देवदासी: एक प्रथा जिसने छीन लिया सिंदूर

मेरा नाम कुरंगी है और मेरी मां ही नहीं, मेरी दादी -परदादी भी देवदासी थीं. शायद लकड़दादी भी. खैर, मां ने वैसे विधिवत ब्याह कर लिया था. लेकिन जब उन के पहली संतान हुई तो उसे तीव्र ज्वर हुआ और उस ज्वर में उस बच्चे की आंखें जाती रहीं. उस के बाद एक और संतान हुई. उसे भी तीव्र ज्वर हुआ और उस तीव्र ज्वर में उस की टांगें बेकार हो गईं और वह अपाहिज हो गया.

बस, फिर क्या था. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि यह देवताओं का प्रकोप है. अगर हम देवदासियों ने देवता की चरणवंदना छोड़ दी तो हमारा अमंगल होगा. इसलिए जब मैं होने वाली थी तब मां ने मन्नत मानी थी कि अगर मुझे कुछ नहीं हुआ तो वह फिर से देवदासी बन जाएंगी.

पैदा होने के बाद मुझे दोनों भाइयों की तरह तीव्र ज्वर नहीं हुआ. मां इसे दैव अनुकंपा समझ कर महाकाल के मंदिर में फिर से देवदासी बन गईं. मां बताती हैं, पिताजी ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी और मुझे ले कर महाकाल के मंदिर में आ गईं.

मंदिर के विशाल क्षेत्र में हमें एक छोटा सा मकान मिल गया. हमारे मकान के सामने कच्चे आंगन में जूही का एक मंडप था और तुलसी का चौरा भी. रोज शाम को मां तुलसी के चौरे पर अगरबत्ती, धूप, दीप जला कर आरती करती थीं और मुंदे नयनों से ‘शुभं करोति कल्याणं’ का सस्वर पाठ करती थीं. झिलमिल जलते दीप के मंदमंद प्रकाश में मां का चेहरा देदीप्यमान हो उठता था और मुझे बड़ा भला लगता था.

जब मैं छोटी थी तब मैं मां के साथ मंदिर में जाती थी. जब मां नृत्य करने के लिए नृत्य मुद्रा में खड़ी होतीं तो मैं गर्भगृह में लटकते दीवटों को एकटक निहारती रहती थी और सोचती रहती थी कि गर्भगृह में सदा इतना अंधेरा क्यों रहता है. कहीं यह ईश्वर रूपी महती शक्ति को अंधेरे में रख कर लोगों को किन्हीं दूसरे माध्यमों से भरमाने का पाखंड मात्र तो नहीं?

ऐसा लगता जैसे देवदासियों का यह नृत्य ईश्वर की आराधना के नाम पर अपनी दमित वासनाओं को तृप्त करने का आयोजन हो. वरना देवालय जैसे पवित्र स्थान पर ऐसे नृत्यों का क्या प्रयोजन है, जिन में कामुकतापूर्ण हावभाव ही प्रदर्शित किए जाते हों.

देवस्थान के अहाते में बैठे दर्शनार्थियों की आंखें सिर्फ देवदासियों के हर अंगसंचालन और भावभंगिमाओं पर मंडराती रहतीं. पहले तो मुझे ऐसा लगता था जैसे ईश्वर आराधना के बहाने वहां आने वाले युवकों द्वारा मां का बड़ा मानसम्मान हो रहा है. हर कोई उस के नृत्य की सराहना कर रहा है.

लेकिन यह भ्रम बड़ा होने पर टूट गया और यह पता लगते देर नहीं लगी कि नृत्य  की सराहना एक बहाना मात्र है. वे तो रूप के सौदागर हैं और नृत्य की प्रशंसा के बहाने वे लोग इन नर्तकियों से शारीरिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं. तब मुझे लगा कि इन देवदासियों के जीविकोपार्जन का अन्य कोई साधन भी तो नहीं.

मुझे लगा, कहीं मुझे भी इस वासनापूर्ण जीवन से समझौता न करना पड़े. फिर लगा, स्वयं को दूसरों को समर्पित किए बगैर उस मंदिर में रहना असंभव है. मेरी सहेलियां भी धन के लोभ में खुल्लमखुल्ला यही अनैतिक जीवन तो बिता रही हैं और मुझ पर भी ऐसा करने के लिए दबाव डाल रही हैं.

