रिक्त स्थान : पत्नी के गुजरने के बाद चमन की जिंदगी में क्या हुआ

पत्नी के असमय गुजर जाने के बाद अब चमन की जिंदगी में कमला ही सब कुछ थी. उन के बेटेदामाद को कमला फूटी आंख भी नहीं भाती थी. आखिर कौन थी कमला और क्यों बगैर शादी किए भी चमन उस पर जान छिड़कते थे…

‘‘60 की उम्र में गैस का लाइटर हाथ में थामना पड़ेगा कभी सोचा नहीं था. 60 क्या मैं ने तो कभी 8 की उम्र में भी रसोई की देहरी नहीं लांघी थी. कभी जरूरत ही कहां पड़ी,’’ चमन ने खटखट कर के कई बार लाइटर से गैस जलाने की कोशिश की लेकिन गैस भी जैसे शील की तरह ही रूठ कर बैठ गई थी. नहीं जली तो नहीं जली.

चमन कहीं से माचिस की डिबिया ले कर आया. तीली जला कर गैस की नोब घुमाई और जलती हुई तीली गैस के बर्नर से सटा दी. भक्क कर के लपट उठने लगी. चमन ने फटाफट चाय का बरतन चढ़ा दिया. शायद पतीला थोड़ा टेढ़ा रखा गया होगा, रखने के साथ ही एक तरफ लुढ़क गया. चमन ने उसे गिरने से बचाने के लिए पकड़ने की कोशिश की तो उंगलियां जल गईं. हाथ को ठंडे पानी में डाल, फूंक मार कर जलन कम करने की कोशिश करने लगा.

तभी मां ने पुकारा, ‘‘क्या हुआ चमन? चाय बना रहे हो क्या?’’ मां की आवाज में तलब वाला उतावलापन साफ महसूस किया जा सकता था.

‘‘हां मां, बस अभी लाया,’’ कहते हुए चमन ने एक कप पानी पतीले में डाला और चायपत्तीचीनी डाल कर अदरक कूटने लगा. जब पानी उबलने लगा तो 1 कप दूध डाला. इस के बाद अदरक डाल दिया और उबाल आते ही छान कर 2 कपों में चाय डाल कर मां के पास आ बैठा.

मां ने कप उठा कर होंठों से लगाया और बेस्वाद सा मुंह बनाया, ‘‘कैसे चाय बनाता है रे तू? अदरक का तो स्वाद ही नहीं. आधा घंटा इंतजार के बाद यह मीठा सा घोल बना कर ले लाया,’’ मां ने जूठा कप वापस ट्रे में रखते हुए कहा.

चमन ?ोंप गया. उस ने कहां कभी चाय बनाई थी. पहले मां बनाया करती थी और जब से शील ब्याह कर आई थी तब से तो किसी को रसोई में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. रसोई में जाना तो दूर की बात है किसी को कुछ कहना तक नही पड़ा. चाय के समय चाय और खानेनाश्ते के समय खानानाश्ता. शील बिना कहे सबकुछ समय पर हाजिर कर देती थी. पता नहीं उस का दिमाग अलार्म घड़ी ही बन गया था क्या? सही समय होते ही उसे सतर्क कर देता था. पता नहीं नियति ने मेरे साथ ही यह खेल क्यों खेला, चमन अनजाने ही नियति को कोसने लगा.

यों नियति को कोसना आदत नहीं है उस की. जिंदगी में जो कुछ भी अच्छाबुरा घटित

हुआ उसे सहज स्वीकार किया है उस ने लेकिन शील का जाना वह आज 2 महीने बाद भी स्वीकार नहीं कर पाया है. और तो और इस हादसे के बाद तो कुदरत पर से उस का रहासहा विश्वास भी उठ गया था. उफ, कैसी बेरहम बीमारी थी.

कहने को तो उस की जानपहचान के बहुत से लोग संक्रमित हो कर स्वस्थ भी हुए थे. ठीक होने के बाद जब वे कहते थे कि डरने की कोई बात नहीं. सब ठीक हो जाता है. तब उस ने भी तो इसे हलके में ही लिया था. वह भी तो मित्र मंडली में अपने ज्ञान की पोटली खोलते हुए अपनेआप को आर्यभट्ट से कम नहीं सम?ाता था. जब वह लोगों से कहता था कि माना संक्रमण की दर अधिक है लेकिन मृत्यु दर 1त्न ही है तब उसे कहां अंदेशा था कि उस का घर इसी 1त्न की श्रेणी में आ जाएगा.

अंतिम सिंदूर तक नहीं भर पाया था वह शील की मांग में. प्लास्टिक की किट में बंद शील कितनी कातर लग रही थी. देखते ही कलेजा मुंह को आ गया था. लोग शील के जाने को कोविड की मरजी कह कर उसे सांत्वना देते लेकिन वह इसे भी स्वीकार नहीं कर पा रहा था. वह तो इस महामारी को कोस रहा था जो अचानक काल बन कर आई और उन की दुनिया में अंधेरा कर गई.

कोई कम भागदौड़ नहीं की थी उस ने. दिन में 4 बार शील का औक्सीजन लैवल चैक करता था. गरम पानी, भाप और मां से सुबहशाम आयुर्वेदिक काढ़ा भी बनवाता था लेकिन शील की तबीयत में कुछ खास सुधार नही हो रहा था. और उस दिन तो जरा सा औक्सिजन लैवल कम होते ही वह उसे ले कर अस्पताल भागा था. अस्पताल प्रशासन ने आईसीयू बैड उपलब्ध न होने का कह कर उसे निराश लौटा दिया था. वह तो उस की जानपहचान काम आई और वह किसी तरह शील को एक निजी अस्पताल में भरती करवा पाया था.

