कौफी डेट: दूसरों के लिए जीना चाहती थी अनन्या

शामके 5 बजते ही अनन्या को सहसा ध्यान आया कि आज बुधवार के दिन उस की एक कमिटमैंट थी खुद के साथ. चेहरे पर सहज फैलती मुसकान को रोक पाने में असमर्थ, उस ने जल्दीजल्दी खुद को एकत्रित करना शुरू किया कि अरे, आर्यन की मैथ्स की वर्कशीट तो उस ने कब की बना कर तैयार कर रखी है. जल्दी से उसे अध्ययन कक्ष की मेज पर रख कर वह बेटी अवनी को उठाने के लिए उस के कमरे की तरफ बढ़ी क्योंकि उसे दोपहर के विश्राम के बाद अपनी क्लासेज के लिए भी जाना था.

तमाम आपाधापी के बीच रात्रि के भोजन की भी एक रूपरेखा सी तैयार करनी थी, सो अनन्या तेज कदमों से फ्रिज की ओर बढ़ी. उस ने सब्जियां किचन के प्लेटफौर्म पर रख दीं ताकि उस की गैरमौजूदगी में भी उस की गृहसहायिका अपना काम शुरू कर सके. इन तमाम तैयारियों के बाद अनन्या ने फ्रिज के द्वार पर पति अक्षत के लिए एक छोटी सी परची लगा कर छोड़ी जिस में लिखा था, ‘‘तो फिर जल्दी ही मिलती हूं, कौफी डेट के बाद. तुम्हारी प्रिया,’’

अब 5 बज कर 20 मिनट पर वह खुद को संवारने में व्यस्त हो गई. सचमुच में कितना आनंददायक था यह विचार कि सप्ताह के बीचोंबीच उसे खुद को संवारने का मौका मिल रहा था. यह बात एक उपलब्धि से कम नहीं थी. बड़ी ही चेष्टा और मनोयोग से उस ने खुद को इस पल के लिए व्यवस्थित किया. अन्यथा घर की दिनचर्या, पति और बच्चों के साथ उन की जरूरतों को सम?ाते हुए उसे यह आभास ही नहीं रहा था कि अनन्या कौन थी और उस के जीवन का मकसद क्या था?

बढ़ती हुई जिम्मेदारियों के बीच अनन्या खुद को विस्तृत और विस्मृत दोनों ही करती जा रही थी. विवाहोपरांत गुजरते सालों में उसे यह भान ही नहीं रहा कि वह एक स्वतंत्र मनुष्य है, जिस की सोचनेसम?ाने की क्षमता और महत्त्वाकांक्षाएं अन्य लोगों की तरह ही हैं. एक स्वचालित यंत्रवत प्राणी की तरह उस का समूचा अस्तित्व उस के आसपास के लोगों की आवश्यकताओं, निर्भरताओं और उन के अनुमोदन पर ही निर्भर था.

उसे कभी यह चेतना नहीं रही कि तमाम व्यस्तताओं के बीच उस के जीवन के अनेक वसंत यों ही बीत गए और परिणामस्वरूप पिछले कई दिनों से एक तरह की अन्यमनस्कता, उत्साहहीनता और आत्मतिरस्कार सी भावना उस के मन में घर करती जा रही थी. तभी तो आशा के घर आयोजित किट्टी में एक छोटे से विषय पर सहेलियों से विमर्श करते हुए उस के सब्र का बांध टूट ही गया. विषय तो रोजमर्रा के जीवन को छूता हुआ एक छोटा सा विचार ही था, पर उस की प्रासंगिकता की चिनगारी ने उस के मन को गहराई तक उद्वेलित कर दिया, ‘‘क्या सैल्फ लव सैल्फिशनैस है?’’

बस फिर क्या था वह सोचती ही रह गई कि पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाएं क्यों इस कथन से जू?ाती रही हैं कि क्या खुद से प्रेम स्वार्थपरता है या फिर एक तरह की आवश्यकता?

खैर, अनेक तरह के विचारों से जू?ाने के बाद उस ने यह मन ही मन सोच लिया कि वह सप्ताह में एक बार अपनी इच्छानुसार कोई ऐसा एक कार्य तो जरूर करेगी जिस से उस का मन हर्षित होता है और जिस में उसे सुख की अनुभूति हो और आज की यह कौफी डेट उसी दिशा में पहला कदम थी.

अपनी प्रिय लेखिकाओं-गरट्रूड स्टाइन और जेके राउलिंग के जीवन से प्रेरणा लेते हुए उस ने मन ही मन यह संकल्प कर लिया कि वह घर के पास ही स्थित एनबीसी में जा कर एक कप कौफी के साथ अपने आगामी जीवन की कल्पना तो कर ही सकती है. आज, बनी पार्क स्थित एनबीसी में बैठ कर सामने की सड़क पर होते हुए आवागमन, किशोरों के स्वच्छंद वार्त्तालाप, वयस्कों के आत्मविश्वास से भरे चेहरे और उन की चिंताओं में हस्तक्षेप किए बिना दिलचस्पी लेते हुए विविध घटनाक्रमों को अपने मस्तिष्क में निबंधित करते हुए उस ने मन ही मन स्वीकार किया कि खुद की अवहेलना कर के उस ने अपने प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है.

अंतत: खुद की स्वीकारोक्ति खुद के उत्थान के लिए बहुत जरूरी है. अपनी पसंद की कैपेचीनो के घूंट लेते हुए उसे यह अनुभूति हो गई कि खुद के साथ कौफी डेट का यह निर्णय कितना ही महत्त्वपूर्ण था और साथ ही उसे जीवन के प्रति एक नई दृष्टि देने में सार्थक भी रहा. निश्चित रूप से स्वयं से प्रेम एक तरह की स्वार्थपरता कही जा सकती है, परंतु उस के बिना आत्मकल्याण और स्वाभिमान की भावना का विकास भी कदापि संभव नहीं.

