धारा के विपरीत: निष्ठा के कौनसे निर्णय का हो रहा था विरोध

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धारा के विपरीत: भाग 1- निष्ठा के कौनसे निर्णय का हो रहा था विरोध

कैसे भूले जा सकते हैं वे दिन जब कोरोना महामारी के कारण देश में आपातकालीन लौकडाउन लगा दिया गया था. मानो तेज रफ्तार गाड़ी में अचानक हैंडब्रैक लगा दिया हो. हर तरफ अफरातफरी का माहौल था. एक तो अनजान बीमारी, दूसरे इलाज का अतापता नहीं. भय तो फैलना ही था. सब अंधेरे में तीर चला रहे थे. दवाओं के अलावा कोई काढ़ा-आसव तो कोई कुछ… जिसे जो समझ में आ रहा था वह वही आजमा कर देख रहा था.

न रेल चल रही थी, न ही बस. स्कूल, कालेज, कोचिंग और अन्य दूसरे होस्टल खाली करवाए जा रहे थे. ऐसे में उन लोगों को परेशानी हो गई जो किसी कारण से अपने ठिकाने से दूर थे.

निष्ठा के साथ भी यही हुआ. कहां तो वह अपना वीकैंड मृदुल के साथ बिताने आई थी और कहां इस झमेले में फंस गई. नहींनहीं, यह कोई पहली बार नहीं था जब वे दोनों इस तरह से एक साथ थे. वे अकसर इस तरह के शौर्ट ट्रिप प्लान करते रहते थे.

चूंकि दोनों ही अपनेअपने घरों से दूर यहां पुणे में जौब करते हैं, इसलिए कोई रोकटोक भी नहीं थी. भविष्य में शादी करेंगे या नहीं, इस फिक्र से दूर दोनों वर्तमान को जी रहे थे.

जनता कर्फ्यू की घोषणा के साथ ही आगामी दिनों में लौकडाउन लगने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी. निष्ठा और मृदुल ने भी सोचा कि कौन जाने कितने दिन एकदूसरे से दूर रहना पड़े, इसलिए क्यों न खुल कर जी लिया जाए. निष्ठा चूंकि वर्किंग वुमन होस्टल में रहती थी और मृदुल कहीं पेइंगगैस्ट, इसलिए दोनों ने पणजी में मृदुल के दोस्त अभय के घर जाना तय किया. अभय अपने दोस्तों के साथ कहीं बाहर था, इसलिए उस का घर खाली था. मौके का फायदा उठाते हुए वे दोनों 2 दिन की अपनी जमा की हुई लीव ले कर पणजी चले गए.

अभी दोनों इस वीकैंड को एंजौय कर ही रहे थे कि देशव्यापी लौकडाउन घोषित कर दिया गया. खबर सुनते ही मृदुल की आंखें चमक उठीं.

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“हम तुम एक कमरे में बंद हों, और चाबी खो जाए…” वह शरारत से आंख दबाते हुए गुनगुनाया.

“तुम्हें बड़ा मजाक सूझ रहा है. क्या तुम्हें अंदाजा भी है कि हम किस मुश्किल में फंस चुके हैं?” निष्ठा ने उसे सीरियस करने की कोशिश की.

“इस में कौन सी मुसीबत हुई भला? जैसे हम यहां फंसे हैं वैसे अभय भी फंसा हुआ है. घर में राशन तो रखा ही हुआ है. बस, बनाओ और खाओ. अच्छा ही है, इस बहाने तुम्हारे हाथ के बने पकवान खाने को मिलेंगे.” मृदुल ने उसे बेफिक्र करना चाहा लेकिन निष्ठा तो दूसरी ही चिंता में घुली जा रही थी.

“एकसाथ एक घर में रहने का मतलब तुम समझ रहे हो न, वह भी बिना किसी सुरक्षा उपाय के.” निष्ठा ने कुछ संकोच के साथ कहा तो मृदुल खिलखिला दिया.

“तो क्या हुआ? नन्हा सा गुल खिलेगा, अंगना… सूनी बैंया सजेगी सजना.” गाते हुए उस ने निष्ठा को छेड़ा. वह गुस्से में पांव पटकती हुई वहां से हट गई.

यह पूरे 21 दिन का लौकडाउन था. जब तक थे तब तक तो सुरक्षा उपाय अपनाए गए, फिर मन मार कर कुछ दिन संयम भी रखा गया. जब धैर्य चूक गया तो महीने के सुरक्षित दिनों का हिसाब रखते हुए भी दोनों ने संबंध बनाए लेकिन उस में कोई आनंद न था.