उस के बाद दवाओं और औक्सीजन की कालाबाजारी का ऐसा घिनौना खेल शुरू हुआ कि बस पूछो मत. सौ का सामान हजार में भी नहीं मिल रहा था. पैसों की परवाह न करते हुए वह सब संसाधन जुटाने की कोशिश कर रहा था लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद वह शील की उखड़ी सांसों की लड़ी जोड़ नहीं पाया और खाली हाथ घर लौट आया.

आज भी जब वह रात को आंखें बंद करता है तो वही सब दृश्य आंखों के सामने जीवंत हो उठते हैं और यदि किसी दिन रात को नींद न आए तो फिर सुबह तक न जाने कितनी दफा उस सारे घटनाक्रम का ऐक्शन रीप्ले होता है.

कहां कल्पना की थी उस ने कि उम्र की इस शाम को बिना साथी के बिताना पड़ेगा. कहने को तो उस का भरापूरा परिवार है. 2 बेटियां, 1 बेटा और मां भी तो. लेकिन कुछ खाली कोने कोई नहीं भर पाता. ठीक वैसे ही रिक्त स्थान जो सिर्फ उसी शब्द से पूर्ण हो सकते हैं जिन के न होने से वे रिक्त हुए हैं. बचपन में पढ़े, ‘रिक्त स्थान की पूर्ति करो,’ वाले वाक्य की तरह.

ऐसा नहीं है कि उस के दर्द का किसी को एहसास नहीं है लेकिन सभी अपनीअपनी दुनिया मे व्यस्त हैं अपनेअपने रिक्त स्थानों की पूर्ति

करते हुए.

बेटा और बेटियां बिना नागा फोन पर हालचाल लेते हैं. मां भी उसे संबल देने की कोशिश करती है. शायद वह जीवनसाथी को खोने का दर्द बेहतर सम?ाती है. चमन मां के सामने अपने दुखड़े नहीं रोता. वह सब के सामने सामान्य होने का दिखावा करता है मगर अकेले में उसे जीवन के ये रिक्त स्थान बहुत बेचैन कर देते हैं.

किस से कहे कि उसे साथी की जरूरत है. अधिकांश लोग तो इस जरूरत को शरीर की आवश्यकताओं से ही जोड़ कर देखेंगे. कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि बच्चे भी उसे गलत सम?ों मगर पहाड़ सा बड़ा दिन और सागर सी लंबी रातें बिना किसी से सुखदुख, खुशीतकलीफ सा?ा किए चुपचाप अकेले काटना कितना असाध्य है यह गणना किसी गणितीय फौर्मूले से नहीं की जा सकती.

राहत की बात है कि वह साल भर पहले रिटायर हो चुका है वरना कौन जाने रसोईचौके में उल?ा वह औफिस भी समय पर पहुंच पाता या नहीं. तब ऐसे हालात में उसे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ही लेनी पड़ती. अब तो पूरा दिन हाथ में रहता है इसलिए धीरेधीरे ही सही लेकिन किसी तरह 2 समय का खाना बना लेता है साथ ही वृद्ध मां को भी संभाल लेता है.

तभी दरवाजे की घंटी बजी तो चमन खयालों से बाहर आया. घड़ी की तरफ निगाह गई तो शाम के 4 बज रहे थे.

‘इस समय कौन होगा?’ सोचते हुए चमन ने दरवाजा खोला. कमला सामने खड़ी थी. उस ने हाथ जोड़ कर नमस्ते की. जवाब में गरदन हिला कर अभिवादन स्वीकार करते चमन ने एक तरफ हट कर उसे भीतर आने का रास्ता दे दिया.

शील के समय कमला घरेलू कामकाज में उस की मदद किया करती थी. अच्छी घुटती थी दोनो में. हालांकि समाज के नियमानुसार कमला वंचित वर्ग की विधवा महिला थी शायद इसलिए भी शील की सहानुभूति उस के साथ रही होगी.

चमन ने कभी शील के अधिकारक्षेत्र में दखल नहीं दिया था इसलिए कमला के बारे में वह केवल कयास ही लगा पा रहा था लेकिन इतना जरूर जानता था कि अनेक बार शील कमला की आर्थिक मदद भी किया करती थी. ऐसा वह दावे से इसलिए कह सकता है क्योंकि शील उस से कोई बात छिपाती नहीं थी.

जिन दिनों शील संक्रमित हुई थी उन्हीं दिनों कमला भी बीमार पड़ी थी. पता नहीं

किस को किस से संक्रमण मिला था. शील को अस्पताल में ले जाने की जरूरत पड़ी थी वहीं कमला अपने घर में ही आइसोलेट रही थी. उस के बाद आज ही कमला घर आई है. अभ्यस्त

सी कमला आंगन से होती हुई घर के भीतर चली गई. उस के पीछेपीछे चमन भी मां के कमरे में

आ गया.

‘‘चाय बनाऊं?’’ चमन ने पूछा.

मां हंस दी, ‘‘जैसी अभी बनाई थी वैसी?’’

मां बोली तो चमन खिसिया गया.

‘‘रहने दो मां. घर से पी कर आई हूं.’’ कह कर कमला ने बात संभाली.

‘‘रहने क्यों दो? क्या बहू ने तु?ो बिना चायपानी कभी जाने दिया था?’’ मां थोड़ी नाराज हुई. हालांकि इस नाराजगी में प्यार अधिक था. कमला आंख में आंसू भर लाई, ‘‘बहूजी की तरह घर कौन संभाल सकता है मां. अब पता नहीं आप लोग कैसे सब कर पाते होंगे,’’ कमला ने ठंडी सांस भरी तो माहौल बो?ाल सा हो गया.

‘‘जी तो कर रहा है कि आप के कुछ काम आऊं लेकिन… हमारी जात…’’ इतना कह कर कमला चुप हो गई. चमन कमरे से बाहर चला गया.

