लेखिका- डा. छाया श्रीवास्तव
कुछ दिनों बाद आभा को फिर झटका लगा, देखा कि वह मम्मी की महंगी साड़ी और चमड़े की चप्पल पहने रसोई में खाना बना रही है. उस का मन जल उठा. उस की मम्मी कभी चमडे़ की चप्पल पहन कर रसोई में नहीं जाती थीं और यह नवाबजादी मजे से पहने खड़ी है. वह तेज स्वर में बोली, ‘‘मालती, तुम चमडे़ की चप्पल पहने खाना बना रही हो? यह मम्मी की महंगी साड़ी और यह नई पायल तो मम्मी करवा चौथ पर पहनने को लाई थीं, ये चीजें तुम्हें कहां मिलीं?’’ क्रोध से उस का मुंह लाल हो गया.
‘‘ये सब तुम अपने पापा से पूछो बेबी, उन्होंने मुझ से अलमारी साफ करने को कहा तो पौलीथीन की थैली नीचे गिरी. मैं ने साहब को उठा कर दी तो वह बोले तुम ले लो मालती, आभा तो यह सब नहीं पहनती, तुम्हीं पहन लो. उन्होंने ही सैंडिल भी दी, सो पहन ली.’’
‘‘देखो, यहां ये लाट साहिबी नहीं चलेगी, चप्पल उतार कर नंगे पांव खाना बनाओ समझी,’’ वह डांट कर बोली तो मालती ने सकपका कर चप्पल आंगन में उतार दीं. अमित भी बोल उठा, ‘‘पापा, यह आप क्या कर रहे हैं? क्या अब मम्मी के जेवर भी इस नौकरानी को दे देंगे? उन की महंगी साड़ी, सैंडिल भी, ये सब क्या है?’’
‘‘अरे, घर का पूरा काम वह इतनी ईमानदारी से करती है, और कोई होता तो चुपचाप पायल दबा लेता. इस ने ईमानदारी से मेरे हाथों में सौंप दी. साड़ी आभा तो पहनती नहीं है, इस से दे दी. इसे नौकरानी कह कर अपमानित मत करो. तुम्हारी मम्मी जैसा ही सफाई से सारा काम करती है. थोड़ा उदार मन रखो.’’ ‘‘तो अब आप इसे मम्मी का दर्जा देने लगे,’’ आभा तैश में आ कर बोली.
‘‘आभा, जबान संभाल कर बात करो, क्या अंटशंट बक रही हो. अपने पापा पर शक करती हो? तुम अपने काम और पढ़ाई पर ध्यान दो. मैं क्या करता हूं, क्या नहीं, इस पर फालतू में दिमाग मत खराब करो. परीक्षा में थोड़े दिन बचे हैं, मन लगा कर पढ़ो, समझी,’’ वह क्रोध से बोले तो आभा सहम गई. इस से पहले पापा ने इतनी ऊंची आवाज में उसे कभी नहीं डांटा था. वह रोती हुई अपने कमरे में घुस गई. अमित के समझाने पर भी वह मन का संदेह नहीं दबा पा रही थी. उस का अब पढ़ने में रत्ती भर भी मन नहीं लगता था. उस ने घबरा कर अपनी नानी को खत लिख दिया. नानाजी तो थे नहीं, सोचा, नानी यहां घर पर रह कर सब संभाल लेंगी. तब तक उस की परीक्षा भी निबट जाएगी.
हफ्ते भर के अंदर नानी आ गईं. महेंद्र अचानक उन्हें देख कर चौंके जरूर परंतु ज्यादा कुछ कहा नहीं, ‘‘अरे अम्मांजी, आप…अचानक कैसे आ गईं?’’ ‘‘भैया महेंद्र, 6 मास से बच्चों को नहीं देखा था. इसलिए नरेंद्र को ले कर चली आई. यह तो कल लौट जाएगा, मैं रहूंगी.’’ ‘‘अच्छा किया आप ने, बच्चों की परीक्षाएं भी पास हैं. आभा को भी कुछ राहत मिलेगी. वैसे मालती बहुत अच्छी औरत हमें मिल गई है. सुबहशाम काम कर के चली जाती है. काम भी सफाई से करती है.’’