एकएक दिन चिंता में गुजर रहा था. किसी को लौकडाउन खुलने का इंतजार होगा, लेकिन निष्ठा तो अपने मासिकधर्म के आने का इंतजार कर रही थी. आखिर जिस दिन उसे अपनी पैंटी पर कत्थई निशान दिखे, उस ने सुकून की सांस ली. जिंदगी में पहली बार अपना मासिकधर्म आने पर निष्ठा खुश हुई थी. इस से पहले तो यह पीरियड उसे बहुत ही असहज कर दिया करता था.

खैर, किसी तरह पहले लौकडाउन के 21 दिन बीते. हालांकि लौकडाउन को आगे भी बढ़ा दिया गया लेकिन पाबंदियों में कुछ ढील भी मिली. मृदुल और निष्ठा भी किसी तरह पणजी से निकले और पुणे आए. निष्ठा ने राहत महसूस की. बेशक निष्ठा आधुनिक विचारधारा की लड़की है लेकिन समाज में बिनब्याही मां की स्थिति से भी बखूबी वाकिफ है, इसलिए लौकडाउन में वह किसी मुसीबत में नहीं फंसी, इसी बात से वह बहुत राहत महसूस कर रही थी.

कहते हैं कि एक बार वर्जनाएं टूट जाएं तो उन के बारबार टूटने का अंदेशा बना रहता है. लौकडाउन की पाबंदियों के बीच फिर से जिंदगी न्यू नौर्मल होने लगी थी. यातायात के साधन खुलने लगे थे. इस बीच कहींकहीं पर्यटन उद्योग भी फिर से पटरी पर आने लगा था. निष्ठा और मृदुल की जिंदगी में पुराने समय के दौर ने फिर से गति पकड़ ली. दोनों फिर से हर वीकैंड में एकसाथ दिखने लगे. लेकिन इस कठिन समय ने निष्ठा को अपने रिश्ते के लिए अवश्य ही संजीदा कर दिया था. उस ने और मृदुल ने शादी करने का फैसला कर लिया.

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यों तो आजकल प्रेम विवाह टैबू नहीं रहे लेकिन फिर भी अलग जातिधर्म के व्यक्ति को अपनी बिरादरी में शामिल करने से पहले पुराने लोग आज भी हिचकते हैं. शुरूआती आपत्ति के बाद दोनों परिवार इस रिश्ते के लिए राजी हो गए. नवंबर के महीने में जब सबकुछ बिलकुल ठीक सा लग रहा था तब कुछ निजी लोगों की उपस्थिति में निष्ठा और मृदुल की मंगनी हो गई.

हमारे समाज में मंगनी होने को शादी की गारंटी मान लिया जाता है. ऐसी स्थितियों में समाज और संस्कार दोनों ही लड़कालड़की के मिलन पर एतराज नहीं करते. ये दोनों तो वैसे भी खूब मिलतेजुलते थे, अब थोड़े से अधिक बेपरवाह होने लगे थे.

यह शादी अप्रैल के महीने में होने वाली थी लेकिन इस से पहले ही एक मनचाही समस्या सामने आ खड़ी हुई. निष्ठा ने इस बार अपना पीरियड मिस कर दिया. यह बात जब उस ने मृदुल को बताई तो उस ने आदतन लापरवाही से निष्ठा की फिक्र को हवा में उड़ा दिया.

“अरे यार, क्यों टैंशन ले रही हो. अब तो शादी होने ही वाली है न. वैसे, तुम चाहो तो एबौर्शन करवा सकती हो.” फ़िक्रमुक्त करने के साथ ही मृदुल ने उसे सलाह भी दे डाली.

“नहीं. कहते हैं, पहला बच्चा प्रकृति का उपहार होता है. पहले ही गर्भ को गिरवा दिया जाए तो बाद में गर्भ धारण करने में समस्याएं होने लगती हैं. मैं यह बच्चा नहीं गिरवाऊंगी,” कहते हुए निष्ठा ने एबौर्शन करवाने से इनकार कर दिया.

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धारा के विपरीत: भाग 2- निष्ठा के कौनसे निर्णय का हो रहा था विरोध

मार्च का महीना शुरू हो चुका था. निष्ठा के पेट पर हलका उभार दिखने लगा था जिसे वह ढीले कपड़ों में छिपाने की कोशिश करती रहती थी. अब उसे इंतजार था अगले महीने का जब मृदुल से उस की शादी हो जाएगी और यह बच्चा, जो अभी तक नाजायज है, फेरे पड़ते ही जायज हो जाएगा.