‘‘बीमार कभी डाक्टर की जात पूछता है क्या? जा बना ला 3 कप चाय. बहुत दिन हो गए ढंग की चाय पीए,’’ मां ने मुसकराते हुई कमला को रसोई में जाने की इजाजत दे दी. कमला ने एक पल मां को हैरत से देखा फिर सकुचाती हुई चाय बनाने चल दी. चमन भी उस के पीछेपीछे चला. जब तक कमला ने चाय बनाई तब तक चमन प्लेट में नमकीन और बिस्किट डाल चुका था. इस बीच वह चाय बनाने की प्रक्रिया पर भी पूरी नजर रखे था. कमला कहां हर समय चाय बनाने को मौजूद रहेगी.

चाय सचमुच बहुत अच्छी बनी थी. मन तृप्त हो गया. चमन ने आभारी निगाहों से कमला की तरफ देखा. मां ने कमला की खुले दिल से तारीफ की.

‘‘शाम को आ जाया कर. 2 घड़ी हमारा भी अबोला टूटेगा,’’ मां ने कमला से आग्रह किया जिसे उस ने सहज स्वीकार लिया.

‘‘शाम को क्यों, कल से पहले की तरह घर के कामकाज में मदद के लिए आना शुरू कर दो,’’ चमन ने मां की तरफ देखते हुए कहा तो मां ने भी सहमति के लिए कमला की तरफ देखा. वह तो राजी ही थी.

अगले ही दिन सुबह 7 बजे कमला हाजिर थी. सब से पहले उस ने मांबेटे को चाय बना कर पिलाई उस के बाद ?ाड़ू ले कर पूरे घर की साफसफाई की. सचमुच औरतों से ही घर, घर बनता है. कमला का हाथ लगते ही घर चमक उठा. इस के बाद कमला ने सुबह का खाना भी बना दिया.

‘‘खाना बना दिया है मां. गरमगरम ही खा लेते तो बरतन भी साफ कर जाती,’’ कमला ने साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछते हुए कहा.

‘‘अरी जाना कहां है? अकेला जीव क्या करेगी सूने घर में जा कर. मैं तो कहती हूं तू यही रह, हमारे साथ,’’ मां ने आग्रह किया.

कमला संकोच में पगी दरवाजे की चौखट थामे खड़ी रही. चमन ने भी मां की बात पर हामी भरी.

‘‘अभी तो जाती हूं मां. 1-2 रोज में सोच कर बताऊंगी,’’ कमला ने कहा.

‘‘जैसी तेरी मरजी. जैसे हम अकेले, वैसे तू अकेली. हमें काम का सहारा हो जाएगा और तु?ो साथ का. सोच लेना आराम से. लेकिन हां, खाना तू यहीं खाएगी और जाएगी भी रात का खाना खाने के बाद,’’ मां ने उस से अधिकार से कहा.

और फिर धीरेधीरे कमला परिवार का हिस्सा बनती चली गई. पहलेपहल

एकआध दिन रात को रुकी फिर स्थाई रूप से वहीं रहने लगी. चमन की जिंदगी का तो पता नहीं लेकिन शील के जाने के बाद घर में पनपे रिक्त स्थान को अवश्य उस ने भर दिया. दिनचर्या सुचारु और दवादारू नियमित हुई तो मां की उदासी पर भी तनिक मुसकान के साए नजर आने लगे. बच्चों ने भी इस नई व्यवस्था को स्वीकार कर लिया था.

दिन, महीने, साल शांति से बीत रहे थे. यों भी परिवर्तन सालों में नहीं बल्कि पलों में ही हुआ करते हैं. ऐसा ही एक परिवर्तन चमन की दिंगी में फिर से होने वाला था.

मां की बढ़ती उम्र पर अब बीमारियां भारी पड़ने लगी थीं. घुटनों के दर्द ने उन्हें लगभग अपाहिज ही बना दिया था. चमन भी अब उम्र के 6 दशक की ऊपरी सीढि़यों की तरफ बढ़ रहा था. ऐसे में मां की पूरी जिम्मेदारी कमला पर ही आ पड़ी थी और वह उसे बखूबी संभाल भी रही थी.

ऐसी ही एक कालरात्रि में मां को दिल का दौरा पड़ा और वे कमला से चमन को संभालने की जिम्मेदारी का वादा ले कर अनंत पथ की यात्री हो गई.

आखिरी समय मां की जो हालत थी उसे देखते हुए कमला का चमन को संभालने की जिम्मेदारी लेने का वादा करना मानवीयता के नाते लाजिम था ताकि मां निश्चिंत हो कर देह त्याग सकें लेकिन व्यावहारिक रूप से यह इतना ही कठिन था. अब तक तो मां इस अनामबेनाम रिश्ते की ढाल बनी हुई थी लेकिन अब तो सारे वार चमन और कमला को अपने सीने पर ही ?ोलने होंगे.

मां की 13वीं के लिए पूरा परिवार एकत्रित हुआ. चमन के भविष्य का

फैसला भी तो अब उन्हें ही करना था. कैसी विडंबना थी कि जिन बच्चों का भविष्य चमन ने गढ़ा आज वे ही उस का भविष्य निर्धारित करने वाले थे.

भविष्य तो चमन का निर्धारण होने वाला था लेकिन कमला जानती थी कि उस का भविष्य भी उन के निर्णय के साथ ही निर्धारित होगा. वह घर के अन्य काम निबटाने में लगी थी लेकिन उस के कान मां के कमरे में बैठी परिवार की पंचायत पर ही लगे थे क्योंकि पंचायत बेशक चमन के परिवार की थी लेकिन फैसला तो उसी के भविष्य का होने वाला था ना.

सब ने मिल कर तय किया कि फिलहाल इस पुश्तैनी घर को ताला लगा दिया जाए. चमन बारीबारी से तीनों बच्चों के पास रहेगा. उचित मूल्य मिलने पर घर को बेच दिया जाएगा.