कौफी के प्याले से ऊपर उठती सुगंधित भाप के साथ उस का यह अहं उड़ गया कि वह सब को हर हाल में प्रसन्न रख सकती है और यह भ्रम भी कि उस की प्रसन्नता के लिए वह दूसरों पर निर्भर है. इसी तरह की ऊहापोह और आत्मावलोचन की प्रक्रिया में लीन, अपने आसपास के जीवन को और अधिक तन्मयता के साथ अंकित करती हुई, ठीक 7 बजते ही एक मधुर मुसकान और एक नए उत्साह के साथ पृष्ठभूमि में बजते हुए मनपसंद गीत ‘लव यू जिंदगी…’ पर थिरकते हुए वह घर की ओर मुड़ चली.

तुम कैसी हो

एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें.

सच पूछिए तो मु झे कभी इस की जरूरत ही नहीं पड़ी. मेरा नेचर ही कुछ ऐसा है. मैं औपचारिकताओं में विश्वास नहीं रखता. पत्नी से फौर्मेलिटी, नो वे. मु झे तो यह ‘हाऊ आर यू’ पूछने वालों से भी चिढ़ है. रोज मिलते हैं. दिन में दस बार टकराएंगे, लेकिन ‘हाय… हाऊ आर यू’ बोले बगैर खाना नहीं हजम होता. अरे, अजनबी थोड़े ही हैं. मैं और आशा तो पिछले 24 सालों से साथ में हैं. एक छत के नीचे रहने वाले भला अजनबी कैसे हो सकते हैं? मेरा सबकुछ तो आशा का ही है. गाड़ी, बंगला, रुपयापैसा, जेवर मेरी फिक्सड डिपौजिट, शेयर्स, म्यूचुअल फंड, बैंक अकाउंट्स सब में तो आशा ही नौमिनी है. कोई कमी नहीं है. मु झे यकीन है आशा भी मु झ से यह अपेक्षा न रखती होगी कि मैं इस तरह का कोई फालतू सवाल उस से पूछूं. आशा तो वैसे भी हर वक्त खिलीखिली रहती है, चहकती, फुदकती रहती है.

50वां सावन छू लिया है उस ने. लेकिन आज भी वही फुरती है. वही पुराना जोश है शादी के शुरुआती दिनों वाला. निठल्ली तो वह बैठ ही नहीं सकती. काम न हो तो ढूंढ़ कर निकाल लेती है. बिजी रखती है खुद को. अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं वरना एक समय था जब वह दिनभर चकरघिन्नी बनी रहती थी. सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी उसे. गजब का टाइम मैनेजमैंट है उस का. मजाल है कभी मेरी बैड टी लेट हुई हो, बच्चों का टिफिन न बन पाया हो या कभी बच्चों की स्कूल बस छूटी हो. गरमी हो, बरसात हो या जाड़ा, वह बिना नागा किए बच्चों को बसस्टौप तक छोड़ने जाती थी. बाथरूम में मेरे अंडरवियर, बनियान टांगना, रोज टौवेल ढूंढ़ कर मेरे कंधे पर डालना और यहां तक कि बाथरूम की लाइट का स्विच भी वह ही औन करती है. औफिस के लिए निकलने से पहले टाई, रूमाल, पर्स, मोबाइल, लैपटौप आज भी टेबल पर मु झे करीने से सजा मिलता है. उसे चिंता रहती है कहीं मैं कुछ भूल न जाऊं. औफिस के लिए लेट न हो जाऊं. आलस तो आशा के सिलेबस में है ही नहीं. परफैक्ट वाइफ की परिभाषा में एकदम फिट.

कई बार मजाक में वह कह भी देती है, ‘मेरे 2 नहीं, 3 बच्चे हैं.’ आशा की सेहत? ‘टच वुड’. वह कभी बीमार नहीं पड़ी इन सालों में. सिरदर्द, कमरदर्द, आसपास भी नहीं फटके उस के. एक पैसा मैं ने उस के मैडिकल पर अभी तक खर्च नहीं किया. कभी तबीयत नासाज हुई भी तो घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाती है. दीवाली की शौपिंग के लिए निकले थे हम. आशा सामान से भरा थैला मु झे कार में रखने के लिए दे रही थी. दुकान की एक सीढ़ी वह उतर चुकी थी. दूसरी सीढ़ी पर उस ने जैसे ही पांव रखा, फिसल गई. जमीन पर कुहनी के बल गिर गई. चिल्ला उठा था मैं. ‘देख कर नहीं चल सकती. हरदम जल्दी में रहती हो.’ भीड़ जुट गई, जैसे तमाशा हो रहा हो. ‘आप डांटने में लगे हैं, पहले उसे उठाइए तो,’ भीड़ में से एक महिला आशा की ओर लपकती हुई बोली. मैं गुस्से में था. मैं ने आशा को अपना हाथ दिया ताकि वह उठ सके. आशा गफलत में थी. मैं फिर खी झ उठा, ‘आशा, सड़क पर यों तमाशा मत बनाओ. स्टैंडअप. कम औन. उठो.’ पर वह उठ न सकी. मैं खड़ा रहा. इस बीच, उस महिला ने आशा का बायां हाथ अपने कंधे पर रखा. दूसरे हाथ को आशा के कमर में डालती हुई बोली, ‘बस, बस थोड़ा उठने के लिए जोर लगाइए,’ वह खड़ी हो गई. आशा के सीधे हाथ में कोई हलचल न थी. मैं ने उस के हाथ को पकड़ने की कोशिश की.

वह दर्द के मारे चीख उठी. इतनी देर में पूरा हाथ सूज गया था उस का. ‘आप इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाएं. लगता है चोट गहरी है,’ महिला ने आशा को कस कर पकड़ लिया. मैं पार्किंग में कार लेने चला गया. पार्किंग तक जातेजाते न जाने मैं ने कितनी बार कोसा होगा आशा को. दीवाली का त्योहार सिर पर है. मैडम को अभी ही गिरना था. महिला ने कार में आशा को बिठाने में मदद की, ‘टेक केअर,’ उस ने कहा. मैं ने कार का दरवाजा धड़ाम से बंद किया. उसे थैंक्स भी नहीं कहा मैं ने. आशा पर मेरा खिसियाना जारी था, ‘और पहनो ऊंची हील की चप्पल. क्या जरूरत है इस सब स्वांग की.

