लेखिकाएं: साहस बनाम कट्टरवाद

इस साल के ख्यातिनाम अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार ‘बुकर’ के लिए गीतांजलि के उपन्यास ‘रेत की समाधि’ का चयन किया गया तो साहित्यप्रेमी झम उठे क्योंकि यह सम्मान हासिल करने वाली यह एकमात्र हिंदी पुस्तक है. 65 वर्षीय गीतांजलि ने अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत आम और औसत हिंदी लेखकों जैसे ही की थी. उन की पहली कहानी 1987 में एक साहित्यिक पत्रिका में छपी थी. उस के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और एक के बाद एक 5 उपन्यास लिखे.

90 के दशक में प्रकाशित उन का उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ भी खासा चर्चित हुआ था. मूलतया अयोध्या कांड की सांप्रदायिक हिंसा और दंगों को उकेरते इस उपन्यास में धर्म की वजह से पैदा हुई हिंसा का सटीक चित्रण था जो बहुतों को नागवार गुजरा था खासतौर से उन लोगों को जो सच से डरते हैं और उसे ढक कर रखे रहना चाहते हैं.

खुन्नस खा गए कट्टरपंथी

उपन्यास के ये चुनिंदा अंश या वाक्य ही बता देते हैं कि क्यों गीतांजलि श्री कुछ खास किस्म के लोगों की नजरों में ‘रेत की समाधि’ को ले कर भी खटक रही हैं:

– उस बरस भगवानों की बाकायदा खेती हुई. बीज लगे जिन के ऊपर अंगुलभर मूर्तियां रखी गईं देवी जगदंबे की और जब धरती को फाड़ कर पौधा और देवी प्रकट हुईं तो जय जगदंबे से लाउड स्पीकर झनझनाने लगे. ऐसे कि दीवारें हिल गईं गिरजाघरों और मसजिदों की नींवें हिल गईं.

नींवें तो मंदिरों की भी हिलीं. जिस तरह मुल्क में ईंटें टूटीं उस से तो शायद सच यह है कि नींव तो मुल्क की भी हिली. धूल के गुबार थे, भीड़ की कुचलमकुचलाई थी, लाठीपत्थरों की बारिश थी.

यह और इस तरह की बातों पर कट्टरपंथी खुन्नस खाए बैठे थे, लेकिन तब खुल कर इस का विरोध नहीं कर पाए थे तो इस की कई वजहें भी थीं. मसलन, उपन्यास में सांप्रदायिक हिंसा का देखा हुआ सच था. दूसरे तब गीतांजलि बहुत बड़ा यानी आज जितना चर्चित नाम भी नहीं था. ‘उस बरस हमारा शहर’ की घटनाएं प्रतीकात्मक रूप में ही सही वास्तविक इसलिए भी थीं कि गीतांजलि ने धार्मिक हिंसा और नफरत को बहुत करीब से देखा था खासतौर से उत्तर प्रदेश में जहां उन की पैदाइश और परवरिश हुई.

बेबाक राय

मैनपुरी के एक ब्राह्मण परिवार की गीतांजली पांडे के पिता अनिरुद्ध पांडेय पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर विभिन्न शहरों में तैनात रहे जो खुद भी शौकिया लेखक थे.

कालेज की पढ़ाई के लिए गीतांजलि दिल्ली चली गईं और वहां लेडी श्रीराम कालेज और जेएनयू में पढ़ीं. इतिहास की पढ़ाई छोड़ कर उन्होंने हिंदी में पीएचडी की उपाधि ली वह भी प्रेमचंद के साहित्य पर जो उन्हें असली भारत के और नजदीक ले जाने बाली बात साबित हुई. इस के बाद उन्होंने अपनी रचनाओं में कोई लिहाज किसी का नहीं किया.

गीतांजलि के लेखन पर गहरी नजर रखने वाले कट्टरपंथी देख और समझ रहे थे कि यह युवती एक खतरा बनती जा रही है जो सच बयानी से हिचकती नहीं. इसी दौरान गीतांजलि की शादी हो गई और स्वाभाविक तौर पर वे घरगृहस्थी में रम गईं. लेखन धीमा जरूर हुआ पर बंद नहीं हुआ. अब तक हिंदी साहित्य में उन की जगह बन चुकी थी और खुद का अपना पाठक वर्ग भी वे तैयार कर चुकी थीं.

