Hindi Stories Online : आसमान की ओर

Hindi Stories Online :  मेरी यात्रा लगातार जारी है. मैं शायद किसी बस में हूं. मुझे यों प्रतीत हो रहा है. बस के भीतर बैठने की सीटें नहीं हैं. सब लोग नीचे ही बस के तले पर बैठे हैं. कुछ लोग इसी तल पर लेटे हैं. बस से बाहर जाने का कोई भी मार्ग अभी तक मुझे दिखाई नहीं दिया है और न ही किसी और कोे.

बस की दीवारों में छोटेछोटे छेद हैं, जिन में से रोशनी कभीकभी छन कर भीतर आ जाती है. जब रोशनी उन छिद्रों से बस के भीतर आती है तो उस से रोशनी की लंबीलंबी लकीरें बन जाती हैं. मेरे सहित सब लोग उसे पकड़ने की भरसक कोशिश करते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं. कोईर् भी उन को पकड़ नहीं पाया है. बहुत देर से कई लोग इस तरह की कोशिश कर चुके हैं.

बस को कौन चला रहा है, इस बात का भी अभी तक किसी को पता नहीं है. मैं कभीकभार बस के भीतर घूम लेता हूं, लेकिन यह खत्म होने को ही नहीं आती है. शायद यह बहुत लंबी है. मैं थकहार कर फिर वहीं आ बैठता हूं जहां से मैं उठ कर गया था. मेरी तरह और भी बहुत सारे लोग इस बस में घूमघूम कर फिर से वहीं आ बैठते हैं जहां से वे उठ कर जाते हैं.

यह एक बस है और यह कई सदियों से ऐसे ही चल रही है. सच बताऊं तो, पता मुझे भी पूरी तरह से नहीं है. मैं कई बार यह समझने की कोशिश करता हूं कि यह बस है या फिर कुछ और. लेकिन सच का पता नहीं चल रहा है. अजीब किस्म का रहस्य है, जिस का पता नहीं चल रहा है.

कभीकभार कुछ लोग आते हैं और हमारा खून निकाल कर ले जाते हैं. पूछने पर कुछ नहीं बताते. जब कभी गुस्सा कर लें, तो फिर बहुत एहसान से बताते हैं कि वे लोग इस बस को चला रहे हैं. इस बस को चलाने के लिए उन को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, इस का तो उन लोगों को ही पता है. पूछें तो कहते हैं कि यह बस उन के अपने खून से चल रही है.

‘‘लेकिन खून तो आप लोग हमारा ले रहे हो?’’ हम में से कोई बोलता है.

‘‘तुम्हारा खून तो हम कभीकभार लेते हैं, बस तो हम अपने खून से ही चलाते हैं.’’

फिर जब हम अपनी ओर देखते हैं तो हम तो नुचेसिकुड़े से कमजोर से हैं और वे हट्टेकट्टे, हृष्टपुष्ट जवान. समझ कुछ भी नहीं आता है. हर समय हम लोग परेशान रहते हैं. उन की पूंछें सदैव ऊपर आसमान की तरफ तनी हुई रहती हैं और हमारी जमीन पर लटकी रहती हैं, जैसे कि इन में हड्डी ही न हो. खून लेने आने वाले लोग कुछ देर बाद बदल जाते हैं. बहुत ही एहसान से वे हमारा खून ले कर जाते हैं जैसे कि वे लोग हम पर बहुत दया कर रहे हों. हम भी इस डर से खून दे देते हैं कि कहीं हमारी बस रुक ही न जाए. पसोपेश वाली स्थिति है कि यह बस है या फिर कुछ और, और यह हमें कहां ले जा रही है.

बस चलाने वाले पूछने पर गुस्सा करते हैं, कहते हैं, ‘‘आप लोग चुप रहो, आराम से बैठो, आप को कुछ नहीं पता है. आप, बस, हमें अपना खून दो.’’

कुछ देर बाद खून लेने वाले फिर बदल जाते हैं. यह भी समझ नहीं आता कि पहले वाले लोग कहां गए. पूछने पर कोई जवाब नहीं देते हैं. बारबार पूछने पर कहते हैं, ‘‘वे पहले वाले लोग सारा का सारा खून खुद ही डकार गए हैं, खून वाली सारी टंकी खाली है. अब हम क्या करें, हमें खून चाहिए, वरना बस नहीं चलेगी.’’

हम फिर अपना हाथ खून देने के लिए उन के आगे कर देते हैं. फिर बस चलती रहती है. फिर बस की दीवारों के छेदों से रोशनी की लकीरें अंदर तक पहुंचती हैं. फिर से हम लोग उन को पकड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसी के भी हाथ नहीं आतीं. सब थकहार कर फिर वहीं बैठ जाते हैं. कुछ दिनों पहले उड़ती हुई एक अफवाह आईर् थी कि बस को चलाने वाले कुछ लोग हमारे से लिए खून में से ज्यादा खून तो खुद ही पी जाते हैं और बाकी जो बच जाता है उसे बस की टंकी में डाल देते हैं. और कई बार तो वे लोग बस के पुर्जे तक खा जाते हैं.

यह तो गनीमत है कि बस के जो पुर्जे कम हो जाते हैं, वे कुछ दिनों बाद खुदबखुद ही पनप उठते हैं. बस में सफर करने वाले सब लोग भोलेभाले, ईमानदार और साफ दिल के हैं. कभीकभी वे लोग इस तरह की बातें सुन कर निराश हो जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद वे लोग फिर अपनेआप ही ठीक हो जाते हैं. यही आम आदमी की विशेषता है. वैसे इस के अलावा उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. और फिर जब उन का खून ले लिया जाता है तो वे फिर अपनेआप शांत हो जाते हैं.

बस बहुत समय से ऐसे ही चल रही है. कहां जा रही है, क्यों जा रही है, यह रहस्य है जो किसी को पता नही है. कभीकभार खून लेने वाले ही कह जाते हैं कि –

‘‘बस स्वर्ग जा रही है’’

‘‘परंतु इतनी देर…’’ हम में से कोई कहता है.

‘‘धैर्य रखो, रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल है, समय तो लगता ही है,’’ वे कहते हैं.

हम लोग फिर उन की बातें सुन कर चुप हो जाते हैं. हम यह सोचते हैं कि ये चालाक व समझदार लोग हैं, ठीक ही कहते होंगे. देखेंभालें तो न बस का चालक दिखता है, न ही कोई इंजन और न ही कोई टैंक. खून किस टंकी में पड़ता है, कहां जाता है, यह भी पता नहीं चलता है. सभी रहस्यमयी विचारों में उलझे रहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है. कुछ लोग हमारा खून लेने के लिए आए थे. वे लोग नएनए ही लग रहे थे. वे बहुत जोशीले थे. वे बहुत ही चालाकी से बातें कर रहे थे. वे पूरे वातावरण में एक अलग तरह का उत्साह भर रहे थे. वे बहुत प्यार से हमारा खून ले रहे थे. सब ने उन की बातें सुन कर उन को बहुत ही प्यार व सम्मान सहित अपना खून दिया.

वे लोग सब को यह भरोसा दिला रहे थे कि हम लोग बहुत जल्दी स्वर्ग पहुंच जाएंगे. सब उन की बातें सुनसुन कर बहुत खुश हो रहे थे. कितनी देर से दबेकुचले हम लोग भी आखिरकार स्वर्ग को जा रहे हैं, यह सोचसोच कर बहुत खुशी हो रही थी. सब लोग मारे खुशी के उन की जयजयकार कर रहे थे.

कुछ दिनों बाद फिर वे लोग हमारा खून लेने के लिए आए. ये पहले से कुछ जल्दी आ गए थे. उन्होंने फिर हमारे भीतर जोश भरा. हमें फिर सब्जबाग दिखाए. हमारी बांछें खिल उठीं. हम फिर मुसकराए. उन की बातों में बहुत उत्साह व जोश था. उन की बातें सुनसुन कर हमारे भीतर भी जोश आ गया. चारों ओर फिर उन की जयजयकार होने लगी. जोश ही जोश में उन्होंने हमारा खून निकालने वाले टीके निकाल लिए और हमारा खून निकालना शुरू कर दिया.

सब ने बहुत खुशीखुशी अपना खून दिया. परंतु इस बार हमारा खून निकालने वाले टीके पहले से कुछ बड़े थे. लेकिन हमारे भीतर जोश इतना भर गया था कि हमें सब पता होते हुए भी बुरा न लगा. कुछ अजीब तो लगा परंतु ज्यादा बुरा न लगा. थोड़ा सा बुरा लगा लेकिन यह तो होना ही है, ठीक है, अब बस को चलाने के लिए हमें भी तो कुछ करना ही है. सब की आस्था बस के ठीक रहने और उस के स्वर्ग तक पहुंचने की है. बस, इसी जोश और जज्बे के चलते हर कोई अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार बैठा है.

अजीब बात तब हुई जब वे लोग फिर हमारे पास आए और हम से हमारी थोड़ीथोड़ी टांगों की मांग करने लगे. मतलब कि उन को हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े चाहिए थे. सब ने उन की इस मांग पर आपत्ति की. कोई भी उन को अपनी टांगें देने को तैयार नहीं था. उन को हमारी टांगें क्यों चाहिए, इस बात का किसी के पास कोई जवाब न था.

आखिर उन में से एक ने बताया कि वे लोग हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े ले कर बस में लगाएंगे ताकि बस तेजी से स्वर्ग की ओर जा सके. मेरे साथसाथ सब को बहुत बुरा लगा. सब ने फिर विरोध किया. कोई अपनी टांगों के टुकड़े देने को तैयार न था. आखिर वे लोग जोरजबरदस्ती पर उतर आए और हमारी टांगों के छोटेछोट टुकड़े उतार कर ले गए. हमारे सब के कद छोटे हो गए. आहिस्ताआहिस्ता यह परंपरा बन गई.

अब जब वे लोग हमारा खून लेने के लिए आते हैं तो वे हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर ले जाते हैं. पूछने पर कहते कि बस को बहुत सारी टांगों की जरूरत है. उस में लगा रहे हैं. परंतु अजीब बात तो यह है कि हम बस में लगी अपनी टांगें देख नहीं पाते हैं क्योंकि बस में से बाहर जाने को हमारे लिए कोईर् रास्ता ही नहीं है. बस को चलाने वाले कैसे बाहर जाते हैं, हमें इस का भी कोई पता नहीं है.

हमें कभीकभी अपनी अवस्था गुलामों जैसी लगती है. लेकिन जब हम उन खून लेने वाले लोगों की बातें सुनते हैं तो हमें लगता है कि हम लोग ही सबकुछ हैं, लेकिन कई बार लगता है कि हम लोग कुछ भी नहीं है. यह भी बहुत अजीब तरह का एहसास है.

एक और अजीब बात है कि हमारे कद तो छोटे होते जा रहे हैं और हमारा खून लेने वालों के कद बड़े. हम लोग सूखते जा रहे हैं और वे लोग ताकतवर होते जा रहे हैं. हमारी पूंछें तो जमीन पर लटकती जा रही हैं और उन की तनती जा रही हैं.

अजीब बात है कि हम लोगों को लगता है कि हमारी पूंछ में कोई हड्डी ही नहीं. बस चलाने वाले अकसर यह कहते है कि वे लोग बस में हमारी टांगें लगा कर उस को रेलगाड़ी बना देंगे और अगर आप का ऐसा ही सहयोग रहा तो एक दिन रेलगाड़ी को हवाईजहाज बना देंगे. उन की बातों में बहुत ही जोश है और बहुत ही उत्साह. सब लोग उन की ऐसी बातें सुन कर बहुत ही उत्साह में आ जाते हैं. सब को उन की बातें सुन कर ऐसा लगता है कि ये लोग एक न एक दिन उन को स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. हमारी बस को रेलगाड़ी और रेलगाड़ी को एक न एक दिन हवाईजहाज जरूर बना देंगे.

इसी विश्वास के साथ हम लोग हर बार उन की मांग के अनुसार उन को खून देने के लिए अपनेआप को उन के सम्मुख कर देते हैं. अपनी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर दे देते हैं, चाहे आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वाले टीकों के आकार बढ़ते जा रहे हों. हमारे कद छोटे होते जा रहे हैं और उन के बड़े. उन की पूंछें आसमान की ओर तनी जा रही हैं और हमारी जमीन पर लटकती जा रही हैं. लेकिन हम तो यही सोच कर अपना सबकुछ समर्पित करते जा रहे हैं कि एक न एक दिन ये लोग हमें स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. लेकिन हमारे नौजवान उन की आसमान की ओर तनी पूछें देख कर अकसर दांत पीसते नजर आते हैं.   यह भी खूब रही राम अपने कंजूस दोस्त श्याम को कथा सुनाने ले गया. दोनों जब वहां पहुंचे तो देखा कि चारों तरफ पंडाल रंगबिरंगे कपड़ों से सजा हुआ था. फूलमाला पहने कथावाचक लोगों को दानपुण्य की महिमा बता रहे थे. कहने का मतलब पूरी कथा में दानपुण्य की महिमा बताई गई थी. वापस आने के बाद राम ने पूछा, ‘‘अब तुम्हारा क्या विचार है दान देने के बारे में?’’

श्याम ने कहा, ‘‘भाई, मैं तो धन्य हो गया आज की कथा सुन कर. सोच रहा हूं, मैं भी दान मांगना शुरू कर दूं.’’ यह सुनते ही राम की बोलती बंद हो गई.

मेरा बेटा 9 महीने का था. दिसंबर का महीना होने की वजह से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. एक दिन रात को करीब 3 बजे मेरे बेटे ने सोते समय पोटी कर दी. दांत निकल रहे थे, इसलिए पोटी पतली होने की वजह से उस के पैर भी गंदे हो गए थे.

पानी एकदम बर्फ की तरह ठंडा होेने की वजह से मैं ने बराबर में दूसरे बिस्तर पर सो रहे अपने पति को उठाया कि थोड़ा पानी गरम कर दें. जिस से मैं बेटे की पोटी साफ कर सकूं और उसे ठंड न लगे. किंतु मेरी बहुत कोशिश के बावजूद मेरे पति उठने को तैयार नहीं हुए. करवट बदल कर दूसरी तरफ मुंह कर के लिहाफ में दुबक कर सो गए.

मजबूर हो कर मैं ने बर्फ जैसे पानी से ही अपने बेटे की पोटी को साफ किया. पानी इतना ठंडा था कि मेरा बेटा बुरी तरह रो रहा था. मेरी भी उंगलियां ठंडे पानी की वजह से गली जा रही थीं. किंतु मेरे पतिदेव अब भी लिहाफ से मुंह ढक कर सो रहे थे. मैं ने जैसेतैसे बेटे को कपड़े से पोंछ कर सुखाया और लिहाफ में गरम कर के सुला दिया.

किंतु मेरी आंखों में नींद बिलकुल नहीं थी. मुझे पति पर गुस्सा आ रहा था कि उन के पानी न गरम करने की वजह से मुझे अपने बेटे को ठंडे पानी से साफ करना पड़ा और उसे परेशानी हुई.

अचानक मैं उठी और वही बर्फ जैसा पानी बालटी में ले आई. फिर गहरी नींद में सो रहे अपने पति के ऊपर उलट दिया. अब गुस्सा होने की बारी उन की थी. उन्होंने उठ कर एक जोर का चांटा मेरे गाल पर जड़ दिया. किंतु, फिर भी मैं उन को गीला करने के बाद अपने लिहाफ में चैन से सो गई.

आज उस घटना को 18 वर्ष बीत चुके, किंतु अब भी उस घटना को याद कर के हम लोग हंस पड़ते हैं.

Interesting Hindi Stories : कुढ़न – औरत की इज्जत से खेलने पर आमादा समाज

Interesting Hindi Stories : हर साल इस नदी के किनारे मेला लगता है. इस बार भी मेला लगा. मेले में कमला भी रमिया बूआ को अपने साथ ले कर आई थीं. तभी जोर का शोर उठा.

2 संत वेशधारी आपस में जगह के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते कुछ ही देर में एक छोटी तमाशाई भीड़ जुट गई. जो संत वेशधारी अभीअभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उन का इस तरह झगड़ पड़ना मनोरंजन की बात बन गया.

कमला बहुत देख चुकी थीं ऐसे नाटक. क्या पुजारी, क्या मुल्ला, सभी अपना मतलब साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाने की कोशिश करते हैं. सब दुकानदारी करते हैं. डरा कर लोगों की अंटी ढीली कराते हैं. कमला के पति किसना पिछले कई महीनों तक बीमार रहे थे. डाक्टर ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई थी. कितना इलाज कराया, कितनी सेवा की उन की, तनमनधन से. अपने सारे जेवर, यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दीं. जिस ने जोजो बताया, वे सब करती चली गईं और आखिर में उन के किसना बिलकुल ठीक हो गए, बल्कि अब तो वे पहले से भी कहीं ज्यादा सेहतमंद हैं.