जानती हो इस उम्र में हड्डी टूटी तो जुड़ना कितना मुश्किल होता है?’’ मेरी बात सही निकली. राइट हैंड में कुहनी के पास फ्रैक्चर था. प्लास्टर चढ़ा दिया गया था. 20 दिन की फुरसत. घर में सन्नाटा हो गया. आशा का हाथ क्या टूटा, सबकुछ थम गया, लगा, जैसे घर वैंटिलेटर पर हो. सारे काम रुक गए. यों तो कामवाली बाई लगा रखी थी, पर कुछ ही घंटों में मु झे पता चल गया कि बाई के हिस्से में कितने कम काम आते हैं. असली ‘कामवाली’ तो आशा ही है. मैं अब तक बेखबर था इस से. मेरे घर की धुरी तो आशा है. उसी के चारों ओर तो मेरे परिवार की खुशियां घूमती हैं. शाम की दवा का टाइम हो गया. आशा ने खुद से उठने की कोशिश की. उठ न सकी.

मैं ने ही दवाइयां निकाल कर उस की बाईं हथेली पर रखीं. पानी का गिलास मैं ने उस के मुंह से लगा दिया. मेरा हाथ उस के माथे पर था. मेरे स्पर्श से उस की निस्तेज आंखों में हलचल हुई. बरबस ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तुम कैसी हो, आशा?’’ यह क्या, वह रोने लगी. जारजार फफक पड़ी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. उस के आंसू मेरे हाथ पर टपटप गिर रहे थे. आंसुओं की गरमाहट मेरी रगों से हो कर दिल की ओर बढ़ने लगी. उस के अश्कों की ऊष्मा ने मेरे दिल पर बरसों से जमी बर्फ को पिघला दिया. अकसर हम अपनी ही सोच, अपने विचारों और धारणाओं से अभिशप्त हो जाते हैं. यह सवाल मेरे लिए छोटा था, पर आशा न जाने कब से इस की प्रतीक्षा में थी. बहुत देर कर दी थी मैं ने.

अंतर्द्वंद्व: आखिर क्यूं सीमा एक पिंजरे में कैद थी- भाग 4

मु?ो रमेश को साफसाफ कह देना चाहिए था कि यह सब नहीं हो सकता. हमें यह सब करना शोभा नहीं देता पर मैं यह क्यों नहीं कह पाई. वह कौन सी शक्ति थी जो मु?ो यह सब कहने से रोक रही थी. कहीं मु?ो भी उन से प्यार तो नहीं हो गया है. उस ने स्वयं से प्रश्न किया. प्रतिउत्तर में सीमा का दिल जोरजोर से धड़कने लगा और उसे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया.

अब फोनों और मुलाकातों का सिलसिला चल निकला. ऐसे ही एक मुलाकात में रमेश ने सीमा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘सीमा क्या हमतुम एक नहीं हो सकते?’’

‘‘मगर कैसे? आप भी शादीशुदा हैं और मैं भी. एकदूसरे को पसंद करना तो किसी हद तक ठीक है परंतु इस के आगे कुछ सोचना हमारे लिए ठीक नहीं होगा,’’ सीमा ने रमेशजी से कहा.

‘‘इश्क में ठीक और गलत किस ने देखा है. जानती हो जब किसी से प्यार हो जाता है तो वह उस पर अपना पूरा अधिकार सम?ाने लग जाता है और उसे पूरा पाना चाहता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. क्या तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हो रहा है?’’

रमेश की बात सुन कर एक क्षण तो सीमा का मन किया कि वह भी चीखचीख कर कह दे हां मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा है क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है परंतु सामाजिक मर्यादाओं और इतने वर्षों सतीश के साथ सुखद वैवाहिक जीवन व्यतीत करने के बाद उसे ऐसा बोलना विवेकहीन लग रहा था.

वह बोली, ‘‘रमेश हमारे चाहने या न चाहने से सबकुछ नहीं होता. यदि हो भी जाए तो इस में कौन सी भलाई है? हम अपनी एक छोटी सी इच्छा पूरी करने के लिए सबकुछ दांव पर तो नहीं लगा सकते?’’

‘‘पर इस में बुराई ही क्या है? ऐसा तो आदिकाल से होता चला आ रहा है?’’

‘‘जरूर हो रहा होगा पर हम ऐसा नहीं करेंगे.’’

‘‘मगर क्यों? मु?ो पूरा विश्वास है कि यह सब तुम्हें भी अच्छा लगेगा क्योंकि सिर्फ यह प्रेम है, मेरी बात पर गौर करना शायद तुम्हारा विचार बदल जाए,’’ कह कर रमेश बाबू स्वयं को रोक नहीं पाए और उन्होंने आगे भावावेश में सीमा के गालों पर एक चुंबन जड़ दिया.

सीमा को प्रतिरोध करने का वक्त भी नहीं मिला. उस के बदन में ऊपर से नीचे तक एक सिहरन सौ दौड़ गई. रमेश बाबू का कहना सही था. सचमुच यह उसे भी अच्छा लगा था.

यह क्या हो रहा है मेरे साथ… मैं किस धारा में बहती जा रही हूं. चाह कर भी स्वयं को क्यों नहीं रोक पा रही हूं. सीमा हैरान भी थी तथा परेशान भी. परंतु रमेश न तो हैरान थे, न परेशान. बस वे तो एक ही बात जानत थे कि उन्हें सीमा से सच्चा प्रेम हो गया है और वह किसी भी हालत में उसे खोना नहीं चाहते.