यों ही लिखतेलिखते उन्होंने 2018 में ‘रेत की समाधि’ उपन्यास लिखा जो चर्चा में इस साल आया क्योंकि उसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘बुकर’ के लिए चुना गया था. इस खबर को साहित्य जगत में तो खूब अंडरलाइन किया गया, लेकिन मीडिया में उम्मीद के मुताबिक स्पेस नहीं मिला क्योंकि गीतांजलि को किसी राष्ट्रपति प्रधानमंत्री तो दूर की बात है विपक्ष के किसी नेता ने भी बधाई नहीं दी थी.

ऐसा भी नहीं था और न है कि गीतांजलि किसी ऐसी खास तारीफ या प्रोत्साहन की मुहताज हों जिस का साहित्य की तरफ से पीठ कर सोने वालों का कोई वास्ता और योगदान हो.

अब तक आमतौर पर फ्लैश बैक लेखन करने वाली गीतांजलि पर साहित्य के खेमेबाजों ने वामपंथी होने का ठप्पा जरूर लगा दिया था. इस पर खुद गीतांजलि ने चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि मेरी समझ से बात संवेदना की है न कि वाद की वाद और विचारधारा का साहित्य बंदी नहीं है यह चिंता पाठक आलोचक अकादमिक बहसों में पड़ने बालों की है मुश्किल यह है कि अकसर वे हर कलाकृति को वाद और विचारधारा में बांटने के आदी हो गए हैं.

आगरा से आरंभ

बीती 31 जुलाई को गीतांजलि का कहा सच भी साबित हुआ. इस दिन ताज नगरी आगरा के प्रबुद्ध वर्ग में खासी उत्तेजना और गहमागहमी थी. जहां इस दिन 2 सांस्कृतिक संगठनों रंगलीला और आगरा थिएटर क्लब ने ‘बुकर’ पुरस्कार प्राप्त लेखिका को सम्मानित करने का आयोजन किया था. इस उत्साह और तैयारियों पर उस वक्त पानी फिर गया जब गीतांजलि ने आगरा आने से मना कर दिया क्योंकि उन के खिलाफ हाथरस के सादाबाद थाने में संदीप पाठक नाम के शख्स ने तहरीर दी थी.

इस पाठक का आरोप था कि ‘रेत की समाधि’ उपन्यास में हिंदू देवता शिव और पार्वती देवी के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं. संदीप ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पुलिस महानिदेशक को भी इस बाबत ट्वीट करते हुए गुजारिश की थी कि इस शिकायत को एफआईआर में बदला जाए. गीतांजलि इस से इतनी आहत हुईं कि अपने अभिनंदन समारोह में ही नहीं गईं, जबकि उन से उम्मीद तो यह की जाती है कि वे कट्टरवादियों का डट कर मुकाबला करें.

मुमकिन है गीतांजलि डर गई हों. हालांकि यह बात उन के लेखकीय तेवरों से मेल नहीं खाती. गीतांजलि को न आता देख आयोजकों में गुस्सा देखा गया जो एक स्वाभाविक बात थी. लेकिन इन सभी का गुस्सा सत्ता पक्ष और दक्षिणपंथियों पर उतरना बताता है कि दरअसल में पेंच क्या है और इस पाठक की शिकायत का लब्बोलुआब क्या था. रंगलीला के पदाधिकारी अनिल शुक्ला के मुताबिक इस उपन्यास में आपत्तिजनक कुछ नहीं है. इस में एक पौराणिक घटना का जिक्र भर है.

भेदभाव के खिलाफ आवाज

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी दोटूक हकीकत बयान करते हुए बताते हैं कि यह जाति के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव की तरह है जिस पर हिंदी की यह कहावत लागू होती है- चेहरा देख कर टीका लगाना. अगर कोई व्यक्ति हमारी विचारधारा में फिट नहीं बैठता तो हम उस का सम्मान नहीं करेंगे.