‘‘ठीक है भैया, अब तो अमित का एम.ए. फाइनल होने जा रहा है. आभा भी बी.ए. कर लेगी. अमित के लिए लड़की और आभा के लिए अच्छा घरवर देख कर दोनों को निबटा दो. बहू आने से घर-गृहस्थी की समस्याएं सुलझ जाएंगी.’’ ‘‘अम्मांजी, अमित अपने पैरों पर तो खड़ा हो ले, तभी तो कोई अपनी बेटी देगा उसे. आभा के लिए भी अभी देर है. वह एम.ए. करना चाहती है. 2 साल और सही. अभी तो सब काम चल ही रहा है.’’
‘‘ठीक है भैया, जैसा तुम चाहो. पर एक बात पर और ध्यान दो, माया के सब सोनेचांदी के जेवर लाकर में रख दो. घर पर रखना ठीक नहीं है. तुम तीनों घर से बाहर रहते हो, बडे़ नगरों में चोरियां बहुत होती हैं, इसलिए कह रही हूं.’’
‘‘हां, यह ठीक कहा आप ने. अब बैंक में लाकर ले ही लूंगा.’’ बहुत बार कहने पर भी वह लापरवाही बरतते रहे. तब अलमारी के लाकर की चाबी आभा अपने पास रखने लगी थी. जब से उस ने मालती के पैरों में मां की पायल देखी थीं, तभी दोनों भाईबहनों ने बैंक में चुपचाप एक लाकर ले कर सारे जेवर उस में रख दिए थे. पिता से इस की चर्चा नहीं की. सोचा, समय आने पर बता देंगे. बस कुछ नकली जेवर ही उन्होंने घर पर छोड़ रखे थे. नानी एकडेढ़ माह के पश्चात चली गईं. आभा ने कम्प्यूटर क्लास ज्वाइन कर ली थी, इस से वह पापा के नानी के साथ जाने के आग्रह को टाल गई. अमित भी कंप्यूटर कोर्स के साथ ही कोचिंग कर रहा था.
उस दिन आभा जल्दी लौट आई थी, क्योंकि सर के किसी निकट संबंधी की मृत्यु हो गई थी. घर आ कर उसे आश्चर्य हुआ क्योंकि मालती घर पर मौजूद थी, जबकि घर की दूसरी चाबी केवल पापा के पास रहती थी. ‘‘अरे, आज तुम समय से पहले कैसे आ गईं?’’ वह पूछ बैठी. ‘‘साहब आ गए हैं न, उन की तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ वह कुछ घबराहट में अटकअटक कर बोली. ‘‘तो तुम्हें किस ने बतलाया कि उन की तबीयत ठीक नहीं है. क्या पापा तुम्हें लेने गए थे तुम्हारे घर?’’
‘‘अरे नहीं, वह सुबह कह रहे थे. इस से मैं यों ही चली आई.’’ आभा लपक कर पापा के कमरे में घुस गई, देखा वह अपने बेड पर आंखें बंद किए चुपचाप लेटे हैं. ‘‘पापा, आप ने सुबह हम लोगों को क्यों नहीं बतलाया कि आप की तबीयत ठीक नहीं है. मैं आज नहीं जाती,’’ वह उन के माथे पर हाथ रख कर बोली तो उन्होंने पलकें खोलीं, ‘‘अरे, ऐसी खराब नहीं है. थोड़ा सिरदर्द था सुबह से, सोचा ठीक हो जाएगा, इस से आफिस चला गया, पर दर्द कम नहीं हुआ तो लौट आया. सुबह मालती से यों ही कह दिया था तो वह चली आई.’’
