पत्नी के असमय गुजर जाने के बाद अब चमन की जिंदगी में कमला ही सब कुछ थी. उन के बेटेदामाद को कमला फूटी आंख भी नहीं भाती थी. आखिर कौन थी कमला और क्यों बगैर शादी किए भी चमन उस पर जान छिड़कते थे…
‘‘60 की उम्र में गैस का लाइटर हाथ में थामना पड़ेगा कभी सोचा नहीं था. 60 क्या मैं ने तो कभी 8 की उम्र में भी रसोई की देहरी नहीं लांघी थी. कभी जरूरत ही कहां पड़ी,’’ चमन ने खटखट कर के कई बार लाइटर से गैस जलाने की कोशिश की लेकिन गैस भी जैसे शील की तरह ही रूठ कर बैठ गई थी. नहीं जली तो नहीं जली.
चमन कहीं से माचिस की डिबिया ले कर आया. तीली जला कर गैस की नोब घुमाई और जलती हुई तीली गैस के बर्नर से सटा दी. भक्क कर के लपट उठने लगी. चमन ने फटाफट चाय का बरतन चढ़ा दिया. शायद पतीला थोड़ा टेढ़ा रखा गया होगा, रखने के साथ ही एक तरफ लुढ़क गया. चमन ने उसे गिरने से बचाने के लिए पकड़ने की कोशिश की तो उंगलियां जल गईं. हाथ को ठंडे पानी में डाल, फूंक मार कर जलन कम करने की कोशिश करने लगा.
तभी मां ने पुकारा, ‘‘क्या हुआ चमन? चाय बना रहे हो क्या?’’ मां की आवाज में तलब वाला उतावलापन साफ महसूस किया जा सकता था.
‘‘हां मां, बस अभी लाया,’’ कहते हुए चमन ने एक कप पानी पतीले में डाला और चायपत्तीचीनी डाल कर अदरक कूटने लगा. जब पानी उबलने लगा तो 1 कप दूध डाला. इस के बाद अदरक डाल दिया और उबाल आते ही छान कर 2 कपों में चाय डाल कर मां के पास आ बैठा.
मां ने कप उठा कर होंठों से लगाया और बेस्वाद सा मुंह बनाया, ‘‘कैसे चाय बनाता है रे तू? अदरक का तो स्वाद ही नहीं. आधा घंटा इंतजार के बाद यह मीठा सा घोल बना कर ले लाया,’’ मां ने जूठा कप वापस ट्रे में रखते हुए कहा.
चमन ?ोंप गया. उस ने कहां कभी चाय बनाई थी. पहले मां बनाया करती थी और जब से शील ब्याह कर आई थी तब से तो किसी को रसोई में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. रसोई में जाना तो दूर की बात है किसी को कुछ कहना तक नही पड़ा. चाय के समय चाय और खानेनाश्ते के समय खानानाश्ता. शील बिना कहे सबकुछ समय पर हाजिर कर देती थी. पता नहीं उस का दिमाग अलार्म घड़ी ही बन गया था क्या? सही समय होते ही उसे सतर्क कर देता था. पता नहीं नियति ने मेरे साथ ही यह खेल क्यों खेला, चमन अनजाने ही नियति को कोसने लगा.
यों नियति को कोसना आदत नहीं है उस की. जिंदगी में जो कुछ भी अच्छाबुरा घटित
हुआ उसे सहज स्वीकार किया है उस ने लेकिन शील का जाना वह आज 2 महीने बाद भी स्वीकार नहीं कर पाया है. और तो और इस हादसे के बाद तो कुदरत पर से उस का रहासहा विश्वास भी उठ गया था. उफ, कैसी बेरहम बीमारी थी.
कहने को तो उस की जानपहचान के बहुत से लोग संक्रमित हो कर स्वस्थ भी हुए थे. ठीक होने के बाद जब वे कहते थे कि डरने की कोई बात नहीं. सब ठीक हो जाता है. तब उस ने भी तो इसे हलके में ही लिया था. वह भी तो मित्र मंडली में अपने ज्ञान की पोटली खोलते हुए अपनेआप को आर्यभट्ट से कम नहीं सम?ाता था. जब वह लोगों से कहता था कि माना संक्रमण की दर अधिक है लेकिन मृत्यु दर 1त्न ही है तब उसे कहां अंदेशा था कि उस का घर इसी 1त्न की श्रेणी में आ जाएगा.