अपनी भड़ास को और विस्तार देते हुए ओम कहते हैं इन लोगों ने उन की बैकग्राउंड देख ली है. ये जेएनयू वाली है बाकी इन्होंने साहित्य तो पढ़ा नहीं है. हमारे यहां किसी खेल में पुरस्कार जीतने वालों को प्रधानमंत्री सम्मानित करते हैं, लेकिन हिंदी की किसी लेखिका ने पहली बार ?‘बुकर’ जीता और उन्होंने बधाई तक नहीं दी. राजनीतिक सत्ता में बैठे लोग साहित्य के मामले में निरक्षर हैं.

‘रेत की समाधि’ की केंद्रीय पात्र एक अवसादग्रस्त बुजुर्ग महिला है. यह उपन्यास उस की जीवनयात्रा है जिस के अंतिम पड़ाव पर वह सारी वर्जनाएं और परंपराएं तोड़ने पर आमादा है. भारतपाकिस्तान विभाजन की त्रासदी उपन्यास की पृष्ठभूमि है जो शिद्दत से यह बताती है कि एक औरत की जिंदगी पर उस का क्या और कैसाकैसा असर पड़ता है.

यही शायद बड़ी परेशानी की बात कुछ लोगों को है कि एक औरत मुख्य पात्र क्यों है और है भी तो आजादी के 75 साल बाद उस में इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि वह खुद सोचने लगी जबकि औरत को तो सोचने का भी हक नहीं. अगर है भी तो उसे व्यक्त करने का तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि कोई भी औरत जब भी सच बोलेगी तो वह मर्दों के खिलाफ ही होगा.

सामने आई साहित्यिक खेमेबाजी

सादाबाद थाने में की गई शिकायत में देवी देवताओं की आड़ महज परेशान करने और हिम्मत तोड़ने की गरज से की गई लगती है वरना तो उपन्यास में न केवल पेज नंबर 222 बल्कि कहीं भी आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है जिस पर हायहाय मचाई जाए. इसे शुरुआत समझना बेहतर होगा. हालांकि गीतांजलि का अंदरूनी तौर पर साहित्यिक बहिष्कार तो इस उपन्यास के प्रकाशित होने के साथ ही शुरू हो गया था. कई मठाधीशों ने उन से कन्नी काटते उन्हें साहित्य की मुख्यधारा (बशर्ते अब कोई होती हो तो) से अलग होने का एहसास कराया था.

‘रेत की समाधि’ का अंगरेजी अनुवाद डेजी राकवेल ने किया है जो कि बेहतर अनुवाद के लिए जानी जाती हैं. इस उपन्यास को मिली 50 हजार पौंड की इनामी राशि में से आधा हिस्सा उन्हें मिला है. दक्षिणपंथी साहित्यकारों ने तभी से अफवाह उड़ाने की कोशिश की थी कि दरअसल में ‘बुकर’ पुरस्कार अनुवाद के लिए मिला है यानी गीतांजलि और उन का ‘रेत की समाधि’ गौण है.

बिलाशक डेजी के अनुवाद की गुणवत्ता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, लेकिन यह चर्चा कि अगर अनुवाद अच्छा न होता तो उपन्यास ‘बुकर’ पुरस्कार के मंच तक पहुंचता कैसे एक हास्यास्पद बात है जिसे तर्क कहना तर्क के साथ छल होगा.

इन जलकुक्कड़ खेमेबाजों ने हवा यह भी उड़ाई थी कि अब गीतांजलि के साथी उन्हें महान साबित करने की कोशिश करेंगे जबकि उलट इस के सच तो यह है कि गीतांजलि और उन के साथियों ने कभी कोई ऐसी कोशिश नहीं की शायद इसलिए भी कि ‘बुकर’ का मिलना ही उन्हें महान साबित करता है. पर लोग चाहते थे कि जब तक देश के आका तारीफ न कर दें तब तक महानता स्थापित नहीं होती.

