.’

उन्होंने ‘आई एम सौरी, मुझे पता नहीं था,’ अदिति के सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘इट्स ओके, सर.’

‘क्या काम करती हो?’

‘एक वकील के औफिस में मैं टाइपिस्ट हूं.’

‘मैं नई किताब लिख रहा हूं. मेरी रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करोगी?’

अदिति ने आंसू पोंछते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.

उसी दिन से अदिति डा. हिमांशु की रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करने लगी. इस बात को आज 2 साल हो गए हैं. अदिति ग्रेजुएट हो गई है. वह फर्स्ट क्लास आई थी यूनिवर्सिटी में. डा. हिमांशु एक किताब खत्म होते ही अगली पर काम शुरू कर देते. इस तरह अदिति का काम चलता रहा. अदिति ने एमए में ऐडमिशन ले लिया था. अकसर उस से कहते, ‘अदिति, तुम्हें पीएचडी करनी है. मैं तुम्हारे नाम के आगे डाक्टर लिखा देखना चाहता हूं.’

फिर तो कभीकभी अदिति बैठी पढ़ रही होती, तो  कागज पर प्रोफैसर के साथ अपना नाम जोड़ कर लिखती फिर शरमा कर उस कागज पर इतनी लाइनें खींचती कि वह नाम पढ़ने में न आता. परंतु बारबार कागज पर लिखने की वजह से यह नाम अदिति के हृदय में इस तरह रचबस गया कि वह एक भी दिन उन को न देखती तो उस का समय काटना मुश्किल हो जाता.

पिछले 2 सालों में अदिति प्रोफैसर के घर का एक हिस्सा बन गई थी. सुबह घंटे डेढ़ घंटे उन के घर काम कर के वह साथ में यूनिवर्सिटी जाती. फिर 5 बजे साथ ही उन के घर आती, तो उसे अपने घर जाने में अकसर रात के 8 बज जाते. कभीकभी तो 10 भी बज जाते. डा. हिमांशु मूड के हिसाब से काम करते थे. अदिति को भी कभी घर जाने की जल्दी नहीं होती थी. वह तो उन के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का बहाना ढूंढ़ती रहती थी.

इन 2 सालों में अदिति ने देखा था कि प्रोफैसर को जानने वाले तमाम लोग थे. उन से मिलने भी तमाम लोग आते थे. अपना काम कराने और सलाह लेने वालों की भी कमी नहीं थी. फिर भी एकदम अकेले थे. घर से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से घर, यही उन की दिनचर्या थी. वे कहीं बाहर आनाजाना या किसी गोष्ठी में भाग लेना पसंद नहीं करते थे. बड़ी मजबूरी में ही वे किसी समारोह में भाग लेने जाते थे. अदिति को यह सब बड़ा आश्चर्यजनक लगता था. वे पढ़ाई के अलावा किसी से भी कोई फालतू बात नहीं करते थे. अदिति उन के साथ लगभग रोज ही गाड़ी से आतीजाती थी. परंतु इस आनेजाने में शायद ही कभी उन्होंने उस से कुछ कहा हो. दिन के इतने घंटे साथ बिताने के बावजूद उन्होंने काम के अलावा कोई भी बात अदिति से नहीं की थी. अदिति कुछ कहती तो वे चुपचाप सुन लेते. मुसकराते हुए उस की ओर देख कर उसे यह आभास करा देते कि उन्होंने उस की बात सुन ली है.

किसी बड़े समारोह या कहीं से डा. हिमांशु वापस आते तो अदिति बड़े ही अहोभाव से उन्हें देखती रहती. उन की शौल ठीक करने के बहाने, फूल या किताब लेने के बहाने, अदिति उन्हें स्पर्श कर लेती. टेबल के सामने डा. हिमांशु बैठ कर लिख रहे होते तो अदिति उन के पैर पर अपना पैर स्पर्श करा कर संवेदना जगाने का प्रयास करती. वे उस की नजरों और हावभाव से उस के मन की बात जान गए थे. फिर भी उन्होंने अदिति से कुछ नहीं कहा. अब तक अदिति का एमए हो गया था. डा. हिमांशु के अंडर में ही वह रिसर्च कर रही थी. उस की थिसिस भी अलग से तैयार ही थी.

अदिति को आभास हो गया था कि डा. हिमांशु उस के मन की बात जान गए हैं. फिर भी वे ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो. उन के प्रति अदिति का आकर्षण धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा था. आईने के सामने खड़ी स्वयं को निहार रहीअदिति ने तय कर लिया था कि आज वह डा. हिमांशु से अपने मन की बात अवश्य कह देगी. फिर वह मन ही मन बड़बड़ाई, ‘प्रेम करना कोई अपराध नहीं है. प्रेम की कोई उम्र नहीं होती.’