परंतु टेबिल पर जूठी पड़ी प्लेटों में समोसे-रसगुल्लों के टुकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे थे. 2 प्लेटें, 2 चाय के मग, क्या यह सब नित्य उन के जाने के बाद होता है? मन के किसी कोने में शंका के अंकुर सबल पौध से सिर उठाने लगे. उस ने देख कर भी अनदेखा कर दिया और कुछ क्षण वहां बैठ कर रसोई की ओर आई तो देखा, मालती गैस के नीचे कोई पालीथीन की थैली छिपा रही है. ‘‘यह गैस के नीचे कचरा क्यों ठूंसा तुम ने?’’ उस ने झपट कर थैली को बाहर घसीटा तो 2 रसगुल्ले, 2 समोसे जमीन पर आ गिरे. मालती का मुंह सफेद पड़ गया. ‘‘अरे, ये कहां से आए?’’
‘‘ये…ये बचे थे, साहब ने कहा कि रख लो, बच्चों को दे देना. इसलिए रख लिए.’’ आभा कुछ भी न बोल पाई. उस का मन किसी भावी आशंका की चेतावनी दे रहा था. शाम को जब अमित घर आया तो आभा ने उसे सब बता दिया. उस के ललाट पर भी चिंता की गहरी रेखाएं खिंच गईं. जब से उन की मां नहीं रहीं पापा खाना प्राय: अपने कमरे में ही मंगा कर खाते थे. मालती 1-1 फुलके के बहाने कई चक्कर उन के कमरे के लगा लेती थी. यह आभा को बहुत अखर रहा था.
एक दिन वह बोली, ‘‘मालती, तुम जल्दी खाना बना कर घर चली जाया करो.’’ ‘‘साहब को गरम फुलके पसंद हैं और आप लोगों को भी तो. देरसवेर की क्या बात है. बना खिला कर चली जाया करूंगी. आप क्यों परेशान हो, मुझे तो आदत है.’’
‘‘नहीं, तुम कल से हम दोनों का खाना कैसरोल में बना कर रख दिया करो और आटा सान कर रख देना, मैं पापा को खुद सेंक कर खिला दूंगी. जैसा मैं ने कहा है वैसा करो, समझी,’’ उस ने जरा सख्त लहजे में कहा तो वह चुप रह गई. परंतु थोड़ी देर पश्चात ही उस की चुप्पी का कारण सामने आ गया. पापा ने आभा को आवाज दी. ‘‘तुम ने मालती को शाम का खाना बनाने से क्यों मना किया?’’
‘‘मना कहां किया, पापा. यह कहा कि हम दोनों का खाना बना कर कैसरोल में रख दे, अगर आप गरम फुलके चाहेंगे तो मैं सेंक कर आप को खिला दूंगी, तो वह आप से शिकायत कर गई?’’ आभा को गुस्सा आ गया. ‘‘शिकायत क्यों, बस कह रही थी कि कल से बेबी आप की रोटियां सेंकेगी. बेकार में तुम क्यों गरमी में मरो, बनाने दो उसे.’’
आभा किसी भी तरह मालती को काम से हटाना चाहती थी इसीलिए पापा के हर सवाल का जवाब पर जवाब दिए जा रही थी, ‘‘पापा, पसीने से तरबतर पता नहीं रोज नहाती भी है या नहीं, पास से निकलती है तो बदबू मारती है. अब तो मैं ने उसे मना कर ही दिया है. आप उस से कुछ न कहें, बल्कि मैं तो सोचती हूं बेकार में 1 हजार रुपए महीना क्यों जाए, मैं ही खाना बना लिया करूंगी. मुझे खाना बनाने का अभ्यास भी हो जाएगा.’’
‘‘अरे नहीं, लगी रहने दो उसे, वह बहुत अच्छा खाना बनाती है. बिलकुल तुम्हारी मम्मी जैसा.’’
‘‘बिलकुल झूठ पापा, मम्मी जैसा तो नानी भी नहीं बना पातीं. दादीमां भी कहा करती थीं कि माया जैसा खाना बिरली औरतें ही बना पाती हैं.’’