अंतिम सिंदूर तक नहीं भर पाया था वह शील की मांग में. प्लास्टिक की किट में बंद शील कितनी कातर लग रही थी. देखते ही कलेजा मुंह को आ गया था. लोग शील के जाने को कोविड की मरजी कह कर उसे सांत्वना देते लेकिन वह इसे भी स्वीकार नहीं कर पा रहा था. वह तो इस महामारी को कोस रहा था जो अचानक काल बन कर आई और उन की दुनिया में अंधेरा कर गई.
कोई कम भागदौड़ नहीं की थी उस ने. दिन में 4 बार शील का औक्सीजन लैवल चैक करता था. गरम पानी, भाप और मां से सुबहशाम आयुर्वेदिक काढ़ा भी बनवाता था लेकिन शील की तबीयत में कुछ खास सुधार नही हो रहा था. और उस दिन तो जरा सा औक्सिजन लैवल कम होते ही वह उसे ले कर अस्पताल भागा था. अस्पताल प्रशासन ने आईसीयू बैड उपलब्ध न होने का कह कर उसे निराश लौटा दिया था. वह तो उस की जानपहचान काम आई और वह किसी तरह शील को एक निजी अस्पताल में भरती करवा पाया था.
उस के बाद दवाओं और औक्सीजन की कालाबाजारी का ऐसा घिनौना खेल शुरू हुआ कि बस पूछो मत. सौ का सामान हजार में भी नहीं मिल रहा था. पैसों की परवाह न करते हुए वह सब संसाधन जुटाने की कोशिश कर रहा था लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद वह शील की उखड़ी सांसों की लड़ी जोड़ नहीं पाया और खाली हाथ घर लौट आया.
आज भी जब वह रात को आंखें बंद करता है तो वही सब दृश्य आंखों के सामने जीवंत हो उठते हैं और यदि किसी दिन रात को नींद न आए तो फिर सुबह तक न जाने कितनी दफा उस सारे घटनाक्रम का ऐक्शन रीप्ले होता है.
कहां कल्पना की थी उस ने कि उम्र की इस शाम को बिना साथी के बिताना पड़ेगा. कहने को तो उस का भरापूरा परिवार है. 2 बेटियां, 1 बेटा और मां भी तो. लेकिन कुछ खाली कोने कोई नहीं भर पाता. ठीक वैसे ही रिक्त स्थान जो सिर्फ उसी शब्द से पूर्ण हो सकते हैं जिन के न होने से वे रिक्त हुए हैं. बचपन में पढ़े, ‘रिक्त स्थान की पूर्ति करो,’ वाले वाक्य की तरह.
ऐसा नहीं है कि उस के दर्द का किसी को एहसास नहीं है लेकिन सभी अपनीअपनी दुनिया मे व्यस्त हैं अपनेअपने रिक्त स्थानों की पूर्ति
करते हुए.
बेटा और बेटियां बिना नागा फोन पर हालचाल लेते हैं. मां भी उसे संबल देने की कोशिश करती है. शायद वह जीवनसाथी को खोने का दर्द बेहतर सम?ाती है. चमन मां के सामने अपने दुखड़े नहीं रोता. वह सब के सामने सामान्य होने का दिखावा करता है मगर अकेले में उसे जीवन के ये रिक्त स्थान बहुत बेचैन कर देते हैं.
किस से कहे कि उसे साथी की जरूरत है. अधिकांश लोग तो इस जरूरत को शरीर की आवश्यकताओं से ही जोड़ कर देखेंगे. कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि बच्चे भी उसे गलत सम?ों मगर पहाड़ सा बड़ा दिन और सागर सी लंबी रातें बिना किसी से सुखदुख, खुशीतकलीफ सा?ा किए चुपचाप अकेले काटना कितना असाध्य है यह गणना किसी गणितीय फौर्मूले से नहीं की जा सकती.
राहत की बात है कि वह साल भर पहले रिटायर हो चुका है वरना कौन जाने रसोईचौके में उल?ा वह औफिस भी समय पर पहुंच पाता या नहीं. तब ऐसे हालात में उसे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ही लेनी पड़ती. अब तो पूरा दिन हाथ में रहता है इसलिए धीरेधीरे ही सही लेकिन किसी तरह 2 समय का खाना बना लेता है साथ ही वृद्ध मां को भी संभाल लेता है.
तभी दरवाजे की घंटी बजी तो चमन खयालों से बाहर आया. घड़ी की तरफ निगाह गई तो शाम के 4 बज रहे थे.