निर्णय जान कर कमला ने मन ही मन मां से माफी मांगते हुए अपना सामान समेटना शुरू कर दिया क्योंकि वह उन्हें दिया अपना वादा पूरा नहीं कर सकेगी. अपना घर छोड़ने के निर्णय से खुश तो हालांकि चमन भी नहीं था लेकिन अब उस में विरोध करने की शक्ति भी नहीं बची थी. इतना सब होने के बाद भी वह कमला को ले कर परेशान था.

‘‘जिस स्त्री ने उस के लिए इतना कुछ किया क्या उस के प्रति उस की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वह स्वार्थी नहीं हो गया? कमला को इस तरह अधर में कैसे छोड़ा जा सकता है जबकि वह अच्छी तरह से जानता है कि जब से वह उन के साथ रहने लगी है तब से उस ने समाज से अपने सारे रिश्तेनाते काट लिए हैं.’’  चमन देर रात तक करवटें बदलता रहा. बच्चों के निर्णय के अनुसार आज सुबह उसे बड़ी बेटी के साथ जाना था.

कमला सुबह की चाय बना लाई थी. सब को उन के कमरों में दे कर उस ने चमन को कप थमा दिया और खुद भी वहीं उस के पास जमीन पर बिछी दरी पर बैठ गई. आज तक वह चमन के सामने कभी कुरसी पर नहीं बैठी थी. दोनों के बीच पसरे सन्नाटे को चाय की चुसकियां बेध रही थीं.

तभी बड़े दामाद आ गए, ‘‘हम लोग 10 बजे तक निकलेंगे. आप 3 जनों का दोपहर का खाना बना कर पैक कर देना,’’ दामाद ने कमला को लक्ष्य कर कहा. कमला ने एक निगाह चमन पर डाली और सिर ?ाका कर हामी भर दी.

‘‘खाना 2 जनों का ही पैक करना. मैं कहीं नहीं जा रहा,’’ चमन ने चाय का खाली कप ट्रे में रखते हुए कहा तो कमला ने चौंक कर उस की तरफ देखा.

‘‘आप यहां अकेले कैसे रहेंगे?’’ दामाद ने आश्चर्य से पूछा. बातचीत की आवाजें सुन कर घर के शेष सदस्य भी वहां आ गए.

‘‘कमला कोई फुलटाइम मेड नहीं थी जिसे हम ने अपनी देखभाल के लिए रखा था. यह इस परिवार का हिस्सा है. इस ने हमें तब संभाला जब हम डांवांडोल हो रहे थे. अब मैं इसे यों म?ाधार में छोड़ कर नहीं जा सकता,’’ चमन ने अपना फैसला सुना दिया.

‘‘लेकिन आप दोनों अकेले एक घर में रहेंगे तो समाज क्या कहेगा? जब तक मां थी, सब ढका हुआ था लेकिन अब इस तरह… मेरी तो कुछ सम?ा में नहीं आ रहा,’’ बहू ने अपने सिर पर हाथ रखते हुए नाराजगी जताई.

‘‘किसी को कुछ भी सम?ाने की जरूरत नहीं है. रही बात समाज की तो उस का सामना मु?ो करना है. तुम लोग तो इतने दूर रहते हो कि मेरे होने या न होने से तुम्हारे समाज को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. यदि मेरे बारे में कोई पूछे तो दूसरे भाईबहन के पास होने का कह देना. वैसे मैं तुम लोगों के पास आताजाता रहूंगा,’’ चमन ने दोटूक कहा.

‘‘तो क्या आप ने इन से शादी कर ली?’’  छोटी बेटी ने संशय से पूछा. शेष भी चमन के मुंह से सचाई जानने को उत्सुक थे.

‘‘अब इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम ने शादी कर ली या करने वाले हैं या फिर बिना शादी किए साथ रहने वाले हैं. हम वैसे ही रहेंगे जैसे मां के साथ रहते थे यदि कमला चाहे तो,’’ कहते हुए चमन ने कमला की तरफ देखा. 6 जोड़ी आंखें भी उसी पर टिकी थीं.

कमला क्या कहती. सबकुछ उस की नम आंखों ने कह दिया था. उस ने कृतज्ञ निगाहों से चमन की तरफ देखा. उस ने उसे जिंदगी के बहुत बड़े रिक्त स्थान से जो बचा लिया था.

अब इस घटना को हुए 4 साल हो गए हैं. कमला चमन की जिंदगी का हिस्सा है.

अब तो बेटीदामाद भी उसे ऐसे लेते मानो वह

घर की कोई सदस्या हो. 2 बार तो वह और कमला एकसाथ बेटी के घर भी रह आए. बेटी ने उन्हें कमरे तो अलग दिए पर बराबर के. कमला न मालकिन थी न नौकरानी. वह घर की पूरी सदस्य थी.

 

वापस: महेंद्र को कामयाब बनाने के लिए सुरंजना ने क्या किया

महेंद्र को कामयाब इंसान बनाने के लिए सुरंजन ने ऐसा क्या किया कि सब उस की वाहवाही करने लगे…सुरंजना के सामने स्क्रीन पर महेंद्र का परीक्षा परिणाम था और उस की आंखें उस पर लिखे अंकों पर केंद्रित थीं. महेंद्र फेल होतेहोते बचा था. अधिकांश विषयों में उत्तीर्णांक से 1-2 नंबर ही ज्यादा थे और गनीमत थी कि किसी भी विषय में रैड निशान नहीं लगा था. सुरंजना सोच रही थी, सदा ही प्रथम श्रेणी में आने वाला मेधावी युवक क्योंकर इस सीमा तक असफल हो गया? सीनियर सैकंडरी परीक्षा में पूरे पश्चिम बंगाल में महेंद्र को 10वां स्थान मिला था. इस के पश्चात कोलकाता विश्वविद्यालय के बीकौम औनर्स के इम्तिहान में उस का प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान था और उसे स्कोलरशिप मिली थी. स्कूल में भी वह हर कक्षा में सदा प्रथम आता रहा था. फिर इस बार चार्टर्ड अकाउंटैंट की इंटरमीडिएट परीक्षा में वह एकदम इतना नीचे क्योंकर आ सका? उस के जीवन के इर्दगिर्द मौजूद वर्तमान परिस्थितियों में क्या पहले की परिस्थितियों की अपेक्षा कोई मौलिक परिवर्तन हुआ है?

