हैप्पी एंडिंग: भाग-2

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

शाम को जब सभी भाई गली में क्रिकेट खेल रहे होते, मां, चाचियां रसोई में और

दादी ड्योढ़ी में बैठी पड़ोस की महिलाओं से बात कर होतीं, मुझे अच्छा समय मिल जाता छत पर जाने का… उम्मीद के मुताबिक सुमित मेरा ही इंतजार कर रहे होते… संकोच और डर के साथ शुरू हुई हमारी बात, उन की बातों में इस कदर खो जाती… कब अंधेरा हो जाता पता ही नहीं चलता.

उस दिन भाई की आवाज सुन कर मैं प्रेम की दुनिया से यथार्थ में आई, सुमित से विदा ले कर नीचे आई ही थी कि घरवालों के सवालों के घेरे में खड़ी हो गई.

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘छत पर इतनी रात को अकेले क्या कर रही थी?’’

‘‘दिमाग सही रहता है कि नहीं तुम्हारा.’’

मैं चुपचाप सिर झुकाए खड़ी थी, क्या बोलूं… सच बोल दूं… ‘‘आप सभी की तमाम बंदिशों को तोड़ कर किसी से प्यार करने लगी हूं, मेरे जन्म के साथ ही जिस डर के साये में दादी ने सभी को जिंदा रखा है आखिरकार वह डर सच होने जा रहा है.’’ मेरे शब्द मेरे दिमाग में चल रहे थे जुबां पर लाने की हिम्मत नहीं थी… कुछ नहीं बोली मैं, सुनती रही… जब सब बोल कर थक गए तो मैं अपने कमरे में चली गई.

ऐसे ही समय बीतता गया और मेरा प्यार परवान चढ़ता गया. 10 दिनों के बाद सुमित मद्रास के लिए निकल गए, उस दिन मैं छत पर उस की बाहों में घंटों रोती रही वह मुझे समझाता रहा, विश्वास दिलाया कि वह मुझे कभी नहीं भूलेगा, हमारा प्रेम आत्मिक है जो मरने के बाद भी जिंदा रहेगा.

‘‘हमें इंतजार करना होगा रीवा, पढ़ाई पूरी करने के बाद ही हम घर वालों से बात कर

सकते हैं.’’

‘‘मैं तो पढ़ाई पूरी करने के बाद भी बात नहीं कर सकती, तुम जानते हो मेरे परिवार को… जिस दिन उन्हें भनक भी लग गई तो वे बिना सोचे मेरी शादी किसी से भी करा देंगे और मैं रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकती.’’

‘‘हम्म… मुझे एहसास है इस बात का, मैं ने एक डरपोक लड़की से प्रेम कर लिया है,’’ हंसते हुए सुमित ने कहा तो मेरी भी हंसी छूट गई.

इसी तरह 4 वर्ष बीत गए… हर गर्मियों

की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए सुमित आते हम ऐसे छिप कर मिलते फिर पूरा साल खतों

के सहारे बिताते… बीना आंटी को हम दोनों के बारे में सब पता था… मेरे खत उन्हीं के पते पर आते थे, बीना आंटी मुझे बहुत प्यार करती थी. उन के लिए तो मैं 4 साल पहले ही उन की बहू बन गईर् थी.

मैं बीकौम कर रही थी उधर सुमित को डाक्टर की डिगरी मिल गई. एमडी करने के लिए वह पुणे शिफ्ट हो गया और मैं दादी की आंखों की किरकिरी बनती जा रही उन्होंने वह मेरी शादी के लिए पिताजी पर जोर डालना शुरू कर दिया था, हर दिन पंडितजी को बुलावा जाता, नएनए रिश्ते आते, कुंडली मिलान के बाद रिश्तों की लिस्ट बनती फिर शुरू हो जाता आनाजाना, मैं ने बीना आंटी से कहा वे मां से बात करें नहीं तो दादी मेरी शादी कहीं और करा देंगी.