लोग कहते नहीं थकते हैं कि कमला अपने पति किसना को मौत के मुंह से वापस खींच कर ले आई हैं. इस बात से उन की इज्जत बढ़ी है. कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर रमिया बूआ का मन अभी भरा नहीं था.

‘‘अब चलो भी बूआ, बहुत देर हो गई है,’’ बूआ को मनातेसमझाते उन्हें अपने साथ ले कर कमला अपने घर की ओर लौट चलीं. अपनी झोंपड़ी की ओर कमला आगे बढ़ीं कि उन के इंतजार में आंखें बिछाए शन्नोमन्नो भाग कर आती दिखीं.

कमला ने प्यार से उन के लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दीं, तब तक किसना भी आ गए, कमला ने उन्हें भी मिठाई दे दी. तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया. एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत औरत कमला से आ लिपटी. इस धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलतेसंभलते भी लड़खड़ा गईं.

‘‘दीदी, मुझे अपनी शरण में ले लो. अब तो तुम्हारा ही आसरा है,’’ वह औरत बोली. ‘‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी? क्या हुआ?’’ उसे पहचानते ही किसी अनहोनी के डर से कमला का दिल बैठने लगा. किसना भी हैरानी से खड़े रहे.

लक्ष्मी को हांफतीकांपती देख कमला उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर ले आईं और पानी लाने के लिए मुड़ीं, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा. पानी का घूंट भरते ही लक्ष्मी ने रोतेबिलखते टूटे शब्दों में जो बताया, उस का मतलब यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मरद उसे अपने मांबाप के पास छोड़ कर दूसरे शहर में काम करने चला गया. कल सुबह तक तो सब ठीक ही चला, पर शाम को जब सासू मां रोज की तरह पड़ोस में चली गईं, उस के ससुर काम पर से जल्दी घर लौट आए और आते ही उस से पानी मांगा. जब वह पानी देने गई, तो उन्होंने उस का हाथ ही पकड़ लिया. उन की बदनीयती भांप कर उन्हें एक जोर से धक्का दे कर वह सीधी बाहर भाग ली.

लक्ष्मी का भोला चेहरा और रोने से गुड़हल सी लाल और सूजी आंखें देख कर कमला ने पूछा, ‘‘पर, तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा? कहीं कुछ हो जाता तो?’’ ‘‘नहीं दीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए यहां भाग आई. पहले तो कभी अकले घर की दहलीज भी नहीं लांघी थी, पर उस समय इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे. बस, फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर,’’ लक्ष्मी ने बताया.

कमला अपने जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ ले कर पीसीओ तक आई और उस के मरद से बात कराई. मरद से बात हो जाने पर लक्ष्मी ने किलकती आवाज में उन्हें बताया कि उस के मरद ने कहा है कि अभी वह दीदी के पास ही रहे.

झोंपड़ी पर पहुंच कर कमला ने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया. किसना दुकान से डबलरोटी ले आए. मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं. कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिला कर किसना को जरूरी हिदायतें दे कर लक्ष्मी को साथ ले कर अपने काम पर चल दी. मेहंदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है. उन्होंने काफी मेहमान बुला रखे हैं. लक्ष्मी साथ रहेगी, तो थोड़ा हाथ बंटा देगी. जल्दी काम हो जाएगा.

लक्ष्मी यह देख कर हैरान थी कि मेहंदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त थीं और साहब अकेले अपने कमरे में कंप्यूटर और मोबाइल फोन में बिजी थे. कमला ने लक्ष्मी से कहा, ‘‘जरा साहब को चाय दे आ.’’

अपने में मस्त साहब ने चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठा कर देखा और देखते ही मुसकरा कर उस से कुछ ऐसी हलकी बात कह दी कि वह घबरा कर फिर कमला के पास भाग गई. लौटते समय रास्ते में लक्ष्मी बोली, ‘‘इतने पढ़ेलिखे आदमी हैं, लेकिन नजरें बिलकुल वैसी ही.

‘‘हम लोग तो ढोरडंगरों की जिंदगी जीते हैं, पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं.’’ लक्ष्मी की इस बात पर कमला

चुप थीं. लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘‘दीदी, क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं?’’

‘‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते. अच्छेबुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं,’’ कमला ने कहा, फिर कुछ याद कर वे कहने लगीं, ‘‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब व मेमसाहब रहते थे और साथ में उन का एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था. दोनों ही एकदूसरे से बड़ा प्यार करते थे. मेमसाहब कभी झगड़ती भी थीं, तो साहब उन्हें प्यार से मना लेते थे.

‘‘उन्होंने अपने ही घर में एक बड़े कमरे में कोई प्रयोगशाला बनाई थी, वहीं दोनों मिल कर कुछ किया करते, फिर एक दिन…’’ कहतेकहते कमला का गला रुंध आया, ‘‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं. साहब बाहर चंदा मांगने वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें… ‘‘साहब बदहवास अंदर भागे. वहां सब धूंधूं कर जल रहा था. मेमसाहब और बच्चे को साहब जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए…

‘‘वे खुद भी बुरी तरह झुलस गए थे, एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया. फिर उन के कई आपरेशन हुए. बाद में चलनेफिरने लायक होते ही अपनी सारी जायदाद महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर न जाने कहां चले गए. ‘‘कुछ लोग बताते हैं कि वे शायद वैरागी हो गए हैं,’’ कमला ने एक गहरी सांस ली.

बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोंपड़ी आ गई थी. कमला ने झोंपड़ी के अंदर ही शन्नोमन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने का इंतजाम कर दिया. वे और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे.

अचानक ही किसी ने कमला को झकझोर कर उठा दिया. थरथर कांपती लक्ष्मी उन के कान में फुसफुसा रही थी, ‘‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी.’’ कमला झटके से उठीं, ढिबरी जला कर पूरी झोंपड़ी में देखने लगीं. कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा. कहीं कोई नहीं था.

‘‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां,’’ चिढ़ कर कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को, फिर वे रसोई की तरफ बढ़ी थीं कि वहां उकड़ू बैठे, मुंह छिपाए अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोलीं, ‘‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा. मैं दरवाजे पर बैठी हूं.’’ अंधेरे में कमला ने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया. फिर वे भरभरा कर दरवाजे पर ही ढह गईं.

Hindi Fiction Stories : समन का चक्कर – थानेदार की समझाइशों का जगन्नाथ पर कैसा हुआ असर

Hindi Fiction Stories :  अजीब मुसीबत है भई, जब मैं जगन्नाथ हूं तो विश्वनाथ नाम का चोला क्यों गले में डालूं. थानेदार की समझाइशों का असर मुझ पर होने ही वाला था कि दिमाग की बत्ती जल गई वरना हम तो गए थे काम से.

घर पहुंचा तो माताश्री ने एक कागज मेरी ओर बढ़ाया, ‘‘2 पुलिस वाले आए थे, उन्होंने कहा, जब तुम घर पहुंचो तो तुम्हें यह दिखला दूं.’’

पुलिस की बात सुनते ही मेरे हाथपांव फूल गए. कागज फौरन मैं ने लपक लिया. यह एसडीएम कोर्ट से जारी किसी विश्वनाथ नामक व्यक्ति के लिए समन था. इसे पुलिस वाले बिना पूछताछ किए मेरी माताजी को थमा कर चले गए थे. गांव की निपट मेरी अशिक्षित माताश्री ने बिना सोचेसमझे इसे ले कर ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी स्थिति मेरे लिए कर दी थी.

मामला कोर्ट का था. इस आई बला को टालने मैं फौरन थाने जा पहुंचा. पुलिस वालों की गलती बताते हुए समन वापस करना चाहा तो थानेदार ने हवलदार को तलब किया.

‘‘महल्ले वालों ने ही इन के घर का पता बताया था,’’ मुझे टारगेट करते हुए हवलदार ने बयान दिया,  ‘‘घर के बाहर टंगी इन की नेमप्लेट और यहां तक कि घर का नंबर मिलान करने के बाद ही समन तामील किया था.’’

‘‘अब तुम इनकार कर ही नहीं सकते, तुम वे नहीं हो, जिसे समन तामील किया गया है. यह समन तुम्हारा ही है. संभाल कर इसे रखो. बड़े काम की चीज है यह तुम्हारे लिए. कोर्ट में हाजिरी के समय इसे दिखाना पड़ेगा,’’ थानेदार ने मुझे समन का हकदार बता दिया.

बहरहाल, समन तामीली के सिलसिले में हवलदार ने मेरे घर का नंबर और उस के बाहर टंगी नेमप्लेट का हवाला दिया तो आखिर माजरा क्या है, मेरी समझ में आ गया.

दरअसल, जिस घर में मैं रहने लगा हूं, 2 दिन ही हुए थे किराए पर लिए उसे. पहले के किराएदार को 2-3 दिन ही हुए थे इसे खाली किए. घर खाली उस ने कर तो दिया, अपनी नेमप्लेट ले जाना भूल गया. यह विश्वनाथ वही व्यक्ति था, समन जिसे जारी किया गया था. घर को ठीक करने की हड़बड़ी में उस की नेमप्लेट की ओर मैं ध्यान दे नहीं पाया. इसी को देख कर पुलिस वालों ने माना होगा कि विश्वनाथ रहता यहीं है. वे मेरी माताजी को विश्वनाथ की माता समझ कर समन सौंप कर चले गए होंगे.

इस पूरे घटनाक्रम का बयान कर थानेदार के सामने मैं ने अपनी बात रखी, ‘‘फिर भी समन देते समय पुलिस वालों को साफसाफ बतला देना था कि वह किस के नाम है?’’

‘‘कहना तो तुम्हें यह चाहिए कि तामील करते वक्त महल्ले वालों का पंचनामा बनवा क्यों नहीं लिया गया?’’ थानेदार पुलिस की गलती मानने को तैयार नहीं था, ‘‘चूक सरासर तुम्हारी है, घर किराए पर लेते समय देख तो लेना था. बिना देखे आपराधिक रिकौर्ड वाले किराएदार के बाद घर आंख मूंद कर ले लिया. ऊपर से घर के बाहर टंगी उस की नेमप्लेट का इस्तेमाल भी करते रहे. आप को इस का मोल कभी न कभी चुकाना ही था. जब चुकाने की बारी आई तो अपनी गलतियों का ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ने लगे.’’

‘‘आप की बातें अपनी जगह ठीक हैं, पर इस समन का मैं करूंगा क्या?’’ थानेदार को मैं ने मनाने की कोशिश की कि समन वापस ले कर वे मुझे बख्श दें.

‘‘समन की तामीली रिपोर्ट कोर्ट में पेश की जा चुकी है. अब करना जो भी है, वह कोर्ट तय करेगा. तुम्हारे हक में करने को बस यह है कि समय पर कोर्ट में हाजिर हो जाओ,’’ थानेदार ने एक तरह से मेरी बेचारगी की बात कही.

‘‘क्या मैं आप को बलि का बकरा नजर आता हूं, विश्वनाथ के बदले जिस की बलि दी जा सके. अजीब मुसीबत है. मैं जब विश्वनाथ हूं ही नहीं, कोर्ट में फिर पेश क्यों होऊं? मुझे नहीं होना कोर्ट में पेश.’’

‘‘गिरफ्तारी वारंट जब जारी होगा, फिर तो होओगे न कोर्ट में पेश?’’ मेरी जिद का खमियाजा भुगतने की वह चेतावनी देने लगा.

‘‘यह तो नाइंसाफी है,’’ मैं ने विरोध किया.

‘‘समन जिस के करकमलों में दिया जाता है, बाद में जब उस की गिरफ्तारी की नौबत आती है, तुम्हीं बताओ, पुलिस किसे करेगी गिरफ्तार?’’ थानेदार ने कानून की दुहाई दी, ‘‘नाइंसाफी तब होगी जब समन की तामीली किसी और को और गिरफ्तारी किसी और की की जाएगी.’’

‘‘कोईर् तोड़ तो होगा इस चक्रव्यूह को भेदने का?’’ मैं ने उपाय पूछा.

‘‘इतनी देर से मैं तुम को समझा क्या रहा हूं? तुम्हारी मुक्ति के सभी रास्ते बंद हैं सिवा एक के, वह जाता सीधे कोर्ट को है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर जैसे ही जाने को हुआ, थानेदार के मन में अचानक मेरे लिए सहानुभूति उमड़ पड़ी, ‘‘वैसे क्या नाम बताया था आप ने अपना?’’

‘‘यदि मैं अपने मौलिक नाम के साथ कोर्ट में हाजिर होऊं तो? जानबूझ कर दूसरे का अपराध अपने सिर लेने की इजाजत मेरा जमीर मुझे दे नहीं रहा है.’’

‘‘मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि इतना समझाने के बावजूद तुम्हारे अंदर की गलत सोच जा क्यों नहीं रही? ठीक है, अपनी असलियत साबित करने के लिए कोर्ट के जब चक्कर पे चक्कर लगाने पड़ेंगे, फिर यह भी याद नहीं रहेगा कि जमीर किस चिडि़या का नाम है? कान उलटा क्यों पकड़ना चाहते हो?’’ थानेदार ने कोर्ट की दुनियादारी से रूबरू करवाया.

‘‘आप के कहने का मतलब है कि मेरी भलाई इसी में है कि कोर्ट के लिए मैं विश्वनाथ बना रहूं.’’

‘‘लगता है, तुम्हारे भेजे में बात घुसती देर से है,’’ उस ने मुझे आश्वस्त करने का प्रयास किया, ‘‘अभी तक मैं तुम्हें समझा क्या रहा हूं?’’

‘‘इतना भर और समझा दीजिए कि कोर्ट के सामने मुझे कहना क्या होगा?’’

‘‘मेरी समझाइशों का असर तुम पर होने लगा है,’’ उत्साहित हो कर उस ने कार्यक्रम बताया, ‘‘एसडीएम साहब के सामने कान पकड़ कर तुम्हें कहना है कि भविष्य में तुम महल्ले वालों से लड़ाईझगड़ा करने से तोबा करते हो. एकदो पेशी के बाद व्यवहार ठीक रखने की शर्त पर कोर्ट मामला बंद कर देगा.’’

दूसरे दिन एसडीएम कोर्ट जा कर पेशकार से मिला. मामले की पूरी जानकारी उसे दी. साथ ही, इस के निबटारे की दिशा में थानेदार की सलाह पर उस की प्रतिक्रिया जाननी चाही. यह सोच कर कि कहीं पुलिस वालों की गलती पर परदा डालने के लिए दूसरे का अपराध अपने सिर लेने के लिए थानेदार मुझे प्रोत्साहित तो नहीं कर रहा?

‘‘ऐसी खास सलाह कोई सुलझा हुआ पुलिस वाला ही दे सकता है,’’ थानेदार की वह प्रशंसा करने लगा, ‘‘भावुकता में बह कर भूले से भी अपनी असलियत कोर्ट को जाहिर मत कर देना.’’

‘‘वरना?’’ नतीजा मैं ने जानना चाहा.

‘‘थानेदार ने बताया नहीं?’’

‘‘आप के श्रीमुख से भी सुनना चाहता हूं.’’

‘‘मालूम होता है कि कोर्ट से पाला कभी पड़ा नहीं आप का. आप के कहने भर से कोर्ट आप को जगन्नाथ नहीं मान लेगा, साबित करना पड़ेगा? खुद को खुद साबित करने आप को जाने कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे. मामले में पेशीदरपेशी से परेशान हो कर हो सकता है कि इस के लिए आप को किसी वकील की सेवा में जाना पड़े. इस चक्कर में गांठ से पैसा जाएगा, सो अलग.’’ उस ने भी वही बात कही, जो थानेदार ने मुझ से कही थी.

‘‘कोर्टकचहरी के चक्कर में कभी पड़े?’’ कुछ देर बाद उस ने जानना चाहा.

‘‘नहीं.’’

‘‘तो विश्वनाथ बन कर अब पड़ जाओ. लेकिन इस मौके को हाथ से जाने मत दो. असल मामले में अदालत से सामना जब होगा, इस का तजरबा आप के काम आएगा,’’ प्रेरित करतेकरते वह उपदेश देने लगा, ‘‘आप को तो विश्वनाथजी का एहसानमंद होना चाहिए जिस की बदौलत अदालती कार्यवाहियों से रूबरू होने का मौका जो आप को मिलने जा रहा है.’’