टोटके जब बेअसर होने लगे

ये और ऐसे तमाम टोटके जब बेअसर साबित होने लगे तो किन्हीं पाठकजी की नजर पेज नंबर 222 पर पड़ गई जहां उन्हें एहसास हुआ कि अरे यह तो हमारे देवीदेवताओं का मजाक है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू देवीदेवताओं का मजाक उड़ाने वाली लेखिका को लोग आगरा में सरेआम समारोहपूर्वक सम्मानित कर रहे हैं. धिक्कार है उन आयोजकों पर जो हिंदू होते हुए भी पूज्य देवीदेवताओं की मर्यादा की हिफाजत नहीं कर रहे या कर पा रहे. ऐसे पापियों को सजा दिलाने की पहली सीढ़ी थाने से हो कर जाती है जहां के पुलिस कर्मियों ने समकालीन आलोचकों को पछाड़ते हुए फैसला दिया कि कुछ आपत्तिजनक है या नहीं इस का फैसला उपन्यास पढ़ने के बाद लिया जाएगा.

ये पुलिस वाले उन महान साहित्यकारों से कमतर होंगे ऐसा कहने की कोई वजह नहीं जो ‘रेत की समाधि’ के अंगरेजी अनुवाद ‘टौंब या टूंब औफ सैंड’ पूरे आत्मविश्वास से कुछ इस तरह कह रहे हैं कि औक्सफोर्ड वाले भी शरमा जाएं कि भारत पहुंचते ही हमारा शब्द टूम, टौंब या टूंब कैसे हो गया. इन लोगों को मालूम ही नहीं कि अंगरेजी के शब्दकोष में सही उच्चारण क्या है, लेकिन मुद्दा या तिलमिलाहट उच्चारण नहीं है, अंदर क्या लिखा है यह भी बहुत ज्यादा नहीं है क्योंकि यह एक ऐसी साहित्यकार की सफलता और उपलब्धि है जो कट्टरवाद के खांचे में फिट बैठना तो खवाव की बात है कट्टरवाद को ध्वस्त करने पर उतारू है.

अब दुकान खराब होगी तो कुछ तो करना पड़ेगा. लिहाजा हाथरस से कर दिया गया जिस में दुखद बात गीतांजलि का आगरा के आयोजन में न जाना रहा जो कि एक खतरनाक इशारा न केवल साहित्य के लिहाज से है बल्कि गीतांजलि सरीखी बोल्ड मानी जाने वाली लेखिका की मनोदशा का भी है कि क्या सचमुच वे देश के और उत्तर प्रदेश के माहौल से भयभीत हैं? अगर हां तो अपनी बात उन्हें भी योगीमोदी तक पहुंचानी चाहिए. इस से कुछ हासिल नहीं होगा यह सब को मालूम है, लेकिन कुछ नहीं होता यह दिखाने के लिए ही सही उन्हें इन लोगों से गुजारिश तो करनी चाहिए.

मनोबल तोड़ने की कोशिश

गीतांजलि कोई पहली या आखिरी लेखिका नहीं हैं जिन का मनोबल तोड़ने के लिए यों कोशिश की गई बल्कि उन के पहले कई लेखिकाओं को निशाने पर लिया गया है. इन में एक बड़ा और चर्चित नाम अरुंधती राय का है जिन के उपन्यास ‘गौड औफ स्माल थिंग्स’ को ‘बुकर’ मिला था. तब भी भक्तों ने खूब बबाल यह आरोप लगाते किया था कि इस उपन्यास में कामुकता और अश्लीलता है.

यह भी कोई हैरत की बात इस लिहाज से नहीं थी कि एतराज जताने वाले छाती सिर्फ इसलिए कूट रहे थे कि अरुंधती घोषित तौर पर वामपंथी हैं और आज भी भगवा गैंग की नाक में दम किए रहती हैं.

ये और ऐसी कई बातें हैं जो अरुंधती से ऐलर्जी रखने के लिए काफी हैं. एक जागरूक महिला बोले तो फर्क पड़ता है और अगर वह महिला अरुंधती हो तो इतना फर्क पड़ता है कि कट्टरवादी भीतर तक हिल जाते हैं और उसे राष्ट्रद्रोही वामपंथी और न जाने क्याक्या कहने लगते हैं.