सुरंजना का हृदय कांप उठा. इस बार की सीए इंटर परीक्षा के करीब 6 मास पूर्व महेंद्र की उस के साथ मैरिज होना निश्चय ही महेंद्र के लिए एक बेसिक चेंज परिवर्तन ही तो है. इस के साथ ही सुरंजना को याद आने लगे वे अनगिनत कमैंट, जो महेंद्र के मित्रों ने विवाह के अवसर पर उस को लक्ष्य कर के महेंद्र से कहे थे.

महेंद्र से उस का परिचय कालेज में उस समय हुआ था, जब वह बीकौम के अंतिम वर्ष में थी. लाइब्रेरी में किताबें देने के लिए 2 क्लर्क थे. महेंद्र और वह 2 विपरीत दिशाओं से लाइब्रेरी में आए थे और उन क्लर्कों के पास जा कर एक ही लेखक की अकाउंटैंसी की पुस्तक की मांग कर रहे थे. संयोग से उस समय उस किताब की एक ही प्रति मौजूद थी. दोनों ही क्लर्क एकदूसरे को देख कर मुसकराए थे और फिर उन में से एक ने जो कुछ ज्यादा ही मजाकिया स्वभाव का था, कहा, ‘‘काश, आप दोनों एक होते तो आज इस तरह की विकट समस्या से बखूबी काम चला लेते. आप दोनों ही बताइए, अब मैं क्या करूं?’’

उस की बात सुन कर एकबारगी तो सुरंजना शर्म से लाल हो उठी थी और उस से कुछ कहते नहीं बना था. पर महेंद्र ने तुरंत बात को संभाल लिया, ‘‘ठीक है सर, कम से कम इस किताब के लिए तो हम आप के ‘काश’ को टैंपरेरली वास्तविकता में बदल ही सकते हैं. आप किताब मेरे नाम से जारी कर दें. हम दोनों सा?ो में एक ही किताब से बखूबी काम चला लेंगे.’’

फिर किताब और उसे साथ लिए महेंद्र मैदान के दूसरे छोर की बैंच पर आ कर बैठा था. महेंद्र के व्यक्तित्व से तो वह बहुत पहले से प्रभावित थी, उस दिन की ‘घटना’ के बाद परिचय और भी घनिष्ठ हो गया और यह परिचय धीरेधीरे कब और किस तरह प्यार के लहलहाते पौधे में परिवर्तित हो गया, दोनों में से कोई भी तो नहीं जान सका था.

महेंद्र का अधिकांश समय अध्ययन में ही बीतता और अपनी इसी व्यस्तता के क्षणों में से वह कुछ समय निकाल प्रतिदिन उसे ले कर ?ाल के उस पार चला जाता. वहां किसी ?ाड़ी के पीछे दोनों एकदूसरे की आंखों में ?ांकते हुए किसी और ही दुनिया में खो जाते. भावी जीवन के तानेबाने बुने जाते. महेंद्र यदाकदा उन्माद में भर कर उसे अपनी बांहों में समेट कर उस के होंठों पर अपने प्यार की मुहर अंकित कर देता और तब वह भी अपना मुंह उस की छाती में छिपा कर एक अजीब सिहरन से भर उठती थी. पर दूसरे ही क्षण ज्यों ही उसे मर्यादा का बोध होता, वह छिटक कर महेंद्र के आगोश से परे हट जाती.

उस दिन वातावरण में शाम का धुंधलका उतर आया था. ?ाल के किनारे एक घनी ?ाड़ी की ओट में महेंद्र उस की गोद में सिर रखे लेटा हुआ था और वह उस के बालों में उंगलियां फिराते हुए ‘आप की नजरों ने सम?ा प्यार के काबिल मु?ो…’ गीत गुनगुना रही थी. उस की आवा बहुत सुरीली थी. गीत समाप्त होतेहोते महेंद्र ने रोमांच से अभिभूत हो अपनी दोनों बांहें उस की गरदन की ओर फैला कर उसे नीचे की ओर ?ाका लिया और अपने तप्त अधरों को उस के ललाट की चमकती बिंदी पर धर दिया.

‘‘राजी, अब यह दूरी और नहीं सही जाती. अपने और मेरे बीच यह कैसी लक्ष्मण रेखा बनाए हुए हो? क्या तुम्हें मु?ा पर विश्वास नहीं?’’ महेंद्र फुसफुसाया. बांहें उस की कमर के इर्दगिर्द और भी कस गई थीं.

‘‘उफ, मिक्की तुम भी कैसीकैसी बातें सोचते रहते हो. मु?ो तुम पर अपनेआप से भी ज्यादा विश्वास है. पर इस सैपरेशन का भी अपना महत्त्व है.  डरती हूं कि कहीं मेरा संसर्ग, मेरा प्यार तुम्हें  अपने एक पथ से डिस्टै्रक्ट न कर दे,’’ हिचकिचाते हुए उस ने अपने मन का भय महेंद्र के सामने प्रकट कर ही दिया.

‘‘मैं सम?ा नहीं, तुम आखिर क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘मिक्की, पहले कभी सुना था कि नारी की कमनीय काया और

मांसल सौंदर्य के प्रति पुरुष इस कदर आसक्त हो जाता है कि वह अपने कर्तव्य के प्रति भी उदासीन हो जाता है. बस, डर रही हूं कि कहीं उस तथाकथित लक्ष्मण रेखा के पार जा कर तुम भी अपने अध्ययन के प्रति उदासीन न हो जाओ. 1 माह बाद ही बीकौम की फाइनल परीक्षा है और अगले 6 महीनों के बाद ही तुम्हें सीए की इंटर परीक्षा मेें भी बैठना है. कहीं मेरा प्यार ऐग्जाम में अच्छी रेंज प्राप्त करने की तुम्हारी परंपरा पर कुठाराघात न कर दे.’’