बीना आंटी ने मां से बात की तो मां को विश्वास नहीं हुआ इतनी बंदिशों के बाद उन की बेटी ने प्रेम करने की हिम्मत कैसे कर ली वह भी दूसरी जाति में.

‘‘तू चल अपने कमरे में’’ पहली बार मां का यह सख्त रूप देख रही थी.

‘‘मां, मैं सुमित से ही शादी करूंगी नहीं तो खुद को मार लूंगी.’’

‘‘तो किस ने रोका तुम्हें. वैसे भी मारी जाओगी इस से अच्छा है खुद को मार लो, मेरा परिवार तो गुनाह करने से बच जाएगा.’’

‘‘मां’’ मैं ने तड़पते हुए कहा.

गुस्से से मां कांप रही थी उन की ममता ने उन्हें रोक लिया था नहीं तो शायद उस

दिन उन्होंने मेरा गला दबा दिया था.

चुपचाप मेरे लिए दूल्हा ढूंढ़ने का तमाशा देखने वाली मेरी मां… दादी के साथ मिल कर खुद दूल्हा ढूंढ़ रही थी.

इस घर में एकमात्र सहारा मेरी मां मुझ से दूर हो गई थी, बीना आंटी ने सुमित से बात की… सुमित उधर परीक्षा शुरू होने वाली थी और इधर मेरी जिंदगी की.

कभी सोचती…

‘‘खुद को मार लूं या सुमित के पास भाग जाऊं?’’

‘‘नहीं… नहीं सुमित के पास नहीं जा सकती नहीं तो ये लोग उस को मार देंगे, बीना आंटी को भी बदनाम कर देंगे… कुछ भी कर सकते हैं.’’

भाइयों को रईसी विरासत में मिली थी पढ़ाई छोड़ राजनीति और गुंडागर्दी में आगे थे.

मेरी कोई सहेली भी नहीं थी जिस से दिल की बात कर सकूं. बीना आंटी से बात न करने की मां की सख्त हिदायत थी. अब तो सुमित के खत भी नहीं मिलते, उस की कोई खबर नहीं… मैं कहां जाती… किस से बात करती, यहां सब दादी के इशारे पर चलते थे.

कालेज से घर… घर से कालेज यही मेरी लाइफ थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब मेरी शादी की डेट फिक्स हो गई… एनआरआई दूल्हा, पैसेरुपए वाले और क्या चाहिए था इन लोगों को.

मैं एक जीतीजागती, चलतीफिरती गुडि़या बन गई थी जिस के अंदर भावनाओं का ज्वार ज्वालामुखी का रूप ले रहा था, मैं चुप थी… क्योंकि मेरी मां चुप थी. यहां बोलने का कोई फायदा नहीं सभी ने अपने दिल के दरवाजे पर बड़ा ताला लगा रखा था, जहां प्रेम को पाप समझा जाए वहां मैं कैसे अपने प्रेम की दुहाई दे कर अपने प्रेम को पूर्ण करने के लिए झोली फैलाती, यहां दान के बदले प्रतिदान लेने की प्रथा है, इन के लिए सच्चा प्रेम सिर्फ कहानियों में होता है. लैला मजनू, हीररांझा ये सब काल्पनिक कथाएं ऐसे विचारों के बीच मेरा प्रेम अस्तित्वहीन था.

अब तो कोई चमत्कार ही मुझे मेरे प्रेम से मिला सकता था. हैप्पी ऐंडिंग तो

कहानियों में होती है असल जिंदगी में समझौते से ऐंडिंग होती है. फिर भी एक आस थी मेरे मन में, सुमित मुझे नहीं छोड़ेगा, वह जरूर आएगा… दुलहन के लाल जोड़े में बैठी उसी आखिरी आस के सहारे बैठी थी… कभी लगता… अभी दूसरे दरवाजे से सुमित निकल कर आएंगे और मैं उन का हाथ थामे यहां से निकल जाऊंगी… लेकिन उस को नहीं आना था और वह नहीं आया, मेरा प्रेम झूठा था या उस के वादे… दिल टूटा और

मैं रीवा… उस पल में मर गई, प्रेम कहानियों

से प्यार करने वाली मैं… कहानियों से नफरत करने लगी, सब कुछ झूठ और धोखे का पुलिंदा बन गया…

मंडप में बैठी मैं शून्य थी, मुझे याद भी नहीं कैसे रस्में हुई, शादी हुई… मैं होश में नहीं थी.