1997 में ‘बुकर’ पुरस्कार मिलने के बाद से तो वे और मुखर हो गई हैं. यह सोचना बेमानी है कि वे सिर्फ भगवा गैंग की छिलाई करती रहती हैं. हकीकत में कांग्रेसियों को भी उन्होंने कभी बख्शा नहीं है जो खुद को उदारवादी हिंदू कहते थकते नहीं.

अरुंधती का गुनाह इतना भर है कि वे कश्मीर समस्या का हल उस की आजादी मानती हैं, बकौल अरुंधती कश्मीर पर आखिरी हक कश्मीरियों का है और वे आजादी चाहते हैं हमें उन के फैसले का सम्मान करना चाहिए.

अरुंधती का दूसरा गुनाह संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी के बारे में यह कहना है कि उस के खिलाफ मिले सुबूत काफी नहीं थे और उसे सजा लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए दी गई. उन का तीसरा गुनाह माओवादियों का हिमायती होना और चौथा भीमराव अंबेडकर के बारे में यह कहना है कि उन के सभी कामों को देखा जाए तो उन की किताब ‘ऐनिहिलेशन औफ कास्ट’ सब से पूर्ण है, यह हिंदूवादी कट्टरपंथ के लिए नहीं पर ऐसे लोगों को जो खुद को उदार हिंदू मानते हैं, हिंदू शास्त्रों पर विश्वास करना और खुद को उदार मानना एकदूसरे के उलट है.

सोशल मीडिया पर भड़ास

बात लिखने तक ही सीमित नहीं है बल्कि अरुंधती बोलती भी बेबाक हैं. उन के ताजे आइडिए का मजमून यह है कि प्रधानमंत्री एक टर्म के लिए ही चुना जाना चाहिए. पिछले साल दिसंबर में दिल्ली प्रैस क्लब के एक आयोजन में उन्होंने इस की वजह भी बताई थी कि राजा महाराजा का दौर अब खत्म हो चला है. इस पर उन्हें ट्विटर पर खूब कोसा यानी ट्रोल किया गया था. एक फिल्मकार अशोक पंडित ने ट्वीट किया कि एक और फ्रस्ट्रेटेड लिबरल, अरुंधती राय हमेशा देश के खिलाफ जहर उगलती रहती हैं, लेकिन हर बार हार जाती हैं.

अरुंधती ने एक सुझव भर दिया था जिस के एवज में उन पर भद्दी गालियों की बारिश हुई. ये तो कुछ बानगियां भर है. कई कमैंट्स का तो यहां जिक्र भी नहीं किया जा सकता. एक प्रधानमंत्री का टर्म एक क्यों हो इस के नफानुकसान पर एक सार्थक बहस हो सकती थी, लेकिन मकसद जब औरतों को जलील करना और नीचा दिखाना हो तो मुद्दे की बात और मर्यादा जाने कहां घास काटने चली जाती हैं. कट्टरवादियों को तो बहाना चाहिए होता है.

कौन हैं अशोक पंडित जैसे धर्मांधों के आदर्श. यदि वे पौराणिक पात्र हों तो ढूंढे़ से एक भी नहीं मिलेगा जिस ने कभी महिलाओं का अपमान न किया हो. राम ने शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण से कटवा कर कौन सा आदर्श गढ़ा था, यह बात समझ से परे है: यदि वह प्रणयनिवेदन कर रही थी तो उसे शराफत से टाला भी जा सकता था.

लक्ष्मण ने शूर्पणखा के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया था जिस से लगता है कि नारी सम्मान एक वर्ग विशेष की महिलाओं के लिए ही था नहीं तो पापिन, कुलटा, नीच, दुष्टा, पतिता, व्यभिचारिणी और सब से अपमानजनक वेश्या जैसे शब्दों से पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं.