सलाह के लिए उस का शुक्रिया अदा कर जैसे ही जाने लगा, उस ने मुझ से पूछ लेना जरूरी समझा, ‘‘यह तो बताते जाओ कि पेशी में पालनहार के किस रूप में अवतरित होगे?’’ उस ने आगे खुलासा किया, ‘‘कहने का मतलब है कि विश्वनाथ बन कर या जगन्नाथ के नाम से? पूछ इसलिए रहा हूं, यदि जगन्नाथ के रूप में प्रकट होना है तो आप की सुविधा के लिए कोई वकील तय कर के रखूंगा.’’

‘‘थानेदार और आप की लाख समझाइशों के बावजूद क्या मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो जगन्नाथ का चोला पहन कर आऊं?’’ हालत के मद्देनजर आखिरकार मैं ने हथियार डाल दिया, ‘‘समझ लीजिए जगन्नाथ तब तक के लिए मर गया है जब तक कोर्ट के लिए विश्वनाथ जिंदा है,’’ मैं ने उसे यकीन दिलाया.

‘‘यह की न बुद्धिमानों वाली बात.’’ अपनी शहादत के लिए अनुकूल विकल्प चुनने पर मेरी तारीफ किए बिना वह रह नहीं सका.

घर पहुंचते ही फौरन उस को खाली करने में मैं ने अपनी खैरियत समझी. इस आशंका से कि मेरा पर्यायवाची ‘विश्वनाथ’ इस घर में रहते हुए जाने और क्याक्या गुल खिला कर गया हो? उस के दुष्कमों का अदृश्य साया इस घर पर मंडराते हुए मुझे महसूस होने लगा था.

लेखक- दौलतराम देवांगन

Hindi Moral Tales : मंदिर – क्या अपनी पत्नी और बच्चों का कष्ट दूर कर पाएगा परमहंस

Hindi Moral Tales : परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’ ‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला. ‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं. दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया. बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली.

प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा. 2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’ निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता.

बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’ ‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं.

क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’ सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए.

वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया. तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा. लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा.

कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से? परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए. एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’ साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’ परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’ वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’ उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया.

यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’ ‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा. ‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था. विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए. अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई. ‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई.

वह लाख चिल्लाई मगर बहरे होने के कारण पास ही के कमरे में रहते हुए बाबूजी कुछ सुन न सके. इस प्रकार मां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई.’ मनसाराम के मुख से मां के जलने की बात जान कर विधवा की उत्सुकता बढ़ गई और वह बोली, ‘आप को कैसे पता चला?’ ‘बेटी, कल रात मैं ने स्वप्न में देखा कि एक बुजुर्ग महिला जल रही है. वह मुक्ति के लिए छटपटा रही है,’ मनसाराम रहस्यमय ढंग से बोले, ‘इस घटना को 20 साल गुजर चुके थे फिर भी मां को मुक्ति नहीं मिली. मिलेगी भी तो कैसे? अकाल मृत्यु वाले बिना पूजापाठ के नहीं छूटते. उन की आत्मा भटकती रहती है.’

यह सुन कर वह विधवा जजमान भावुक हो उठी. उस ने मुक्ति पाठ कराना मंजूर कर लिया. इस तरह मनसाराम को जो अतिरिक्त दक्षिणा मिली तो वह उस का जिक्र घर आने पर अपनी पत्नी से करना न भूले. परमहंस छोटा था पर इतना भी नहीं कि समझ न सके. उसे पिताजी की कही एकएक बात आज भी याद है जो वह मां को बता रहे थे. जजमान अधेड़ विधवा थी. पास के ही गांव में ग्रामसेविका थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सो चलतेचलते सोचा, क्यों न कुछ और ऐंठ लिया जाए. शाम को रामायण पाठ खत्म होने के बाद मैं गांव में टहल रहा था कि एक जगह कुछ लोग बैठे आपस में कह रहे थे कि इस विधवा ने अखंड रामायण पाठ करवा कर गांव को पवित्र कर दिया और अपनी मां को भी. मां की बात पूछने पर गांव वालों ने उन्हें बताया कि 20 बरस पहले उन की मां जल कर मरी थी.

बस, मैं ने इसी को पकड़ लिया. स्वप्न की झूठी कहानी गढ़ कर अतिरिक्त दक्षिणा का भी जुगाड़ कर लिया. और इसी के साथ दोनों हंस पडे़. परमहंस के मन में भी ऐसा ही एक विचार जागा, ‘‘आप के पास कुंडली तो होगी?’’ ‘‘हां, घर पर है,’’ सावित्री ने जवाब दिया. ‘‘आप चाहें तो मुझे एक बार दिखा दें, मैं आप को कष्टनिवारण का उपाय बता दूंगा,’’ परमहंस ने इतने निश्छल भाव से कहा कि वह ना न कर सकी. सावित्री तो परमहंस से इतनी प्रभावित हो गई कि घर आने तक का न्योता दे दिया.

परमहंस यही तो चाहता था. सावित्री का अच्छाखासा मकान था. देख कर परमहंस के मन में लालच आ गया. वह इस फिराक में पड़ गया कि कैसे ऐसी कुछ व्यवस्था हो कि कहीं और जाने की जरूरत ही न हो और यह तभी संभव था जब कोई मंदिर वगैरह बने और वह उस का स्थायी पुजारी बन जाए. काशी में धर्म के नाम पर धंधा चमकाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती.

वह तो उस ने घाट पर ही देख लिया था. मानो दूध गंगा में या फिर बाबा विश्वनाथ को लोग चढ़ा देते हैं. भले ही आम आदमी को पीने के लिए न मिलता हो. सावित्री ने उस की अच्छी आवभगत की. परमहंस कुंडली के बारे में उतना ही जानता था जितना उस का पिता मनसाराम. इधरउधर का जोड़घटाना करने के बाद परमहंस तनिक चिंतित सा बोला, ‘‘ग्रह दोष तो बहुत बड़ा है. बेटे पर हमेशा बना रहेगा.’’ ‘‘कोई उपाय,’’ सावित्री अधीर हो उठी. उपाय है न, शास्त्रों में हर संकट का उपाय है, बशर्ते विश्वास के साथ उस का पालन किया जाए,’’ परमहंस बोला, ‘‘होता यह है कि लोग नास्तिकों के कहने पर बीच में ही पूजापाठ छोड़ देते हैं,’’ कुंडली पर दोबारा नजर डाल कर वह बोला, ‘‘रोजाना सुंदरकांड का पाठ करना होगा व शनिवार को हनुमान का दर्शन.’’

‘‘हनुमानजी का आसपास कोई मंदिर नहीं है. वैसे भी जिस मंदिर की महत्ता है वह काफी दूर है,’’ सावित्री बोली. परमहंस कुछ सोचने लगा. योजना के मुताबिक उस ने गोटी फेंकी, ‘‘क्यों न आप ही पहल करतीं, मंदिर यहीं बन जाएगा. पुण्य का काम है, हनुमानजी सब ठीक कर देंगे.’’ सावित्री ने सोचने का मौका मांगा. परमहंस उस रोज वापस घाट चला आया. सिपाही पहले से ही वहां बैठा था. ‘‘कहां चले गए थे?’’ सिपाही ने पूछा तो परमहंस ने सारी बातें विस्तार से उसे बता दीं. ‘‘ये तुम ने अच्छा किया. भाई मान गए तुम्हारे दिमाग को. महीना भी नहीं बीता और तुम पूरे पंडे हो गए,’’ सिपाही ने हंसी की.

उस के बाद परमहंस सावित्री का रोज घाट पर इंतजार करने लगा. करीब एक सप्ताह बाद वह आते दिखाई दी. परमहंस ने जल्दीजल्दी अपने को ठीक किया. रामनामी सिरहाने से उठा कर बदन पर डाली. ध्यान भाव में आ कर वह कुछ बुदबुदाने लगा. सावित्री ने आते ही परमहंस के पांव छुए. क्षणांश इंतजारी के बाद परमहंस ने आंखें खोलीं. आशीर्वाद दिया. ‘‘मैं ने आप का ध्यान तो नहीं तोड़ा?’’ ‘‘अरे नहीं, यह तो रोज का किस्सा है. वैसे भी शास्त्रों में ‘परोपकार: परमोधर्म’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. आप का कष्ट दूर हो इस से बड़ा ध्यान और क्या हो सकता है मेरे लिए.’’ परमहंस का निस्वार्थ भाव उस के दिल को छू गया. ‘‘महाराज, कल रात मैं ने स्वप्न में हनुमानजी को देखा,’’ सावित्री बोली. ‘‘इस से बड़ा आदेश और क्या हो सकता है, रुद्रावतार हनुमानजी का आप के लिए.

अब इस में विलंब करना उचित नहीं. मंदिर का निर्माण अति शीघ्र होना चाहिए,’’ गरम लोहे पर चोट करने का अवसर न खोते हुए परमहंस ने अपनी शातिर बुद्धि का इस्तेमाल किया. ‘‘पर एक बाधा है,’’ सावित्री तनिक उदास हो बोली, ‘‘मैं ज्यादा खर्च नहीं कर सकती.’’ परमहंस सोच में पड़ गया. फिर बोला,‘‘कोई बात नहीं. आप के महल्ले से चंदा ले कर इस काम को पूरा किया जाएगा.’’ और इसी के साथ सावित्री के सिर से एक बड़ा बोझ हट चुका था. परमहंस कुछ पैसा घर भेजना चाह रहा था मगर जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. उस के मन में एक विचार आया कि क्यों न ग्रहशांति के नाम से हवनपूजन कराया जाए. सावित्री मना न कर सकेगी. परमहंस के प्रस्ताव पर सावित्री सहर्ष तैयार हो गई.

2 दिन के पूजापाठ में उस ने कुल 2 हजार बनाए. कुछ सावित्री से तो कुछ महल्ले की महिलाओं के चढ़ावे से. मौका अच्छा था, सो परमहंस ने मंदिर की बात छेड़ी. अब तक महिलाएं परमहंस से परिचित हो चुकी थीं. उन सभी ने एक स्वर में सहयोग देने का वचन दिया. परमहंस ने इस आयोजन से 2 काम किए. एक अर्थोपार्जन, दूसरे मंदिर के लिए प्रचार. सावित्री का पति फौज में था. फौजी का गौरव देश के लिए हो जाने वाली कुरबानी में होता है. देश के लिए शहीद होना कोई ग्रहों के प्रतिकूल होने जैसा नहीं. जैसा की सावित्री सोचती थी. सावित्री का बेटा हमेशा बीमार रहता था.

यह भी पर्याप्त देखभाल न होने की वजह से था. सावित्री का मूल वजहों से हट जाना ही परमहंस जैसों के लिए अपनी जमीन तैयार करने में आसानी होती है. परमहंस सावित्री की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहा था. दुर्गा पूजा नजदीक आ रही थी, सो महल्ला कमेटी के सदस्य सक्रिय हो गए. अच्छाखासा चंदा जुटा कर उन्होंने एक दुर्गा की प्रतिमा खरीदी. पूजा पाठ के लिए समय निर्धारित किया गया तो पता चला कि पुराने पुरोहितजी बीमार हैं. ऐसे में किसी ने परमहंस का जिक्र किया. आननफानन में सावित्री से परमहंस का पता ले कर कुछ उत्साही युवक उसे घाट से लिवा लाए. परमहंस ने दक्षिणा में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि उस ने दूर तक की सोच रखी थी.

पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’ धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है.

हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं. इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’ चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी.

उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता. परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’ मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया.

यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था. परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी.

पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.

Latest Hindi Stories : पीर साहब – मां बनने की क्या नफीसा की मुराद पुरी हुई

 Latest Hindi Stories : नफीसा को तो पता ही नहीं चला कि नदीम कब उस के पास आ कर खड़ा हो गया था. जब नदीम ने उस के कंधे पर हाथ रखा तो वह चौक पड़ी और पूछा, ‘‘आप यहां पर कब आए जनाब?’’

‘‘जब तुम ने देखा,’’ कहते हुए नदीम ने नफीसा को गौर से देखा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’ नफीसा ने शरारत भरे लहजे में पूछा.

‘‘तुम वाकई बहुत खूबसूरत हो. ऐसा लगता है जैसे कमरे में चांद उतर आया है,’’ नदीम ने नफीसा की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘आप की दीवानगी भी निकाह के 7 साल बाद भी कम नहीं हुई है,’’ नफीसा हंसते हुए बोली.

‘‘क्या करूं, यह तुम्हारे हुस्न की ही करामात है,’’ नदीम उस की हंसी को गौर से देखे जा रहा था.

‘‘बस… बस, मेरी ज्यादा तारीफ मत कीजिए,’’ कह कर नफीसा उठ कर जाने लगी तो नदीम ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘क्या कर रहे हैं आप… कोई आ जाएगा,’’ नफीसा बोली तो नदीम ने उस का हाथ छोड़ दिया और वह मुसकराते हुए कमरे से चली गई.

रात घिर चुकी थी. न जाने क्यों रात होते ही नफीसा घबरा जाती. उसे डर सा लगने लगता. नदीम उस के बगल में सो रहा होता था, मगर उसे लगता जैसे वह उस के पास रह कर भी अकेली है.

नफीसा सोचने लगी, ‘कितने साल गुजर गए या गुजरते जा रहे हैं… बिन बादल और प्यास से भरी जिंदगी में पानी तलाशते हुए हवा के साथ मैं बहुत दूर निकल जाती हूं, मगर मुझे कोई सहारा नजर नहीं आता है. बारिश का एक कतरा सीप के अंदर मोती पैदा कर देता है… मगर मैं?’

रात का पहला पहर बीत चुका था, मगर नफीसा जाग रही थी. न जाने उस ने ऐसी ही कितनी रातें आंखों में काटी थीं और दिन की तपती धूप में समय गुजारा था.

नफीसा खुश रहने की भरसक कोशिश करती, लेकिन एक कसक थी जो उसे हमेशा तड़पाए रहती. शादी के 7 साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक मां नहीं बन सकी थी.

नफीसा को दिल के पास एक चुभन और घुटन सी महसूस होती. उस की आंखें आसमान से हट कर जमीन पर टिक जाती थीं.

यह जमीन भी न जाने कितनी ही चीजें पैदा करती है. अनाज से ले कर कोयला, पत्थर, सोना और लोहा भी, मगर उस की अपनी जमीन जैसे बंजर हो गई थी.

कभीकभी नफीसा पलंग पर निढाल हो कर सिसकने लगती. मगर कुसूर उस का नहीं था और न ही कमी नदीम में थी. फिर इस बात का इलजाम किस पर लगाया जाए.

नदीम नफीसा को हर तरह से खुश रखने की कोशिश करता, मगर नफीसा जब नदीम की अम्मां का चेहरा देखती तो कांप सी जाती. जबान से न कहते हुए भी आंखों और चेहरे से मां बहुतकुछ कह जातीं, ‘मुझे तो खानदान की फिक्र है. ऐसा लगता है, अब खानदान का यहीं पर खात्मा हो जाएगा. घर में कोई चिराग जलाने वाला भी न होगा. कोई फातिहा भी न पढ़ेगा.’

न जाने कितनी बातें, शिकायतें और ताने अम्मां के चेहरे से जाहिर थे, मगर बेटे की वजह से मानो उन की जबान गूंगी हो गई थी.

नफीसा बखूबी समझती भी थी कि अम्मां अंदर ही अंदर दुख से भरी हैं और यह लावा किसी दिन भी ज्वालामुखी बन कर बाहर आ सकता है. फिर शायद नदीम भी उस से अपनेआप को महफूज न रख पाए और अम्मां के कहने पर कोई ऐसा कदम उठा ले, जो उस के वजूद को तारतार कर दे… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उस का नदीम ऐसा हरगिज नहीं कर सकता. वह उसे जुनून की हद तक मुहब्बत करता है.

नफीसा ने कई बार जानेमाने डाक्टरों को दिखाया. तावीज और मिन्नत का सहारा लिया लेकिन मायूसी के सिवा कुछ न मिला.

नदीम ने भी माहिर डाक्टर के पास जा कर अपना चैकअप कराने में कोई कसर न उठा रखी थी, फिर भी नफीसा का दामन खाली ही रहा.

नफीसा हर उस हसीन लमहे का इंतजार करती, जब उस की उम्मीद पूरी हो, उस की गोद भरे और वह खुशी से फूली न समाए, लेकिन जैसे खुशी उस से रूठ गई थी.

अम्मां चाहती थीं कि जल्द से जल्द उन का घर बच्चे की किलकारियों से गूंज उठे. 2 नन्हेनन्हे हाथ उन की तरफ बढ़ें. लड़खड़ाते कदमों से कोई उन की तरफ कदम बढ़ाए और वे दौड़ कर उसे गले लगा लें. उसे खूब चूमें और सारा प्यार उस पर न्योछावर कर दें.

