तीसरी बार भारतीय न्याय रिपोर्ट के अनुसार दक्षिणी राज्यों का दबदबा जारी है. ये तीन राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु और तेलंगाना ने न्याय तक पहुंच प्रदान करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की लिस्ट में टॉप 3 जगह हासिल की है. इसके अलावा गुजरात और आंध्र प्रदेश को क्रमशः चौथा और पांचवां स्थान दिया गया है. न्याय के मामले में सबसे बुरा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश टॉप पर है. रिपोर्ट में यूपी को 18 बड़े और ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में सबसे खराब प्रदर्शन वाला राज्य बताया गया है.
कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम न्याय प्रदान करने के मामले में सबसे ऊपर है. 1 करोड़ से कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम के बाद दो नॉर्थ-ईस्ट राज्यों अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा का नाम भी शामिल है. गोवा इस लिस्ट में सातवें नंबर पर है.
पहल करना जरुरी
इस बारें में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के एडिटर माजा दारूवाला कहती है कि ये जस्टिस रिपोर्ट पिछले 3 साल से किया जा रहा है, इसमें मेरी टीम अलग – अलग राज्यों में जाती है और वहां के इंटेलेक्चुअल और ब्यूरोक्रेट्स से बात कर निरिक्षण करती है, जिसमे बातचीत से काफी बातें सामने आती है. कनार्टक के चीफ सेक्रेट्री ने बुलाकर बात की रिपोर्ट के आंकड़े देखे, तो उन्होंने मीटिंग बुलाई और लोगों की समस्याओं पर चर्चा की और उसमें सुधार करने के बारें में सोचा है. फैले हुए आकड़ों को समेटने के बाद, इजी फोर्मेट में आने पर इसे समझना आसान हो जाता है और इसपर काम करने के अलावा एक बातचीत शुरू हो जाती है.
कर्नाटक में जस्टिस का आकड़ा सबसे अच्छा दिखने की वजह के बारें में पूछने पर माजा बताती है कि परफेक्ट वजह बताना संभव नहीं. एक वजह यह भी हो सकता है कि चुनाव आ रहे है, तो राज्य सरकार कुछ जल्दी सुधार कर लोगों का विश्वास पाना चाह रही हो, लेकिन ये सही है कि उन्होंने इस दिशा में काम करने का प्रयास किया है, जिसका परिणाम सामने दिख रहा है.
चौकाने वाले आंकड़े
भारत में लंबित मामलों के चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं. इंडिया जस्टिस की रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे देश में तेजी से कैदियों की संख्या बढ़ती जा रही है. इसके साथ ही इंडिया जस्टिस ने भारत की न्यायपालिका को लेकर भी आंकड़े जारी किए हैं, जिनमें बताया गया है कि देश की तमाम अदालतों में जजों की भारी कमी है. रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि देश के किन राज्यों में जस्टिस सिस्टम ने सबसे बेहतरीन काम किया है और कहां न्याय मिलने या मामलों के फैसलों में देरी हो रही है.
रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि हर एक जज पर लंबित मामलों का कितना भार है. जजों की कमी के चलते ये भार काफी ज्यादा बढ़ गया है. दिसंबर 2022 तक, देश में 10 लाख लोगों पर 19 जज थे और करीब 4.8 करोड़ मामलों का बैकलॉग था. जबकि लॉ कमीशन ऑफ इंडिया की तरफ से 1987 में ही सुझाव दिया गया था कि एक दशक में प्रत्येक 10 लाख लोगों के लिए 50 जज होने चाहिए. देश में कई राज्य ऐसे हैं जहां एक जज पर 15 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं.
अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के आंकड़े देखने पर पता चलता है कि पिछले कई सालों के मामले अब तक लंबित पड़े हैं. इसमें यूपी सबसे उपर है. यहां औसतन 11.34 सालों के केस भी अब तक लंबित हैं. वहीं इसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है, जहां 9.9 साल औसत पेंडेंसी है. इस मामले में सबसे अच्छा प्रदर्शन त्रिपुरा का है, जहां औसत पेंडेंसी करीब एक साल है. इसके बाद सिक्किम (1.9 साल) और मेघालय (2.1 साल) लिस्ट में हैं.