विदाई के वक्त बीना आंटी दरवाजे पर खड़ी थीं मैं रोते हुए उन के गले लग गई… मैं ने फुसफुसा कर कहा ‘‘मेरा प्यार छिन लिया अभी कुछ वक्त पहले मैं ने सुमित को बेवफा समझा… वह वहां अनजान बैठा है और मैं किसी और के नाम का सिंदूर सजा कर खड़ी हूं.’’

आगे पढें- मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई…

हैप्पी एंडिंग: भाग-1

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

आज10 वर्ष के बाद फिर उसी गली में खड़ी थी. इन्हीं संकरी पगडंडियों के किनारे बनी इस बड़ी हवेली में गुजरा मेरा बचपन, इस हवेली की छत पर पनपा मेरा पहला प्यार… जिस का एहसास मेरे मन को भिगो रहा था. एक बार फिर खुली मेरी यादों की परतें, जिन की बंद तहों पर सिलवटें पड़ी हुई थीं, गलियों से निकलते हुए मेरी नजर चौराहे पर बने गांधी पार्क पर पड़ी, छोटेछोटे बच्चों की खिलखिलाहट से पार्क गुंजायमान हुआ था, पार्क के बाहर अनगिनत फूड स्टौल लगे हुए थे जिन पर महिलाएं खानेपीने के साथ गौसिप में खोई थीं… सुखद एहसास हुआ… चलो, आज की घरेलू औरतें चाहरदीवारी से कुछ समय अपने लिए निकाल रही हैं, मैं ने तो मां, चाचियों को दादी के बनाए नियम के अनुसार ही जीते देखा है, पूरा दिन घर के काम और रसोई से थोड़ी फुर्सत मिलती तो दादी बडि़यां, चिप्स और पापड़ बनाने में लगा देतीं.

चाचियां भुनभुनाती हुई मां के पीछे लगी रहतीं, किसी के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी

कि कुछ समय आराम करने के लिए मांग सके. दादी के तानाशाही रवैये से सभी त्रस्त थे लेकिन ज्यादातर उन की शिकार मैं और मां बनते थे.

पूरे खानदान में मेरे रूपसौंदर्य की चर्चा होती तो वहीं दादी को मैं फूटी आंख नहीं सुहाती, मेरे स्कूल आनेजाने के लिए भाई को साथ लगा

दिया जो कालेज जाने तक साए की तरह साथ लगा रहता.

10 बेटों के बीच मैं एक एकलौती बेटी थी. सभी का भरपूर प्यार मिला लेकिन साथ कई बंदिशें भी, पिताजी अपने 5 भाइयों के साथ बिजनैस संभालने में व्यस्त रहते और भाइयों को मेरी निगरानी में लगा रखा था जो अपना काम बड़ी ईमानदारी से करते थे.

परीक्षा खत्म होने के साथसाथ गर्मियोें की छुट्टियों में कुछ दिन आजादी के मिलते थे जब मां अपने मायके और मैं और भाई मामा के घर खुद के बनाए नियम में जीते थे. मैं बहुत खुश थी, मामा के घर जाना है लेकिन अगली सुबह ही दादी ने घर में एक नया फरमान जारी किया… ‘‘रीवा कहीं नहीं जाएगी… लड़की जवान हो रही है. ऐसे में तो अपने सगों पर भरोसा नहीं तो मैं कैसे जाने दूं उसे तेरी ससुराल, कुछ ऊंचनीच हो गई तो सारी उम्र सिर फोड़ते रहोगे. तुम्हारी घरवाली जाना चाहे तो जा सकती है बस रीवा नहीं जाएंगी. पिताजी हमेशा की तरह सिर झुकाए हां में हां मिलाए जा रहे थे.’’