त्याग पर तंज

ऐसे ट्वीट करने वालों के आदर्श अगर मौजूदा दौर के नेता हैं तो फिर कुछ कहनेसुनने की जरूरत नहीं रह जाती. कांग्रेसी बुजुर्ग दिग्विजय सिंह ने अपनी ही पार्टी की एक नेत्री को टंच माल कह कर छिछोरी मानसिकता दिखाई थी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेसी नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर को 50 करोड़ की गर्ल फ्रैंड कह कर अपनी मानसिकता उजागर करने से खुद को रोक नहीं पाए थे.

इस पर सुनंदा ने उन्हें सलाह दी थी कि वे महिलाओं के प्रति सम्मान दिखाएं और इस स्तर तक न गिरें. शशि थरूर ने जरूर नरेंद्र मोदी के उन के पत्नी त्याग को ले कर तंज कसा था कि मेरी पत्नी आप की 50 करोड़ की सोच से कहीं ज्यादा है. वह अनमोल है. आप को ऐसी बातें समझने के लिए किसी से प्यार करने की जरूरत है.

इन्हीं मोदीजी ने संसद में कांग्रेसी नेत्री रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना ताड़का से करते जता दिया था कि उन्होंने सुनंदा शशि की प्रतिक्रिया से कोई सबक नहीं लिया है

अगर तमाम छोटेबड़े नेताओं के बयानों की बात की जाए तो 19वां पुराण रचा जा सकता है. बात अकेले राजनीति या साहित्य की नहीं है बल्कि आम जिंदगी में भी झग्गियों से ले कर आलीशान मकानों तक में महिलाओं को अपशब्द कहना आम बात है. होगी भी क्यों नहीं जब हमारी जिंदगी को पगपग पर निर्देशित करने वाला धर्म ही औरत को सेविका, दोयम दर्जे की, नर्क का द्वार, गंदगी की खान, पांव की जूती और शूद्र करार देता हो.

धर्म बना दुश्मन

महिलाओं के प्रति बराबरी और सम्मान के भाव बहुत सीमित हैं क्योंकि परंपराओं और रीतिरिवाजों की घुसपैठ घरों के अलावा मन में भी है जिस का उद्भव वही धर्म है जो साल में कुछ दिन नारी को पूजनीय तो कहता है, लेकिन हकीकत में महिला का सब से बड़ा दुश्मन वही है. अफसोस तो इस बात का है कि अधिकतर महिलाओं ने इस अशिष्टता और शोषण को ही अपना भाग्य मान लिया है.

गीतांजलि और अरुंधति जैसी जमीनी साहित्यकार जब औरत को उस के वजूद का, ताकत का अधिकारों का एहसास अपने लेखन के जरीए कराती हैं तो तिलमिलाते वे पुरुष हैं जो औरत को अपनी जायदाद मानते और समझते हैं. उन्हें मुफ्त की यह सहूलियत अपने चंगुल से छूटती दिखाई देती है तो वे और उद्दंड होने लगते हैं.

वे एक नहीं बल्कि समूची स्त्री जाति को हतोत्साहित कर रहे होते हैं. यही समाज पर उन के दबदबे का राज है और ऐसा हर धर्म में है. साहित्य के लिहाज से देखें तो तसलीमा नसरीन और इस्मत चुगताई भी इन दोनों से कम परेशान नहीं की गईं, लेकिन इकलौती सुखद बात है

कि ये भी झकी नहीं बल्कि शोषण के खिलाफ लड़ती रहीं.

तसलीमा भी हैं उदाहरण

महिलाओं के शोषण और प्रताड़ना पर सभी धर्म कितनी शिद्दत से सहमत हैं बंगलादेश मूल की उर्दू और बंगाली लेखिका 62 वर्षीय तसलीमा नसरीन इस का बेहतर उदाहरण हैं जो अपने लिखे से ज्यादा अपने इसलामविरोधी तेवरों को ले कर सुर्खियों में रहती हैं. उन के लिए दुआ में तो कोई हाथ उठता नहीं, लेकिन फतवों की बौछार लगी रहती है. इसलामिक कट्टरवाद का मुखर विरोध करने वाली यह लेखिका दरअसल में यह पोल खोलती रही है कि कट्टरपंथी कैसेकैसे औरतों का शोषण करते हैं.