इस के लिए नफीसा ने हर तरह की कोशिश की, दवा से ले कर दुआ तक. यहां तक कि अब उस ने मजारों की भी खाक छाननी शुरू कर दी थी कि शायद उस का घर रोशन हो जाए.

शहर में उन दिनों शाह सलमान शफीउद्दीन की काफी चर्चा थी. दूरदूर तक उन के मुरीद थे. एक जमाने में नदीम की अम्मां भी उन की मुरीद हो चुकी थीं. उस समय नदीम के पिता जिंदा थे. लेकिन फिर कभी उन के पास जाने का इत्तिफाक न हुआ था.

आज अचानक मां को उन की याद आ गई और वे पीर साहब के पास पहुंच गईं. उन्होंने अपना परिचय दिया तो पीर साहब फौरन पहचान गए और खैरियत पूछी, तो अम्मां रोंआसी हो कर बोलीं, ‘‘मेरे बेटे के निकाह को 7 साल हो गए हैं, लेकिन अब तक कोई औलाद नहीं हुई. हालांकि डाक्टर को भी दिखाया. दोनों में कोई कमी नहीं है, फिर भी न जाने क्या…’’

पीर साहब कुछ देर तक खामोश रहे, फिर बोले, ‘‘ऐसा करो, तुम सोमवार को अपनी बहू को दोपहर में मेरे पास ले कर आओ. मैं देखता हूं, शायद परेशानी का कोई हल निकल आए.’’

घर लौटते ही अम्मां ने बेटाबहू दोनों को सारी बातें बताईं. नदीम ने भी हामी भर दी, ताकि अम्मां को इतमीनान हो जाए.

नफीसा ने पीर साहब की  इतनी तारीफ सुनी कि वह भी उन की इज्जत करने लगी.

सोमवार को अम्मां जब नफीसा को ले कर घर से निकलीं तब तक नदीम दफ्तर जा चुका था.

जब अम्मां नफीसा को ले कर पीर साहब के पास पहुंचीं, उस समय वहां उन का कोई चेला मौजूद नहीं था.

दोनों ने जा कर पीर साहब को सलाम किया.

पीर साहब ने आंखें खोल कर दोनों को देखा. उन की निगाहें नफीसा पर टिक गईं.

कुछ देर तक पीर साहब नफीसा को गौर से देखते रहे, फिर दुआ की और एक कागज और कलम संभाली.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ उन्होंने गंभीर हो कर पूछा.

‘‘नफीसा.’’

‘‘शौहर का नाम?’’

‘‘नदीम,’’ इस बार अम्मां बोलीं.

‘‘और अब्बा का नाम?’’

‘‘जी, अब्दुल,’’ नफीसा ने कहा.

‘‘अम्मां का?’’

‘‘हाजरा.’’

‘‘तुम्हारा निकाह कब हुआ था? निकाह की तारीख याद है क्या?’’

‘‘24 नवंबर को.’’

तमाम ब्योरा लिख कर पीर साहब काफी देर तक हिसाबकिताब मिलाते रहे और वे दोनों पीर साहब को देखती रहीं.

कुछ सोच कर पीर साहब ने अम्मां से पूछा, ‘‘अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो मैं अकेले में इस से कुछ और पूछना चाहता हूं.’’

‘‘पीर साहब, आप कैसी बातें करते हैं, मुझे कोई एतराज नहीं,’’ अम्मां ने कहा.

पीर साहब उठे और नफीसा को इशारे से अंदर चलने को कहा.

नफीसा पलभर के लिए झिझकी. उस ने सास की तरफ देखा और उन का इशारा पा कर उठ खड़ी हुई.

दूसरी तरफ पीर साहब का कमरा था. जब दोनों उस कमरे में दाखिल हुए तो पीर साहब ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

नफीसा का दिल धक से रह गया. अकेले कमरे में दूसरे मर्द के साथ खुद को देख कर वह पसीनापसीना हो गई. मगर उसे इतमीनान भी हो गया कि वह पीर साहब के साथ है और बाहर सास भी बैठी हैं. यह सब उन्हीं के कहने के मुताबिक हो रहा?है.

‘‘सामने पलंग पर बैठ जाओ,’’

कह कर उन्होंने शैल्फ से एक किताब निकाली. पन्ने उलटपलट किए, फिर नफीसा को देखा.

नफीसा पलंग पर बैठी इधरउधर नजरें घुमा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि पीर साहब क्या करेंगे. पीर साहब जो कागज साथ लाए थे, उस पर निगाह डाली. कुछ बुदबुदाए.

उस के बाद पीर साहब ने किताब को शैल्फ में वापस रखा. कागज को देखते हुए वह नफीसा के बिलकुल पास आ कर बैठ गए.

नफीसा ने चाहा कि वह अलग हट जाए, मगर न जाने क्यों उस की हिम्मत जवाब दे चुकी थी. पता नहीं, पीर साहब बुरा मान जाएं और…

‘‘नफीसा, तुम्हें औलाद चाहिए?’’ कहते हुए पीर साहब ने नफीसा के सिर पर हाथ रख दिया. नफीसा का गला सूखने लगा था. कोई आवाज न निकली. उस ने आहिस्ता से ‘हां’ में सिर हिला दिया.

‘‘डाक्टर ने मुआयना करने के बाद बताया कि तुम दोनों में कोई खराबी नहीं है?’’ पीर साहब ने पूछा.

नफीसा इस बार भी मुश्किल से सिर हिला सकी.

‘‘फिर तो तुम्हें मेरी पनाह में आना होगा,’’ पीर साहब ने जोर दे कर कहा.

नफीसा ने सिर उठा कर पीर साहब को देखा. यह बात उस की समझ से बाहर थी.

‘‘मेरी आंखों में देखो,’’ कहते हुए पीर साहब और करीब आ गए.

नफीसा ने उन की आंखों में झांका. उन की आंखों में लाललाल डोरे तैर रहे थे. वह सहम सी गई.

तभी पीर साहब की आवाज ने उसे खौफ के अंधेरे कुएं की तरफ धकेल दिया, ‘‘अगर तुम ने औलाद पैदा न की, तो तुम्हारी जिंदगी दूभर हो जाएगी. तुम्हारी सास तुम्हें ताने देदे कर खुदकुशी करने पर मजबूर कर देगी और शौहर भी एक दिन मजबूर हो कर दूसरी शादी कर लेगा.’’

‘‘मगर… मगर, मैं कर भी क्या सकती हूं?’’

‘‘तुम बच्चा पैदा कर सकती हो.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘मेरे करीब आओ,’’ पीर साहब ने कहा, तो नफीसा थोड़ा झिझकते हुए जरा सरकी.

नफीसा पर किसी तरह का खुमार सा चढ़ रहा था या औलाद पाने की ख्वाहिश थी, जिस ने उस की शर्म की सारी जंजीरें एक झटके के साथ तोड़ दीं.

बाहर अम्मां उम्मीदों का गुलशन सजाए इंतजार कर रही थीं कि पीर साहब जरूर ऐसा काम करेंगे कि उस की बहू औलाद से महरूम नहीं रहेगी.

काफी देर बाद वे दोनों बाहर आए. नफीसा ने सिर पर आंचल डाल रखा था.

‘‘पीर साहब, मेरी बहू मां बनेगी न?’’ अम्मां ने बेकरारी से पूछा.

‘‘मैं ने इलाज कर दिया है. अगर ऊपर वाले ने चाहा तो यह जल्द ही मां बन जाएगी, लेकिन इस के लिए नफीसा को यहां 1-2 बार और आना पड़ेगा,’’ पीर साहब ने कहा.

‘‘क्यों नहीं, आप कहेंगे तो यह जरूर आएगी… अगर यह मां बन गई तो मैं हमेशा आप की शुक्रगुजार रहूंगी,’’ अम्मां ने खुश होते हुए कहा.

पीर साहब अम्मां की बात अनसुनी कर के नफीसा से बोले, ‘‘नफीसा, मैं ने जैसा तुम से कहा है, वैसा ही करना. अगर कोई परेशानी हो, तो फिर चली आना. मेरा दिल कहता है कि तुम जरूर मां बनोगी.’’

नफीसा ने सिर उठा कर कुछ देर तक पीर साहब को देखा और दोबारा सिर झुका लिया.

पीर साहब के आश्वासन के बाद अम्मां बेहद खुश थीं. वे नफीसा को ले कर घर की तरफ चल पड़ीं.

घर की दहलीज पर कदम रखते ही नफीसा की आंखों से आंसुओं की मोटीमोटी बूंदें छलक पड़ीं, जिन्हें जल्दी से उस ने अपने आंचल में छिपा लिया. पता नहीं, ये आंसू औलाद पाने की खुशी के थे या इज्जत लुटने के गम के…

लेखक- अहमद सगीर

Hindi Kahaniyan : काश – क्या मालती जीवन के आखिरी पड़ाव पर अपनी गलतियों का प्रायश्चित्त कर सकी?

Hindi Kahaniyan :  ‘‘यह लीजिए, ताई मम्मा, आज की आखिरी खुराक और ध्यान से सुनिए, नो अचार, नो चटनी और नो ठंडा पानी, तभी ठीक होगी आप की खांसी. अब आप सो जाइए,’’ बल्ब बंद कर श्रेया ने ‘गुड नाइट’ कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

‘‘बहुत लंबी उम्र पाओ, सदा सुखी रहो बेटा,’’ ये ताई मम्मा के दिल से निकले शब्द थे. आंखें मूंद कर वह सोने की कोशिश करने लगीं लेकिन न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मन बेलगाम घोड़े सा सरपट अतीत की ओर भागा जा रहा था और ठहरा तो उस पड़ाव पर जहां से वर्षों पहले उन का सुखद गृहस्थ जीवन शुरू हुआ था.

मालती इस घर की बहू बन कर जब आई थी तो बस, 3 सदस्यों का परिवार था और चौथी वह आ गई थी, जिसे घरभर ने स्नेहसम्मान के साथ स्वीकारा था. सास यों लाड़ लड़ातीं जैसे वह बहू नहीं इकलौती दुलारी बेटी हो. छोटे भाई सा उस का देवर अक्षय भाभीभाभी कहता उस के आगेपीछे डोलता और पति अभय के दिल की तो मानो वह महारानी ही थी.

मालती की एक मांग उठती तो घर के तीनों सदस्य जीजान से उसे पूरा करने में जुट जाते और फिर स्वयं अपने ही पर वह इतरा उठती. सोने पर सुहागे की तरह 4 सालों में 2 प्यारे बेटों अनुज और अमन को जन्म दे कर तो मानो मालती ने किला ही फतह कर लिया.

दोनों बेटों के जन्म के उत्सव किसी शादीब्याह के जैसे ही मनाए गए थे. राज कर रही थी मालती, घर पर भी और घर वालों के दिलों में भी. ‘स्वर्ग किसे कहते हैं? यही तो है मेरी धरती का स्वर्ग’ मालती अकसर सोचती.

अक्षय ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही लड़की पसंद कर ली थी और नौकरी लगते ही उसे ला कर मां और भाईभाभी के सामने खड़ा कर दिया. जब इन दोनों ने कोई एतराज नहीं किया तो भला वह कौन होती थी विरोध करने वाली. इस तरह शगुन देवरानी बन कर इस घर में आई तो मालती को पहली बार लगा कि उस का एकछत्र ऊंचा सिंहासन डोलने लगा है.

शगुन देखने में जितनी खूबसूरत थी उतना ही खूबसूरत उस का विनम्र स्वभाव भी था. ऊपर से वह कमाऊ भी थी. अक्षय के साथ ही काम करती थी और उस के बराबर ही कमाती थी. इतने गुणों के बावजूद अभिमान से वह एकदम अछूती थी. देवरानी के यह तमाम गुण मालती के सीने में कांटे बन कर चुभते थे और उस के मन में हीनगं्रथियां पनपाते थे.

मालती के निरंकुश शासन को चुनौती देने शगुन आ पहुंची थी जो उसे ‘खलनायिका’ की तरह लगती थी. ‘शगुन…’ मां की इस पुकार पर जब वह काम छोड़ कर भागी आती तो मालती जल कर खाक हो जाती. अक्षय जो बच्चों की तरह हरदम ‘भाभी ये दो, भाभी वो दो,’ के गीत गाता उस के आगेपीछे घूमता और अपनी हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए उसे ही पुकारता था, अब शगुन पर निर्भर हो गया था. हां, पति अब भी उस के ‘अपने’ ही थे, लेकिन जब मालती शगुन के साथ मुकाबला करती या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करती तो अभय समझाते, ‘मालू, शगुन के साथ छोटी बहन की तरह आचरण करो तभी इज्जत पाओगी.’ तब वह कितना भड़कती थी और शगुन का सारा गुस्सा अभय पर निकालती थी. शगुन के प्रति मालती का कटु व्यवहार मां को भी बेहद अखरता था, मगर वह खामोश रह कर अपनी  नाराजगी जताती थीं क्योंकि लड़ना- झगड़ना या तेज बोलना मांजी के स्वभाव में शामिल नहीं था.

शगुन, अनुज और अमन को भी बहुत प्यार करती थी. वे दोनों भी ‘चाचीचाची’ की रट लगाए उस के इर्दगिर्द मंडराते. लेकिन यह सबकुछ भी मालती को कब भाया था? कभी झिड़क कर तो कभी थप्पड़ मार कर वह बच्चों को जता ही देती कि उसे चाची से उन का मेलजोल बढ़ाना पसंद नहीं. बच्चे भी धीरेधीरे पीछे हट गए.

फिर साल भर बाद ही शगुन भी मां बन गई, एक प्यारी सी गोलमटोल बेटी को जन्म दे कर. पहली बार मालती ने चैन की सांस ली. उसे लगा कि बेटी को जन्म दे कर शगुन उस से एक कदम पीछे और एक पद नीचे हो गई है. लेकिन यह मालती का बड़ा भारी भ्रम था. 3 पीढि़यों के बाद इस घर में बेटी आई थी, जिसे मांजी ने पलकों पर सजाया और शगुन को दुलार कर ‘धन्यवाद’ भी दिया. मां और अक्षय ही नहीं अभय भी बहुत खुश थे. उतना ही भव्य नामकरण हुआ जितना अनुज और अमन का हुआ था और उसे नाम दिया गया ‘श्रुति’, फिर 2 साल के बाद दूसरी बेटी श्रेया आ गई.

अक्षय की गुडि़या सी बेटियों में मांजी के प्राण बसते थे. लगभग यही हाल अभय का भी था. मालती से यह बरदाश्त नहीं होता था. वह अकसर चिढ़ कर बड़बड़ाती, ‘वंश तो बेटों से ही चलता है न. बेटियां तो पराया धन हैं, इन्हें इस तरह सिर पर धरोगे तो बिगडे़ंगी कि नहीं?’

उधर मालती के कटु वचनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था, इधर बच्चों में भी अनबन रहती. अकसर अनुजअमन के हाथों पिट कर श्रुति और श्रेया रोती हुईं दादी के पास आतीं तो शगुन बिना किसी को कोई दोष दिए बच्चियों को बहला लेती कि कोई बात नहीं बेटा, बड़े भैया लोग हैं न? लेकिन दादीमां से सहन नहीं होता. आखिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी, ‘बस, अब समय आ गया है कि तुम दोनों भाइयों को अपने जीतेजी अलग कर दूं, नहीं तो किसी दिन किसी एक बच्ची का सिर फूटा होगा यहां.’

मां का फैसला मानो पत्थर की लकीर था और घर 2 बराबर हिस्सों में बंट गया. मां ने साफ शब्दों में मालती से कह दिया, ‘बड़ी बहू, तुम अपनी गृहस्थी संभालो. मैं अक्षय के पास रहूंगी. शगुन नौकरी पर जाती है और उस की बच्चियां बहुत छोटी हैं. अभी, उन्हें मेरी सख्त जरूरत है. हां, तुम्हें भी अगर कभी मेरी कोई खास जरूरत पड़े तो पुकार लेना, शौक से आऊंगी.’

मालती स्वतंत्र गृहस्थी पा कर बहुत खुश थी. लेकिन हर समय बड़बड़ाना उस की आदत में शुमार हो चुका था. अत: जबतब उच्च स्वर में सुनाती, ‘अरे, कर लो अपनी बेटियों पर नाज. उन के ब्याह के समय तो भाइयों के नेग पूरे करवाने के लिए मेरे बेटों को ही बुलाने आओगी न?’ या ‘बेटे के बिना तो ‘गति’ भी नहीं होती. बेटा ही तो चिता को आग देता है. खुश हो लो अभी…’

मालती की इन हरकतों की वजह से मांजी ने तो उस के साथ बातचीत ही बंद कर दी. शगुन ने भी पलट कर न तो कभी जेठानी को जवाब दिया और न ही झगड़ा किया. अपनी इसी विनम्रता के कारण तो वह सास और पति के मन में बसी थी. अभय भी उस की सराहना करते न थकते थे.