11 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की जिला अदालतों में प्रत्येक चार में से एक मामले 5 साल से अधिक समय से लंबित हैं. देश में ऐसे मामलों की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (53 प्रतिशत), और सिक्किम में सबसे कम (0.8 प्रतिशत) है. बड़े और ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल में ऐसे मामले 48.4 प्रतिशत और बिहार में 47.7 प्रतिशत हैं.
सरकारी क्षेत्रों में महिलाओं के भर्ती की कमी
प्रोजेक्ट लीड वलय सिंह कहते है कि जब मैंने साल 2019 में पहली रिपोर्ट शेयर की थी, तो कर्नाटक के हाई कोर्ट में 47 परसेंट बहुत वेकेंसियाँ थी,जिसमे उन्होंने भर्तियाँ बढाई है, हाई कोर्ट की वेकेंसियाँ आधी कर दी. जेल के बजट को भी कम किया गया. सेशंस में सीसी टीवी कैमरे लगाये गए. पिछले सालों की तुलना करें, तो सभी राज्यों में कुछ न कुछ सुधार अवश्य हुआ है, कोशिश सभी कर रहे है. लेकिन बहुत धीमा काम होने पर जरुरत के हिसाब से कमी बढती जाती है. कारागारों की व्यवस्था ख़राब होता जा रह है, औरतों का आरक्षण बहुत धीरे-धीरे सुधर रहा है. औरते है, काम नहीं बेरोजगार है, वे काम करने के लिए तैयार भी है. देखा जाय तो आई टी सेक्टर में महिलाएं सबसे अधिक काम करती है,जबकि सरकारी निचली अदालतों में महिलाओं का राष्ट्रिय औसत 35 प्रतिशत है, बाकी सब जगह ये 20, 15 और 10 के नीचे है. लोअर जुडीशियरी में 33 प्रतिशत या 35 प्रतिशत या कई राज्यों में उससे भी अधिक महिलाएं जज बन रही है, लेकिन आई टी सेक्टर से तुलना करने पर पता चलता है कि महिलाएं और अधिक काम सरकारी क्षेत्र में कर सकती है. महिला पुलिस ऑफिसर का प्रतिशत 5 है.माजा दारूवाला आगे कहती है कि पुलिस का 90 प्रतिशत काम किसी टेरोरिस्ट या गैंग को पकड़ना नहीं होता. पुलिस का काम प्रसाशनिक, दिमाग और डेस्क वाला होता है. इसे कोई भी महिला कर सकती है.
100 फीसदी तक नहीं केस क्लीयरेंस रेट
राज्यों के केस क्लीयरेंस रेट की बात करें, तो हाईकोर्ट्स में 2018-19 से 2022 के बीच राष्ट्रीय औसत में छह प्रतिशत (88.5 प्रति प्रतिशत से 94.6 प्रतिशत) की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन निचली अदालतों में 3.6 (93 प्रतिशत से 89.4 प्रतिशत) की गिरावट आई है. 2018 से 2022 के बीच त्रिपुरा ही इकलौता राज्य है जहां जिला अदालतों में केस क्लीयरेंस रेट 100 प्रतिशत से ऊपर रहा. हालांकि 2020 में कोरोनाकाल के दौरान त्रिपुरा में भी केस क्लीयरेंस रेट 40 प्रतिशत तक पहुंच गया था.