किसी का सोचा हुआ अक्षरशः कभी हुआ है क्या, जो निष्ठा का सोचा हुआ होता. मार्च का अंतिम सप्ताह आते-आते एक बार फिर से पूरा देश लौकडाउन की स्थिति में आ गया. कहीं पूर्ण तो कहीं आंशिक रूप से शहर और कसबे बंद होने लगे. घबराहट के मारे निष्ठा का बुरा हाल था.

महामारी को रोकने के प्रयास में सख्ती बढ़ाते हुए सरकार ने हर तरह के समारोहों पर रोक लगा दी. बहुत जरूरी होने पर केवल 11 लोगों की उपस्थिति में विवाह समारोह आयोजित किया जा सकता है. मृदुल के घर वालों ने विवाह की तिथि आगे खिसकाने की बात की जिसे निष्ठा के घर वालों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. आखिर सभी चाहते थे कि शादी धूमधाम से और सभी मित्रों, परिजनों की उपस्थिति में ही संपन्न हो.

निष्ठा ने सुना तो उस के पांवों तले से जमीन खिसक गई. अगली तारीख कम से कम तीनचार महीने बाद ही तय होगी. तब तक वह अपना पेट कैसे छिपा सकेगी?

पहले तो निष्ठा और मृदुल ने तय तिथि पर ही शादी करने की जिद की लेकिन जब उन की बात नहीं सुनी गई तो हिम्मत कर के निष्ठा ने अपनी मां से फोन पर बात की. जैसा कि खुद निष्ठा को अंदेशा था, उस के बिनब्याही मां बनने की खबर ने मां के भी होश उड़ा दिए.

“हाय, इतनी समझदार हो कर भी यह कैसी भूल कर बैठी लड़की,” मां ने माथा पीट लिया लेकिन अब हो भी क्या सकता था. अब तो, बस, एक ही उपाय है. किसी तरह 11 लोगों की गवाही में ही सही, लड़की को नदी पार लगा दिया जाए वरना नाक तो कट ही चुकी है.

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मां ने पापा को विश्वास में ले कर इस विपदा की सूचना दी. पापा ने बहुत सोचविचार कर समधियों को वस्तुस्थिति से अवगत करवाना सही समझा. समधी भी सुलझे हुए विचारों के थे. वे भी अवसर की नजाकत समझ कर पहले से तय तिथि पर ही शादी करने को राजी हो गए. सब ने राहत की सांस ली. समस्या का समाधान तो हो गया था लेकिन जरूरी नहीं कि हर कहानी का अंत उतना ही सुखद और समस्या का समाधान उतना ही आसान हो जैसा दिखाई दे रहा हो. निष्ठा के हिस्से अभी बहुत सी परीक्षाएं देनी शेष थीं.

इधर शादी में कुछ ही दिन शेष रह गए थे और उधर कोरोना था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. हर रोज नए मरीजों के आने और बीमारी से होने वाली मौतों का आंकड़ा नया रिकौर्ड बना रहा था. कहीं लौकडाउन तो कहीं कर्फ्यू लगा था. यहां तक कि निष्ठा का शादी वाला लहंगा और मृदुल की शेरवानी भी उन्हें नहीं मिल पा रहे थे क्योंकि टेलर की दुकान अनिश्चित समय के लिए बंद कर दी गई थीं.

यह कोरोना की दूसरी लहर थी जो धीरेधीरे अपना प्रचंड रूप दिखा रही थी. कोई ऐसा घर, महल्ला नहीं बचा था जहां कोई मौत न हुई हो. ऊपर से औक्सीजन और दवाओं की कमी अलग. न अस्पतालों में जगह न डाक्टरों को फुरसत. एक बार जो इस वायरस की चपेट में आ कर अस्पताल में भरती हो गया, उस के वापस जिंदा लौटने के चांस बहुत ही कम देखे गए. कौन जाने वहां अस्पताल में क्या हो रहा था. न परिजनों को मिलने दिया जा रहा था और न ही अंदर की कोई खबर बाहर आ पा रही थी. ऐसे लग रहा था जैसे अस्पताल नहीं, कोई ब्लैकहोल हैं जिस में एक बार जो गया, उस की वापसी का कोई रास्ता शेष नहीं रहता.

