लोकतंत्र का मतलब है ऐसी सरकार जो जनता के रूप में शासन चला सके. हो उलटा रहा है. लोकतंत्र से सत्ता पाई जा रही है ताकि नेताओं के लिए शासन चलाया जा सके. भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने उस में एक बड़ा परिवर्तन किया है तो यह कि शासन मंदिरों और मंदिरों से जुड़े लोगों के ?लिए चलाया जा सके. नतीजा यह है कि हर धर्मस्थल के लिए हर देश में सुविधाएं जमा की जा रही हैं और बाकी शहरियों को मिलने वाली सुविधाएं कम होती जा रही हैं.
टाइम्स औफ इंडिया के 24 फरवरी के पृष्ठ 3 पर छपी वाटर क्राइसिस की खबर को देखें. वैसे इस खबर में कुछ नया नहीं है. दिल्ली जैसे अनेक शहरों में पूरे साल नलों से पानी न मिलने की शिकायत रहती है. रोमन युग में शासकों ने आज से 2500 साल पहले रोज के लिए पानी लाने के लिए 16 ऐक्वाडक्ट बनाए थे जिन से जमीन से 200 फुट ऊपर तक पत्थर की नहरें बनाई गई थीं, जो सैकड़ों मील दूर से पानी लाती थीं और रोम के अमीरों से ज्यादा यह सुविधा पब्लिक फाउनटेनों के लिए थी जहां से कोई भी पानी भर सकता था. बिना पंप, बिना बिजली, बिना मशीनों के यह सिस्टम उस देश ने डैवलप किया जिसे गुरु नहीं कहा गया और जहां कोई धर्म नहीं था.
टाइम्स औफ इंडिया की इस खबर का उल्लेख उस तसवीर के लिए किया जा रहा है जिस में बीसियों औरतें दिल्ली जल बोर्ड के टैंकरों के चारों ओर जमा हैं. जो देश फालतू के निर्माण को बनाने में लगा है वह उन औरतों की चिंता नहीं करता जो घंटों पानी के टैंकरों का इंतजार करती हैं. इस भीड़ में मर्द बहुत कम हैं. क्या घर चलाने का जिम्मा उन औरतों का ही है जो घर पर कोई मालिकाना हक तक नहीं रखतीं?
मुगलों ने बहुत सी नहरें बनाईं. दिल्ली और आगरा की नहरें मुसलिम राजाओं के समय की हैं, जिस कारण शहरों के बीच से नदियों का पानी 24 घंटे बहता रहता था. आज जब हर तरह की तकनीक मौजूद है, बिजली है, कंप्यूटर है, पानी के लिए औरतों की शक्ति और उन का समय बरबाद करना और गुणगान करना कि सनातनकाल लौट आया है, एक धोखा है.
निर्माण आम औरतों के लिए होने चाहिए. चौथी शताब्दी में रोमन सम्राट वेलंस ने इस्तेमाल के लिए 436 किलोमीटर का ऐक्वाडक्ट यानी ऐलीवेटेड नहर बनवाई. उस ने कोई मंदिर बना कर, कौरीडोर बना कर नाम नहीं कमाया. औरतों, घरों, बच्चों की सुविधाओं के लिए पानी मुहैया कराया.
भारत सरकार ने शुरू में शौचालयों की खूब बात की पर जब सीवर न हों, पानी न हो तो कैसे शौचालय? शौचालयों का इस देश में न होना, सीवर न होना, नालियां न होना असल में औरतों को कमजोर और बीमार करने की सोचीसमझी साजिश है. वे टैंकरों के लिए घंटों बरबाद करने की टे्रनिंग पा जाती हैं तो यह टे्रनिंग मंदिरों की लाइनों में लगने में इस्तेमाल आती है.
टैंकरों के लिए इंतजार करना या इन के दर्शन के लिए समय बरबाद करना औरतों पर घरों में बेहद दबाव बढ़ाता है, उन्हें घरों की देखभाल, खाना बनाने, बच्चों को पालने, पति को सैक्स सुख देने के बाद कुछ भी अपने लिए कुछ भी समय नहीं मिलता.
सरकार, समाज और धर्म तीनों मिल कर उन का समय टैंकरों के आगे, मंदिरों के आगे और मुफ्त या सस्ते राशन की दुकानों के आगे लगवा कर बरबाद करते हैं ताकि इन जगहों से कुछ पा कर वे अपने को धन्य मान लें और सरकार व समाज से सवाल न करें.
लाइनों में लग कर टैंकरों के दर्शन और किसी दर्शन में कोई खास फर्क नहीं है और दोनों में ज्यादातर अगर औरतें दिखें तो सवाल उठता है कि क्या यह अनायास है या सोचीसम?ा नीति है? इस का जवाब औरतों को खुद उठ कर ढूंढ़ना होगा. उन्हें लाइनों का बहिष्कार करना होगा. घर भूखा मरे, ईश्वरअल्ला की कृपा न हो, लाइन में लगने का काम उन्हीं का नहीं हो सकता. शासकों को लाइन संस्कृति समाप्त करनी होगी. धर्मस्थल नहीं, नल बनवाने होंगे. कौरीडोर नहीं सीवर डलवाने होंगे पर यह मांग औरतें करें, शासक उन्हें तश्तरी में नहीं देंगे.