‘इस समय कौन होगा?’ सोचते हुए चमन ने दरवाजा खोला. कमला सामने खड़ी थी. उस ने हाथ जोड़ कर नमस्ते की. जवाब में गरदन हिला कर अभिवादन स्वीकार करते चमन ने एक तरफ हट कर उसे भीतर आने का रास्ता दे दिया.
शील के समय कमला घरेलू कामकाज में उस की मदद किया करती थी. अच्छी घुटती थी दोनो में. हालांकि समाज के नियमानुसार कमला वंचित वर्ग की विधवा महिला थी शायद इसलिए भी शील की सहानुभूति उस के साथ रही होगी.
चमन ने कभी शील के अधिकारक्षेत्र में दखल नहीं दिया था इसलिए कमला के बारे में वह केवल कयास ही लगा पा रहा था लेकिन इतना जरूर जानता था कि अनेक बार शील कमला की आर्थिक मदद भी किया करती थी. ऐसा वह दावे से इसलिए कह सकता है क्योंकि शील उस से कोई बात छिपाती नहीं थी.
जिन दिनों शील संक्रमित हुई थी उन्हीं दिनों कमला भी बीमार पड़ी थी. पता नहीं
किस को किस से संक्रमण मिला था. शील को अस्पताल में ले जाने की जरूरत पड़ी थी वहीं कमला अपने घर में ही आइसोलेट रही थी. उस के बाद आज ही कमला घर आई है. अभ्यस्त
सी कमला आंगन से होती हुई घर के भीतर चली गई. उस के पीछेपीछे चमन भी मां के कमरे में
आ गया.
‘‘चाय बनाऊं?’’ चमन ने पूछा.
मां हंस दी, ‘‘जैसी अभी बनाई थी वैसी?’’
मां बोली तो चमन खिसिया गया.
‘‘रहने दो मां. घर से पी कर आई हूं.’’ कह कर कमला ने बात संभाली.
‘‘रहने क्यों दो? क्या बहू ने तु?ो बिना चायपानी कभी जाने दिया था?’’ मां थोड़ी नाराज हुई. हालांकि इस नाराजगी में प्यार अधिक था. कमला आंख में आंसू भर लाई, ‘‘बहूजी की तरह घर कौन संभाल सकता है मां. अब पता नहीं आप लोग कैसे सब कर पाते होंगे,’’ कमला ने ठंडी सांस भरी तो माहौल बो?ाल सा हो गया.
‘‘जी तो कर रहा है कि आप के कुछ काम आऊं लेकिन… हमारी जात…’’ इतना कह कर कमला चुप हो गई. चमन कमरे से बाहर चला गया.
‘‘बीमार कभी डाक्टर की जात पूछता है क्या? जा बना ला 3 कप चाय. बहुत दिन हो गए ढंग की चाय पीए,’’ मां ने मुसकराते हुई कमला को रसोई में जाने की इजाजत दे दी. कमला ने एक पल मां को हैरत से देखा फिर सकुचाती हुई चाय बनाने चल दी. चमन भी उस के पीछेपीछे चला. जब तक कमला ने चाय बनाई तब तक चमन प्लेट में नमकीन और बिस्किट डाल चुका था. इस बीच वह चाय बनाने की प्रक्रिया पर भी पूरी नजर रखे था. कमला कहां हर समय चाय बनाने को मौजूद रहेगी.
चाय सचमुच बहुत अच्छी बनी थी. मन तृप्त हो गया. चमन ने आभारी निगाहों से कमला की तरफ देखा. मां ने कमला की खुले दिल से तारीफ की.
‘‘शाम को आ जाया कर. 2 घड़ी हमारा भी अबोला टूटेगा,’’ मां ने कमला से आग्रह किया जिसे उस ने सहज स्वीकार लिया.
‘‘शाम को क्यों, कल से पहले की तरह घर के कामकाज में मदद के लिए आना शुरू कर दो,’’ चमन ने मां की तरफ देखते हुए कहा तो मां ने भी सहमति के लिए कमला की तरफ देखा. वह तो राजी ही थी.
अगले ही दिन सुबह 7 बजे कमला हाजिर थी. सब से पहले उस ने मांबेटे को चाय बना कर पिलाई उस के बाद ?ाड़ू ले कर पूरे घर की साफसफाई की. सचमुच औरतों से ही घर, घर बनता है. कमला का हाथ लगते ही घर चमक उठा. इस के बाद कमला ने सुबह का खाना भी बना दिया.
