दीपा शौटपुटर के अलावा स्विमर, बाइकर, जैवलिन व डिस्कस थ्रोअर हैं. पैरालिंपिक खेलों में उन की उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार ने अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया था और इस वर्ष उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया. बेचारी जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले समाज की इस सोच को अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति के बल बूते बदलने वाली देश की पहली महिला पैरालिंपिक मैडलिस्ट दीपा मलिक का जीवन चुनौतियों से भरा रहा. उन्होंने इतिहास तब रचा जब रियो में गोला फेंक स्पर्धा में रजत पदक जीत कर पैरालिंपिक में पदक हासिल करने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं. दीपा ने स्पाइन ट्यूमर से जंग जीती और फिर खेलों में मैडलों का अंबार लगा डाला. पेश हैं, दीपा से हुई बातचीत के कुछ अंश:
खुद के साथ बेटियों को संभालने और अपनी अलग पहचान बनाने की ताकत कहां से मिली?
मुझे कुछ करने की ताकत 3 चीजों से मिली- पहली मुझे समाज की उस नकारात्मक सोच को बदलना था जिस में मेरे लिए बेचारी और लाचार जैसे शब्दों का प्रयोग लोग करने लगे थे. इस अपंगता में जब मेरा दोष नहीं था तो मैं क्यों खुद को लाचार महसूस कराऊं? मुझे समाज को दिखाना था कि हम जैसे लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं. हिम्मत और जज्बे के आगे शारीरिक कमी कभी बाधा नहीं बनती. दूसरी ताकत मेरी बेटियां बनीं, जिन्हें मैं संभाल र ही थी. मैं नहीं चाहती थी कि बड़ी हो कर मेरी बेटियां मुझे लाचार मां के रूप में देखें. तीसरी ताकत खेलों के प्रति मेरा शौक बना, जिस ने इस स्थिति से लड़ने में मेरी बहुत सहायता की.
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पेरैंट्स का कैसा सहयोग रहा?
मैं आज उन्हीं की बदौलत यहां हूं. मैं जब ढाई साल की थी तब पहली बार मुझे ट्यूमर हुआ था. इस का पता भी पापा ने ही लगाया. जब मैं घर में गुमसुम रहने लगी तो पापा ने मुझे चाइल्ड मनोवैज्ञानिक को दिखाया. जब मेरी बीमारी का पता चला तब पुणे आर्मी कमांड हौस्पिटल में मेरा इलाज हुआ. मैं जब तक बैड पर रही, पापा हमेशा मेरे साथ रहे. मेरे पापा बीके नागपाल आर्मी में कर्नल थे. मां भी अपने जमाने की राइफल शूटर थीं. शादी के बाद जब 1999 में दूसरी बार मेरा स्पाइनल कोर्ड के ट्यूमर का औपरेशन हुआ तब भी मुझे पापा ने ही संभाला.
आप ने परिवार को कैसे संभाला?
मेरे पति भी आर्मी में थे. पहली बेटी देविका जब डेढ़ साल की थी तो उस का ऐक्सीडैंट हो गया. हैड इंजरी थी जिस से उस के शरीर का एक हिस्सा पैरालाइज हो गया. यह देख कर मैं बिलकुल नहीं घबराई. मैं ने खुद उस की देखभाल की, फिजियोथेरैपी की. आज वह बिलकुल स्वस्थ है और लंदन में साइकोलौजी से पीएचडी कर रही है. दूसरी बेटी भी पैरालाइज थी. उसे भी ठीक किया. आज वह भी पूरी दुनिया घूम चुकी है. म ैं तो मानती हूं कि मैं ने बेटी पढ़ा भी ली और बचा भी ली. लेकिन तीसरी सर्जरी के बाद मैं व्हीलचेयर पर आ गई, लेकिन तब भी हिम्मत नहीं हारी. मेरे लिए इन सब मुश्किलों से निबटना आसान नहीं था, मगर मुझे खुद पर यकीन था कि मैं इन से निबट भी लूंगी और जीवन को सामान्य धारा में भी ले आऊंगी.
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खेलों की शुरुआत कैसे हुई?
बचपन से ही मेरा लगाव खेलों की तरफ था. मैं स्पोर्ट में हिस्सा लेना और उन्हें देखना पसंद करती थी. लेकिन 2006 के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. जब स्पोर्ट में आगे बढ़ने की बारी आई तो सरकार से अपने अधिकारों के लिए लड़ी भी. कुछ नए नियम भी बनवाए. मैं पहले महाराष्ट्र की तरफ से खेलती थी. 2006 में एक तैराक के रूप में मुझे पहला मैडल मिला. उस समय मैं पूरे भारत में अकेली दिव्यांग तैराक थी.
आप ने यमुना नदी भी पार की है?
मैं जब बर्लिन से लौटी तब घर नहीं गई और यह तय किया कि मैं यमुना को पार करूंगी और विश्व में सब को बताऊंगी कि मैं असल तैराक हूं. किसी स्विमिंग पूल की तैराक नहीं हूं. इलाहाबाद के एक कोच से कहा कि आप कैसे भी हो मुझे यमुना पार कराओ. पहले तो उन्होंने मना किया पर फिर मेरे जज्बे को देख कर प्रैक्टिस कराने लगे. फिर 2009 में मैं ने यमुना नदी पार कर विश्व रिकौर्ड बनाया, जो ‘लिम्का बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ में दर्ज हुआ. मेरे पास ‘गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ बुक वालों को बुलाने के लिए पैसे नहीं थे वरना यह रिकौर्ड गिनीज बुक में दर्ज होता.
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