वैसे मैं बचपन से ही मंदिर में झाड़नेबुहारने, गोबर से लीपापोती करने, दीयाबाती जलाने, कालीन बिछाने, पालकी के पीछेपीछे चलने, त्योहारों, मेलों में वंदनवार सजाने और प्रसाद बनाने का काम करती थी.

दूरदूर से जो साधुसंत या दर्शनार्थी आते हैं, उन  के बरतन मांजने, कपड़े धोने, उन को मंदिर में घुमा लाने, उन के लिए बाजार से सौदा लाने का काम भी मैं ही किया करती थी. कभीकभी किसी का कामुकतापूर्ण दृष्टि से ताकना या कुछ लेनदेन के बहाने मुझे छू लेना बेहद अखरने लगता था. कभीकभी वे छोटे से काम के लिए देर तक उलझाए रखते.

मुझे अपना भविष्य अंधकारमय लगता. कोई राह सुझाई न देती. मां की राह पर चलना बड़ा ही घृणास्पद लगता था और न भी चलूं तो इस बात की आशंका घेरे रहती थी कि कहीं मुझे भी देवताओं का कोपभाजन न बनना पड़े.

दिन तो जैसेतैसे बीत जाता था पर सांझ होते ही जी घबराने लगता था और मन में तरहतरह की आशंकाएं उठने लगती थीं. मां तो मंदिर में नृत्य करने चली जाती थीं या अपने किसी कृपापात्र को प्रसन्न करने और मैं अकेली जूही के गजरे बनाया करती थी.

उस दिन भी मैं गजरा बना रही थी. मैं अपने काम में इतनी मग्न थी कि मुझे इस बात का पता ही नहीं चला कि कोई मेरे सामने आ कर मेरी इस कला को एकटक निहार रहा है.

चौड़े पुष्ट कंधों वाला, काफी लंबा, गौरवर्ण, बड़ीबड़ी आंखें, काली घनी मूंछें, गुलाबी मोटे होंठ, ठुड्डी में गड्ढे, घने काले बाल. ऐसा बांका सजीला युवक मैं ने पहली बार देखा था. मेरी तो आंखें ही चौंधिया गईं, जी चाहा बस, देखती ही रहूं उस की मनमोहक सूरत.

‘‘आप गजरा अच्छा बना लेती हैं.’’

मैं उस की ओजस्वी आवाज पर मुग्ध हो उठी. हवा को चीरती सी ऐसी मरदानी आवाज मैं ने पहले कभी नहीं सुनी थी.

‘‘आप लगाते हैं?’’

‘‘मैं,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ा. उस की उज्ज्वल दंतपंक्ति चमक उठी. फिर एक क्षण रुक कर वह बोला, ‘‘गजरा तो स्त्रियां लगाती हैं.’’

तभी एक युवक अपने दाएं हाथ में गजरा लपेटे घूमता हुआ आता दिखाई दिया. मैं ने कहा, ‘‘देखिए, पुरुष भी लगाते हैं.’’

‘‘लगाते होंगे लेकिन मुझे तो स्त्रियों को लगाना अच्छा लगता है.’’

‘‘आप लगाएंगे?’’ इतना कहते हुए मुझे लज्जा आ गई और मैं अपने मकान की तरफ भागने लगी.

‘‘अरे, आप गजरा नहीं लगवाएंगी?’’ वह युवक पूछता रह गया और मैं भाग आई.

मेरा हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा. यह क्या कर दिया मैं ने? कहीं मैं अपनी औकात तो नहीं भूल गई?

अगले दिन और उस के अगले दिन भी मैं उस युवक से बचती रही. वह मुचुकुंद की छाया में खड़ा रहा. फिर अपने घोड़े पर सवार हो कर चला गया. तीसरे दिन वह नहीं आया और मैं ड्योढ़ी में खड़ी उस की प्रतीक्षा करती रही. चौथे दिन भी वह नहीं आया और मैं उदास हो उठी.

सोचने लगी, क्या मैं उस के मोहजाल में फंसी जा रही हूं? मैं क्यों उस युवक की प्रतीक्षा कर रही हूं? वह मेरा कौन लगता है? लगा, हवा के विरज झोंकों से जिस तरह वृक्ष झूमने लगते हैं और आकाश में चंद्रमा को देख कर कुमुदिनी खिलने लगती है, उसी तरह उस के मुखचंद्र को देख कर मैं प्रफुल्ल हो उठी थी और उस की निकटता पा कर झूमने लगी थी.