‘‘खूब… हमारी राजी दूर की कौड़ी लाने में कितनी माहिर है, आज पता चला. अगर तुम्हारे इस संशय को एक नियम के रूप में मान लिया जाए तो भी निवेदन करना चाहूंगा कि हरेक नियम के कुछ ठोस अपवाद भी होते हैं. फिर मुख्य बात है, आत्मविश्वास. तुम्हारा संसर्ग मु?ो हम की ओर फोकस होने की प्रेरणा देगा न कि हम से डिस्ट्रैक्ट होने का आघात.’’

फिर बीकौम की परीक्षाएं समाप्त होते ही दोनों विवाह सूत्र में बंध गए. दोनों के मांबाप ने थोड़ा विरोध किया पर चूंकि दोनों कोलकाला में होस्टल में रहते थे, मांबाप को मालूम था कि उन्हें रोकने से कोई लाभ न होगा. उन्होंने खासी धूमधाम से शादी कर दी. दोनों के मांबाप साधारण आय वाले थे पर गरीब न थे. विवाह की वेदी पर से उठने के बाद ज्यों ही उन्हें एकांत मिला, महेंद्र के कुछ अंतरंग मित्रों ने उन दोनों को घेर लिया.

‘‘भई, अब अपना मिक्की गया काम से. एक होनहार छात्र की प्रतिभा की सम?ा लो कि आज हत्या हो गई,’’ एक मित्र आंखें नचाते

हुए बोला.

‘‘ठीक ही तो कह रहा है अविनाश, भाभी जैसी रूपसी की देह का स्वाद चख चुकने के बाद भला मिक्की का अध्ययन की ओर मन लगेगा?’’

‘‘स्कूल के जमाने से ले कर आज तक की सभी परीक्षाओं में निरंतर बढि़या परिणाम लाने वाले इस महेंद्र से हम लोगों ने कितनी उम्मीदें बांधी थीं. पूरा विश्वास था कि चार्टर्ड अकाउंटैंसी स्वर्णपदक जरूर प्राप्त करेगा पर अब पास हो जाए तो ही बहुत है.’’

‘‘पास होने की बात कहते हो? अरे, अब तो यह देखना है कि अध्ययन जारी भी रख पाता है या नहीं.’’

अविनाश की इस बात पर उस के सभी मित्र सम्मिलित रूप से उठे थे. उन के कटाक्ष सुन कर वह किसी अनजानी अपराधबोध की भावना से भर गई थी. महेंद्र अपने मित्रों के कटाक्षों को हलके रूप से ले रहा था. उस के चेहरे पर आत्मविश्वास की गहरी छाप विद्यमान थी और वह ओजपूर्ण स्वर में बोला, ‘‘दोस्तो, भविष्य की चिंता में वर्तमान को भी क्यों भुलाए दिए जा रहे हो? कम से कम जिंदगी की इस बेहतरीन उपलब्धि पर मित्र के नाते मु?ो बधाई तो दो.’’

शादी के बाद के 2-3 महीने तो पैशनेट नाइट्स के नशे में

देखते ही देखते गुजर गए. कभी कश्मीर की डल ?ाल पर तैरते शिकारे पर, कभी शिमला की वादियों में उड़नतश्तरी से उड़ते तोपटिब्बे पर तो कभी दार्जिलिंग की किसी ऊंची बर्फीली पहाड़ी पर स्कैटिंग करते हुए वे दिन किस तरह रोमांच और सिहरन भरी व्यस्तता में बीतते गए थे. इन सब से छुट्टी मिलती तो महेंद्र उसे आलिंगन में समेटे कमरे में पड़ा रहता. 1-2 बार दबी जबान से उस ने महेंद्र को उस की ऐग्जाम की जिम्मदारी से अवगत कराया, तो महेंद्र लापरवाही भरे अंदाज में बोला, ‘‘जानेमन, क्या बेवक्त की शहनाई ले कर बैठ जाती हो? बाबा, अपनी जिम्मेदारियों को तुम्हारा मिक्की खूब सम?ाता है.’’

मगर महेंद्र अपनी जिम्मेदारियों को सम?ा कहां सका था. जबजब वह उस से ऐग्जाम की तैयारियों के प्रति गंभीर हो जाने का आग्रह करती, महेंद्र या तो अगले दिन से ही अध्ययन की शुरुआत नए सिरे से करने की बात कह कर टाल देता अथवा नाराज हो जाने का अभिनय करते हुए कहा, ‘‘लगता है, हमारा प्यार सोडा वाटर की गैस की तरह साबित होगा. लगता है प्यार का उन्माद तुम्हारे मन से उतर चला है और तुम मु?ा से बोर होने लगी हो. लगता है…’’

इस से आगे वह उसे कहने ही नहीं देती थी और किसी पागल की तरह उस की छाती पर छोटेछोटे मुक्के बरसाती आर्द्र स्वर में कहती, ‘‘काश, मिक्की, तुम जान पाते कि राजी तुम्हारी अनुपस्थिति में किस तरह अधूरी हो जाती है, पर तुम्हारे मित्रों के वे कमैंट ?ाठे किस तरह साबित हो सकेंगे.’’