निष्ठा और मृदुल के घर वाले तमाम सावधानियां रखते हुए शादी की तैयारियों में जुटे थे. हर दिन विकट होते हालात के मध्य, हालांकि यह आसान काम नहीं था लेकिन फिर भी, सब चाहते थे कि किसी तरह यह शादी निर्विघ्न निबट जाए क्योंकि निष्ठा अब गर्भपात करवाने वाली स्थिति में भी नहीं थी.

शादी में अब केवल सप्ताहभर बाकी था. बाहर से मेहमान तो कोई आने वाला नहीं था, बस, दोनों परिवारों और पंडित जी को मिला कर कुल 11 लोग ही इस शादी में शामिल होने वाले थे. निष्ठा और मृदुल किसी तरह किराए पर गाड़ी ले कर अपनेअपने घर पहुंचे.

कहते हैं कि भविष्य में घटित होने वाली किसी भी अप्रिय घटना का आभास हमारी छठी इंद्रिय को पहले ही हो जाता है. यह अलग बात है कि उन संकेतों को हम कितना पकड़ पाते हैं. 2 दिन हुए, निष्ठा का दिल किसी अनिष्ट की आशंका से बैठा जा रहा था. आज शाम को उस की आशंका यकीन में बदलने लगी जब मृदुल ने उसे फोन पर हरारत महसूस होने की बात कही. निष्ठा ने अपने मन को यह कह कर लाख भुलावे में रखने की कोशिश की कि यह सफर की थकान के अतिरिक्त कुछ नहीं है लेकिन मन उस के भुलावे में आने को राजी ही नहीं हुआ.

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विवाह के 3 दिनों पहले बुखार न उतरने की स्थिति में मृदुल की कोरोना जांच करवाई गई जो कि पौजिटिव आई. रिपोर्ट का पता चलते ही निष्ठा बेहोश होतेहोते बची. अनजाने ही उस के हाथ पेट पर चले गए जहां एक नन्हा सा जीव भी अपने जायज होने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.

सब एकदूसरे को दिलासा दे रहे थे कि 90 प्रतिशत लोग अस्पताल जाए बिना ही ठीक हो जाते हैं, इसलिए घबराने की कोई बात नहीं. लेकिन निष्ठा खुद को उन 10 प्रतिशत अभागे लोगों में शुमार कर रही थी जिन की स्थिति इस वायरस के कारण घातक हो जाती है. और हुआ भी यही. अगले ही दिन औक्सीजन लैवल में कमी आने के कारण मृदुल को अस्पताल ले जाना पड़ा. उस के बाद क्या हुआ, क्या नहीं, कुछ पता नहीं चला. ऐन शादी वाले दिन की सुबह मृदुल के न होने का समाचार आ गया. एक दुनिया बसने से पहले ही उजड़ गई.

निष्ठा की तो सोचने की शक्ति ही चुक गई. अपनी होने वाली संतान, जिसे वह प्रेम की निशानी समझ कर किसी भी कीमत पर बचाना चाह रही थी, उसे अपने शरीर का ऐसा रोगग्रस्त हिस्सा लगने लगी जिसे काट कर फ़ेंकना मात्र ही इलाज शेष है.

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धारा के विपरीत: भाग 3- निष्ठा के कौनसे निर्णय का हो रहा था विरोध

दोनों घरों में कुहराम मच गया. लेकिन दोनों के दुख अलगअलग थे. एक परिवार ने अपना जवान बेटा खोया था तो दूस के का मानसम्मान और प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. बेटी के भविष्य के बारे में सोचसोच कर निष्ठा के मांपापा घुले जा रहे थे. मृदुल के तीये की बैठक के बहाने वे उस के घर गए.

“अब क्या सांत्वना दें आप को. हम एक ही नाव के सवार हैं,” कहते हूए निष्ठा के पापा लगभग रो दिए. मां के शब्द तो पहले ही आंसुओं में बह गए थे.

“क्या करूं बहन जी, कोई दूसरा बेटा भी तो नहीं वरना निष्ठा बिटिया को बीच राह न छोड़ते,” मृदुल की मम्मी ने निष्ठा को कस कर अपने से सटा लिया.

“हम तो जीते जी मर गए. छठे महीने में बच्चा गिरवाएंगे तो बेटी से भी हाथ धो बैठेंगे,” कहती हुई निष्ठा की मां फिर से सुबकने लगी. तभी मृदुल की चचेरी भाभी वनिता सामने आई.