एक दिन मैं उसी के विचारों में खोई हुई थी कि उस ने पीछे से आ कर मेरे सिर के बालों में गजरा लगा दिया. इस विचार मात्र से कि उस युवक ने मेरे बालों में गजरा लगाया है मेरे मन में कलोल सी फूटने लगी. फिर न जाने क्यों आशंकित हो उठी. गजरा लगाने का अर्थ है विवाह. क्या मैं उस से विवाह कर सकूंगी? फिर देवताओं का कोप?

‘‘नहीं…नहीं, मैं तुम्हारी नहीं हो सकती,’’ और मैं पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी.

उस युवक ने मुझे झिंझोड़ कर पूछा, ‘‘क्यों? आखिर क्यों?’’

‘‘मैं देवदासी की कन्या हूं.’’

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘मैं भी देवदासी ही बनूंगी.’’

‘‘सो भला क्यों?’’

‘‘यही परंपरा है.’’

‘‘मैं इन सड़ीगली परंपराओं को नहीं मानता.’’

‘‘न…न, ऐसा मत कहिए. मां ने भी ऐसा ही दुस्साहस किया था,’’ और मैं ने उसे मां और अपने अपाहिज भाइयों के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘यह तुम्हारा भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं तुम से विवाह करूंगा.’’

‘‘मां नहीं मानेंगी.’’

‘‘अपनी मां के पास ले चलो मुझे.’’

‘‘मैं आप का नाम भी नहीं जानती.’’

‘‘मेरा नाम इंद्राग्निमित्र है. मैं महासेनानी पुष्यमित्र का अमात्य हूं.’’

‘‘आप तो उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण हैं और मैं एक क्षुद्र दासी. नहीं…नहीं, आप ब्राह्मण तो देवता के समान हैं और मैं तो देवदासी हूं. देवताओं की दासी बन कर ही रहना है मुझे.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है अगर तुम उस प्रस्तर प्रतिमा की दासी न बन कर मेरी ही दासी बन जाओ.’’

उस का अकाट्य तर्क सुन कर मैं चुप हो गई. लेकिन मेरी मां कैसे चुप्पी साध लेतीं?

जब इंद्राग्निमित्र ने मां के सामने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह बोलीं, ‘‘न…न, गाज गिरेगी हम पर अगर हम यह अधर्म करेंगे. पहले ही हम ने कम कष्ट नहीं झेले हैं. 2-2 बच्चों को अपनी आंखों के सामने अपाहिज होते देखा है मैं ने.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. लीक पीटना मनुष्य का नहीं पशुओं का काम है, क्योंकि उन में तार्किक बुद्धि नहीं होती,’’ इंद्राग्निमित्र ने कहा.

बहुत कहने पर भी मां न…न करती रहीं. आखिर इंद्राग्निमित्र चला गया और मैं ठगी सी खड़ी देखती रही.

अगले 2 दिनों तक इंद्राग्निमित्र का कोई संदेश नहीं आया.

तीसरे दिन एक अश्वारोही महासेनानी पुष्यमित्र का आदेश ले आया. मां को मेरे साथ महासेनानी पुष्यमित्र के सामने उपस्थित होने को कहा गया था.

इतना सुनते ही मां के हाथपांव कांपने लगे. इंद्राग्निमित्र की अवज्ञा करने पर महासेनानी उसे दंड तो नहीं देंगे? वह शुंग राज्य का अमात्य है. चाहता तो जबरन उठा ले जा सकता था. लेकिन नहीं, उस ने मां से सामाजिक प्रथा के अनुसार मेरा हाथ मांगा था और मां ने इनकार कर दिया था.

महासेनानी पुष्यमित्र का तेजस्वी चेहरा देख कर और ओजस्वी वाणी सुन कर मां गद्गद हो उठीं.

कुशलक्षेम के बाद महासेनानी ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘जानती हो, मेरी बहू इरावती और अग्निमित्र की पहली पत्नी देवदासी थी?’’