‘‘पर अब वह बनाने वाली हैं कहां?’’
‘‘पापा, अब मैं बनाऊंगी मम्मी जैसा खाना. कोशिश करूंगी तो सीख जाऊंगी, अब शाम का खाना मैं ही बनाऊंगी.’’
‘‘अरे आभा, उसे लगी रहने दे. उस ने हमारे घर के लिए कई घरों का काम छोड़ दिया है. उस के छोटेछोटे बच्चे हैं. उस का आदमी दारूबाज है, उस को मारतापीटता है. इतनी सुघड़ औरत की कदर नहीं करता.’’
‘‘पर पापा, आप ने सब का ठेका तो नहीं लिया. कल से शाम के खाने से उस की छुट्टी,’’ कह कर वह पापा के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कमरे से बाहर निकल गई. पास खड़ा अमित भी सिर हिला कर मुसकरा रहा था.
इधर मालती के मुख पर उदासी का आवरण चढ़ गया. सुबह का खाना निबटा कर वह बोली, ‘‘बेबी, तो मैं जाऊं? पर साहब जाते समय कह गए थे कि शाम को नहा कर आया करूं . सुबह के कपड़ों से पसीने की बदबू आती है, इसलिए वह आप की मम्मी की ये 4 साडि़यां, ब्लाउज दे गए हैं. ये देखिए…’’
उस ने अपने झोले से कपड़े निकाल कर दिखाए तो आभा चकित रह गई. अमित भी पास खड़ा देख रहा था. गुस्से से बोला, ‘‘जब आभा ने कह दिया कि वह अब खाना बनाएगी तब तू पीछे क्योें पड़ी है. हम एक सा खातेखाते ऊब गए हैं. जब से मम्मी गई हैं तेरे हाथ का ही तो खा रहे हैं. अब शाम को नहीं आएगी तू, समझी.’’
‘‘भैयाजी, क्यों एक गरीब के पेट पर लात मार रहे हो. पगार कम मिलेगी तो 4 बच्चों का पेट मैं कैसे भरूंगी?’’
‘‘बस मालती, तेरी गरीबी मिटाने को दुनिया में हम ही तो नहीं बचे हैं, और घर पकड़ ले जा कर,’’ वे दोनों एकसाथ चिल्लाए तो वह आंसू पोंछती बाहर निकल गई. तब दोनों में बहुत देर तक पापा की हरकतों पर चर्चा होती रही.
धीरेधीरे शाम को मालती को न देख कर पापा उदास रहने लगे. आभा शाम को उन की पसंद का ही खाना बनाती. 1-1 चपाती सेंक कर कमरे में दौड़दौड़ कर पहुंचाती परंतु वह चुपचाप ही रहते, कुछ न बोलते. मालती सुबह सब को बना कर खिलाती फिर स्वयं खा कर चुपचाप चली जाती. नित्य के इस नियम से दोनों खुश थे कि इस औरत के चंगुल से उन्होंने पापा को बचा लिया.
जब से मालती का शाम का आना बंद हुआ था पापा 7-8 बजे तक आफिस से घर लौटते. जब वे दोनों पूछते तो कह देते कि आफिस में काम बहुत था या किसी दोस्त का नाम लेते कि वहां चला गया था.
परंतु उस दिन जब अमित ने वह दृश्य देखा तो घबरा कर दौड़ा आया, ‘‘आभा, आज जो देखा उसे सुनोगी तो सिर थाम लोगी. आज पापा के साथ मालती कार में उन की बगल में बैठी थी. मम्मी के जेवर, कपड़े पहने हुए थी. पापा उसे होटल ले गए. वहां उन्होंने कमरा बुक करवाया.’’
‘‘अरे, यह क्या हो रहा है. पापा इतने गिर जाएंगे, कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था, अब हम क्या करें?’’ वह सिर पकड़ कर कुर्सी पर बैठ गई और फूटफूट कर रोने लगी.
‘‘घबरा मत, आभा, रोने से क्या होगा? कोई उपाय सोचो जिस से इस औरत से पापा को बचा सकें.’’