 

यकीनन सीमा को भी रमेश से प्रेम हो गया था परंतु उसे अपने पति

सतीश से भी प्रेम था और वह किसी भी हालत में सतीश का मन नहीं दुखाना चाहती थी. उम्र के इस पड़ाव पर जबकि पतिपत्नी को एकदूसरे की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, वह हर पल सतीश का साथ निभाना चाहती थी इसलिए उस ने निर्णय लिया कि अब वह रमेश जी से अधिक मेलजोल नहीं बढ़ाएगी.

‘‘क्या बात है सीमा आजकल तुम ने पेंटिंग बनाना छोड़ दिया है? आजकल तुम खोईखोई सी रहती हो? क्या बात है कोई परेशानी है क्या? यदि है तो मु?ो बताओ मैं तुम्हारा पति हूं. मैं तुम्हारी हर समस्या का हल बता सकता हूं,’’ सतीश ने सीमा से कहा क्योंकि वह सीमा जो हर समय चहकती रहती थी और उसे उस से मीठी बहस और ?ागड़ा करती रहती थी आजकल कुछ चुपचुप रहती थी.

सतीश की बात सुन कर सीमा, जिस के मन में पहले से ही उथलपुथल मची हुई थी, फफकफफक कर रोने लगी.

यह देख कर सतीश घबरा गया और बोला, ‘‘क्या बात है तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है? हुआ क्या है तुम्हें?’’

‘‘कुछ नहीं, मैं ठीक हूं,’’ सीमा ने कहा.

‘‘तो फिर यह उदासउदास चेहरा, यह खोयाखोया मन क्यों रहता है?’’

‘‘कुछ नहीं. कभीकभी ऐसा हो जाता कि बिना कारण ही हम उदास हो जाते हैं. चिंता की कोई बात नहीं है. सब ठीक हो जाएगा,’’ कह कर सीमा सतीश से लिपट कर सो गई. वह सतीश को कैसे बता सकती थी कि उसे कैसी उल?ान सता रही है. कभीकभी तो उसे ऐसा भी लगता था कि वह रमेश की चाह में सतीश को धोखा दे रही है.

 

‘‘प्लीज सीमा, बात करने के लिए तो मना मत करो. मैं जानता हूं कि

तुम सतीश को बहुत प्यार करती हो, तुम दोनों एकदूसरे के लिए बने हो परंतु उसी प्यार में से कुछ प्यार मु?ो भी दे दो. जानती हो मु?ो तुम्हारे प्यार में वह सुख मिलता है जो मु?ो जिंदगी में अभी तक नहीं मिला,’’ रमेश ने सीमा से अनुरोध करते हुए कहा.

‘‘रमेश प्यार सिर्फ एक से ही किया जाता है और मैं यह कई वर्षों पूर्व सतीश से कर चुकी हूं. अब उसे भूलना नामुमकिन है.’’

‘‘भूलने के लिए कौन कह रहा है. मैं तो बस अपना हिस्सा चाहता हूं. थोड़ा सा प्यार मु?ो भी दे दो. जानती हो आजकल मु?ा मैं जीने की उमंग फिर से जाग उठी है. मेरा मन फिर से बननेसंवरने को करता है. जब मैं तुम से फोन पर बात कर लेता हूं तो घंटों तक मु?ा में ऊर्जा बनी रहती है. तुम्हारे साथ ने मु?ो जीने का एक मकसद दिया है. मैं इसे खोना नहीं चाहता.’’

‘‘पर यह प्यार बढ़ गया तो? इतना कि आप मु?ा से समर्पण की उम्मीद करने लगे तो फिर क्या होगा? नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती. आप को यह प्यार भूलना ही होगा और मु?ो भी.’’

‘‘कोशिश कर के देख लो. तुम भूल नहीं पाओगी और न ही मैं.’’

‘‘ऐसे में क्या करना होगा? इस समस्या का समाधान भी आप ही बताइए क्योंकि यह आप की ही देन है,’’ सीमा ने कहा क्योंकि वह जानती थी कि रमेश बाबू ठीक कह रहे हैं. हालात ऐसे ही हो गए थे कि उस के लिए भी रमेश बाबू को भूलना नामुमकिन हो गया था. यकीनन रमेश बाबू के प्यार ने उस के जीवन में भी उजाला भर दिया था.

इस में बुरा ही क्या है उस ने सोचा. यदि किसी का प्यार हमारे जीवन में खुशियां बन कर आता है तो ऐसा प्यार नाजायज या बुरा कैसे हो सकता है? सीमा ने सोचा.

सीमा यह एक मृगतृष्णा है. एक ऐसी प्यास जो कभी नहीं बु?ोगी. इस के पीछे भागना मूर्खता कहलाएगा. इस से किसी का भला नहीं हो सकता न तुम दोनों का न ही तुम्हारे परिवारों का. अत: इसे भूलना ही अच्छा होगा सीमा के दिमाग ने उसे चेतावनी दी.

 

मगर इसे कैसे भुला जाए. यह तो दिल से जुड़ा हुआ मामला हो गया. भला अपने दिल

को कोई कैसे भूल सकता है. सीमा की अंतरात्मा बोली.

माना कि इसे भूला नहीं जा सकता परंतु तुम्हें इस पर अंकुश लगाना ही होगा.

सीमा के दिलोदिमाग में कब से यह अंतर्द्वंद्व चल रहा था. उस के सामने रहरह कर अपने परिवारजनों के चेहरे घूम रहे थे. कैसा लगेगा उन्हें जब यह बात खुल जाएगी? कौन सम?ोगा इस प्रेम को? ऐसे प्रेम से केवल बदनामी ही हासिल होगी और कुछ नहीं. दिमाग तर्क पर तर्क दे रहा था परंतु दिल कुछ मानने को तैयार नहीं था. दिल को ऐसे प्रेम में कुछ बुराई नजर नहीं आ रही थी.