इसी निश्चय के साथ अदिति डा. हिमांशु के घर पहुंची. वे लाइब्रेरी में बैठे थे. अदिति उन के सामने रखे रैक से टिक कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बरसने की तैयारी में थे. उन्होंने अदिति को देखते ही कहा, ‘‘अदिति, बुरा मत मानना, डिपार्टमैंट में प्रवक्ता की जगह खाली है. सरकारी नौकरी है. मैं ने कमेटी के सभी सदस्यों से बात कर ली है. तुम अपनी तैयारी कर लो. तुम्हारा इंटरव्यू फौर्मल ही होगा.’’

‘‘परंतु मुझे यह नौकरी नहीं करनी है,’’ अदिति ने यह बात थोड़ी ऊंची आवाज में कही. आंखों के आंसू गालों पर पहुंचने के लिए पलकों पर लटक आए थे.

डा. हिमांशु ने मुंह फेर कर कहा, ‘‘अदिति, अब तुम्हारे लिए यहां काम नहीं है.’’

‘‘सचमुच?’’ अदिति ने उन के एकदम नजदीक जा कर पूछा.

‘‘हां, सचमुच,’’ अदिति की ओर देखे बगैर बड़ी ही मृदु और धीमी आवाज में डा. हिमांशु ने कहा, ‘‘अदिति, वहां वेतन बहुत अच्छा मिलेगा.’’

‘‘मैं वेतन के लिए नौकरी नहीं करती,’’ अदिति और भी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सर, आप ने मुझे कभी समझा ही नहीं.’’

वे कुछ कहते, उस के पहले ही अदिति उन के एकदम करीब पहुंच गई. दोनों के बीच अब नाममात्र की दूरी रह गई थी. उस ने डा. हिमांशु की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘सर, मैं जानती हूं, आप सबकुछ जानतेसमझते हैं. प्लीज, इनकार मत कीजिएगा.’’

अदिति के आंसू आंखों से निकल कर कपोलों को भिगोते हुए नीचे तक बह गए थे. वह कांपते स्वर में बोली, ‘‘आप के यहां काम नहीं है? इस अधूरी पुस्तक को कौन पूरी करेगा? जरा बताइए तो, चार्ली चैपलिन की आत्मकथा कहां रखी है? बायर की कविताएं कहां हैं? विष्णु प्रभाकर या अमरकांत की नई किताबें कहां रखी हैं…?’’

डा. हिमांशु चुपचाप अदिति की बातें सुन रहे थे. उन्होंने दोनों हाथ बढ़ा कर अदिति के गालों के आंसू पोंछे और एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारे आने के पहले मैं किताबें ही खोज रहा था. तुम नहीं रहोगी तो भी मैं किताबें ढूंढ़ लूंगा.’’

अदिति को लगा कि उन की आवाज यह कहने में कांप रही थी.

डा. हिमांशु ने आगे कहा, ‘‘इंसान पूरी जिंदगी ढूंढ़ता रहे तो भी शायद उसे न मिले और यदि मिले भी तो इंसान ढूंढ़ता रहे. उसे फिर भी प्राप्त न हो सके, ऐसा भी हो सकता है.’’

‘‘जो अपना हो उस का तिरस्कार कर के,’’ इतना कह कर अदिति दो कदम पीछे हटी और चेहरे को दोनों हाथों में छिपा कर रोने लगी. फिर लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘क्यों?’’

डा. हिमांशु ने अदिति को थोड़ी देर तक रोने दिया. फिर उस के नजदीक जा कर कालेज में पहली बार जिस सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा था उसी तरह उस के कंधे पर हाथ रखा. अदिति को फिर एक बार लगा कि हिमालय के शिखरों की ठंडक उस के सीने में समा गई है. कानों में मधुर घंटियां बजने लगीं. उस ने स्नेहिल नजरों से डा. हिमांशु को देखा. फिर आगे बढ़ कर अपनी दोनों हथेलियों में उन के चेहरे को भर कर चूम लिया. फिर वह उन से लिपट गई. वह इंतजार करती रही कि डा. हिमांशु की बांहें उस के इर्दगिर्द लिपटेंगी परंतु ऐसा नहीं हुआ. वे चुपचाप बिना किसी प्रतिभाव के आंखें फाड़े उसे ताक रहे थे. उन का चेहरा शांत, स्थितप्रज्ञ और निर्विकार था.

‘‘आप मुझ से प्यार नहीं करते?’’