तर्क अकाट्य था और मां मान गईं. इंद्राग्निमित्र के साथ मेरा विवाह हो गया. मां भी मेरे साथ मेरे महल में आ कर रहने लगीं…जब मुझे 2 माह चढ़ गए तो मां की आशंकाएं बढ़ने लगीं और वह इस विचारमात्र से कांपने लगीं कि कहीं मेरी संतान भी दैव प्रकोप से अपाहिज न हो जाए.

लेकिन मां की शंका निर्मूल सिद्ध हुई. मेरे एक स्वस्थ कन्या पैदा हुई.

हमारे प्रासाद में जाने कितने नौकरचाकर थे. उन सब के नाम मां को याद नहीं रहते थे और मां एक के बदले दूसरे को पुकार बैठती थीं. फिर कहतीं, ‘‘जब मेरी ही यह हालत है तो उस ईश्वर की क्या हालत होगी? अरबोंखरबों जीवों का वह कैसे हिसाबकिताब रखता होगा?’’

कहीं यह कोरी गप तो नहीं कि परंपरा से हट कर चलने से वह श्राप दे देता है? आखिर ये परंपराएं किस ने चलाई हैं? हम लोगों ने ही तो. ये मंदिर हम ने बनवाए. यह देवदासी प्रथा भी हम ने ही प्रचलित की.

इन्हीं दिनों बौद्ध भिक्षु आचार्य सोणगुप्त बोधगया से पधारे. इंद्राग्निमित्र उन्हें अपना अतिथि बना कर अपने प्रासाद में ले आए.

मैं अचंभे में पड़ गई. बाद में पता चला कि सोणगुप्त इंद्राग्निमित्र के सहपाठी ही नहीं अंतरंग मित्र भी रहे हैं. लेकिन इंद्राग्निमित्र को राजनीति में दिलचस्पी थी और सोणगुप्त को बौद्ध धर्म में. इसलिए इंद्राग्निमित्र अमात्य बन गए और सोणगुप्त बौद्ध भिक्षु.

वर्षों बाद मिले मित्र पहले तो अपने विगत जीवन की बातें करते रहे, फिर धर्म और राजनीति पर चर्चा

करने लगे.

इंद्राग्निमित्र बोले, ‘‘राज्य व्यवस्था धर्म के बल पर नहीं चलनी चाहिए. राजनीति सार्वजनिक है और धर्म वैयक्तिक. एक भावना से संबंध रखता है तो दूसरा कार्यकारण से. इसलिए मैं राज्य व्यवस्था में धर्म का हस्तक्षेप गलत मानता हूं.’’

‘‘तो फिर राज्य व्यवस्था को भी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.’’

‘‘नहीं, देवदासी प्रथा हिंदू धर्म पर कोढ़ है और मैं समझता हूं राज्य की तरफ से इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए.’’

‘‘हिंदू धर्म के लिए तुम जो करना चाहते हो सो तो करोगे ही. अब लगेहाथ बौद्ध धर्म के लिए भी कुछ कर दो.’’

‘‘आज्ञा करो, मित्र.’’

‘‘मित्र, बोधगया में हम एक और विहार की जरूरत महसूस कर रहे हैं. प्रस्तुत विहार में इतने बौद्ध भिक्षु- भिक्षुणियां एकत्र हैं कि चौंतरे और वृक्ष तले सुलाना पड़ रहा है. अभी तो खैर वे खुले में सो लेंगे लेकिन वर्षा ऋतु में क्या होगा, इसी बात की चिंता सता रही है. अगर तुम एक और विहार बनवा दो तो बहुत सारे बौद्ध भिक्षुभिक्षुणियों के आवास की समस्या हल हो जाएगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तुम निश्चिंत रहो. मैं थोड़े दिनों के बाद बोधगया आ कर इस का समुचित प्रबंध कर दूंगा.’’

सोणगुप्त आश्वस्त हो कर लौट गए.

इंद्राग्निमित्र देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिए व्यग्र हो उठे. इस प्रथा का अंत कैसे हो? क्यों न इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए और राज्य भर में घोषणा कर दी जाए. यह निश्चय कर के वह महासेनानी पुष्यमित्र के पास गए.

‘‘महासेनानी, देवदासियों की वजह से मंदिर व्यभिचार और अनाचार के गढ़ बन गए हैं. और मैं चाहता हूं कि इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए.’’