दिल और दिमाग की एक लड़ाई में सीमा एक पंछी की तरह पिंजरे में कैद थी जो निकलने के लिए बेचैन हो रही थी परंतु उसे भय भी लग रहा था. काश रमेशजी उस के जीवन में आए ही न होते तो आज उसे इस परेशानी का सामना ही न करना पड़ता या फिर उन्हें अपने प्रेम का इजहार नहीं करना चाहिए था. वह उसे अपने मन में ही रखते तो ठीक था. सोचतेसोचते सीमा की आंखों में आंसू आ गए. उस की नजरों में आज रमेशजी एक अपराधी बन गए थे जोकि उस के सुखी गृहस्थ जीवन में आग लगाने आए.

3-4 दिन हो गए थे. रमेशजी का कोई फोन नहीं आया था न ही वे मिलने आए थे. सीमा बेचैन हो उठी. न जाने क्यों उस का मन रमेशजी से बात करने के लिए तड़प उठा. बेचैन हो कर उस ने फोन उठाया और रमेशजी का नंबर डायल किया. मगर फोन बंद था. सीमा की बेचैनी कम नहीं हुई. वह अनमनी हो कर सोफे पर बैठ गई. तभी डोरबैल बजी. दरवाजे पर सतीश था. बेचैन सीमा सतीश की बांहों में समा गई.

सतीश ने पूछा, ‘‘आज तबीयत कैसी है?’’

इस से पहले कि सीमा कोई उत्तर देती लैंड लाइन फोन की घंटी बज उठी. फोन सतीश ने रिसीव किया. रमेश का फोन था.

‘‘कैसे हैं सर? कई दिन हो गए आप से मुलाकात हुए. यदि फुरसत में हैं तो आज घर पधारिए,’’ सतीश ने रमेशजी से अनुरोध किया.

‘‘जरूर. आज ही दिल्ली से लौटा हूं. मेरी भी आप से मिलने की इच्छा हो रही है. कुछ ही देर में आता हूं,’’ रमेशजी ने कहा.

सीमा चुपचाप खड़ी उन का वार्त्तालाप सुन रही थी. वह जानती थी कि रमेशजी के रूप में सतीश को भी एक अच्छा मित्र मिला है. रमेश उन दोनों के जीवन में ही एक नया सवेरा ले कर आए थे. अत: वह उन्हें किसी हालत में भी खोना नहीं चाहती थी. इसलिए उस ने निर्णय लिया कि वह रमेश से मित्रता बनाए रखेगी परंतु मर्यादित रूप में. वह रमेशजी से भी कहेगी कि वे भी अपने प्यार को अपने मन में ही रखें ताकि उन का प्यार एक समस्या नहीं अपितु उन के जीवन का संबल बन जाए. यह सोच कर वह प्रफुल्लित मन से रसोईघर में गई ताकि नाश्ते का प्रबंध कर सके. रमेशजी को मोमोज बहुत पसंद थे. वह उन्हीं की व्यवस्था में जुट गई.

कई दिनों से चल रहा मानसिक अंतर्द्वंद्व आज खत्म हो गया था क्योंकि सीमा ने एक ऐसा फैसला किया जिस में सभी का हित समाहित था. यह फैसला ले कर सीमा को ऐसा लगा कि उस के जीवनरूपी कैनवस पर फिर से सुंदर रंग बिखर गए हैं.

दिल्लगी: क्या था कमल-कल्पना का रिश्ता- भाग 4

आज सहसा एक अरसे बाद कमल ने उस के सामने आ कर उस के मन की शांत ?ाल में फिर से हलचल मचा दी थी. उस के विचारों की लहरों ने तूफानी रूप धारण कर लिया था. कमल को देखते ही उस का सोया हुआ नारी स्वाभिमान पुन: जोश मार उठा था. उस के मन ने भय व अपराधबोध के अधीन सोचा, यदि राजीव यह जान ले कि कालेज युग के दौरान उस ने केवल कमल को अपना जीवनसाथी बनाने के सपने देखे थे, बल्कि कमल द्वारा उस का प्रेम ठुकरा देने पर उसे बुरी तरह लज्जित भी होना पड़ा था तो वह उस की दृष्टि में किस कदर अपमानित हो जाएगी. कहीं उस के पास वह वीडियो न हो और वह कीमत वसूल करने आया हो उस स्थिति में क्या यह अपना सुखी और शांत दांपत्य जीवन नष्ट होता सहन कर पाएगी ऐसा होने के बाद क्या वह जीवित रह सकेगी? वह राजीव की घृणा सह पाएगी?

नहीं, यह हरगिज नहीं हो सकता,’’ सहसा उस के होंठ कांप कर बुदबुदा उठे.

‘‘अरे तुम अभी तक नहीं सोई,’’ अचानक राजीव की आंखें खुल गईं.

‘‘एक बात बताओ, आप ने कैसे जाना कि मु?ो कमल का आना अच्छा नहीं लगा है?’’

‘‘रहने दो वरना तुम बुरा मान जाओगी.’’

‘‘नहीं मानूंगी, आप बताइए.’’

‘‘कमल मेरे लिए अजनबी नहीं है. हम दोनों पुराने मित्र हैं.’’

‘‘तो क्या आप को सब मालूम है?’’

‘‘हां कल्पना, मु?ो सब मालूम है. सच पूछो तो हमारा विवाह कमल के जरीए ही हुआ है,’’ राजीव ने दूसरा रहस्योद्घाटन किया.

‘‘क्या?’’ कल्पना का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया.

‘‘हां, यह उन दिनों की बात है जब हमारे रिश्ते की बात चल रही थी. कमल बाजपुर में था. मां की तबीयत खराब होने के कारण वह नैनीताल नहीं जा सका था. कुछ दिन पूर्व ही मैं ने उसे एक पत्र भेजा था, जिस में मैं ने लिखा था, ‘‘यार, तुम नैनीताल में पढ़ते रहे हो. क्या इस लड़की के बारे में कुछ बता सकते हो. उत्तर में उस ने लिखा था कि अरे, यह लड़की तो मेरे साथ ही पढ़ती थी. मैं इसे खूब अच्छी तरह जानता हूं.