मेरी आंखों से गंगाजमुना की धार बह चली थी. पता नहीं उन दिनों इतना रोना क्यों आता था अब तो बड़ी से बड़ी बात हो जाए आंखें सूखी रहती हैं.

खूब रोनाधोना मचाया लेकिन कुछ काम नहीं आया. मुझ पर लगी इस बंदिश ने मां का मायका भी छुड़ा दिया. मां की तकलीफ देख कर दिल से आह निकली ‘‘काश… मैं लड़की नहीं होती’’ उस दिन पहली बार लड़की होने पर दु:ख हुआ था.

छत की मुंडेर पर बैठी चाची के रेडियो से गाने सुन रही थी, रफी के हिट्स चल रहे थे… दर्द भरे गानों में खुद को फिट कर दुखी होने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. तभी पीछे की छत से आवाज आई ‘‘गाना अच्छा है.’’

पीछे मुड़ कर देखा एक हैंडसम लड़का मेरी तरफ देख कर मुसकरा रहा था… ‘‘पर ये हैं कौन?’’ खुद से सवाल किया.

‘‘हाय… मैं सुमित, यह मेरी बूआ का घर है… आप का नाम?’’

अच्छा… तो ये बीना आंटी का भतीजा है.

‘‘मेरा नाम जानने की कोशिश न ही करो यही तुम्हारे लिए बेहतर होगा’’ कहते हुए मैं

अपने कमरे में चली आई. मैं वहां से चली तो आई पर न जाने कैसा एहसास साथ ले आई

थी. 17 की हो गई थी और आज तक कभी

किसी भी लड़के ने मुझ से बात करना तो दूर… नजर उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं की थी और इस का पूरा श्रेय मेरे आदरणीय भाइयों को जाता है.

और उस दिन पहली बार किसी लड़के ने मुझ से मुसकरा कर मेरा नाम पूछा था… जैसे मेरे अंदर प्रेम की सुप्तावस्था को थपकी दे कर उठा रहा हो, मैं उस के उठने के एहसास से ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि मैं जानती थी कि यह एहसास एक बार जग गया तो मेरे साथ मेरी मां भी कभी न शांत होने वाले तूफान में फंस जाएंगी, जिस से निकलने की कोशिश मात्र से ही मेरे अस्तित्व की धज्जियां उड़ जाएंगी.

अगले दिन दिमाग के लाख मना करने के बाद भी दिल ने अपनी बात मुझ से मनवा ली और मैं फिर छत की मुंडेर के उस कोने में खड़ी हो गई. वह सामने ही खड़ा था लैमन यलो कलर की शर्ट के साथ ब्लू जींस में. बहुत हैंडसम दिख रहा था, बीना आंटी भी साथ में थी. उन्हें देख कर मैं ने अपने कदम पीछे करना चाहे तब तक बीना आंटी ने मुझे देख लिया था.

‘‘रीवा, इस बार अपने मामा के घर नहीं गई.’’

‘‘नहीं, आंटी… मां की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए दादी ने मना कर दिया.’’

‘‘ओह, काफी दिनों से सुरेखा भाभी से मिली नहीं, समय मिलते ही आऊंगी उन से मिलने.’’

‘‘जी… आंटी.’’

‘‘अरे हां… इस से मिलो, मेरा भतीजा सुमित… कल ही मद्रास से आया, वहां मैडिकल कालेज में पढ़ता है. 10 दिन की छुट्टियों में इस को बूआ की याद आ गई,’’ हंसते हुए बीना आंटी ने कहा.

‘‘बूआ, अच्छा हुआ मैं इस बार यहां आ गया यह तो पता चला आप के शहर में कितनी खूबसूरती छिपी है,’’ सुमित की आंखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं.