‘‘भैया, असली जेवर तो सब बैंक में हैं, यहां तो आर्टीफिशयल ही हैं. क्या वही दे दिए पापा ने. मैं अलमारी का लाकर देखती हूं,’’ वह आंसू पोंछती हुई दौड़ी, लाकर खोल कर देखा तो स्तब्ध रह गई. डब्बे खाली पडे़ थे, जेवर गायब थे.
‘‘अच्छा किया, जो जेवर बैंक में रख आए, वरना सब चले जाते,’’ दोनों ने चैन की सांस ली.
‘‘भैया, पापा के दोनों खास दोस्तों से बात करें. संभव है, पापा उन की बात मान लें? नहीं तो मामामामी, नानी, बूआफूफाजी को फोन कर के सब हाल बता दें. बूआजी पापा से बड़ी हैं. पापा उन का लिहाज भी बहुत करते हैं.’’
‘‘नहीं, आभा, अभी हम किसी से कुछ नहीं कहेंगे. पहले मालती का पीछा कर उस के घर व घरवाले का पता लगाऊंगा, तब तुम मेरा खेल देखना. पापा अपने को बहुत होशियार समझते हैं.’’
‘‘मुझ को डर लग रहा है कि कहीं वह कमबख्त इस घर में धरना ही न दे दे.’’
‘‘अपना उतना बड़ा परिवार छोड़ कर क्या वह यहां पापा के साथ आ सकेगी?’’
‘‘ऐसी औरतें सब कर सकती हैं. अखबार में जबतब पढ़ते नहीं कि अपने 6 बच्चों को छोड़ कर फलां औरत अपने प्रेमी के साथ भाग गई, पति बेचारा ढूंढ़ता फिर रहा है.’’
‘‘उस औरत को भी क्या कहें? अभी मां को गए एक साल भी पूरा नहीं हुआ और पापा को औरत की जरूरत पड़ गई, धिक्कार है.’’
‘‘भैया, अगर ऐसी नौबत आई तो मैं मामा के पास चली जाऊंगी,’’ वह आंसू पोंछ कर बोली.
‘‘अपने भैया को बेसहारा छोड़ कर? तब मैं कहां जाऊंगा?’’
‘‘तब तो हम दोनों को नौकरी की तलाश करनी चाहिए. हम किराए का मकान ले कर रह लेंगे. सौतेली मां की छांह से भी दूर. तब मामा आदि के पास क्यों जाएंगे भला, इसी शहर में रहेंगे.’’
‘‘मां, तुम हम दोनों को बेसहारा छोड़ कर क्यों चली गईं. राह दिखाओ मम्मी, हम दोनों कहां जाएं, क्या करें?’’ अमित का धैर्य भी आंसू बन कर फूट पड़ा, आभा भी रो पड़ी.
दूसरे दिन अमित जल्दी घर से निकल कर मालती के इंतजार में स्कूटर लिए छिपा खड़ा था. जैसे ही वह घर से निकली वह छिपताछिपाता पीछे लग गया. उस का घर लगभग 2 किलोमीटर दूर था. अमित ने देखा उस के घर से छिपा कर लाई रोटीसब्जी मालती ने अपने बच्चों और पति में बांट दी. बच्चे खा कर यहांवहां खेलने निकल गए और जल्दी से अपने घर का काम निबटा कर मालती अपने घरवाले के जाते ही सजधज कर निकली. अमित उस के पीछेपीछे चलता रहा. वह मेन बाजार में जा कर खड़ी हो गई. थोड़ी देर बाद पापा गाड़ी ले कर आए. मालती लपक कर कार में बैठ गई. कार फिर उसी होटल की ओर बढ़ी. वे दोनों फिर उसी होटल में जा पहुंचे. अमित लौट आया.