‘‘उस के मुख से तुम्हारी प्रशंसा सुन कर ही मैं ने तुम्हें बिना देखे पसंद कर लिया

था. उस ने मु?ा से कुछ भी नहीं छिपाया था. बचपन की बातें, जवानी का साथ, अपने प्रति तुम्हारी गलतफहमी, सब उस ने खुलासा कर के बता दिया था,’’ कह कर राजीव फिर कल्पना को निहारने लगा.

‘‘लेकिन तुम ने आज तक मु?ा से ये सब क्यों छिपाए रखा?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘केवल इसलिए कि तुम अपनेआप को मेरे सामने लज्जित न महसूस करो.’’

‘‘और आज शाम जो नाटक किया, उस की क्या जरूरत थी?’’

‘‘ओह,’’ राजीव हंस पड़ा और देर तक हंसता रहा. फिर बोला, ‘‘कमल आज दोपहर अचानक दफ्तर में आ धमका था. तब सोचा, कुछ दिल्लगी ही हो जाए. उसे भी मैं ने इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह तुम्हारे सामने अकस्मात पहुंच कर ऐसा प्रकट करे मानो हम दोनों पहली बार ही मिल रहे हैं.’’

‘‘तुम ने यह नहीं सोचा कि तुम्हारी दिल्लगी किसी की जान आफत में डाल देगी?’’ कल्पना ने मुखड़े पर कृत्रिम गुस्से के भाव ला कर कहा.

‘‘दिल्लगी कौन सी रोजरोज की जाती है, जानेमन,’’ राजीव ने मुसकरा कर कहा और फिर कल्पना को खींच छाती से लगा लिया.

कल्पना का भय व अपराधबोध आंखों के रास्ते खुशी के आंसुओं के रूप में बह कर राजीव का गाऊन भिगोने लगा. अगली सुबह जब राजीव अपने क्लाइंट्स के साथ बैठा था, कमल ने कल्पना को एक पैकेट दिया और कहा, ‘‘यह तुम्हारी धरोहर है. मैं तुम्हें लौटा रहा हूं. इसे नष्ट कर देना. मैं ने संभाल कर सिर्फ इसलिए रखी थी कि कभी भी तुम्हारे मन में शक न हो. हम दोस्त हैं और रहेंगे और यह है मेरी शादी का इनवाइट. मैं इसीलिए आया था. तुम दोनों अब शादी में मुंबई आना. शीतल हमारे बारे में सब जानती है सिवा इस वीडियो वाले कार्ड के. राजीव तो हां कर चुका है पर मेरा तुम्हारे पर ज्यादा हक है इसलिए यह कार्ड और मिठाई लो,’’ कह कर उस ने कल्पना का माथा चूम लिया.

कल्पना को यह क्षण अद्भुत लगा. उस दिन से दिल्लगी का बो?ा जो दिल पर पड़ा था, वह उतर गया.

करना पड़ता है: धर्म ने किया दानिश और याशिका को दूर- भाग 3

नौशीन ट्रे ले कर आईं तो दानिश ने उन के हाथ से आदतन ट्रे ले ली और ललित को स्नैक्स की प्लेट खुद अपने हाथों से लगा कर हंसते हुए बोला, ‘‘अंकल, मम्मी के हाथ के पनीर के पकौड़े खा कर देखिए… और यह खीर. मम्मी ने आज आप के लिए ही बनाई है और ये कुकीज मैं ने बेक किए हैं.’’

‘‘सच? अरे, पनीर के पकौड़े और खीर मु?ो बहुत पसंद है और दानिश तुम ने ककीज बनाए हैं? तुम कुकिंग जानते हो?’’

‘‘हां अंकल, मम्मी कहती हैं कि ये सब काम सब को आने चाहिए, जब भी फ्री होता हूं, मम्मी को कुछ बना कर खिलाता हूं्.’’

ललित को लग रहा था कि इस मांबेटे की इतनी सुंदर दुनिया में वे कैसे आ बैठे हैं. उन्होंने बड़े स्वाद ले कर नाश्ता किया, बहुत तारीफ की. वे कहां जानते थे कि यशिका ने बताया था कि पापा को खुश करना हो तो पनीर के पकौड़े और खीर खिला दो, बस. पापा

को लाइफ में यही 2 चीजें सब से प्यारी हैं. वे सब इस बात पर बहुत हंसे थे और कुकीज तो वह खुद सुबह बना कर गई थी जिन्हें खा कर ललित के मुंह से निकल ही गया, ‘‘मेरी बेटी भी ऐसे ही कुकीज बनाती है.’’

थोड़ी देर बाद वे जाने के लिए खड़े हुए तो दानिश ने कहा, ‘‘अंकल, मैं आप को छोड़ आऊं?’’

‘‘नहीं बेटा, नीचे ड्राइवर है, शिंदे भी है.’’

‘‘आइए, हमारा छोटा सा घर तो देख लीजिए,’’ कहतेकहते नौशीन उन्हें अपना 2 कमरे का फ्लैट दिखाने लगीं तो ललित को याद आया, ‘‘अरे, आप का घर तो बहुत सुंदर है, फिर भी नया खरीदना चाहती हैं?’’

‘‘हां, एक फ्लैट ले कर इन्वैस्ट करना चाह रही थी.’’

‘‘आराम से आप का काम हो जाएगा, चिंता मत करना, मैं देख लूंगा, रेट भी सही लगवा दूंगा,’’ ललित का बस नहीं चल रहा था कि नौशीन के लिए क्या न कर दें. पूरा फ्लैट इतना सुंदर, व्यवस्थित था कि वे 1-1 चीज निहारते रह गए. उन के मन में चोर आ गया था जो नौशीन से टच में रहने के लिए उन्होंने यों ही कह दिया, ‘‘मैं इधर अकसर आता हूं, कभी फ्री रहूंगा, आ जाऊंगा मिलने, आप दोनों से मिल कर बहुत अच्छा लगा.’’