मैं गुलाबी हो रही थी… शर्म से, प्रेम से, आनंद से.

मैं ही जानती हूं उस पल मैं वहां कैसे खड़ी थी. आंटी के जाते ही आंधी की तरह भागती हुई अपने कमरे में पहुंच गई, सुमित की आंखें जाने क्याक्या बयां कर गई थीं, उस की आंखों का स्थायित्व मुझे एक अदृश्य डोर में बांध रहा था… मैं बंधती जा रही थी… दिल के साथ अब दिमाग भी विद्रोही हो गया था… क्या इसे ही पहला प्यार कहते हैं, यह कैसा अनुभव है, दिल का चैन खत्म हो चुका था, अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी, भूखप्यास सब खत्म… घर वालों को लगता मैं मामाजी के घर न जाने के कारण ऐसे गुमसुम सी, बेचैन हो कर छत के चक्कर लगाती हूं और उन का यह सोचना मेरे लिए अच्छा था, मुझ पर नजर थोड़ी कम रखी जाती.

आगे पढ़ें-  उस दिन भाई की आवाज सुन कर मैं…

हैप्पी एंडिंग: ऐसा क्या हुआ रीवा और सुमित के साथ?

हैप्पी एंडिंग: भाग-3

मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई, आसपास रिश्तेदारों की भीड़ थी इसलिए थोड़ा पास आ कर मैं ने उन से कहा ‘‘आज कसम ले कर जा रही हूं, पीछे मुड़ कर नहीं देखूंगी, आज के बाद आप लोग मुझ से मिलने की कोशिश मत करना, खत्म हुआ इस घर से

मेरा रिश्ता.’’

फिर मैं ने मुड़ कर नहीं देखा, हेमंत ने शादी तो की लेकिन पति बनने की कोशिश नहीं की… मुझ से दूर रहते थे… पहले तो मुझे लगा शायद मेरी बेरुखी और उदास रवैए की वजह से मुझ से दूर है, मगर मेरी यह गलतफहमी अमेरिका जाने के बाद दूर हुई… वहां पता चला हेमंत पहले से शादीशुदा है, मुझ से शादी उस ने घर वालों के लिए किया है, मुझे ये सुन कर बहुत खुशी हुई क्योंकि मैं खुद इस रिश्ते के बंधन से आजादी चाहती थी, मैं सिर्फ सुमित की थी मरते दम तक उसी की रहूंगी लेकिन मेरी मजबूरी थी कि मैं हेमंत के साथ रहूं, उस की पत्नी जेनी का मेरे साथ व्यवहार अच्छा था.

कुछ दिनों के बाद उस ने तलाक देने की बात कर मुझे इस मुश्किल परिस्थिति से अपना रास्ता निकालने का उपाय दे दिया… मैं ने एक शर्त रखी, ‘‘तलाक देने के लिए मैं तैयार हूं, बस मुझे यहां रहने और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सपोर्ट करो. लेकिन सपोर्ट मुझे लोन की तरह चाहिए क्योंकि मैं वापस भारत नहीं जाना चाहती, मेरी पढ़ाई पूरी होते ही सारे पैसे चुका दूंगी.’’

वे दोनों मान गए और शुरू हुई मेरी एक नई कहानी… वह कहते हैं जो होता है अच्छे के लिए होता है, यह मेरे लिए अच्छा था… चार्टड एकाउंटैंट बनने का मेरा सपना पूरा हुआ, अमेरिका में मेरा खुद का लौ फर्म है, कुछ साल काम करने के बाद हेमंत का एकएक पैसा मैं ने वापस कर दिया था, लेकिन उस का एहसान नहीं भूल सकती. जब सारे रास्ते बंद थे तब हेमंत और जेनी ही मेरे साथ थे… बीते इन सालों में हेमंत का परिवार ही मेरा परिवार था, उस की पत्नी जेनी मेरी बैस्ट फ्रैंड बन गई थी. सुमित की बहुत याद आती थी. उस से बात करने के लिए न जाने कितनी बार फोन उठाया पर हिम्मत नहीं कर पाई… अनजाने में ही सही मैं अपनी प्रेम कहानी में गलत बन गई.