“बड़े पापा, यदि आप सब को ठीक लगे तो निष्ठा और मृदुल का यह बच्चा हम अपना लें. वैसे भी, हम लोग अपने बच्चे के लिए प्रयास करतेकरते थक चुके हैं और लौकडाउन खुलने के बाद कोई बच्चा गोद लेने का प्लान ही कर रहे थे.” वनिता ने अपने पति रमन की तरफ़ देखते हुए अपनी बात रखी. रमन ने भी सहमति में गरदन हिलाई तो निष्ठा की मां के चेहरे पर उम्मीद की हलकी सी रोशनी चिलकी. सब इस बदली हुई परिस्थिति पर विचार करने लगे.

अंत में तय हुआ कि निष्ठा कुछ समय अपने जौब से ब्रैक लेगी और वनिता तथा रमन के साथ बेंगलुरु जाएगी. वहीं वह अपनी संतान को जन्म देगी और एक महीने के बाद बच्चे को कानूनन वनिता को गोद दे दिया जाएगा. गोद लेने के लिए ‘सेमी ओपन अडौप्शन’ प्रक्रिया का चयन किया जाएगा जिस में बच्चे को सौंपने के बाद निष्ठा उस से नहीं मिलेगी.

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तय कार्यक्रम के अनुसार निष्ठा बेंगलुरु आ गई. उस ने मन ही मन ठान लिया था कि अब वह अपनी कोख में आकार ले रहे शिशु के प्रति किसी प्रकार की आत्मीयता नहीं रखेगी. वह अपने बढ़े हुए पेट को शरीर में पनप रही एक बड़ी गांठ के रूप में ही देखेगी जिस का कुछ समय बाद औपरेशन होना है और गांठ निकलने के बाद वह वापस अपनी सामान्य अवस्था में आ जाएगा.

वनिता और रमन निष्ठा का पूरा खयाल रख रहे थे. वे उसे खुश रखने का प्रयास करते लेकिन निष्ठा कैसे खुश हो? जबकि वह जानती थी कि इस बच्चे पर उस का अधिकार सिर्फ उसे जन्म देने तक ही है. निष्ठा इस सच को स्वीकार कर चुकी थी, शायद, इसलिए भी वह धीरेधीरे बच्चे के मोह से छूट रही थी.

डिलीवरी का समय पास आ रहा था. रमन ने एक अच्छे मैटर्निटी होम में प्रसव की व्यवस्था कर रखी थी. डाक्टर भी निष्ठा के शरीर में हो रहे परिवर्तनों पर निगाह रखे हुए थी. इन सब व्यवस्थाओं से विलग निष्ठा हर समय बालकनी में खुलने वाली खिड़की के पास बैठी बाहर शून्य में ताकती रहती.

एक दिन सुबह निष्ठा की आंख बिल्ली के शोर से खुली. उस ने उत्सुकता से बाहर देखा तो पाया कि बालकनी में एक बिल्ली अपने 3 नवजात बच्चे ले कर आई है. वे बच्चे इतने छोटे थे कि उन की आंखें तक नहीं खुली थीं. बिल्ली बारीबारी से तीनों बच्चों को चाट रही थी. वह कभी उन बच्चों को अपनी बांहों के घेरे में ले लेती तो कभी उन्हें अपनी छाती से सटा कर दूध पिलाने लगती. एक बार जब वह उन्हें अपने मुंह में दबा कर दूसरी जगह ले जाने की कोशिश कर रही थी, तो निष्ठा का दिल धक से रह गया.

‘अरे, संभाल के. कहीं चोट न लग जाए,’ सोचती हुई निष्ठा के हाथ यंत्रवत खिड़की से बाहर निकल आए. वह बिल्ली के नन्हे बच्चों को हाथ में थामने को लालायित हो उठी. फिर कुछ सोच कर खुद ही संभल गई.

उन बच्चों की धीमी सी म्याऊं इतनी प्यारी थी कि निष्ठा उस आवाज में कहीं खो सी गई. अचानक उसे लगा मानो उस के स्तनों में दूध उतर आया. इस के साथ ही उस के हाथ अपने पेट को सहलाने लगे और आंखों से पानी बहने लगा. उस की आंखें तो खिड़की से हट गईं लेकिन उस के कान वहां से नहीं हट सके. रहरह कर बालकनी से आती म्याऊं की सुरीली मोहक आवाजें उसे बेचैन किए जा रही थीं. निष्ठा ने अपने लिए रखा दूध एक कटोरे में उंडेल कर बालकनी में रख दिया.