दूसरे दिन मालती के घर से निकलते ही वह उस के पति हरिया के पीछे लग गया. घर से जब वह दूर आ गया तब स्कूटर उस के सामने कर के खड़ा हो गया, ‘‘सुनो भैया, हमारे यहां ढेरों सामान इकट्ठा है. वह हमें बेचना है.’’
‘‘कहां है, आप का घर?’’ वह खुश हो कर बोला.
‘‘वह है दूर. अब आज नहीं कल ले चलूंगा. वह मालती तुम्हारी घरवाली है?’’
‘‘हां, तुम कैसे जानते हो?’’ वह बोला.
‘‘वह हमारे घर के पास ही काम करती है इसलिए जानता हूं. इस टाइम वह कहां जाती है?’’
‘‘वह किसी साहब के यहां जाती है, नौकर है वहां?’’
‘‘परंतु मैं ने तो उसे एक साहब के साथ बड़े होटल में जाते देखा है.’’
‘‘कब? कहां?’’ वह आंखें फाड़ कर बोला.
‘‘वह तो सजधज कर रोज जाती है. चलो, तुम्हें दिखाऊं,’’ बिना कुछ सोचे- समझे वह ठेला एक तरफ फेंक कर उस के साथ हो लिया. रास्ते भर अमित नमकमिर्च लगा कर ढेरों बातें बताता चला गया. सुन कर वह क्रोध से पागल हो उठा.
‘‘उधर…ऊपर 22 नंबर कमरा खटखटाओ, साहब के साथ मालती जरूर मिलेगी. एक बात और, मेरा जिक्र किसी से मत करना, यही कहना कि मैं ने तुम्हें कार में बैठे देखा था, तभी से पीछा करते यहां आया हूं.’’
‘‘हां, भैया, यही कहूंगा. आज मैं उस की गति बना कर रहूंगा. कहती थी खाना बनाने जाती हूं,’’ इतना ही नहीं ढेर सारी भद्दी गालियां बकता हुआ वह कमरे की ओर बढ़ रहा था.
अमित एक कुरसी पर बैठ कर आने वाले तूफान का इंतजार करने लगा. उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा. ऊपर से घसीटते, मारते, गालियों की बौछार करते वह मालती को नीचे ले आया. चारों ओर भीड़ जुटने लगी. तभी पुलिस भी आ पहुंची. पीछेपीछे भीड़ थी. थोड़ी देर की हुज्जत के बाद अमित ने देखा कि पुलिस वाले पापा का कालर पकड़े उन्हें धकियाते नीचे घसीटते ला रहे हैं. पापा का मुंह लज्जा से लाल पड़ गया था पर उसे दया नहीं आई. पुलिस वाले गालियों की असभ्य भाषा में उन्हें झिंझोड़ रहे थे. शायद वह ऊपर से खासी मरम्मत कर के लाए थे.
पुलिस वाले ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मालती के मुंह पर भी दे मारा, उस के मुंह से चीख निकल गई. मुंह से खून बह आया, उसे देख कर पापा पर घड़ों पानी पड़ गया, शर्म से सिर झुकाए वह पुलिस का हाथ झटक कर कार की ओर बढे़, तभी हरिया ने पीछे से उन का कालर पकड़ा, ‘‘ऐ साहब, मैं ऐसे ही नहीं छोड़ूंगा तुम्हें, मेरी औरत की इज्जत लूटी है तुम ने, मैं इस की डाक्टरी जांच कराऊंगा, समझा क्या है तुम ने?’’
‘‘छोड़ कालर, पहले तू अपनी औरत को संभाल फिर बात कर. जब वह राजी है तो दूसरों को दोष क्यों देता है?’’
‘‘तुम ने क्यों बहकाया मेरी घरवाली को?’’
‘‘पहले उस से पूछ, वह क्यों बहकी?’’
‘‘साहब, आप को थाने चलना पडे़गा,’’ पुलिस वाले ने बांह पकड़ कर खींचा.