सालों के बाद काम की वजह से भारत आई तो यहां आने से खुद को रोक नहीं

पाई. खुद को दी कसम मैं भूलना चाहती हूं.

‘‘रीवा… तुम रीवा हो न, कितनी खूबसूरत हो गई हो, सुंदर पहले से थी लेकिन अब नूर टपक रहा है तुम पर’’ बीना आंटी सब्जियों की थैलियों को संभालते हुए मेरे सामने खड़ी थीं.

‘‘जी, आंटी… रीवा हूं. कैसी हैं आप’’ उन को देख कर मुझे कोई खुशी नहीं हुई जो उन्हें समझ आ गया था.

‘‘रीवा, मैं जानती हूं तुम मुझे कभी माफ नहीं करोगी, सुमित ने भी आज तक मुझे माफ नहीं किया, तुम दोनों के बीच संवाद का सूत्र मैं थी लेकिन तुम्हारे दिए गए खत सुरेखा भाभी के कहने पर मैं ने भेजना बंद कर दिया और सुमित को कुछ नहीं बताया.’’

‘‘आंटी, अब इन सभी बातों का कोई फायदा नहीं… जो मेरी किस्मत में था वह मिला मुझे’’

‘‘रीवा… तू यहां… कितनी बदल गई है.’’

बड़ी चाची भी सब्जी ले कर आ रही थीं.

‘‘चाची नमस्ते… आप सब्जी लेने आई हैं?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अब सब बदल गया बिटिया. घर के 6 हिस्से हो गए सब अपनी जिंदगी अपने अनुसार जीते हैं, अब कोई रोकटोक नहीं, तुम्हारी शादी की सचाई सुन कर भाभी तो जैसे पत्थर हो गई हैं, माताजी का रौब धीरेधीरे खत्म हो गया, अब तो बेटा… सब बदल गया’’ चाची ने एक सांस में घर की सारी कहानी बता दी.

‘‘अच्छा… चाची, बीना आंटी… मुझे कुछ काम है, कल घर आऊंगी.’’

मुझे निकलना था वहां से, अभी मां को फेस करने की हिम्मत नहीं थी मुझ में, आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा था. उस समय मेरा दिल टूटा था, गुस्से में थी लेकिन बाद में कई मौके थे जब मैं मां से बात कर सकती थी, गुस्से में लिए मेरे एक फैसले के कारण मेरी मां अपराधबोध में जीवन जी रही है… तड़प उठी मैं, मां से मिलने की इच्छा तीव्र हो रही थी, किसी तरह रात गुजरी, सूरज की किरणों के निकलने से पहले मैं हवेली के गेट के सामने खड़ी थी. मेरे आने की सूचना घर के अंदर पहुंच चुकी थी, सभी नींद से उठ कर बाहर निकल आए थे… ड्योढ़ी में दादी मिल गईं. मुझे अपनी बाहों में ले कर रोने लगी… यह मेरे लिए नया अनुभव था, आज तक मुझे कभी दादी की गोद नसीब नहीं हुई और अब इतना प्यार… सच कहा था चाची ने… सब बदल गया है.

मेरी आंखें मां को ढूंढ़ रही थी, पिताजी के पास गई उन्होंने सिर पर हाथ रखते हुए कहा ‘‘अच्छा किया बिटिया… घर आ गई, सुना है बड़ी अफसर बन गई है… जीती रहो, दुनिया भर की खुशियां मिलें तुम्हें.’’

‘‘पिताजी, मां कहां है?’’

‘‘बिटिया… वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकलती, जाओ उस के पास, हो सकता है तुम्हें देख कर ठीक हो जाए.’’

मैं भारी कदमों से कमरे में पहुंची… मां बिस्तर के एक कोने में सिर टिकाए छत को घूर रही थी, निस्तेज आंखें, उन का गोरा सुंदर चेहरा फीका पड़ा था. मां को ऐसे देख मेरा दिल तड़प उठा.

