Devanshu Singh : बिहार के मुंगेर से मुंबई तक के फिल्मी सफर में आई अड़चनों को पार कर देवांशु सिंह एक राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म डाइरैक्टर बने हैं. उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत निखिल आडवाणी और विक्रमादित्य मोटवानी की फीचर और विज्ञापन फिल्मों में सहायता कर के की थी.
देवांशु की पहली, लघु फिल्म ‘तमाश’ ने उन्हें 61वां सिल्वर लोटस राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया. इस के बाद उन्होंने फिल्म ’14 फेरे’ और ‘चिंटू का बर्थडे’ का निर्देशन किया, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया. लीक से हट कर कहानी करना उन्हें पसंद है. यही वजह है कि आज वे एक मशहूर डाइरैक्टर बन चुके हैं और हर तरह की फिल्में बनाना पसंद करते हैं.
जियोसिनेमा पर उन की वैब सीरीज ‘खलबली रेकौर्ड्स’ रिलीज हो चुकी है, जो एक म्यूजिकल ड्रामा सीरीज है जिसे दर्शक पसंद कर रहे हैं. उन से बात हुई। पेश हैं, कुछ खास अंश :
अलग है कौंसेप्ट
इस सीरीज की कौंनसेप्ट को सोचने के बारे में पूछने पर देवांशु कहते हैं,”टीवी स्टूडियोज जब बन रहा था, तब 2 प्रतिभावान लेखक प्रतीक और शालिनी सेठी वहां मौजूद थे। उन दोनों ने इस कहानी को सोचा था। यह कहानी फिल्म ‘गली बौय’ बनाने से पहले सोची गई थी, लेकिन बन नहीं पाई, क्योंकि हिपहौप
गाने वाली सीरीज को जनता पसंद करेगी या नहीं, इस बात पर हम सभी की सोच अलगअलग थी. ‘गली बौय’ के रिलीज के बाद इस आइडिया पर काम किया गया। इस में काफी चीजों को मैं ने बदला अवश्य है, लेकिन बेसिक सोच उन दोनों लेखकों की ही रही. इस शो का कौंसेप्ट थोड़ा अलग है। यह एक ड्रामा बेस्ड शो है, जो संगीत को बीच में रख कर बनाई गई है. इस में मैं ने कई नएनए उभरते कलाकारों के जीवन को भी दर्शाया है ताकि आम लोग उस से खुद को जोड़ सकें, क्योंकि इस में परिवार, दोस्ती, प्यार, दुख आदि सब कुछ दिखाने की कोशिश की गई और लोगों को पसंद आ भी आई.”
मिली प्रेरणा
फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आने की प्रेरणा के बारे में पूछने पर देवांशु कहते हैं,”6 साल की उम्र से मुझे फिल्में देखने का शौक रहा। मेरे मातापिता भी फिल्म देखने के काफी शौकीन रहे. मेरे नाना उदय नारायण सिंह खुद में ही एक बड़े आर्टिस्ट रहे। खुद गाने लिखते और कंपोज करते थे. नाटकों का मंचन
करते थे, जिसे देखने दूरदूर से लोग आते थे. मेरी मां कहती थीं कि उन्हें जो पहचान नहीं मिली, वह मुझे मिला है. इसलिए मुझे मेहनत कर आगे बढ़ना है.”
सच्ची फिल्म बनाने की कोशिश
देवांशु हमेशा एक सच्ची फिल्म बनाने की कोशिश करते है, जिस में वे सफल रहे, लेकिन असफलता को भी वे सहजता से लेते हैं. किसी फिल्म की सफलता का श्रेय कलाकारों को मिलता है जबकि फ्लौप होने पर डाइरैक्टर को भलाबुरा सुनने को मिलता है। इस बारें में उन की राय पूछे जाने पर वे हंसते हुए कहते हैं,”एक बार फिल्म बना देने के बाद वह औडियंस की हो जाती है, मेरी नहीं होती। उस के बाद मुझे ताली मिले या गाली सबकुछ सह लेता हूं. मेरा विश्वास यह भी है कि ऐक्टर किसी फिल्म की फेस होते हैं, क्योंकि अधिकतर दर्शक उन्हें देखने ही हौल तक आते हैं, ऐसे में उन्हें तारीफ मिलती है, तो कोई
गलत नहीं, लेकिन कुछ फिल्में ऐसी हैं, जिसे लोग ऐक्टर से अधिक निर्देशक पर अपना विश्वास रखते हैं. फिल्म ‘लापता लेडीज’ ऐसी ही फिल्म है, जिस में किरन राव बड़े शहर की होने के बावजूद गांव की संजीदगी को परदे पर उतारा है, जिसे लोग पसंद कर रहे हैं और आज यह फिल्म 48वें टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित की गई. फिल्म की कहानी से दर्शकों को रिलेट कर पाना जरूरी होता है और दर्शक उसे पसंद भी करते हैं.”
बदला है दौर
आज की फिल्मों में हिंसा और मारधाड़ अधिक दिखाए जाने की वजह के बारे में देवांशु कहते है कि एक जमाना था, जब मूक फिल्में बनती थीं, इस के बाद गानों का दौर आया। अशोक कुमार, दिलीप कुमार की फिल्में चलने लगीं. फिर राजेश खन्ना के दौर में स्वीट रोमांटिक फिल्में आईं, फिर अमिताभ बच्चन के आने से ऐंग्री फिल्में बनने लगीं। हम वही कौपी करने लगते हैं, जिसे दर्शकों का
प्यार मिलता है और ऐसे ही इंडस्ट्री की हर दौर चलती है.
“एक समय था जब बिमल रौय हर साल एक अच्छी फिल्म बनाते थे। हर साल उन्हें अवार्ड भी मिलता था और फिल्म सफल भी होती थी. 1951 से ले कर 1956 तक सिर्फ 1 साल उन्होंने फिल्म नहीं बनाई। उन्होंने सफल फिल्में बनाई, हर फिल्म एकदूसरे से अलग होने के बावजूद सफल रही. आज भी एक अच्छी फिल्म बनाने पर लोग देख लेते हैं, लेकिन हम सब की कमजोरी है कि हम कुछ नया करने से घबराते हैं, क्योंकि यस एक व्यवसाय है और महंगा माध्यम है। कुछ गलत होने पर पैसे निकालना मुश्किल होता है. अगर कोई करोड़ों रुपए किसी फिल्म पर लगा रहा है तो उसे पैसे वापस मिलने चाहिए, ये हमारी जिम्मेदारी है। मैं खुद अपना हाथ नहीं झाड़ सकता। मैं इन सभी को बैलैंस करता हुआ चलता हूं.”
लेखकों की कमी नहीं
फिल्म लेखकों की कमी के बारें में देवांशु का कहना है कि लिखने वालों की कमी नहीं है। कहनियां बहुत सारी पड़ी हुई हैं, लेकिन बनाने वाले नहीं हैं, क्योंकि वैब सीरीज ‘मिर्जापुर 1,2,3’ बनी और दर्शकों ने पसंद भी किया. इस सीरीज को बनाने वाले थक चुके हैं और अब वे कुछ नया बना रहे हैं. सचाई यही है कि जो भी चीज एक बार चल जाए, लोग उसे ही कौपी करते जाते हैं, रिस्क लेना नहीं चाहते.”
आगे देवांशु को एक ऐक्शन, ट्रैजेडी, लव स्टोरी, वर्ष 1940-45 वाला पंजाब पर एक रोमांटिक फिल्म बनानी है. इस के अलावा उन्हें शिव कुमार बटालवी पर बायोपिक बनाने की भी इच्छा है.