दानिश और नौशीन ने उन्हें फिर आने के लिए कह कर विदा दी और ललित चले गए नौशीन को दिल में समाए. वे चरित्रहीन इंसान नहीं थे पर थे तो पुरुष ही न. नौशीन का साथ उन्हें बहुत भला लगा था. दानिश भी उन्हें बहुत पसंद आया था. सोच रहे थे ऐसा लड़का यशिका के लिए मिल जाए तो कितना अच्छा हो. पर दानिश दूसरी जाति का था, यहां तो कुछ नहीं हो सकता था पर वे इस बात पर हैरान थे कि जब तक वे नौशीन के घर रहे, एक बार भी उन्हें जाति के अंतर का खयाल नहीं आया.

 

कुछ दिन और बीते. एक बार नौशीन ने आम हालचाल

के लिए उन्हें फोन किया. उन्होंने भी नौशीन से कई बार फोन पर हालचाल ले लिए थे. नौशीन दानिश और यशिका के साथ इस प्रोजैक्ट पर बात करते हुए खूब हंसतीं. तीनों को इस बात में मजा आ रहा था.

एक दिन यशिका ने अपने मम्मीपापा के साथ डिनर करते हुए जानबू?ा कर बात छेड़ी, ‘‘पापा, आप सचमुच आजकल के जमाने में भी जातबिरादरी के बाहर मेरी शादी नहीं करेंगे? अगर मु?ो किसी और जाति का अच्छा लड़का पसंद आ जाए तो क्या होगा?’’

धर्म और जाति के दलदल में फंसा मन भला इतनी आसानी से कैसे यह बात चुपचाप सुन लेता. थोड़ा गुस्से से ललित की आवाज जरा तेज हुई, ‘‘हम ने तुम्हें हमेशा सारी छूट दी है, किसी चीज के लिए कभी टोका नहीं. बस शादी तुम्हारी हम ही करेंगे. हम अपनी बिरादरी में लड़का ढूंढ़ रहे हैं.’’

यशिका ने मां को देखा. उन्होंने हमेशा की तरह उसे चुप रहने के लिए कहा तो यशिका गुस्से में पैर पटकती हुई जाने लगी. रुकी, फिर मां से कहा, ‘‘आप तो हमेशा खुद भी चुप रहना और मु?ो भी यही सिखाना. आप को और आता भी क्या है.’’

उस की मां गीता देहात में पलीबढ़ी, कम पढ़ीलिखी, दबू, धार्मिक कार्यों में जीवन बिताने वाली महिला थीं जिस के लिए पति का आदेश सर्वोपरि होता है. ललित को अचानक नौशीन याद आ गईं. सोचने लगे कि वह गीता से कितनी अलग है. उन्होंने अपने रूम में जा कर नौशीन को फोन मिला दिया. यों ही उन से बातें करना उन्हें अच्छा लगा, फिर उन्हें ऐसे ही डिनर पर इन्वाइट किया. थोड़ी नानुकुर के बाद नौशीन मान गईं.

ऐसा फिर 3-4 बार और भी हुआ. वे नौशीन के घर भी आए. बाहर भी मिले. सबकुछ मर्यादा

में था, कोई आपत्तिजनक बात भी नहीं हुई पर ललित ने अपने घर में किसी से नौशीन से मिलनाजुलना बताया भी नहीं जबकि दानिश

और यशिका को 1-1 प्रोग्राम पता रहता था.

कुछ महीने बीते कि यशिका ने घर में बम फोड़ दिया, ‘‘मैं एक मुसलिम लड़के से शादी करना चाहती हूं, पापा.’’

दहाड़ गूंजी, ‘‘दिमाग खराब हो गया है? सोचा भी कैसे? यह हो ही नहीं सकता.’’

‘‘पापा, यह तो होगा. उसी से शादी करूंगी.’’

गीता देवी उस पर खूब चिल्लाईं, बहुत डांटा पर यशिका अपनी जिद पर डटी रही. 3 दिन

घर में खूब घमासान हुआ. एक तूफान उठा रहा जिस में हिंदूमुसलिम ये 2 ही शब्द गूंजते रहे. यशिका ने जा कर दानिश और नौशीन को अपने घर के हालात बताए.

नौशीन ने ठंडे दिमाग से सब सुना, फिर कहा, ‘‘चलो, अब प्रोजैक्ट को खत्म करने का टाइम आ गया है. इस संडे को सब क्लीयर कर देते हैं.’’

फिर बैठ कर संडे की प्लानिंग की गई. नौशीन ने ललित को फोन किया, ‘‘बहुत दिन हो गए. चलिए, संडे को डिनर साथ करते हैं. फ्री हैं?’’

‘‘हांहां, बिलकुल फ्री हूं. मिलते हैं.’’

‘‘ठाणे चलते हैं, अर्बन तड़का. कभी गए हैं वहां?’’

‘‘न.’’

‘‘आप अपनी कार रहने देना. मैं अपनी कार से आप को लेने आप के औफिस के बाहर आ जाऊंगी. अच्छी आउटिंग हो जाएगी.’’

सब तय हो चुका था. कार में नौशीन के बराबर में बैठ कर ललित अलग ही दुनिया में

जा पहुंचे थे जहां जाति की कोई दीवार नहीं थी,

न कोई धर्म का जाल. पता नहीं नौशीन से मिल कर वे सबकुछ कैसे भूल जाते हैं, यही सोचते

हुए मुसकराते हुए उन्होंने नौशीन से कहा, ‘‘आप की कंपनी मु?ो अच्छी लगती है, मैं सब भूल

जाता हूं.’’

नौशीन मुसकरा दी, कहा, ‘‘मु?ो भी एक दोस्त के रूप में आप का मिलना अच्छा लगा.’’

‘अर्बन तड़का’ पहुंच कर नौशीन ने कहा, ‘‘मैं और दानिश यहां अकसर आते हैं.’’

‘‘फिर आप ही और्डर दीजिए, आप को आइडिया होगा कि यहां क्या अच्छा है.’’