8 साल सरकारी अस्पताल में डाक्टर रहने के बाद 1994 में तसलीमा मुल्लेमौलवियों और फिर आम कट्टरवादी मुसलमानों के निशाने पर आई थीं. उन के बदनाम उपन्यास ‘लज्जा’ के प्रकाशित होते ही उन के खिलाफ फतवे जारी होने शुरू हो गए थे. खतरा जान जाने की हद तक बढ़ गया तो उन्होंने बंगलादेश छोड़ भारत की पनाह ली और 18 साल से यहीं रह रही हैं. इस के पहले वे दुनियाभर के देशों अमेरिका, स्वीडन जैसे देशों में भटकी थीं. यह इस गुनाह की सजा है कि वे ऊपर वाले के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगाती हैं जोकि सारे फसादों की जड़ है.

बकौल तसलीमा

– क्या आप वास्तव में सोचते हैं कि एक ईश्वर जिस ने ब्रह्मांड अरबों आकाशगंगाओं सितारों, अरबों ग्रहों को बनाया है- धुंधला नीले बिंदु (जाहिर है पृथ्वी) पर कुछ छोटी चीजों को पुरस्कृत करने का वादा करता है कि वे बारबार कह रहे हैं कि वह (जाहिर है नवी या अल्लाह) सब से महान और दयालु है. उस के लिए उपवास (रोजा) रखने के लिए इस तरह के एक महान निर्माता इतने आत्ममोह, आत्म पूजा वाले नहीं हो सकते इसी बात को अरुंधती अलग अंदाज और शब्दों में कह चुकी हैं कि धर्म और उदारता एक साथ नहीं चल सकते.

सनातन और इसाई धर्म की तरह इसलाम भी बहुत संकरापन लिए हुए है. औरतों को सभी धर्मों ने अदृश्य अस्तित्वहीन ईश्वर से जोड़ कर उन्हें गुलाम बनाए रखने की साजिश रच रखी है जिसे गीतांजलि अरुंधती और तसलीमा समझ कर नारी स्वाभिमान और आत्मसम्मान की बात करने लगती हैं तो उन के खिलाफ फतवे जारी होने लगते हैं, उन्हें जान से मारने और बलात्कार करने की धमकियां दी जाने लगती हैं, उन के खिलाफ सार्वजनिक प्रदर्शन किए जाने लगते हैं. सहज समझ जा सकता है कि पुरुषों की सहूलियत के लिए गढ़े गए धर्मों की असलियत क्या है.

नारीवादी लेखिका का विरोध

असलियत नास्तिक तसलीमा की नजर में यह है कि ईश्वर एक कोरी गप्प है. वे कहती हैं यकीन मानिए मेरा स्वर्गनर्क में कोई विश्वास नहीं है समानता, न्याय, सच बोलना और अपने हक के लिए लड़ना यही मेरी जिंदगी की फिलौसफी है. यह फिलौसफी धर्म के दुकानदारों के लिए बेहद घातक है. लिहाजा, वे इस नारीवादी लेखिका का जीना हराम कर देते हैं. उस की हिम्मत तोड़ने में कोई कसार नहीं छोड़ते. हाथरस के सादाबाद में यही सब 31 जुलाई को किया था.

कोशिश या षड्यंत्र यह है कि आगे से गीतांजलि, अरुंधती, तसलीमा और इस्मत जैसी महिलाएं पैदा ही न हों जो धर्म की पोल खोलती हैं. महिला अधिकारों और समानता की बात करते हुए ये साबित कर देती हैं कि धर्म कैसे इस की अहम वजह है. इन कट्टरवादियों की नजर में मुकम्मल औरत वही है जो मुंहअंधेरे उठ कर पूजापाठ में जुट जाए, तुलसाने पर दिया और अगरबत्ती जलाए, किचन में खटती रहे, पुरुषों की चाकरी करती रहे, रात को बिस्तर में इच्छा हो न हो चादर सी बिछ जाए और इस के लिए भी करवाचौथ जैसे तरहतरह के व्रतउपवास और रोजे रखे.

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