डा. हिमांशु उसे देखते रहे.

‘‘मैं आप के लायक नहीं हूं?’’

डा. हिमांशु के होंठ कांपे, पर शब्द नहीं निकले.

‘‘मैं अंतिम बार पूछती हूं,’’ अदिति की आवाज के साथ उस का शरीर भी कांप रहा था. स्त्री हो कर स्वयं को समर्पित कर देने के बाद भी पुरुष के इस तिरस्कार ने उस के पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था. आंखों से आंसुओं की जलधारा बह रही थी. एक लंबी सांस ले कर वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं, आप मुझे प्यार करते हैं या नहीं? या फिर मैं आप के लिए केवल एक तेजस्विनी विद्यार्थिनी से  अधिक कुछ नहीं हूं?’’ फिर डा. हिमांशु का कौलर पकड़ कर झकझोरते हुए बोली, ‘‘सर, मुझे अपनी बातों का जवाब चाहिए.’’

डा. हिमांशु उसी तरह जड़ बने खड़े थे. अदिति ने लगभग धक्का मार कर उन्हें छोड़ दिया. रोते हुए वह उन्हें अपलक ताक रही थी. उस ने दोनों हाथों से आंसू पोंछे. पलभर में ही उस का हावभाव बदल गया. उस का चेहरा सख्त हो गया. उस की आंखों में घायल बाघिन का जनून आ गया था. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मुझे इस बात का हमेशा पश्चात्ताप रहेगा कि मैं ने एक ऐसे आदमी से प्यार किया जिस में प्यार को स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. मैं तो समझती थी कि आप मेरे आदर्श हैं, सामर्थ्यवान हैं. परंतु आप में एक स्त्री को सम्मान के साथ स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. जीवन में यदि कभी समझ में आए कि मैं ने आप को क्या दिया है, तो उसे स्वीकार कर लेना. जिस तरह हो सके, उस तरह. आज के आप के तिरस्कार ने मुझे छिन्नभिन्न कर दिया है. जो टीस आप ने मुझे दी है, हो सके तो उसे दूर कर देना क्योंकि इस टीस के साथ जिया नहीं जा सकता.’’

इतना कह कर अदिति तेजी से पलटी और बाहर निकल गई. उस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. फिर भी उस ने उसी कालेज में आवेदन कर दिया जिस में डा. हिमांशु ने नौकरी की बात कर रखी थी. 2-3 माह में वह कालेज भी जाने लगी पर डा. हिमांशु से कोई संपर्क नहीं किया. कुछ दिन बाद अदिति अखबार पढ़ रही थी, तो अखबार में छपी एक सूचना पर उस की नजर अटक गई. सूचना थी-‘प्रसिद्ध साहित्यकार, यूनिवर्सिटी के हैड औफ द डिपार्टमैंट डा. हिमांशु की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई है. उन का…’

अदिति ने इतना पढ़ कर पन्ना पलट दिया. रोने का मन तो हुआ, लेकिन जी कड़ा कर के उसे रोक दिया. अगले दिन अखबार में डा. हिमांशु के बारे में 2-4 लेख छपे थे. अदिति ने उन्हें पढ़े बगैर ही उस पन्ने को पलट दिया था. इस के 4 दिन बाद औफिस में अदिति को पाठ्यपुस्तक मंडल की ओर से ब्राउनपेपर में लिपटा एक पार्सल मिला. भेजने वाले का नाम उस पर नहीं था. अदिति ने जल्दीजल्दी उस पैकेट को खोला. उस पैकेट में वही पुस्तक थी जिसे वह अधूरी छोड़ आई थी. अदिति ने प्यार से उस पुस्तक पर हाथ फेरा. लेखक का नाम पढ़ा. उस ने पहला पन्ना खोला, किताब के नाम आदि की जानकारी थी. दूसरा पन्ना खोला, लिखा था :

‘अर्पण

मेरे जीवन की एकमात्र स्त्री को, जिसे मैं ने हृदय से चाहा, फिर भी उसे कुछ दे न सका. यदि वह मेरी एक पल की कमजोरी को माफ कर सके, तो इस पुस्तक को अवश्य स्वीकार कर ले.’

उस किताब को सीने से लगाने के साथ ही अदिति एकदम से फफकफफक कर रो पड़ी. पूरा औफिस एकदम से चौंक पड़ा. सभी उठ कर उस के पास आ गए. हर कोई एक ही बात पूछ रहा था, ‘‘क्या हुआ अदिति? क्या हुआ?’’

रोते हुए अदिति मात्र गरदन हिला रही थी. उसे खुद ही पता नहीं था कि उसे क्या हुआ है.

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