एक बार वह उसे एकांत देने के उद्देश्य से ही अपने मायके चली गई थी, पर महेंद्र

तो उस के चले जाने पर विक्षिप्त सा हो गया. उस के पास महेंद्र के मैसेज पर मैसेज आने लगे, जिन में वह अपने एकाकीपन और विक्षिप्तावस्था का वर्णन करते हुए अत्यंत करुण शब्दों में उस से वापस लौट आने का अनुरोध करता. वह दिन भर में 10-20 बार मैसेज भेजता. फिर कुछ दिनों के बाद महेंद्र स्वयं ही उस के मायके पहुंच गया और करीब एक सप्ताह वहां बिता कर उसे साथ ले कर ही लौटा.

सुरंजना की आंखें छलछला उठी थीं.

विवाह के बाद के पिछले 6 माह की घटनाओं

में रोमांच, सिहरन और टीसों का क्या खूब समन्वय था. स्क्रीन में देखते रिजल्ट पर से नजरें हटा कर वह बिस्तर पर लेट गई. महेंद्र किसी अबोध शिशु सा बेसुध नींद में पड़ा था. बाहर वातावरण की नीरवता यदाकदा किसी आवारा कुत्ते की भूंभूं से भंग हो उठती थी. सुरंजना के मस्तिष्क में निरंतर द्वंद्व चल रहा था कि क्या सचमुच नारी की मांसल देह और उस का मादक सौंदर्य एक कमिटेड और रिस्पौंसिबल व्यक्ति के लिए अभिशाप साबित होता है? महेंद्र के मित्रों के कमैंट क्या सचमुच सही साबित हो जाएंगे? विवाह के पहले की महेंद्र के अंतर की दृढ़ता और उस का कौन्फिडैंस विवाह के बाद कहां चला गया?

सुरंजना उठी. एक गिलास पानी पीया. इस तरह पराजय और कुंठा के एहसास को प्रश्रय देने से काम नहीं चलेगा. उस का मस्तिष्क तेजी से किसी योजना की रूपरेखा को संवारने में उल?ा हुआ था. इस कठिन समय में उस की अपनी स्टै्रंथ और सैल्फ कौन्फिडैंस क्या काम नहीं आएगा? अनायास रिजल्ट पर उस की नजर और मजबूत हो गई. एक ठोस निर्णय पर पहुंच जाने से उस के चेहरे पर संतोष और इतमीनाना की रेखा खिंच आई.

सुबह किसी के ?ाक?ोरने पर महेंद्र की नींद टूटी. सामने सुरंजना को भाप उड़ाते कौफी के प्याले लिए खड़े देख कर उस की आंखें विस्मय से फैल गईं, ‘‘तुम… इतनी सुबह?’’

‘‘हां, सुबह का समय स्टडी व ऐनालिसिस के लिए सब से ज्यादा उपयुक्त होता है न? कौफी लो, सारा आलस्य दूर हो जाएगा. फिर फटाफट तैयार हो कर अपने स्टडीरूम में पहुंचो, नाश्ता वहीं मिलेगा.’’

सचमुच कौफी पीने पर महेंद्र को ताजगी

का अनुभव हुआ. अपेक्षाकृत 2 घंटे पूर्व उठ

जाने से ?ां?ालाहट नहीं हुई. कुछ देर बाद वह तैयार हो कर अपने स्टडीरूम में पहुंचा. सारे स्टडीरूम की काया पलट हो चुकी थी. कलट्टर गायब था. बड़ी मेज पर एक फूलदान रखा था, जिस में ताजे गुलाबों का एक बड़ा सा गुलदस्ता महक रहा था. रैकों में किताबें करीने से सजा कर रखी गई थीं.

उसी समय सुरंजना नाश्ते की प्लेटें लिए कक्ष में आई. चेहरे पर ताजे खिले कमल की सी स्निग्धता थी. महेंद्र ने आगे बढ़ कर उसे हग कर लिया.

‘‘बस… बस… 6 बजने ही वाले हैं. 2 घंटे निरंतर कंस्ट्रेट हो कर पढ़ो. मन को जरा भी इधरउधर न भटकने देना.’’

न जाने कैसा जादू किया था सुरंजना के स्वरों ने. महेंद्र पूरी तरह एकाग्र हो कर पढ़ने

लग गया. ठीक 8 बजे द्वार पर आहट सुन कर महेंद्र की चेतना लौटी. देखा, सामने सुरंजना मुसकराती हुई खड़ी थी. उस के एक हाथ में चाय की प्याली थी और दूसरे में उस दिन का ताजा अखबार. सुरंजना ने अब अखबार लगवा लिया था ताकि महेंद्र मोबाइल से दूर रहने की आदत डाल ले.

‘‘जब तक तुम चाय की चुसकियां लोगे,

मैं तुम्हें आज की मुख्यमुख्य खबरें पढ़ कर

सुनाती हूं.’’

आधे घंटे बाद सुरंजना अध्ययन कक्ष से चली गई, पर इस आधे घंटे की

चुहलबाजी से महेंद्र को अपने अंदर एक नई स्फूर्ति और ताजगी का एहसास हुआ. उसे आश्चर्य हो रहा था, अभी कल तक सुरंजना को ले कर उस का मस्तिष्क सब समय जिस तरह के सैक्सुअल पैशन से भरा रहता था, आज उसे सुरंजना के सामने आते ही उस तरह के पैशन का बोध नहीं हुआ. वह दूने जोश से स्टडी में लग गया. इस का फल भी उसे मिला. पिछले कई माह से अधूरे पड़े नोट्स सब पूरे हो गए थे. कौस्ट ऐनालिसिस तथा बैलेंसशीट जैसे विषयों के कई अध्याय उसे सहज ही सम?ा आ गए थे. आज के अध्ययन से उस के चेहरे पर संतोष की रेखा खिंच आई थी. 12 बजे तक वह किताबों में तन्मय हो कर उल?ा रहा, जब तक कि सुरंजना उसे खाने की मेज पर न बुला ले गई.

‘‘अब 2 घंटे तक मैं तुम्हारे पास रहूंगी. सुन रहे हो न, मिक्की, मैं होऊंगी, तुम होंगे और हमारे बीच कोई भी नहीं होगा. मेहरबानी कर के मु?ो अपनी बांहों में छिपा लो.’’