उसी रात निष्ठा को प्रसव पीड़ा उठी. वनिता और रमन भी तो इसी घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे. वे फ़ौरन निष्ठा को ले कर मैटर्निटी होम गए. 2 ही घंटे बाद एक नन्ही शिशु वनिता की गोद में थी. निष्ठा अभी दवाओं के असर से नीम बेहोशी में थी लेकिन उस के हाथ अपनी बगलों में इधरउधर घूमते हुए कुछ टटोल रहे थे. वनिता उस की पीड़ा समझ गई. उस ने निष्ठा के हाथों को नवजात से छुआया. निष्ठा उस कोमल स्पर्श को पाते ही स्थिर हो गई और उस छुअन को महसूस करने लगी.

शाम को जब निष्ठा को कुछ होश आया तो नर्स ने उसे बच्ची को अपना दूध पिलाने को कहा. थोड़ी कोशिश के बाद बच्ची ने अपनी मां का दूध खींचना शुरू किया. निष्ठा एक अलौकिक सुख में डूब गई. एक ऐसा अनुभव जिसे वह शब्द नहीं दे सकती थी. निष्ठा के हाथ बेटी का सिर सहलाने लगे. दूध पीते समय बच्ची के मुंह से आ रही चुसड़चुसड़ की आवाजें कमरे में बांसुरी सी बजा रही थीं. वनिता मन ही मन इस सुख की कल्पना में डूब-उतर रही थी.

4 दिनों बाद निष्ठा घर आ गई. कमरे में आते ही उस ने सब से पहले बिल्ली के कटोरे में दूध डाला. अब तक निष्ठा की मां भी अपनी बेटी की देखभाल करने के लिए बेंगलुरु आ गई थी. पूरा घर एक छोटे से शिशु के इर्दगिर्द सिमट गया. देखते ही देखते महीना होने को आया. निष्ठा के बच्ची से अलग होने का समय नजदीक आ गया. रमन गोद लेने की प्रक्रिया पूरे जोशोखरोश से निबटा रहा था. एक शाम वह औफिस से घर लौटा तो बहुत खुश मूड में था.

“मैं ने सभी आवश्यक औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं. अब एकदो दिन में हमारे घर का सर्वे किया जाएगा. संतुष्टिजनक रिपोर्ट के बाद कुछ ही दिनों में यह प्यारी सी गुड़िया कानूनन वनिता की हो जाएगी.” रमन ने बच्ची को गोद में उठा कर उस का मुंह चूम लिया. सुनते ही वनिता भी खिल गई. बच्ची की नानी मुसकरा दी. किसी ने भी निष्ठा की प्रतिक्रिया की तरफ ध्यान नहीं दिया. अचानक निष्ठा उठी और उस ने रमन के हाथों से बच्ची को छीन लिया.

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“मैं अपनी बच्ची किसी को नहीं दूंगी,” निष्ठा ने कहा. उस की बात सुनते ही सब सकते में आ गए.

“क्या बकवास कर रही हो. यह सब तो पहले से ही तय था. इसी शर्त पर तो तुम्हें यहां भेजा गया था,” मां ने निष्ठा को झिंझोड़ा.

“आंटी सही कह रही हैं. यह सब तुम्हारी सहमति से ही तो हुआ है,” वनिता ने उसे याद दिलाया.

“हां, लेकिन अब मैं अपनी बच्ची को खुद पालना चाहती हूं,” निष्ठा ने बच्ची को कंधे से लगाते हुए कहा.

“पागल हो गई हो क्या? क्या तुम जानती नहीं कि तुम्हारा यह फैसला समाज के नियमों के खिलाफ है. आत्मघाती है,” मां ने उसे चेताया लेकिन निष्ठा तो कुछ भी सुनने को तैयार न थी. उस ने अपना फैसला बदलने से इनकार कर दिया. वह सब को असमंजस में छोड़ कर अपने कमरे में जा कर अपना और बेटी का सामान पैक करने लगी.

तभी बालकनी से वही मधुर म्याऊं सुनाई दी. निष्ठा ने देखा, बिल्ली के तीनों बच्चे कटोरे में रखा दूध पी रहे हैं. बिल्ली बारीबारी से तीनों को चाट रही है. निष्ठा ने भी बच्ची का माथा चूम लिया.

वह जानती थी कि उस के निर्णय का पुरजोर विरोध होगा लेकिन वह अपनी नाव को धारा के विपरीत बहाने के निर्णय पर अटल थी.

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