जीवन के बहीखाते से एकएक साल घटता गया और एकएक जुड़ता गया. एक घर के 2 हिस्सों में बच्चे पलबढ़ रहे थे. अनुज पढ़ाई और खेल में अच्छाखासा था जबकि अमन का ध्यान पढ़नेलिखने में था ही नहीं. उस के लिए एक क्लास में 2 साल लगाना आम बात थी. इधर श्रुति और श्रेया दोनों ही बेहद जहीन थीं. पढ़ाई में और व्यवहार में अति शालीन और शिष्ट. अक्षय, शगुन और मां ने उन्हें बेटों की तरह पाला था. वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘यथा मां तथा संतान’ कुछ इसी तरह के थे दोनों घरों के बच्चे. कब उन का बचपन बीता और कब यौवन की दहलीज पर उन्होंने कदम रखा, पता ही न चला.

फिर आए अप्रिय घटनाओं के साल जिन्होंने नएनए इतिहास लिखे. एक साल वह आया जब अनुज अपनी योग्यता के बलबूते पर ऊंचे पद पर नियुक्त हुआ और दूसरे साल बिना किसी की राय लिए उस ने एक एन.आर.आई. लड़की से ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली. जरूरी औपचारिकताएं पूरी होते ही उस ने चंद महीने बाद ही सब को ‘गुडबाय’ कह कर कनाडा की ओर उड़ान भर ली.

तीसरे साल अमन अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गोआ गया तो वहां से वापस ही नहीं आया. बाद में एक दोस्त ने घर आ कर मालती को अमन द्वारा एक क्रिश्चियन लड़की से प्रेम विवाह किए जाने के बारे में बताया, ‘आंटी, उस का नाम डेजी है. उस की आंखें नीलम जैसी नीली हैं, बाल सुनहले हैं और रंग दूध सा गोरा…पूरी अंगरेज लगती है वह. उस के पिता का पणजी में एक शानदार बियर बार है.’

इन तमाम बातों को सच साबित करने के लिए अमन का खत चला आया, ‘मां, मुझे डेजी पसंद थी, वह भी मुझे पसंद करती थी. हम शादी करना चाहते थे, मगर उस के डैड की 2 शर्तें थीं. एक तो मैं धर्म बदल कर ईसाई बन जाऊं और दूसरी मुझे वहीं रह कर उन का काम संभालना होगा. मां, मेरे लिए यह सुनहरा मौका था. अत: मैं ने डेजी के डैड की दोनों शर्तें मान लीं और कल चर्च में उस के साथ शादी कर ली. आप लोगों से इजाजत लेना बेकार था क्योंकि आप कभी इस के लिए तैयार न होते. इसीलिए बस, सूचित कर रहा हूं और आप का आशीर्वाद मांग रहा हूं-अमन.’

मालती और अभय को लगा जैसे सारे कहर एकसाथ टूट कर उन पर आ गिरे. बस, एक धरती ही नहीं फटी जिस में दोनों समा जाते.

‘धर्म बदल लिया? अपने अस्तित्व को ही बेच डाला? ऐसा अधम और अवसरवादी इनसान मेरा बेटा कैसे हो सकता है? उस लड़की से बेशक ब्याह करता मगर धर्म तो न बदलता, तब शायद मैं उस को माफ भी कर देता और लड़की को बहू भी मान लेता, लेकिन अब कभी नाम भी न लेना उस का मालू मेरे सामने,’ अभय ने एक लंबी खामोशी के बाद ये शब्द कहे थे.

मालती भी जाने किस रौ में एक ठंडी सांस ले कर बोल गई, ‘काश, बेटों की जगह हमारी भी 2 बेटियां होतीं तो सिमट कर, इज्जत से घर तो बैठी होतीं.’

‘बेटियां हैं हमारी भी, आंखों पर अपनेपन का चश्मा चढ़ा कर देखो मालू, नजर आ जाएंगी,’ तल्ख स्वर में अभय ने कहा था.

इस घटना के एक माह बाद ही मांजी चल बसीं एकदम अचानक. शायद अमन और अभय की तरफ से मिला दुख ही इस मौत की वजह रहा हो.

मालती का अभिमान अब चूरचूर हो कर बिखर गया था. अब न तो वह चिड़चिड़ाती थी और न ही चिल्लाती थी. खुद अपने से ही वह बेहद शर्मिंदा थी. एकदम खामोश रहती और जब दर्द सहनशक्ति की सीमा को लांघ जाता तो रो लेती.

श्रेया और श्रुति को अब मालती अपने पास बुलाना चाहती, दुलराना चाहती मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. उन बच्चियों के साथ किया अपना कपटपूर्ण दुर्व्यवहार उसे याद आता तो शरम से सिर नीचा हो जाता.

एम.बी.ए. के बाद श्रुति को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर की पोस्ट मिल गई तो मालती के दिल की गहराई से आवाज आई कि काश, 2 बेटों की जगह सिर्फ एक बेटी होती तो आज मैं गर्व से भर उठती.

श्रेया एम.बी.बी.एस. कर डाक्टर बन चुकी थी और अब एम.डी. की तैयारी कर रही थी. श्रुति का रिश्ता उस के ही स्तर के एक सुयोग्य युवक शिखर से हो गया था. श्रुति की शर्त थी कि वह बिना दानदहेज के ब्याह करेगी और शिखर को यह शर्त मंजूर थी. ब्याह हो गया और कन्यादान मालती और अभय के हाथों कराया गया. मालती कृतज्ञ थी शगुन की, कम से कम एक संतान को ब्याह का सुखसौभाग्य तो शगुन ने उस के सूने आंचल में डाल दिया.

श्रुति की बिदाई के बाद तो अभय बिलकुल ही खामोश हो गए. बोलते तो वह पहले भी ज्यादा नहीं थे लेकिन अब तो बस, जरूरत भर बात के लिए ही मुंह खोलते. उम्र के साथसाथ शायद उन का गम भी बढ़ता जा रहा था. गम बेटों के विछोह का नहीं उन की कपटपूर्ण चालाकियों का था. उन के दिल का सब से बड़ा दर्द था अमन का धर्म परिवर्तन. कई बार वह सपने में बड़बड़ाते, ‘कभी माफ नहीं करूंगा नीच को. मेरी चिता को भी हाथ न लगाने देना उस को मालू.’

कहते हैं न इनसान 2 तरह से मरता है. एक तो सांसें थम जाने पर और दूसरा जीते जी पलपल मर कर. यह दूसरी मौत पहली मौत से ज्यादा तकलीफदेह होती है क्योंकि जिंदगी की हसरतें और जीने की इच्छा मरती है लेकिन एहसास तो जीवित रहते हैं न. ऐसी ही मौत जी रहे थे अभय और एक रात वह सदा के लिए खामोश और मुक्त हो गए.

पति के मौत की वह भयानक रात याद आते ही मालती अतीत के घरौंदे से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. उसे अच्छी तरह से वह रात याद है जब दोनों एकसाथ ही एक ही पलंग पर सोए थे लेकिन सुबह वह अकेली उठी और वह हमेशा के लिए सो गए. कैसी अजीब बात थी उस शांत निंद्रा में कि रात खुद चल कर गए बिस्तर तक और सुबह किसी और ने उतार कर नीचे धरती पर लिटाया. इस तरह काल का प्रवाह अपने साथ उस के जीवन के उस आखिरी तिनके को भी बहा ले गया जिस के सहारे उसे इस संसारसागर से पार उतरना था.

अक्षय ने बाद में बहुत जोर दिया कि अनुज तो विदेश में है, अमन को ही बुला लिया जाए लेकिन पति की इच्छाओं का मान रखते हुए मालती ने किसी भी बेटे को खबर तक नहीं करने दी. अक्षय ने ही भाई का दाह संस्कार किया.

‘कैसी सोने सी अयोध्या नगरी थी, जिस में वह ब्याह कर आई थी और अपने ईर्ष्या व द्वेष की आग में जल कर उसे लंका बना डाला.’

बेटे बाद में बारीबारी से आए पर उन का आना और जाना एकदम औपचारिक था. मालती भी बेटों के लिए वीतरागी ही बनी रहीं. फिर तो यह अध्याय भी सदा के लिए बंद हो गया.

श्रुति, शिखर, श्रेया, शगुन चारों एक दिन एकसाथ आए और जिद पकड़ कर बैठ गए, ‘ताई मम्मा, आप यह भूल जाएं कि हम आप को यहां अकेला छोड़ेंगे. आप को अब हमारे साथ रहना होगा. उठिए ताई मम्मा.’

बच्चों के प्यार के आगे मालती हार गई और वह एक आंगन से दूसरे आंगन में चली आई. उसे याद आया, श्रुति के ब्याह के लिए जब शगुन उस के लिए अपनी ही जैसी सुंदर और महंगी साड़ी लाई थी और श्रेया ने उसे खूबसूरती से तैयार किया था. तब वह हुलस कर उठी थी, ‘देखा, अभय, कितनी प्यारी बच्चियां हैं और एक हमारे पूत हैं… काश…और’ एक निश्वास ले कर मालती ने फिर यादों का सूत्र थाम लिया.

यह क्षतिपूर्ति थी अपने दुष्कर्मों की, बच्चियों के प्रति प्यार था या उन के मधुर व्यवहार का पुरस्कार कि एक दिन मालती ने अपने वकील को बुलवाया और अपने हिस्से की तमाम चलअचल संपत्ति श्रुतिश्रेया के नाम करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अक्षय और शगुन ने वकील को यह कह कर लौटा दिया, ‘भाभी, आप मानें या न मानें यह अमनअनुज की धरोहर है और हम इस अमानत में आप को खयानत नहीं करने देंगे.’

श्रुतिशिखर छुट्टियों में आते तो शगुन की तरह ही मालती को भी स्नेहसम्मान देते. शिखर दामाद की तरह नहीं बेटे की तरह खुल कर मिलता और उन्हें ‘ताई मम्मा’ नहीं ‘बड़ी मम्मा’ कह कर बुलाता. कहता कि आप ने ही तो श्रुति का हाथ मेरे हाथ में दिया है, फिर आप मेरी बड़ी मम्मा हुईं कि नहीं?

घर की मीठी चहलपहल पहले मन में कसक जगाती थी अब उमंग भरती है कि काश, ये मेरे बेटीदामाद होते तो मैं दुनिया की सब से सुखी मां होती. तभी अचानक उसे अभय की तिरस्कारपूर्ण निगाहें याद आ गईं तो अपनी ओछी मानसिकता पर उसे अफसोस हुआ.

‘मेरे ही तो बच्चे हैं ये, और सुखी ही तो हूं मैं और कैसा होता है सुख? चौथेपन की लाठी बनाने के लिए ही तो मांबाप पुत्र की कामना करते हैं और वह पुत्र तो कब के मेरा साथ छोड़ गए, मेरे पति की मृत्यु का कारण भी बने और यह फूल सी बच्चियां कैसे मेरे आगेपीछे डोलती हैं. यह सुख नहीं तो और क्या है? यहीं सुख भी है और स्वर्ग भी.’

सहसा मालती के मन में यह खयाल खलबली मचा गया कि बेईमान सांसों का क्या भरोसा, न जाने कब थम जाए और हो सकता है उस की इसी रात का कोई सवेरा न हो. अभय के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था. इसीलिए अपनी एक खास इच्छा को आकार देने के लिए कागजकलम ले कर मालती ने लिखना शुरू किया.

‘मेरी संतान, मेरी 2 बेटियां श्रुति और श्रेया ही हैं. और यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को आग मेरी बड़ी बेटी श्रुति और दामाद शिखर दें. यदि किसी वजह से वह मौजूद न हों तो यह हक मेरी छोटी बेटी श्रेया भारद्वाज को दिया जाए. मेरे घर, जेवर, बैंक के पैसे और शेष संपत्ति पर शगुन, श्रुति और श्रेया का बराबर अधिकार होगा. मैं मालती भारद्वाज पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह घोषणा कर रही हूं ताकि सनद रहे.

अब ‘काश’ शब्द को वह अपनी बाकी की बची जिंदगी में कभी जबान पर नहीं लाएगी, यह निश्चय कर मालती ने चैन की सांस ली और पत्र को लिफाफे में यह सोच कर बंद करने लगी कि सुबह यह पत्र मैं अक्षय के हवाले कर दूंगी.

पत्र को तकिए के नीचे रख कर मालती सोने की कोशिश करने लगी. अब उस का मन शांत था और फूलों सा हलका भी.

Hindi Stories Online : पहली तारीख – क्यों परेशान हो जाती थी रेखा

Hindi Stories Online :  डोरबैल बजी तो रेखा ने दरवाजा खोला. न्यूजपेपर वाला हाथ में पेपर लिए किसी से फोन पर बात कर रहा था. रेखा ने उस के हाथ से अखबार ले दरवाजा बंद किया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. जैसे ही रेखा ने दरवाजा खोला तो अखबार वाला बोला, ‘‘मैडम, यह हिंदी का अखबार. आप के घर हिंदी और अंगरेजी 2 पेपर आते हैं.’’

‘‘अरे, फिर तभी क्यों नहीं दे दिया?’’

‘‘जब तक देता, आप ने दरवाजा ही बंद कर दिया,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘अच्छा, ठीक है,’’ कह रेखा ने अखबार ले कर दरवाजा बंद कर दिया. तभी विपुल यानी रेखा के पति का शोर सुनाई दिया.

‘‘अरे भई कहां हो?’’ रेखा के पति विपुल की आवाज आई.

तभी डोरबैल भी बजती है. रेखा परेशान सी दरवाजा खोलने चल दी. दरवाजा खोला तो सामने वही अखबार वाला खड़ा था. अब रेखा ने गुस्से से पूछा, ‘‘अब क्या है?’’

‘‘मैडम, वह अखबार का बिल,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘पहले नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से से कह रेखा ने दरवाजा बंद कर दिया.

उधर विपुल आवाज पर आवाज लगाए जा रहा था, ‘‘रेखा, तौलिया तो दे दो, मैं नहा चुका हूं. कब से आवाजें लगा रहा हूं.’’

रेखा ने तौलिया पकड़ाया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. दरवाजा खोलते ही रेखा गुस्से में चीखी, ‘‘क्यों बारबार बैल बजा रहे हो?’’

‘‘मैडम, यह गृहशोभा.’’

‘‘नहीं चाहिए,’’ कह रेखा दरवाजा बंद करने लगी.

तभी अखबार वाला बोला, ‘‘अरे, आप ने ही तो कल मैगजीन लाने को बोला था.’’

‘‘क्या ये सब काम एक बार में नहीं कर सकते?’’ कह रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया.

‘‘इतनी देर लगती है क्या तौलिया देने में?’’ विपुल बोला.

‘‘मैं क्या करती, घंटी पर घंटी बजाए जा रहा था, तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘लगता है तुम्हें पसंद करता है,’’ विपुल हंसते हुए बोला.

‘‘विपुल, मैं मजाक के मूड में नहीं हूं.’’

तभी फिर डोरबैल बजती है. रेखा गुस्से से दरवाजा खोल कर बोली, ‘‘अब क्या है?’’

सामने दूध वाला था. बोला, ‘‘मैडम दूध.’’

रेखा ने थोड़ा शांत हो दूध ले लिया.

‘‘अरे भई नाश्ता लगाओ. देर हो रही है. औफिस जाना है,’’ विपुल की आवाज आई.

रेखा आंखें तरेरते हुए विपुल को देख किचन में चली गई. विपुल किसी से फोन पर बात कर रहा था.

फिर डोरबैल बजी. रेखा ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला.

‘‘मैडम, दूध का बिल,’’ दूध वाला बोला.

‘‘क्या परेशानी है तुम सब को? क्या यह बिल दूध के साथ नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से में बोल रेखा ने बिल ले लिया.

‘‘क्या खिला रही हो नाश्ते में?’’ विपुल बोला.

रेखा बोली, ‘‘अपना सिर… घंटी पर घंटी बज रही… ऐसे में क्या बन सकता है? ब्रैडबटर से काम चला लो.’’

‘‘अरे, तुम्हारे हाथों से तो हम जहर भी खा लेंगे,’’ विपुल ने कहा.

‘‘देखो, मैं इतनी भी बुरी नहीं हूं,’’ रेखा बोली.

तभी फिर से डोरबैल बज उठी. रेखा गुस्से से बोली, ‘‘विपुल, दरवाजा खोलो… फिर मत कहना मुझे औफिस को देर हो रही है.’’