महेंद्र स्वयं को रोक नहीं पाया. 3 बजे से पुन: अध्ययन कक्ष की दिनचर्या शुरू हुई. अब तक महेंद्र के चेहरे पर भी आत्मविश्वास गहरा उठा था. इसी बीच सुरंजना कौफी का प्याला लिए एक बार उस के पास आई. उस की क्षणिक उपस्थिति महेंद्र में एक नया साहस भर देती. सुरंजना ने अपने औफिस से सबैटिकल ले

लिया था. उस की बकाया छुट्टियां थीं. उन छुट्टियों में भी वह औफिस का काम कंप्यूटर पर करती रहती थी और कई बार तो महेंद्र को पढ़ता छोड़ कर औफिस भी हो आई थी. छुट्टी में भी उस काम के प्रति कमिटमैंट को देख कर सब खुश थे. उस की अनुपस्थिति किसी को खल नहीं  रही थी.

शाम को सुरंजना आग्रह कर के उसे ?ाल के पार ले गई. वहां ?ाड़ी के पीछे महेंद्र उस की गोद में सिर रख कर लेट गया. दोनों एकदूसरे की आंखों में ?ांकते रहे और दूर रेडियो पर ‘बांहों में तेरे मस्ती के घेरे, सांसों में तेरे खुशबू के डेरे…’ गीत की आवाज हवा में तैरती हुई कानों में रस घोलती रही.

रात में 8 बजे महेंद्र तरोताजा हो पुन: अध्ययन में जुट गया. सुरंजना रसोई का काम खत्म

कर के जब कक्ष में आई तो 11 बज रहे थे. महेंद्र अकाउंटैंसी की मोटीमोटी पुस्तकों में उल?ा हुआ था. उसे देख सुरंजना दबे पांव लौट गई और एक प्याला गरम कौफी बना लाई. उस के लौटने तक महेंद्र को ?ापकी आ गईर् थी.

‘‘मिक्की…’’ सुरंजना ने हलके से उसे आवाज दी, ‘‘बहुत थक गए हो, मिक्की चलो, अब समाप्त कर दो?’’

उनींदा सा महेंद्र मुसकराया और कौफी

का प्याला थामते हुए बोला, ‘‘सचमुच इस

समय मैं कौफी की ही इच्छा महसूस कर रहा

था. तुम जा कर सो जाओ. मैं कुछ देर और बैठूंगा, राजी.’’

‘‘तब मैं भी यही रहूंगी. इन अकाउटैंसी की पुस्तकों को रखो अब. वर्णनात्मक विषय जैसे लेखा परीक्षण वगैरह की कोई पुस्तक निकालो. मैं पढ़ूंगी, तुम सुनना. इस से पढ़ी हुई बातें मस्तिष्क में फिर से सजीव हो उठेंगी.’’

सुरंजना महेंद्र के मना करने पर भी 2 बजे तक अध्ययन कक्ष में रही. लेखा परीक्षण तथा तत्संबंधी कानून के 2-2 अध्याय उस ने पढ़े, महेंद्र तन्मय हो कर सुनता रहा.

समय तेजी से बीतता रहा. महेंद्र अब पूरे विश्वास, संयम और धैर्य के साथ एकाग्र हो कर पढ़ाई में लग गया था. सुरंजना अपनी योजना के अनुरूप व्यवस्थित ढंग से उसे प्रोत्साहन देती रही. शाम को ?ाल तक टहलने के लिए ले जाना, रात में अंतिम समय तक उस के पास अध्ययन कक्ष में रहना ये दोनों बातें सुरंजना सदैव जिद कर के करती रही.

परीक्षा से 1 सप्ताह पूर्व से ही महेंद्र

सबकुछ भूल कर बस अध्ययन कक्ष में ही कैद हो कर रह गया. सुरंजना अपनी बढ़ी हुई जिम्मेदारियों के प्रति पूरी तरह सचेत थी. अध्ययन कक्ष और रसोई के बीच यह किसी तितली की तरह उड़ती रहती. दोपहर को कुछ देर के लिए वह महेंद्र के मना करने पर भी उसे खींच कर सोने के कमरे में ले जाती.

कुछ देर का उस का संसर्ग महेंद्र पर किसी टौनिक सा असर करता और वह रात्रि

को पूरे उत्साह के साथ अध्ययन में लग जाता. अध्ययन कक्ष में सुरंजना रात देर तक कभी किसी विषय के अध्याय विशेष को उसे पढ़ कर सुनाती, कभी उस की मेज के पीछे खड़ी हो कर उस के सिर को हलकेहलके सहलाती रहती या कभी यत्रतत्र बिखरी किताबें एवं नोट्स की कापियों को करीने से सजा कर रखती रहती. अंतिम दौर में, जब थकावट चरम सीमा पर पहुंच गई, महेंद्र को कभीकभी रात में अध्ययन कक्ष में ही गहरी ?ापकी आ जाती. सुरंजना तब वहीं कक्ष में ही बिस्तरा बिछा देती.

नियत समय पर परीक्षा हुई और परिणाम भी घोषित हुए. महेंद्र और सुरंजना

का परिश्रम रंग लाया. महेंद्र ने प्रथम श्रेणी में प्राप्त हुई और उसे स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था. नगर के सभी प्रमुख समाचारपत्रों में उस की तसवीर प्रकाशित की गई.

समाचारपत्र की उस प्रति को लिए महेंद्र खुशी से उन्मादित हो दौड़ता हुआ रसोई में

आया. सुरंजना उस समय आटा गूंध रही थी. अखबार उस के हाथ में थमा कर विक्षिप्त सा हो महेंद्र ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘अब तक तुम केवल राजी ही थीं, पर अब से तुम मेरे लिए प्रेरणा भी हो.’’                                  द्य

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