भीड़ बढ़ती जा रही थी. वह किसी तरह फंदे से निकल कर कार स्टार्ट कर भाग छूटे, लोग चिल्लाते ही रह गए, इधर अमित भी स्कूटर स्टार्ट कर के घर की ओर रवाना हो गया. आते ही उस ने आभा को पूरी घटना बयान कर डाली. सुन कर आभा का मन जहां खुश था वहीं पिता के न आने से दोनों ने रात आंखों ही में काटी. वे दोनों उन के मोबाइल पर भी बात नहीं कर पाए.
दूसरे दिन न मालती आई न पापा. अमित छिप कर मालती के घर के चक्कर लगा आया. वह घर पर जैसे कैद थी. हरिया दरवाजे पर पहरा लगाए बैठा था. जब 3 दिन तक पापा का कुछ पता न लगा तो दोनों ने घबरा कर सब रिश्तेदारों को फोन कर दिए. तुरंत ही सब घबरा कर दौड़े आए. घर आ कर सब चिंता में पड़ गए. अमित ने अपनी चतुराई की रत्ती भर चर्चा नहीं की. वह पिता की व परिवार की नजरों में पाकसाफ रहना चाहता था. आभा ने भी होंठ नहीं खोले.
वे लोग अखबारों में विज्ञापन देने की सोच रहे थे कि दिल्ली से फोन आया कि वह आगरा आदि घूम कर घर लौट रहे हैं. सुन कर सब का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा. जब वह वापस आए, किसी ने कुछ नहीं पूछा. अमित भी ऐसा बना रहा जैसे उसे कुछ मालूम ही नहीं है. वे दोनों अपने पापा को वापस अपने बीच पाना चाहते थे, शर्मिंदा करना नहीं चाहते थे. पापा के चेहरे पर भी पश्चात्ताप साफ नजर आ रहा था. सब को देख कर वह न हैरान हुए न परेशान, यह जरूर बतलाया कि उन्होंने अपना ट्रांसफर दूसरे शहर में करा लिया है. वह शीघ्र ही यहां से रिलीव हो कर चले जाएंगे.
तभी एक दिन बूआ ने पास बैठ कर गंभीर स्वर में कहा, ‘‘महेंद्र, अगर तू चाहे तो कहीं किसी विधवा से या तलाकशुदा किसी लड़की से बात चलाएं. पेपर में विज्ञापन देने से ढेरों आफर आ सकते हैं.’’
‘‘अरे नहीं, दीदी, अब इस की जरूरत नहीं है. माया की याद क्या कभी दिल से निकल सकेगी? अब तो अमित और आभा के लिए सोच रहा हूं. दोनों को अच्छे मैच मिल जाएं तो घर आबाद हो जाएगा. मैं अमित को बिजनेस में डालने की सोच रहा हूं. जब तक इस का कारोबार जमेगा आभा भी एम.ए. कर लेगी. अब यहां मेरा मन नहीं लगता, न इन बच्चों का लगता है, क्यों अमित?’’
‘‘हां, पापा, अब यहां नहीं रहेंगे,’’ दोनों चहक उठे. तभी उन्होंने अकेले में अमित से पूछा, ‘‘अमित, तुम ने उस दिन की घटना किसी से बताई तो नहीं?’’ अमित को समझते देर न लगी कि पापा ने उस दिन उसे घटना वाली जगह पर देख लिया था.
बिना घबराए वह बोला, ‘‘नहीं, पापा, मेरी तो समझ में नहीं आया था कि यह क्या हो रहा है. मैं तो रोज की तरह उधर से गुजर रहा था कि झगड़ा और शोर सुन कर उधर आ गया, पता नहीं मालती किस के साथ थी, नाम आप का लग गया. जो हो गया उसे भूल जाइए, पापा. नए शहर में नया माहौल और नए लोग होंगे. आप यहां का सब भूल जाएं तो अच्छा है. इज्जतआबरू बची रहे यही सब से बड़ी बात है,’’ उसे विश्वास हो गया था कि पापा को जो ठोकर लगी है वह जिंदगी भर के लिए एक सबक है. सुबह का भूला घर आ गया था.