विपुल ने फोन पर बात करते हुए ही दरवाजा खोला. दूध वाला ही खड़ा था.

दूध वाला बोला, ‘‘साहब, हम कल दूध देने नहीं आएंगे.’’

‘‘जब दूध दिया था तब नहीं बता सकते थे?’’ विपुल ने डांटा.

‘‘सर, भूल गया था.’’

विपुल औफिस चला गया. औफिस पहुंच कर उस ने रेखा को फोन किया. तभी फिर घंटी बज उठी. रेखा जब दरवाजा खोलने पर पेपर वाले को देखती है, तो उस का गुस्सा 7वें आसमान को छू जाता है. विपुल फोन लाइन पर ही था. अत: बोला, ‘‘अरे, रेखा अब कौन है?’’

‘‘वही तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘यह क्या बना रखा है… क्या सारा दिन दरवाजे पर ही बैठे रहें एक चौकीदार की तरह?’’

‘‘अब क्या लेने आए हो?’’ रेखा तमतमाते हुए बोली.

‘‘सुबह के 50 दे दो… फिर से नहीं आऊंगा,’’ पेपर वाला बोला.

‘‘कोई 50 नहीं मिलेंगे. चले जाओ यहां से,’’ रेखा ने कहा.

इस बीच फोन कट गया था. वह नहाने जा ही रही थी कि फिर से डोरबैल की आवाज पर भिन्ना गई. दरवाजा खोला तो सामने केबल वाला खड़ा था.

‘‘मैडम, केबल का बिल,’’ वह बोला.

‘‘कुछ और देना है तो वह भी दे दो.’’

‘‘मैडम, समझा नहीं,’’ वह बोला.

‘‘कुछ नहीं,’’ रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया और फिर नहाने चली गई.

तभी उसे कुछ शोर सुनाई देता है. ध्यान से सुनने पर, ‘मैडमजी, मैडमजी,’ एक लड़की की आवाज सुनाई दी.

नहा कर दरवाजा खोला तो सामने नौकरानी की लड़की खड़ी थी.

रेखा ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए?’’

‘‘मैडमजी, मम्मी आज काम पर नहीं आएंगी. शाम को जिस औफिस में सफाई करती हैं, वहां पगार लेने गई हैं… वहां लंबी लाइन लगी है.’’

रेखा गुस्से में बोली, ‘‘अच्छाअच्छा, ठीक है.’’

‘इसे भी आज ही…’ रेखा मन ही मन बड़बड़ाई और फिर सोचने लगी कि आज खाने में बनेगा क्या… इतनी देर हो गई है… घड़ी की तरफ देखा 1 बज चुका था. अभी सोच ही रही थी कि फिर घंटी बजी. वह चुपचाप यह सोच बैठी रही कि अब दरवाजा नहीं खोलेगी. 2… 3… 4… बार घंटी बजी पर वह नहीं उठी.

तभी फोन बजा. विपुल बोला, ‘‘अरे भई, क्या हम यहीं खड़े रहेंगे… दरवाजा तो खोलो.’’

रेखा मन ही मन सोचती कि इतनी जल्दी कैसे आ गए? क्या बात है? फिर जल्दी से दरवाजा खोला.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ विपुल बोला.

‘‘अरे, आप इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘कैसे आ गए. तुम सुबह से परेशान थीं. सोचा, चलो आज लंच बाहर ही करते हैं.’’

रेखा सवाल भरी निगाहों से विपुल की तरफ देखने लगी तो वह बोला, ‘‘अरे बावली, आज पहली तारीख है.’’

Interesting Hindi Stories : आखिर क्यों – क्या दूर हुआ सुरभि और सास का अंधविश्वास

Interesting Hindi Stories : नवंबर मास की ठंडी शाम थी. मैं आफिस से घर लौटी तो घरों में बल्ब जगमगा उठे थे. सुरभि के घर से आती दूधिया रोशनी ने उस के वापस लौट आने की पुष्टि कर दी थी. एक बार मन किया, दौड़ कर उस का हालचाल पूछूं, पर तुरंत ही उस का यों चुपचाप लौट आना मुझे अनेक आशंकाओं से आतंकित कर गया.

घर के बाहरी द्वार पर खड़ी सासू मां को देखते ही मैं अपने पर काबू नहीं रख पाई और बेसाख्ता बोल उठी, ‘‘मांजी, आप को पता है, सुरभि लौट आई है.’’

‘‘लेकिन कब? तुम्हें कैसे पता लगा,’’ मांजी के हैरानी भरे प्रश्न ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें भी उस के लौट आने की कोई खबर नहीं है.

‘‘अभी लौटी, तो देखा उस के घर उजाला हो रहा है,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘अच्छा, तो जा, जल्दी से उस की खबर ले आ, बड़ी चिंता हो रही है मुझे.’’

फिर सचमुच मुझ से भी रहा न गया. आशाआशंका के भंवर में फंसे अपने उद्विग्न चित्त को ले, मैं उस के घर की ओर बढ़ गई. बरसों पुराना घटनाक्रम सहसा मेरी आंखों के  सामने चलचित्र की भांति क्रमबद्ध हो उठा. सुरभि से मेरा परिचय तब से है जब मैं यहां नईनवेली ब्याह कर आई थी. वह भी मेरी तरह कालोनी के गुप्ताजी की बहू और उन के सुपुत्र विपिन, जो फैक्टरी में सुपरवाइजर था, की दुलहन थी. मुझ से कोई 3 साल पहले ही ब्याह कर आई थी.

उस की सास कौशल्या देवी से ही पहलेपहल मुझे मालूम हुआ कि उस की गोद अब तक सूनी है. एक दिन जब उस की सास हमारे घर आई हुई थीं तब सासू मां के परिचय कराने के उपरांत मैं ने उन के चरण स्पर्श किए तो वह मुझे ‘दूधों नहाओ पूतों फलो’ के आशीर्वाद से नवाजना नहीं चूकीं. साथ ही उलाहना देते हुए मेरी सास से बोलीं, ‘मैं तो अपनी बहू को 3 साल से यही दुआ दे रही हूं पर लगता है बहन, निगोड़ी बांझ है.’

प्रत्युत्तर में मैं ने मांजी को सांत्वना देते हुए सुना, ‘अरे कौशल्या, तुम तो नाहक नाउम्मीद हो रही हो. अभी तो सिर्फ 3 साल हुए हैं, अरे, थोड़ा मौजमस्ती करने दो उन्हें. समय आने पर सब ठीक हो जाएगा.’

इस बीच मैं नेहा, नितिन की मां भी बन गई पर सुरभि की गोद सूनी ही रही. एक दिन मौका लगने पर एकांत में मैं ने उसे टटोला, ‘तुम ने किसी डाक्टर से अपनी जांच वगैरह कभी करवाई.’’

‘नीति, तुम तो जानती हो, मेरी सास को डाक्टरों से ज्यादा साधुसंतों, तांत्रिकों व ओझाओं पर विश्वास है,’ उस ने कहा.

मैं हतप्रभ सी रह गई. आज के इस चिकित्सा विज्ञान के क्रांतिकारी युग में कोई इस के चमत्कार से अछूता कैसे रह सकता है.

फिर तो आएदिन सुरभि मुझे बताती रहती. आज सासू मां के साथ फलांफलां साधु के दर्शनार्थ जाना है या अमुक-अमुक महात्मा शहर में पधारने वाले हैं, उन के सत्संग में जाना है, आदिआदि.

आज इस बात को लगभग 8 वर्ष होने को आए हैं. 1 माह के लिए मैं अपने मायके आगरा गई हुई थी. लौटी तो पता चला सुरभि नए मेहमान के आगमन की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा से सराबोर थी. सुन कर बहुत अच्छा लगा. 9 माह के पूर्ण प्रसवकाल के पश्चात उस की झोली सुंदर सलोने बच्चे से भर गई. अनेकानेक प्रयासों के बाद उसे यह संतान नसीब हुई थी. अत: उस ने उस का नाम ‘सार्थक’ रखना चाहा. परंतु सासू मां का मानना था कि यह सब गुरु महाराज वत्सलानंद के आशीर्वाद से संभव हुआ है, अत: बच्चे को नाम दिया गया ‘वत्सल’.

हालांकि पहलेपहल वह सास के इस तर्क से आहत हो उठी थी पर फिर मैं ने ही उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयास किया था, ‘वैसे तो सार्थक वास्तव में एकदम सटीक नाम है परंतु वत्सल भी कम सुंदर नाम नहीं है. और फिर नाम में क्या रखा है. वत्सल चाहे ईश्वर की सौगात हो या वत्सलानंद की कृपा का फल, तुम्हें क्या फर्क पड़ता है.’

‘नहींनहीं नीति. तुम गलत समझ रही हो, यह सच है कि वत्सल उन्हीं के प्रताप का फल है. जिस माह हम ने उन से दीक्षा ली थी उसी माह उन के आशीर्वाद से यह मेरे गर्भ में आ गया.’

संयोग मात्र को सास अपने गुरु की कृपा समझ बैठी थी. कौशल्या देवी के अंधविश्वासी रंगों में रंगे उस के विचार सुन कर पहली बार मुझे झटका सा लगा.

फिर तो यह आम बात हो गई. वत्सल का अन्नप्राशन हो या नामकरण, जन्मोत्सव हो या फिर स्कूल में उस के नामांकन का कार्य, सभी कार्यकलापों के लिए शुभमुहूर्त स्वामी वत्सलानंद की सुझाई गई तिथियों के हिसाब से क्रियान्वित होने लगे.

मैं ने एकआध बार अपनी सास से इस बात का जिक्र किया तो वह कहने लगीं, ‘अरे जाने दो बहू, अपनीअपनी सोच है, चाहे गुरु की कृपा रही हो या ईश्वर की इच्छा, यही क्या कम है कि कौशल्या का घरआंगन बच्चे की किलकारियों से गुंजायमान हो उठा है.’

सब कुछ निर्बाध गति से चल रहा था कि एक दिन सांझ को बच्चों ने बताया कि स्कूल में प्रार्थना सभा के दौरान वत्सल खड़ेखड़े गिर पड़ा और फिर उसे बहुत उल्टियां हुईं. अत: मैं ने मांजी को उस का हालचाल ले आने को कहा.

मांजी लौट कर आईं तो चिंतामग्न सी दिखीं. पूछने पर उन्होंने बताया कि कौशल्या बता रही थी कि वत्सल को इस तरह की शिकायत 2-4 बार पहले भी हो चुकी है परंतु बजाय किसी डाक्टर को दिखाने के वे स्वामीजी के चक्कर में पड़े हैं.

दूसरे दिन सुरभि को समझाने की गरज से मैं आफिस से लौटते हुए सीधे उस के घर गई. देखती क्या हूं कि बैठकखाने का सुसज्जित विशाल कक्ष धूप व अगरबत्ती की अनोखी सुगंध से सुशोभित है. कक्ष के एक ओर, एक बड़े से तख्त पर बिछे बेशकीमती पलंगपोश पर एक स्थूलकाय महात्मा भगवा वस्त्र धारण किए हुए विराजमान हैं जो संस्कृत के श्लोकों की स्तुति में विचारमग्न हैं. मैं असमंजस की स्थिति से उबरने का प्रयास कर ही रही थी कि सुरभि आई और कक्ष के एक कोने में मुझे बिठाते हुए स्वामीजी के बारे में बताने लगी, ‘यही गुरु वत्सलानंद जी हैं. वत्सल की बीमारी सुन कर महाराज घर आ कर उस के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए संजीवनी जाप कर रहे हैं. सच, वत्सल अपनेआप को काफी अच्छा महसूस कर रहा है.’

वस्तुत: स्वामीजी पर विश्वास से अभिप्रेरित उस परिवार के लोगों का निर्मल मन, बारबार यह झूठा आश्वासन दिला रहा था कि बच्चा स्वस्थ हो रहा है, पर क्या सुरभि भी बच्चे के गिरते स्वास्थ्य का मूल्यांकन नहीं कर पा रही थी. इस से अधिक मैं उसे सुन नहीं सकी. तभी तो लगभग घसीटते हुए मैं सुरभि को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘सुरभि तुम्हें ये क्या हो गया है, तुम तो इन थोथी बातों पर विश्वास नहीं करती थीं, फिर आज कैसे इन ढोंगी साधुओं की बातों में फंस गईं. वत्सल को इस समय इन के जपतप की नहीं बल्कि किसी अच्छे डाक्टर के परीक्षण की आवश्यकता है. देख नहीं रही हो, वह किस कदर कमजोर हो गया है.’

पर मेरी बात सुन कर वह जरा भी विचलित नहीं हुई, बल्कि कहने लगी, ‘नहीं नीति, पहले मैं भी इन की शक्तियों से अनभिज्ञ थी, पर अब मैं इन की दिव्य शक्तियों को जान चुकी हूं.’

मैं उसे कुछ और समझाने का प्रयत्न करती कि इस के पूर्व स्वामीजी, जिन्होंने कदाचित क्रोधाग्नि में धधकती मेरी मुखर वाणी सुन ली थी, क्रोध से गरज उठे, ‘ये कौन है जो मेरे ‘भैरव’ देव को ललकार रहा है. कुछ अनिष्ट हुआ तो हमें दोष मत देना. हम साधुसंन्यासी हैं, हमारा भी मानसम्मान है, पर जहां हमारा अपमान हो, हम पर अविश्वास हो, वहां एक पल और ठहरना असंभव.’

‘नहींनहीं गुरुदेव, क्षमा कीजिए,’ क्षमायाचना से भीगे उस की सासू मां के शब्द गूंजे और अगले ही पल उन्होंने स्वामीजी के चरण पकड़ लिए, ‘हमें नहीं पता था वरना मैं उसे आप के सामने आने की इजाजत कभी नहीं देती.’

उसी क्षण सुरभि की बदलती मुखमुद्रा व उस की आग्नेय दृष्टि देख कर मुझे यह आभास होने में क्षण भर भी नहीं लगा कि स्वामीजी के विरुद्ध बोल कर मैं यहां सर्वथा अवांछनीय हो गई हूं. अत: बाहर की ओर रुख करने में ही मैं ने भलाई समझी.

और फिर मेरे घर लौटने के पूर्व ही कौशल्या देवी ने मेरी सास को फोन पर हिदायत दे डाली, ‘अपनी बहू को इतनी ढील मत दो, शारदा. जो मन में आता है बोल देती है, बड़ेछोटे किसी का लिहाज नहीं. आज तो उस ने स्वामीजी का ही अपमान कर डाला. हमारा विपिन तो उन्हें इतना मानता है कि उस ने पूरे 50 हजार रुपए उन की संस्था को श्रद्धा से दान कर दिए.’

अभी वह न जाने और क्याक्या सुनातीं कि मुझे घर आया देख कर मांजी ने फोन काट दिया और मुझे संबोधित कर बोलीं, ‘बेटा, तुम क्यों इन लोगों से उलझती हो, वे गड्ढे में गिरना चाहते हैं तो उन्हें कौन रोक सकता है.’

‘मांजी, मैं तो वत्सल की हालत देख कर आपे में नहीं रह सकी थी, यदि चाचीजी को इतना बुरा लगा है तो मैं उन से माफी मांग लूंगी पर बेचारा वत्सल,’ मैं आह भर कर रह गई.

यों ही 4-5 माह बीत गए. उस दिन की घटना की कड़वाहट से दोनों परिवारों के मध्य एक शीतयुद्ध का मौन पसर गया था. पर कालोनी के अन्य लोगों से मांजी वत्सल की खोजखबर लेती रहतीं. सुना था कि उस की हालत दिन पर दिन गिरती जा रही है, स्कूल में भी वह हफ्तों अनुपस्थित रहने लगा है. इधर बच्चों की वार्षिक परीक्षाएं आरंभ हो चुकी थीं. परीक्षा के दौरान एक दिन वत्सल चक्कर खा कर सीट से लुढ़क पड़ा, जिस से उसे सिर में गंभीर चोट लग गई. आननफानन में स्कूल वालों ने उसे शहर के एक बड़े अस्पताल में भर्ती करा दिया. उसी दौरान उसे अनेक परीक्षणों से गुजरना पड़ा. सुन कर मैं भी अपने को रोक नहीं सकी और वत्सल से मिलने अस्पताल जा पहुंची. सुरभि मुझे देखते ही मुझ से लिपट कर रो पड़ी.

उस की सास भी मुझ से नजरें चुरा रही थी. पूछने पर पता चला कि वत्सल को ब्रेन ट्यूमर था जो घर वालों की लापरवाही की वजह से अधिक जटिल अवस्था में पहुंच गया था. मुझे देखते ही वह फफकफफक कर रो पड़ी और गले से लिपट कर बोली, ‘नीति, तुम ने मुझे समझाने का बहुत प्रयास किया था, पर मेरी ही मति भ्रष्ट हो गई थी जो उस पाखंडी के चक्कर में फंस गई,’

उस की आंखों से अंधविश्वास का परदा हट चुका था.