‘‘खाना बना दिया है मां. गरमगरम ही खा लेते तो बरतन भी साफ कर जाती,’’ कमला ने साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछते हुए कहा.
‘‘अरी जाना कहां है? अकेला जीव क्या करेगी सूने घर में जा कर. मैं तो कहती हूं तू यही रह, हमारे साथ,’’ मां ने आग्रह किया.
कमला संकोच में पगी दरवाजे की चौखट थामे खड़ी रही. चमन ने भी मां की बात पर हामी भरी.
‘‘अभी तो जाती हूं मां. 1-2 रोज में सोच कर बताऊंगी,’’ कमला ने कहा.
‘‘जैसी तेरी मरजी. जैसे हम अकेले, वैसे तू अकेली. हमें काम का सहारा हो जाएगा और तु?ो साथ का. सोच लेना आराम से. लेकिन हां, खाना तू यहीं खाएगी और जाएगी भी रात का खाना खाने के बाद,’’ मां ने उस से अधिकार से कहा.
और फिर धीरेधीरे कमला परिवार का हिस्सा बनती चली गई. पहलेपहल
एकआध दिन रात को रुकी फिर स्थाई रूप से वहीं रहने लगी. चमन की जिंदगी का तो पता नहीं लेकिन शील के जाने के बाद घर में पनपे रिक्त स्थान को अवश्य उस ने भर दिया. दिनचर्या सुचारु और दवादारू नियमित हुई तो मां की उदासी पर भी तनिक मुसकान के साए नजर आने लगे. बच्चों ने भी इस नई व्यवस्था को स्वीकार कर लिया था.
दिन, महीने, साल शांति से बीत रहे थे. यों भी परिवर्तन सालों में नहीं बल्कि पलों में ही हुआ करते हैं. ऐसा ही एक परिवर्तन चमन की दिंगी में फिर से होने वाला था.
मां की बढ़ती उम्र पर अब बीमारियां भारी पड़ने लगी थीं. घुटनों के दर्द ने उन्हें लगभग अपाहिज ही बना दिया था. चमन भी अब उम्र के 6 दशक की ऊपरी सीढि़यों की तरफ बढ़ रहा था. ऐसे में मां की पूरी जिम्मेदारी कमला पर ही आ पड़ी थी और वह उसे बखूबी संभाल भी रही थी.
ऐसी ही एक कालरात्रि में मां को दिल का दौरा पड़ा और वे कमला से चमन को संभालने की जिम्मेदारी का वादा ले कर अनंत पथ की यात्री हो गई.
आखिरी समय मां की जो हालत थी उसे देखते हुए कमला का चमन को संभालने की जिम्मेदारी लेने का वादा करना मानवीयता के नाते लाजिम था ताकि मां निश्चिंत हो कर देह त्याग सकें लेकिन व्यावहारिक रूप से यह इतना ही कठिन था. अब तक तो मां इस अनामबेनाम रिश्ते की ढाल बनी हुई थी लेकिन अब तो सारे वार चमन और कमला को अपने सीने पर ही ?ोलने होंगे.
मां की 13वीं के लिए पूरा परिवार एकत्रित हुआ. चमन के भविष्य का
फैसला भी तो अब उन्हें ही करना था. कैसी विडंबना थी कि जिन बच्चों का भविष्य चमन ने गढ़ा आज वे ही उस का भविष्य निर्धारित करने वाले थे.
भविष्य तो चमन का निर्धारण होने वाला था लेकिन कमला जानती थी कि उस का भविष्य भी उन के निर्णय के साथ ही निर्धारित होगा. वह घर के अन्य काम निबटाने में लगी थी लेकिन उस के कान मां के कमरे में बैठी परिवार की पंचायत पर ही लगे थे क्योंकि पंचायत बेशक चमन के परिवार की थी लेकिन फैसला तो उसी के भविष्य का होने वाला था ना.
सब ने मिल कर तय किया कि फिलहाल इस पुश्तैनी घर को ताला लगा दिया जाए. चमन बारीबारी से तीनों बच्चों के पास रहेगा. उचित मूल्य मिलने पर घर को बेच दिया जाएगा.
निर्णय जान कर कमला ने मन ही मन मां से माफी मांगते हुए अपना सामान समेटना शुरू कर दिया क्योंकि वह उन्हें दिया अपना वादा पूरा नहीं कर सकेगी. अपना घर छोड़ने के निर्णय से खुश तो हालांकि चमन भी नहीं था लेकिन अब उस में विरोध करने की शक्ति भी नहीं बची थी. इतना सब होने के बाद भी वह कमला को ले कर परेशान था.