‘‘मां… देखो मैं आ गई, तुम मुझे कैसे भूल गई. माना मैं नाराज थी, तुम ने भी कभी मिलने की कोशिश नहीं की, ऐसे यहां आराम से बैठी हो. इतनी दूर से आई हूं, अपनी रीवा को कुछ खिलाओगी नहीं.’’

जैसेतैसे खुद को सयंत करते हुए मां से बात करने लगी.

‘‘रीवा… मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… बहुत अन्याय किया मैं ने तेरे साथ.’’

मां ने कहा.

मेरी आंखें आज वर्षों बाद आंसुओं से भीग गईं. दोनों गले लग कर खूब रोए… आंसुओं के साथ गिलेशिकवे दूर हो रहे थे, 10 वर्षों के बाद आज मांबेटी का मिलन हो गया, मेरी मां आज मुझे वापस मिल गई. जिन रिश्तों से मुंह मोड़ कर में चली गई थी आज वो रिश्ते पहले से कहीं ज्यादा प्यार के साथ एक सुखद बदलाव के साथ मिले. कुछ नए रिश्ते भी… इस घर में आई बहुएं जो आजाद थीं, अपनी मर्जी की जिंदगी जी रही थीं, वे खुश थीं… जिंदगी में बदलाव हर लिहाज से अच्छा होता है.

शाम को सब से नजरें छिपाते मैं फिर मुंडेर पर आ गई… सब से मिल कर भी मेरे दिल का एक कोना उदास था.

‘‘सुमित… इतने वर्ष बीत गए अब तो तुम मुझे भूल गए होगे’’ बुदबुदाते हुए मैं मुंडेर पर बैठ गई.

‘‘ऐसा सोच भी कैसे लिया रीवा… तुम्हारा सुमित तुम्हें भूल जाएगा’’ सुमित की आवाज सुन कर मैं मुंडेर से कूद पड़ी.

‘‘संभल कर उतरो, चोट लग जाएगी.’’

सुमित ही है… मेरे सुमित, कितने बदल गए हैं. लड़कपन की छवि से निकल कर धीरगंभीर बेहद खूबसूरत प्रभावशाली व्यक्ति के मालिक सुमित मेरे सामने है. मैं स्तब्ध थी. वाकई क्या

वही है या मेरी आंखों को छलावा हुआ. मुझे

न मेरी आंखों पर भरोसा था न कानों पर. वो मुसकान कैसे भूल सकती हूं जिस के सहारे इतने वर्ष बिता दिए, मेरा वजूद उस के पास होने के अनुभव मात्र से परिपूर्ण हो रहा था. रिक्तता भरने लगी, दिल के उस दर्द भरे हिस्से को जैसे अमृत मिल गया हो.

‘‘रीवा… तुम ठीक हो, बूआ ने फोन किया कि तुम वापस आ गई हो. मैं जानता था एक न एक दिन तुम मेरे पास आओगी. जब प्रेम सच्चा हो तो मिलन जरूर होता है देर से ही सही,’’ मेरा हाथ उस ने अपने हाथों में ले लिया. उस की बातें, उस के स्पर्श से मैं भीग रही थी.

‘‘तुम सच में मेरे पास हो’’मेरे शब्दों में कंपन था, चेतना खो रही थी… मैं बेसुध हो उस की बाहों में झूल गई.

आंख खुली तो सभी घरवाले मुझे घेर कर खड़े थे, बीना आंटी, मां एकदूसरे का

हाथ थामे मुसकरा रही थीं.

सुमित मेरे सिरहाने बैठे थे.

मैं ने हैरत से सब को देखा सब के चेहरे पर सहमति दिख रही थी, सुमित का हाथ मैं ने अपने हाथों में थाम लिया… आखिरकार मेरे प्यार की हैप्पी ऐंडिंग हो ही गई.

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