2 दिन पश्चात उसे डाक्टरों के निर्देशानुसार दिल्ली के एक बड़े अस्पताल ले जाया गया. 12 दिनों तक एडमिट रहने के बाद उस का

ब्रेन ट्यूमर का आपरेशन हुआ फिर करीब 10 घंटे बाद उस के होश में आ जाने की खबर सुरभि ने मुझे फोन पर दी, ‘नीति, लगता है, ईश्वर ने मेरी सुन ली.

यही उस का अंतिम संदेश था.

जब कुछ दिनों तक कोई खबर नहीं मिली तो उस के देवर के यहां फोन किया तो पता चला कि दूसरे ही दिन वह कोमा में चला गया था, तब से सघन चिकित्सा परीक्षण से गुजर रहा है. उस के बाद लाख प्रयत्न करने पर भी कोई खबर नहीं मिल सकी. और आज उस का यों बिना किसी पूर्व सूचना के लौट आना मन को आशंकित कर रहा है. किसी अनिष्ट की कल्पना मात्र से मैं थरथरा उठी.

घर पहुंची तो उस का मुख्यद्वार उढ़का पड़ा था. उसे ठेल कर मैं भीतर बढ़ी तो सामने नजर पड़ी, सुरभि फटीफटी नजरों से शून्य में ताक रही है, उस के भाईभाभी ने किसी तरह उसे थाम रखा था. सास भी अपना सिर पकड़ कर गमगीन सी फर्श की ओर एकटक निहार रही थी. विपिन प्रस्तर की बुत बने एक कोने में बैठे थे. उन के बुझेबुझे चेहरों ने मेरे अनुमानित अनिष्ट की पुष्टि कर दी थी.

सुरभि की भाभी ने ही बताया कि कोमा में जाने के 5 दिन बाद उसे पुन: होश आ गया था, उस दिन उस ने मां के हाथों से दलिया भी खाया, तो हमारी खोई आस भी लौट आई. परंतु उस दिन वह शायद मां की ममता को तृप्त करने, उस जगी आस को झूठा साबित करने को ही जाग्रत हुआ था. उस रात वह जो सोया तो फिर कभी नहीं जगा. बताते-बताते वह स्वयं रो पड़ीं. मैं भी अपने आंसुओं को कहां रोक पाई थी.

एक नन्हामासूम सा बच्चा अंधविश्वासों की बलि चढ़ गया था. अंधविश्वास की इतनी बड़ी सजा आखिर उस मासूम को ही क्यों मिली. काश इन ढोंगी साधुसंन्यासियों के लिए भी कानून में मृत्युदंड का प्रावधान होता जो भोलेभाले लोगों को अपने झूठे जाल में फांस कर इन के जीवन तक से खेलने से नहीं हिचकिचाते.

सुरभि इस हादसे से उन्मादित हो उठी थी. कभी वह वीभत्स हंसी हंसती तो कभी उस की मर्मभेदी चीख हृदय पर शूल बन कर उतर जाती.

अंधविश्वास की धुंध छंटने में सचमुच बहुत देर लग चुकी थी और हकीकत की सुबह, काली अंधेरी रात से भी अधिक स्याह प्रतीत हो रही थी. मेरे कानों में मानो वत्सल का प्रश्न गूंज रहा था, आखिर क्यों हुआ यह सब मेरे साथ?

कहानी- दया हीत

Hindi Story Collection : अजनबी

Hindi Story Collection : ‘‘देखिए भारतीजी, आप अन्यथा  न लें, आप की स्थिति को देखते हुए तो मैं कहना चाहूंगी कि अब आप आपरेशन करा ही लें, नहीं तो बाद में और भी दूसरी उलझनें बढ़ सकती हैं.’’

‘‘अभी आपरेशन कैसे संभव होगा डाक्टर, स्कूल में बच्चों की परीक्षाएं होनी हैं. फिर स्कूल की सारी जिम्मेदारी भी तो है.’’

‘‘देखिए, अब आप को यह तय करना ही होगा कि आप का स्वास्थ्य अधिक महत्त्वपूर्ण है या कुछ और, अब तक तो दवाइयों के जोर पर आप आपरेशन टालती रही हैं पर अब तो यूटरस को निकालने के अलावा और कोई चारा नहीं है.’’

डा. प्रभा का स्वर अभी भी गंभीर ही था.

‘‘ठीक है डाक्टर, अब इस बारे में सोचना होगा,’’ नर्सिंग होम से बाहर आतेआते भारती भी अपनी बीमारी को ले कर गंभीर हो गई थी.

‘‘क्या हुआ दीदी, हो गया चेकअप?’’ भारती के गाड़ी में बैठते ही प्रीति ने पूछा.

प्रीति अब भारती की सहायक कम छोटी बहन अधिक हो गई थी और ऊपर वाले फ्लैट में ही रह रही थी तो भारती उसे भी साथ ले आई थी.

‘‘कुछ नहीं, डाक्टर तो आपरेशन कराने पर जोर दे रही है,’’ भारती ने थके स्वर में कहा था.

कुछ देर चुप्पी रही. चुप्पी तोड़ते हुए प्रीति ने कहा, ‘‘दीदी, आप आपरेशन करा ही लो. कल रात को भी आप दर्द से तड़प रही थीं. रही स्कूल की बात…तो हम सब और टीचर्स हैं ही, सब संभाल लेंगे. फिर अगर बड़ा आपरेशन है तो इस छोटी सी जगह में क्यों, आप दिल्ली ही जा कर कराओ न, वहां तो सारी सुविधाएं हैं.’’

भारती अब कुछ सहज हो गई थी. हां, इसी बहाने कुछ दिन बच्चों व अपने घरपरिवार के साथ रहने को मिल जाएगा, ऐसे तो छुट्टी मिल नहीं पाती है. किशोर उम्र के बच्चों का ध्यान आता है तो कभीकभी लगता है कि बच्चों को जितना समय देना चाहिए था, दिया नहीं. रोहित 12वीं में है, कैरियर इयर है. रश्मि भी 9वीं कक्षा में आ गई है, यहां इस स्कूल की पिं्रसिपल हो कर इतने बच्चों को संभाल रही है पर अपने खुद के बच्चे.

‘‘तुम ठीक कह रही हो प्रीति, मैं आज ही अभय को फोन करती हूं, फिर छुट्टी के लिए आवेदन करूंगी.’’

स्कूल में कौन सा काम किस को संभालना है, भारती मन ही मन इस की रूपरेखा तय करने लगी. घर में आते ही प्रीति ने भारती को आराम से सोफे पर बिठा दिया और बोली, ‘‘दीदी, अब आप थोड़ा आराम कीजिए और हां, किसी चीज की जरूरत हो तो आवाज दे देना, अभी मैं आप के लिए चाय बना देती हूं, कुछ और लेंगी?’’

‘‘और कुछ नहीं, बस चाय ही लूंगी.’’

प्रीति अंदर चाय बनाने चल दी.

सोफे पर पैर फैला कर बैठी भारती को चाय दे कर प्रीति ऊपर चली गई तो भारती ने घर पर फोन मिलाया था.

‘‘ममा, पापा तो अभी आफिस से आए नहीं हैं और भैया कोचिंग के लिए गया हुआ है,’’ रश्मि ने फोन पर बताया और बोली, ‘‘अरे, हां, मम्मी, अब आप की तबीयत कैसी है, पापा कह रहे थे कि कुछ प्राब्लम है आप को…’’

‘‘हां, बेटे, रात को फिर दर्द उठा था. अच्छा, पापा आएं तो बात करा देना और हां, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? नीमा काम तो ठीक कर रही है न…’’

‘‘सब ओके है, मम्मी.’’

भारती ने फोन रख दिया. घड़ी पर नजर गई. हां, अभी तो 7 ही बजे हैं, अजय 8 बजे तक आएंगे. नौकरानी खाना बना कर रख गई थी पर अभी खाने का मन नहीं था. सोचा, डायरी उठा कर नोट कर ले कि स्कूल में कौन सा काम किस को देना है. दिल्ली जाने का मतलब है, कम से कम महीने भर की छुट्टी. क्या पता और ज्यादा समय भी लग जाए.

फिर मन पति और बच्चों में उलझता चला गया था. 6-7 महीने पहले जब इस छोटे से पहाड़ी शहर में उसे स्कूल की प्रधानाचार्य बना कर भेजा जा रहा था तब बिलकुल मन नहीं था उस का घरपरिवार छोड़ने का. तब उस ने पति से कहा था :

‘बच्चे बड़े हो रहे हैं अजय, उन्हें छोड़ना, फिर वहां अकेले रहना, क्या हमारे परिवार के लिए ठीक होगा. अजय, मैं यह प्रमोशन नहीं ले सकती.’

तब अजय ने ही काफी समझाया था कि बच्चे अब इतने छोटे भी नहीं रहे हैं कि तुम्हारे बिना रह न सकें. और फिर आगेपीछे उन्हें आत्मनिर्भर होना ही है. अब जब इतने सालों की नौकरी के बाद तुम्हें यह अच्छा मौका मिल रहा है तो उसे छोड़ना उचित नहीं है. फिर आजकल टेलीफोन, मोबाइल सारी सुविधाएं इतनी अधिक हैं कि दिन में 4 बार बात कर लो. फिर वहां तुम्हें सुविधायुक्त फ्लैट मिल रहा है, नौकरचाकर की सुविधा है. तुम्हें छुट्टी नहीं मिलेगी तो हम लोग आ जाएंगे, अच्छाखासा घूमना भी हो जाएगा.’’

काफी लंबी चर्चा के बाद ही वह अपनेआप को इस छोटे से शहर में आने के लिए तैयार कर पाई थी.

रोहित और रश्मि भी उदास थे, उन्हें भी अजय ने समझाबुझा दिया था कि मां कहीं बहुत दूर तो जा नहीं रही हैं, साल 2 साल में प्रधानाचार्य बन कर यहीं आ जाएंगी.

यहां आ कर कुछ दिन तो उसे बहुत अकेलापन लगा था, दिन तो स्कूल की सारी गतिविधियों में निकल जाता पर शाम होते ही उदासी घेरने लगती थी. फोन पर बात भी करो तो कितनी बात हो पाती है. महीने में बस, 2 ही दिन दिल्ली जाना हो पाता था, वह भी भागदौड़ में.

ठीक है, अब लंबी छुट्टी ले कर जाएगी तो कुछ दिन आराम से सब के साथ रहना हो जाएगा.

9 बजतेबजते अजय का ही फोन आ गया. भारती ने उन्हें डाक्टर की पूरी बात विस्तार से बता दी थी.

‘‘ठीक है, तो तुम फिर वहीं उसी डाक्टर के नर्सिंग होम में आपरेशन करा लो.’’

‘‘पर अजय, मैं तो दिल्ली आने की सोच रही थी, वहां सुविधाएं भी ज्यादा हैं और फिर तुम सब के साथ रहना भी हो जाएगा,’’ भारती ने चौंक कर कहा था.

‘‘भारती,’’ अजय की आवाज में ठहराव था, ‘‘भावुक हो कर नहीं, व्यावहारिक बन कर सोचो. दिल्ली जैसे महानगर में जहां दूरियां इतनी अधिक हैं, वहां क्या सुविधाएं मिलेंगी. बच्चे अलग पढ़ाई में व्यस्त हैं, मेरा भी आफिस का काम बढ़ा हुआ है. इन दिनों चाह कर भी मैं छुट्टी नहीं ले पाऊंगा. वहां तुम्हारे पास सारी सुविधाएं हैं, फिर आपरेशन के बाद तुम लंबी छुट्टी ले कर आ जाना. तब आराम करना. और हां, आपरेशन की बात अब टालो मत. डाक्टर कह रही हैं तो तुरंत करा लो. इतने महीने तो हो गए तुम्हें तकलीफ झेलते हुए.’’

भारती चुप थी. थोड़ी देर बात कर के उस ने फोन रख दिया था. देर तक फिर सहज नहीं हो पाई.

वह जो कुछ सोचती है, अजय उस से एकदम उलटा क्यों सोच लेते हैं. देर रात तक नींद भी नहीं आई थी. सुबह अजय का फिर फोन आ गया था.

‘‘ठीक है, तुम कह रहे हो तो यहीं आपरेशन की बात करती हूं.’’

‘‘हां, फिर लंबी छुट्टी ले लेना…’’ अजय का स्वर था.

प्रीति जब उस की तबीयत पूछने आई तो भारती ने फिर वही बातें दोहरा दी थीं.

‘‘हो सकता है दीदी, अजयजी ठीक कह रहे हों. यहां आप के पास सारी सुविधाएं हैं. नर्सिंग होम छोटा है तो क्या हुआ, डाक्टर अच्छी अनुभवी हैं, फिर अगर आपरेशन कराना ही है तो कल ही बात करते हैं.’’

भारती ने तब प्रीति की तरफ देखा था. कितनी जल्दी स्थिति से समझौता करने की बात सोच लेती है यह.

फिर आननफानन में आपरेशन के लिए 2 दिन बाद की ही तारीख तय हो गई थी.

अजय का फिर फोन आ गया था.

‘‘भारती, मुझे टूर पर निकलना है, इसलिए कोशिश तो करूंगा कि उस दिन तुम्हारे पास पहुंच जाऊं पर अगर नहीं आ पाऊं तो तुम डाक्टर से मेरी बात करा देना.’’

हुआ भी यही. आपरेशन करने से पहले डाक्टर प्रभा की फोन पर ही अजय से बात हुई, क्योंकि उन्हें अजय की अनुमति लेनी थी. सबकुछ सामान्य था पर एक अजीब सी शून्यता भारती अपने भीतर अनुभव कर रही थी. आपरेशन के बाद भी वही शून्यता बनी रही.

शरीर का एक महत्त्वपूर्ण अंग निकल जाने से जैसे शरीर तो रिक्त हो गया है, पर मन में भी एक तीव्र रिक्तता का अनुभव क्यों होने लगा है, जैसे सबकुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं है उस के पास.

‘‘दीदी, आप चुप सी क्यों हो गई हैं, आप के टांके खुलते ही डाक्टर आप को दिल्ली जाने की इजाजत दे देंगी. बड़ी गाड़ी का इंतजाम हो गया है. स्कूल के 2 बाबू भी आप के साथ जाएंगे. अजयजी से भी बात हो गई है,’’ प्रीति कहे जा रही थी.

तो क्या अजय उसे लेने भी नहीं आ रहे. भारती चाह कर भी पूछ नहीं पाई थी.

उधर प्रीति का बोलना जारी था, ‘‘दीदी, आप चिंता न करें…भरापूरा परिवार है, सब संभाल लेंगे आप को, परेशानी तो हम जैसे लोगों की है जो अकेले रह रहे हैं.’’

पर आज भारती प्रीति से कुछ नहीं कह पाई थी. लग रहा था कि जैसे उस की और प्रीति की स्थिति में अधिक फर्क नहीं रहा अब.

हालांकि अजय के औपचारिक फोन आते रहे थे, बच्चों ने भी कई बार बात की पर उस का मन अनमना सा ही बना रहा.

अभी सीढि़यां चढ़ने की मनाही थी पर दिल्ली के फ्लैट में लिफ्ट थी तो कोई परेशानी नहीं हुई.

‘‘चलो, घर आ गईं तुम…अब आराम करो,’’ अजय की मुसकराहट भी आज भारती को ओढ़ी हुई ही लग रही थी.

बच्चे भी 2 बार आ कर कमरे में मिल गए, फिर रोहित को दोस्त के यहां जाना था और रश्मि को डांस स्कूल में. अजय तो खैर व्यस्त थे ही.

नौकरानी आ कर उस के कपड़े बदलवा गई थी. फिर वही अकेलापन था. शायद यहां और वहां की परिस्थिति में कोई खास फर्क नहीं था, वहां तो खैर फिर भी स्कूल के स्टाफ के लोग थे, जो संभाल जाते, प्रीति एक आवाज देते ही नीचे आ जाती पर यहां तो दिनभर वही रिक्तता थी.

बच्चे आते भी तो अजय को घेर कर बैठे रहते. उन के कमरे से आवाजें आती रहतीं. रश्मि के चहकने की, रोहित के हंसने की.