‘‘विचार तो बुरा नहीं, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगाने पर काफी विरोध होने की आशंका है. अगर तुम डट कर इस विरोध का प्रतिरोध कर सको तो मुझे कोई आपत्ति नहीं.’’

इंद्राग्निमित्र ने राज्य की तरफ से देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध लगते ही इंद्राग्निमित्र की आलोचना होने लगी.

‘‘थू,’’ मंदिर की एक देवदासी ने पान की पीक इंद्राग्निमित्र के मुंह पर थूक दी.

इंद्राग्निमित्र अपमान की ग्लानि से भर उठे. फिर भी वह अपने विचार पर अडिग रहे. अगले दिन रथयात्रा थी और रथ के आगेआगे देवदासियां नृत्य करती हुई चलने वाली थीं. इंद्राग्निमित्र अपने दलबल के साथ वहां पहुंच गए.

लोग तरहतरह की बातें करने लगे. ‘‘बड़ा आया समाज सुधार करने वाला. देवदासी का उन्मूलन करने वाला…अरे, एक देवदासी को घर बसा लिया तो क्या हुआ? किसकिस का घर बसाएगा? धार्मिक मामलों में दखल देने वाला यह कौन होता है?’’

रथ को तरहतरह के फूलों से सजा कर सब दीयों को जला दिया गया. रथ के आगे ढोल बजाने वाले आ कर खड़े हो गए. उन्हें घेरे असंख्य नरनारी आबालवृद्ध एकत्र हो गए. पालकी के पास चोबदार खड़े थे और कौशेय में लिपटे पुजारी. पालकी के दोनों ओर सोलह शृंगार किए देवदासियां नृत्य मुद्रा में खड़ी हो गईं.

इस से पहले कि वे नृत्य आरंभ करतीं अपने घोड़े पर सवार इंद्राग्निमित्र वहां आ गए और बोले, ‘‘रोको. ये नृत्य नहीं कर सकतीं. देवदासियों पर प्रतिबंध लग चुका है.’’

हिंदू धर्म में प्रगाढ़ आस्था रखने वाले उबल पड़े. कुछेक प्रगतिशील विचारों वाले युवकों ने उन का विरोध किया. दर्शनार्थी 2 दलों में बंट गए और दोनों में मुठभेड़ हो गई. पहले तो मुंह से एकदूसरे पर वार करते रहे. जिस के हाथ में जो आया उठा कर फेंकने लगा, पत्थर, ईंट, गोबर.

जुलूस में भगदड़ मच गई. इंद्राग्निमित्र  भ्रमित. यह क्या हो गया. वह दोनों गुटों को समझाने लगे लेकिन कोई नहीं माना. तभी उन्होंने अपने वीरों को छड़ी का उपयोग कर के भीड़ को नियंत्रित करने का आदेश दिया. क्रोधोन्मत्त भीड़ भागने लगी. तभी किसी ने इंद्राग्निमित्र की तरफ भाले का वार किया और वह अपनी छाती थाम कर कराहते हुए वहीं ढेर हो गए.

मेरी मांग सूनी हो गई और मैं विधवा हो गई. अब मेरे आगे एक लंबा जीवन था और था एकाकीपन. महल के जिस कोने में जाती इंद्राग्निमित्र से जुड़ी यादें सताने लगतीं. जीवन अर्थहीन सा लगता.

संवेदना प्रकट करने वालों का तांता लगा रहता. इसी बीच सोणगुप्त आया और संवेदना प्रकट करने लगा. तभी याद आया इंद्राग्निमित्र ने सोणगुप्त से विहार बनवाने की प्रतिज्ञा की थी. मैं उस के साथ बोधगया चली गई.

देवदासी प्रथा का क्या हुआ, यह तो मैं नहीं जानती लेकिन इतना जानती हूं कि प्रथाओं और परंपराओं का इतनी जल्दी अंत नहीं होगा. मैं तो इस बात को ले कर आश्वस्त हूं कि मैं ने और मेरे पति ने अपनी तरफ से इसे मिटाने का भरसक प्रयत्न किया.

मगर हर कोई अपनीअपनी तरफ से प्रयत्न करे तो ये गलत प्रथाएं और परंपराएं अवश्य ही किसी दिन मिट कर रहेंगी.

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