‘‘जिस स्त्री ने उस के लिए इतना कुछ किया क्या उस के प्रति उस की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वह स्वार्थी नहीं हो गया? कमला को इस तरह अधर में कैसे छोड़ा जा सकता है जबकि वह अच्छी तरह से जानता है कि जब से वह उन के साथ रहने लगी है तब से उस ने समाज से अपने सारे रिश्तेनाते काट लिए हैं.’’ चमन देर रात तक करवटें बदलता रहा. बच्चों के निर्णय के अनुसार आज सुबह उसे बड़ी बेटी के साथ जाना था.
कमला सुबह की चाय बना लाई थी. सब को उन के कमरों में दे कर उस ने चमन को कप थमा दिया और खुद भी वहीं उस के पास जमीन पर बिछी दरी पर बैठ गई. आज तक वह चमन के सामने कभी कुरसी पर नहीं बैठी थी. दोनों के बीच पसरे सन्नाटे को चाय की चुसकियां बेध रही थीं.
तभी बड़े दामाद आ गए, ‘‘हम लोग 10 बजे तक निकलेंगे. आप 3 जनों का दोपहर का खाना बना कर पैक कर देना,’’ दामाद ने कमला को लक्ष्य कर कहा. कमला ने एक निगाह चमन पर डाली और सिर ?ाका कर हामी भर दी.
‘‘खाना 2 जनों का ही पैक करना. मैं कहीं नहीं जा रहा,’’ चमन ने चाय का खाली कप ट्रे में रखते हुए कहा तो कमला ने चौंक कर उस की तरफ देखा.
‘‘आप यहां अकेले कैसे रहेंगे?’’ दामाद ने आश्चर्य से पूछा. बातचीत की आवाजें सुन कर घर के शेष सदस्य भी वहां आ गए.
‘‘कमला कोई फुलटाइम मेड नहीं थी जिसे हम ने अपनी देखभाल के लिए रखा था. यह इस परिवार का हिस्सा है. इस ने हमें तब संभाला जब हम डांवांडोल हो रहे थे. अब मैं इसे यों म?ाधार में छोड़ कर नहीं जा सकता,’’ चमन ने अपना फैसला सुना दिया.
‘‘लेकिन आप दोनों अकेले एक घर में रहेंगे तो समाज क्या कहेगा? जब तक मां थी, सब ढका हुआ था लेकिन अब इस तरह… मेरी तो कुछ सम?ा में नहीं आ रहा,’’ बहू ने अपने सिर पर हाथ रखते हुए नाराजगी जताई.
‘‘किसी को कुछ भी सम?ाने की जरूरत नहीं है. रही बात समाज की तो उस का सामना मु?ो करना है. तुम लोग तो इतने दूर रहते हो कि मेरे होने या न होने से तुम्हारे समाज को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. यदि मेरे बारे में कोई पूछे तो दूसरे भाईबहन के पास होने का कह देना. वैसे मैं तुम लोगों के पास आताजाता रहूंगा,’’ चमन ने दोटूक कहा.
‘‘तो क्या आप ने इन से शादी कर ली?’’ छोटी बेटी ने संशय से पूछा. शेष भी चमन के मुंह से सचाई जानने को उत्सुक थे.
‘‘अब इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम ने शादी कर ली या करने वाले हैं या फिर बिना शादी किए साथ रहने वाले हैं. हम वैसे ही रहेंगे जैसे मां के साथ रहते थे यदि कमला चाहे तो,’’ कहते हुए चमन ने कमला की तरफ देखा. 6 जोड़ी आंखें भी उसी पर टिकी थीं.
कमला क्या कहती. सबकुछ उस की नम आंखों ने कह दिया था. उस ने कृतज्ञ निगाहों से चमन की तरफ देखा. उस ने उसे जिंदगी के बहुत बड़े रिक्त स्थान से जो बचा लिया था.
अब इस घटना को हुए 4 साल हो गए हैं. कमला चमन की जिंदगी का हिस्सा है.
अब तो बेटीदामाद भी उसे ऐसे लेते मानो वह
घर की कोई सदस्या हो. 2 बार तो वह और कमला एकसाथ बेटी के घर भी रह आए. बेटी ने उन्हें कमरे तो अलग दिए पर बराबर के. कमला न मालकिन थी न नौकरानी. वह घर की पूरी सदस्य थी.