सही आंकड़ों का मिलना होता है मुश्किल
समस्या क्या होती है? मेरी टीम अच्छी है और मेरे पार्टनर ने सहयोग दिया है. ये समस्या आकड़ों की है, केवल सरकारी रिपोर्ट को देखते है, नेशनल, राज्य, पार्लियामेंट, बजट, असेम्बली को देखते हुए काम करते है,जो नहीं मिलता है, उसे राईट टू इनफार्मेशन में एप्लीकेशन डाल-डालकर देता निकलना पड़ता है. डेटा कई बार मुश्किल से देते है, या फिर उसमे खामिया होती है, जब इसे रिपोर्ट बनाते है, लोग आलोचना करते है और कहते है कि ये गलत रिपोर्ट है, लेकिन ये एक आइना है, क्रिटिक नहीं. इसमें बाधा होने पर दिखेगा. इसके अलावा इसमें हार्ड वर्क और पैशन होना जरुरी होता है, इसे देश के लिए ही किया जा रहा है. वह आगे कहती है कि भारत ने यह वादा किया है कि 2030 तक वह प्रत्येक व्यक्ति की न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करेगा और सभी स्तरों पर प्रभावी, जवाबदेह और समावेशी संस्थानों का निर्माण करेगा, लेकिन इस साल आईजेआर के द्वारा प्रस्तुत आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि अभी हमें लंबा सफर तय करना है. मेरा फिर से आग्रह है कि हम सब के लिए किफायती, कुशल, और सुलभ न्याय सेवाओं को भोजन, शिक्षा या स्वास्थ्य की तरह ही आवश्यक माना जाए. इसके लिए इसमें और अधिक संसाधनों को लगाने की, बहुत अधिक कैपेसिटी बिल्डिंग की लंबे समय से चली आ रही खामियों को दूर करने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है.
मीडिया को ध्यान देने की है जरुरत
मीडिया में विश्वसनीयता की कमी,कितना नुकसान दायक है? माजा कहती है कि ये सही है आज की मीडिया में लोगों को कुछ सही खबर देने की जो परमंपरा पहले थी, वह अब ख़त्म हो गयी है. ऐसे में डेटा को लेकर कुछ लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. यही वजह है कि लोग हमें रिपोर्ट के द्वारा ओपिनियन देने की बात कहते है. राय तो है,लेकिन उससे क्या बदलाव हो सकेगा.मैंने इन आंकड़ों पर रिपोर्ट तैयार की है. ये आंकड़े भी हमारी सरकार के है, इसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है. मेरा सरकार के प्रति पक्षपाती होना भी नहीं है. सिर्फ सुधार जो हुआ है या कम हुआ है, उसकी प्रतिबिम्ब को दिखाना है. रिपोर्ट भी बनाने से पहले हमने डेटा को इकट्ठा किया और उसे ग्राउंड पर जाकर मिलान भी किया. रिपोर्ट एक छोटा पार्ट है, जिसमें काम करने के तरीके, लोग क्या सह रहे है, क्या नहीं, पारदर्शिता है या नही आदि कई बातों को सामने लाने की कोशिश की गई है.
बॉक्स में :
न्याय पालिका पर दबाव
- सिक्किम हाई कोर्ट और चंडीगढ़ डिस्ट्रिक्ट हाई कोर्ट को छोड़कर देश के किसी भी कोर्ट में जजों की संख्या पूरी नहीं,
- 18 बड़े और ज्यादा जनसँख्या वाले राज्यों में केस और क्लियरेंस रेट के मामले में सिर्फ केरल ने छुआ 100 फीसदी का आंकड़ा,
- डिस्ट्रिक्ट कोर्ट लेवल पर किसी भी राज्य ने एससीएसटी और ओबीसी कोटा को पूरा नहीं किया,
- न्याय के मामले में साउथ के राज्य सबसे आगे, जिसमे कर्णाटक, तमिलनाडु, और तेलंगाना ही 3 सबसे उपरी पायदान पर,
प्रति जज लंबित मामलों की औसत संख्या
- राजस्थान –24000
- मध्यप्रदेश –12000 से अधिक
- उत्तरप्रदेश –करीब 12000
- हिमाचल प्रदेश – करीब 9 हज़ार
- आंध्रप्रदेश – करीब 9 हज़ार
- हरियाणा – करीब 8 हज़ार