शायद अब न तो अजय के पास उस से बतियाने का समय है न पास बैठने का, और न ही बच्चों के पास. आखिर यह हुआ क्या है…2 ही दिन में उसे लगने लगा कि जैसे उस का दम घुटा जा रहा है. उस दिन सुबह बाथरूम में जाने के लिए उठी थी कि पास के स्टूल से ठोकर लगी और एक चीख सी निकल गई थी. दरवाजे का सहारा नहीं लिया होता तो शायद गिर ही पड़ती.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ अजय यह कहते हुए बालकनी से अंदर की ओर दौडे़.

‘‘कुछ नहीं…’’ वह हांफते हुए कुरसी पर बैठ गई थी.

‘‘भारती, तुम्हें अकेले उठ कर जाने की क्या जरूरत थी? इतने लोग हैं, आवाज दे लेतीं. कहीं गिर जातीं तो और मुसीबत खड़ी हो जाती,’’  अजय का स्वर उसे और भीतर तक बींध गया था.

‘‘मुसीबत, हां अब मुसीबत सी ही तो हो गई हूं मैं…परिवार, बच्चे सब के होते हुए भी कोई नहीं है मेरे पास, किसी को परवा नहीं है मेरी,’’ चीख के साथ ही अब तक का रोका हुआ रुदन भी फूट पड़ा था.

‘‘भारती, क्या हो गया है तुम्हें? कौन नहीं है तुम्हारे पास? हम सब हैं तो, लगता है कि इस बीमारी ने तुम्हें चिड़चिड़ा बना दिया है.’’

‘‘हां, चिड़चिड़ी हो गई हूं. अब समझ में आया कि इस घर में मेरी अहमियत क्या है… इतना बड़ा आपरेशन हो गया, कोई देखने भी नहीं आया, यहां अकेली इस कमरे में लावारिस सी पड़ी रहती हूं, किसी के पास समय नहीं है मुझ से बात करने का, पास बैठने का.’’

‘‘भारती, अनावश्यक बातों को तूल मत दो. हम सब को तुम्हारी चिंता है, तुम्हारे आराम में खलल न हो, इसलिए कमरे में नहीं आते हैं. सारा ध्यान तो रख ही रहे हैं. रही बात वहां आने की, तो तुम जानती ही हो कि सब की दिनचर्या है, फिर नौकरी करने का, वहां जाने का निर्णय भी तो तुम्हारा ही था.’’

इतना बोल कर अजय तेजी से कमरे के बाहर निकल गए थे.

सन्न रह गई भारती. इतना सफेद झूठ, उस ने तो कभी नौकरी की इच्छा नहीं की थी. ब्याह कर आई तो ससुराल की मजबूरियां थीं, तंगहाली थी. 2 छोटे देवर, ननद सब की जिम्मेदारी अजय पर थी. सास की इच्छा थी कि बहू पढ़ीलिखी है तो नौकरी कर ले. तब भी कई बार हूक सी उठती मन में. सुबह से शाम तक काम से थक कर लौटती तो घर के और काम इकट्ठे हो जाते. अपने स्वयं के बच्चों को खिलाने का, उन के साथ खेलने तक का समय नहीं होता था, उस के पास तो दुख होता कि अपने ही बच्चों का बालपन नहीं देख पाई.

फिर यह बाहर की पोस्ंिटग, उस का तो कतई मन नहीं था घर छोड़ने का. यह तो अजय की ही जिद थी, पर कितनी चालाकी से सारा दोष उसी के माथे मढ़ कर चल दिए.

इच्छा हो रही थी कि चीखचीख कर रो पड़े, पर यहां तो सुनने वाला भी कोई नहीं था.

पता नहीं बच्चों से भी अजय ने क्या कहा था, शाम को रश्मि और रोहित उस के पास आए थे.

‘‘मम्मी, प्लीज आप पापा से मत लड़ा करो. सुबह आप इतनी जोरजोर से चिल्ला रही थीं कि अड़ोसपड़ोस तक सुन ले. कौन कहेगा कि आप एक संभ्रांत स्कूल की पिं्रसिपल हो,’’ रोहित कहे जा रहा था, ‘‘ठीक है, आप बीमार हो तो हम सब आप का ध्यान रख ही रहे हैं. यहां पापा ही तो हैं जो हम सब को संभाल रहे हैं. आप तो वैसे भी वहां आराम से रह रही हो और यहां आ कर पापा से ही लड़ रही हो…’’

विस्फारित नेत्रों से देखती भारती सोचने लगी कि अजय ने बच्चों को भी अपनी ओर कर लिया है. अकेली है वह… सिर्फ वह…

Latest Hindi Stories : एक रिश्ता प्यारा सा – अमर ने क्या किया था

Latest Hindi Stories :  “अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

वैसे भी 30 साल की अविवाहित, अकेली और खूबसूरत कन्या के साथ दोस्ती रखने के लिए लोग मरते हैं. फिर मैं तो इन सब के साथ काम कर रही हूं. 8 घंटे का साथ है. मुझे किसी भी चीज की जरूरत होती है तो सहकर्मी तुरंत मेरी मदद कर देते हैं. अच्छा ही है वरना अनजान शहर में अकेले रहना आसान नहीं होता.

दिल्ली के इस ब्रांच ऑफिस में मैं अपने एक प्रोजेक्ट वर्क के लिए आई हुई हूं. दोतीन महीने का काम है. फिर अपने शहर जयपुर वाले ब्रांच में चली जाऊंगी. इसलिए ज्यादा सामान ले कर नहीं आई हूं.

मैं ने लक्ष्मी नगर में एक कमरे का घर किराए पर ले रखा है. बगल के कमरे में दो लड़कियां रहती हैं. जबकि मेरे सामने वाले घर में पतिपत्नी रहते हैं. शायद उन की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ है. पत्नी हमेशा साड़ी में दिखती है. मैं सुबहसुबह जब भी खिड़की खोलती हूं तो सामने वह लड़का अपनी बीवी का हाथ बंटाता हुआ दिखता है. कभीकभी वह छत पर एक्सरसाइज करता भी दिख जाता है.

उस की पत्नी से मेरी कभी बात नहीं हुई मगर वह लड़का एकदो बार मुझे गली में मिल चुका है. काफी शराफत से वह इतना ही पूछता है,” कैसी हैं आप ? कोई तकलीफ तो नही यहां.”

“जी नहीं. सब ठीक है.” कह कर मैं आगे बढ़ जाती.

इधर कुछ दिनों से देश में कोरोना के मामले सामने आने लगे हैं. हर कोई एहतियात बरत रहा है. बगल वाले कमरे की दोनों लड़कियों के कॉलेज बंद हो गए. दोनों अपने शहर लौट गई .

उस दिन सुबहसुबह मेरे घर से भी मम्मी का फोन आ गया,” बेटा देख कोरोना फैलना शुरु हो गया है. तू घर आ जा.”

“पर मम्मी अभी कोई डरने की बात नहीं है. सब काबू में आ जाएगा. यह भी तो सोचो मुझे ऑफिस ज्वाइन किए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे लूं? बॉस पर अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ेगा. वैसे भी ऑफिस बंद थोड़े न हुआ है. सब आ रहे हैं.”

“पर बेटा तू अनजान शहर में है. कैसे रहेगी अकेली? कौन रखेगा तेरा ख्याल?”

“अरे मम्मी चिंता की कोई बात नहीं. ऑफिस में साथ काम करने वाले मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. सरला मैडम तो मेरे घर के काफी पास ही रहती है. उन की फैमिली भी है. 2 लोग हैं और हैं जिन का घर मेरे घर के पास ही है. इसलिए आप चिंता न करें. सब मेरा ख्याल रखेंगे.”

“और बेटा खानापीना… सब ठीक चल रहा है ?”

“हां मम्मा. खानेपीने की कोई दिक्कत नहीं है . मुझे जब भी कैंटीन में खाने की इच्छा नहीं होती तो सरला मैडम या दिवाकर सर से कह देती हूं. वे अपने घर से मेरे लिए लंच ले आते हैं. ममा डोंट वरी. मैं बिल्कुल ठीक हूं. गली के कोने में ढाबे वाले रामू काका भी तो हैं. मेरे कहने पर तुरंत खाना भेज देते हैं. ममा कोरोना ज्यादा फैला तो मैं घर आ जाऊंगी. आप चिंता न करो .”

उस दिन मैं ने मां को तो समझा दिया था कि सब ठीक है. मगर मुझे अंदाज भी नहीं था कि तीनचार दिनों के अंदर ही देश में अचानक लॉकडाउन हो जाएगा और मैं इस अनजान शहर में एक कमरे में बंद हो कर रह जाऊंगी. न घर में खानेपीने की ज्यादा चीजें हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट ही खुला हुआ है .

मैं ने सरला मैडम से मदद मांगी तो उन्होंने टका सा जवाब दे दिया,” देखो माया अभी तो अपने घर में ही खाने की सामग्री कब खत्म हो जाए पता नहीं . अभी न तुम्हारा घर से निकलना उचित है और न हमारे घर में ऐसा कोई है जो तुम्हें खाना दे कर आए. आई एम सॉरी. ”

“इट्स ओके .” बस इतना ही कह सकी थी मैं. इस के बाद मैं ने दिवाकर सर को फोन किया तो उन्होंने उस दिन तो खाना ला कर दे दिया मगर साथ में अपना एक्सक्यूज भी रख दिया कि माया अब रोज मैं खाना ले कर नहीं आ सकूंगा. मेरी बीवी भी तो सवाल करेगी न.

“जी मैं समझ सकती हूं . मुझे उन की उम्मीद भी छोड़नी पड़ी. अब मैं ने रमन जी को फोन किया जो हर समय मेरे लिए जान हाजिर करने की बात करते रहते थे. उन का घर भी लक्ष्मी नगर में ही था. हमेशा की तरह उन का जवाब सकारात्मक आया. शाम में खाना ले कर आने का वादा किया. रात हो गई और वह नहीं आए. मैं ने फोन किया तो उन्होंने फोन उठाया भी नहीं और एक मैसेज डाल दिया, सॉरी माया मैं नहीं आ पाऊंगा.

अब मेरे पास खाने की भारी समस्या पैदा हो गई थी. किराने की दुकान से ब्रेड और दूध ले आई. कुछ बिस्किट्स और मैगी भी खरीद ली. चाय बनाने के लिए इंडक्शन खरीदा हुआ था मैं ने. उसी पर किसी तरह मैगी बना ली. कुछ फल भी खरीद लिए थे. दोतीन दिन ऐसे ही काम चलाया मगर ऐसे पता नहीं कितने दिन चलाना था. 21 दिन का लॉकडाउन था. उस के बाद भी परिस्थिति कैसी होगी कहना मुश्किल था.

उस दिन मैं दूध ले कर आ रही थी तो गेट के बाहर वही लड़का जो सामने के घर में रहता है मिल गया. उस ने मुझ से वही पुराना सवाल किया,” कैसी हैं आप? सब ठीक है न? कोई परेशानी तो नहीं?”

“अब ठीक क्या? बस चल रहा है. मैगी और ब्रेड खा कर गुजारा कर रही हूं .”

“क्यों खाना बनाना नहीं जानती आप?

उस के सवाल पर मैं हंस पड़ी.

“जानती तो हूं मगर यहां कोई सामान नहीं है न मेरे पास. दोतीन महीने के लिए ही दिल्ली आई थी. अब तक ऑफिस कैंटीन और रामू काका के ढाबे में खाना खा कर काम चल जाता था. मगर अब तो सब कुछ बंद है न. अचानक लॉक डाउन से मुझे तो बहुत परेशानी हो रही है.”

“हां सो तो है ही. मेरी वाइफ भी 5-6 दिन पहले अपने घर गई थी. 1 सप्ताह में वापस आने वाली थी. संडे मैं उसे लेने जाता तब तक सब बंद हो गया. उस के घरवालों ने कहा कि अभी जान जोखिम में डाल कर लेने मत आना. सब ठीक हो जाए तो आ जाना. अब मैं भी घर में अकेला ही हूं.”

“तो फिर खाना?”

“उस की कोई चिंता नहीं. मुझे खाना बनाना आता है. ” उस के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“क्या बात है! यह तो बहुत अच्छा है. आप को परेशानी नहीं होगी.”

“परेशानी आप को भी नहीं होने दूंगा. कल से मैं आप के लिए खाना बना दिया करूंगा. आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ सामान लाना हो तो वह भी मुझे बताइए. आप घर से मत निकला कीजिए. मैं हूं न.”

एक अनजान शख्स के मुंह से इतनी आत्मीयता भरी बातें बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.” थैंक यू सो मच “मैं इतना ही कह पाई.

अगले दिन सुबहसुबह वह लड़का यानी अमर मेरे लिए नाश्ता ले कर आ गया. टेबल पर टिफिन बॉक्स छोड़ कर वह चला गया था. नाश्ते में स्वादिष्ट पोहा खा कर मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मैं दोपहर का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे वह फिर टिफिन भर लाया. इस बार टिफिन में दाल चावल और सब्जी थे. मैं सोच रही थी कि किस मुंह से उसे शुक्रिया करूं. अनजान हो कर भी वह मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है.

मैं ने उसे रोक लिया और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. वह थोड़ा सकुचाता हुआ बैठ गया. मैं बोल पड़ी ,” आई नो एक एक अनजान, अकेली लड़की के घर में ऐसे बैठना आप को अजीब लग रहा होगा. मगर मैं इस अजनबीपन को खत्म करना चाहती हूं. आप अपने बारे में कुछ बताइए न. मैं जानना चाहती हूं उस शख्स के बारे में जो मेरी इतनी हेल्प कर रहा है.”

“ऐसा कुछ नहीं माया जी. हम सब को एकदूसरे की सहायता करनी चाहिए.” बड़े सहज तरीके से उस ने जवाब दिया और फिर अपने बारे में बताने लगा,

“दरअसल मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं. मेरठ में मेरा घर है . स्कूल में हमेशा टॉप करता था. मगर घर के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे. सो इंटर के बाद ही मुझे नौकरी करनी पड़ी. करोल बाग में मेरा ऑफिस है. वाइफ भी मेरठ की ही है. बहुत अच्छी है. बहुत प्यार करती है मुझ से. हम दोनों की शादी पिछले साल ही हुई थी. दिल्ली आए ज्यादा समय नहीं हुआ है.”

“बहुत अच्छे. मैं भी दिल्ली में नई हूं. हमारे इस ऑफिस का एक ब्रांच जयपुर में भी है. वही काम करती थी मैं. यहां एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आई हुई हूं .अगर प्रमोशन मिल गया तो शायद हमेशा के लिए भी रहना पड़ जाए.”

अच्छा जी अब आप खाना खाएं. देखिए मैं ने ठीक बनाया है या नहीं.”

आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाते हैं. सुबह ही पता चल गया था. कह कर मैं हंस पड़ी. वह भी थोड़ा शरमाता हुआ मुस्कुराने लगा था. मैं खाती रही और वह बातें करता रहा.

अब तो यह रोज का नियम बन गया था. वह 3 बार मेरे लिए खाना बना कर लाता. मैं भी कभीकभी चाय बना कर पिलाती. किसी भी चीज की जरूरत होती तो वह ला कर देता . मुझे निकलने से रोक देता.

मेरे आग्रह करने पर वह खुद भी मेरे साथ ही खाना खाने लगा. हम दोनों घंटों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करते.

इस बीच मम्मी का जब भी फोन आता और वह चिंता करतीं तो मैं उन्हें समझा देती कि सब अच्छा है. मम्मी जब भी खाने की बात करतीं तो मैं उन्हें कह देती कि सरला मैडम मेरे लिए खाना बना कर भेज देती हैं. कोई परेशानी की बात नहीं है.

इधर अमर की वाइफ भी फोन कर के उस का हालचाल पूछती. चिंता करती तो अमर कह देता कि वह ठीक है. अपने अकेलेपन को टीवी देख कर और एक्सरसाइज कर के काट रहा है.

हम दोनों घरवालों से कही गई बातें एकदूसरे को बताते और खूब हंसते. वाकई इतनी विकट स्थिति में अमर का साथ मुझे मजबूत बना रहा था. यही हाल अमर का भी था. इन 15- 20 दिनों में हम एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. और फिर एक दिन हमारे बीच वह सब हो गया जो उचित नहीं था.

अमर इस बात को ले कर खुद को गुनहगार मान रहा था. मगर मैं ने उसे समझाया,” तुम्हारा कोई दोष नहीं अमर. भूल हम दोनों से हुई है. पर इसे भूल नहीं परिस्थिति का दोष समझो. यह भूल हम कभी नहीं दोहराएंगे. मगर इस बात को ले कर अपराधबोध भी मत रखो. हम अच्छे दोस्त हैं और हमेशा रहेंगे. एक दोस्त ही दूसरे का सहारा बनता है और तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. मुझे खुशी है कि मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिला.”

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर से भी तनाव की रेखाएं गायब हो गई और वह मंदमंद मुस्कुराने लगा.

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