नौशीन ने वेटर को पहले 2 मौकटेल लाने के लिए कहा. इतने में ही तय प्रोग्राम के अनुसार वहां यशिका और दानिश ने ऐंट्री ली. यशिका उन्हें देख चहकी, ‘‘अरे पापा. आप. हेलो आंटी, अरे, वाह, आंटी. पापा. आप लोग यहां? कैसे?’’

ललित का चेहरा देखने वाला था. वे कुछ बोल ही नहीं पाए. तभी दानिश ने उन के पैर छूए तो यशिका चौंकी, ‘‘अरे दानिश तुम मेरे पापा को जानते हो?’’

‘‘और क्या. अंकल तो हमारे घर आ चुके हैं.’’

‘‘पापा, यह क्या है? मेरे लिए इतने नियम और आप आंटी और दानिश के घर भी जा चुके हैं? पापा, वैरी बैड.’’

नौशीन ने भोलेपन से पूछा, ‘‘क्या हुआ यशिका, मैं सम?ा नहीं?’’

ललित ने यशिका के कुछ बोलने से पहले ही जवाब दिया जिस से नौशीन को यशिका की कोई बात सुन कर बुरा न लग जाए, ‘‘ऐसे ही इस का और मेरा कुछ न कुछ ?ागड़ा चलता रहता है.’’

‘‘पापा, यही है दानिश. आप का होने वाला दामाद,’’ कह कर यशिका हंस कर ललित से लिपट गई.

ललित अब न कुछ कह पाए, न कर पाए, बस ?ोंपी सी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘अरे वाह, यह तो बहुत खुशी की बात है. दानिश तो मु?ो भी पसंद है.’’

‘‘पर पापा…’’

ललित ने बेटी को आंखों से चुप रहने का इशारा किया तो नौशीन और दानिश ने अपनी हंसी मुश्किल से रोकी.

नौशीन ने बहुत प्यार से पूछा, ‘‘ललितजी, फिर यह रिश्ता आप को मंजूर है? मु?ो तो बहुत ही खुशी होगी कि आप की बेटी हमारे घर आए.’’

‘‘हांहां, बिलकुल मंजूर है.’’

‘‘चलो, फिर आज सैलिब्रेट करते हैं, अब तुम अपने मम्मी और पापा के साथ हमारे घर जल्द ही आओ, बहुत कुछ करना है,’’ नौशीन की आवाज में आज अलग ही उत्साह था.

ललित की हालत सब से अजीब थी, उन्होंने इस स्थिति की कभी कल्पना भी नहीं की थी. सब ने खायापीया. गीता को यशिका ने वीडियो कौल कर के दानिश से ‘हेलो’ कहलवाया और कहा, ‘‘बाकी विस्फोट आ कर करती हूं.’’

सब हंसने लगे. लौटते समय सब कार में साथ ही बैठे, अब दानिश कार चला रहा था.

उस की बगल वाली सीट पर नौशीन बैठी थी, पीछे बैठेबैठे ललित अभी भी चोर नजरों से नौशीन को देख रहे थे. यशिका दानिश को निहार रही थी. नौशीन राहत की सांस ले रही थीं.

तभी मोबाइल पर पीछे बैठी यशिका ने मैसेज भेजा, ‘‘थैंक यू, आंटी. आप ने हमारे लिए बहुत कुछ किया.’’

‘‘करना पड़ता है,’’ उस ने रिप्लाई किया. नौशीन यही सोच रही थीं. हां, करना पड़ता है, अपने बच्चों की खुशियां धर्म, जाति की भेंट न चढ़ जाएं, इस के लिए सचमुच कभीकभी बहुत कुछ करना पड़ता है.

नौशीन जैसी महिला जीवन में दोस्त, रिश्तेदार बन कर रह पाएगी, इस की खुशी महसूस कर ललित उत्साहित थे, सोच रहे थे, नौशीन जैसी दोस्त के लिए, दानिश जैसे दामाद के लिए, अपनी बेटी के चमकते चेहरे की इस खुशी के लिए धर्म, जाति को किनारे करना ही पड़ता है, करना पड़ता है. करना ही चाहिए.

अंतर्द्वंद्व: आखिर क्यूं सीमा एक पिंजरे में कैद थी- भाग 3

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि इसी बीच एक दिन रमेशजी ने ऐसी बात की जिस से सीमा को लगा की रमेशजी उसे काफी पसंद करने लगे हैं और उन्हें उस का सान्निध्य बहुत पसंद आता है. अब वे यदाकदा बिना काम फोन भी कर लिया करते थे.

हालांकि फोन पर बातचीत का विषय चित्रकला ही होता था परंतु उसी के बीच वे अप्रत्यक्ष रूप से सीमा की खूबसूरती और सुघड़ता की प्रशंसाभर कर दिया करती थे.

शुरूशुरू में तो सीमा को यह सब बड़ा अजीब लगता था परंतु वह रमेशजी की इज्जत भी करती थी तथा मन ही मन उन के व्यक्तित्व से भी प्रभावित थी इसलिए अब उसे उन की इन सब बातों में कोई बुराई नजर नहीं आती थी बल्कि उसे ऐसा महसूस होता था कि उस के अकेलेपन के अभिशाप को मिटाने के लिए ही कुदरत ने रमेशजी को एक माध्यम बना कर भेजा है. फिर अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता और वह भी इस ढलती उम्र में. इसलिए सीमा जोकि पहले से ही रमेशजी से प्रभावित थी धीरेधीरे उन्हें और भी अधिक पसंद करने लगी.

दोपहर का समय था कि अचानक घंटी बजी. सीमा ने देखा दरवाजे पर रमेशजी थे. दोपहर के समय इस तरह रमेशजी का आना सीमा को अटपटा तो लगा परंतु बुरा नहीं क्योंकि अब तक वह भी उन से काफी खुल चुकी थी.

‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गए. बैठ कर गपशप करेंगे तथा आप से कला की बारीकियां भी सीख लूंगी,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कहा.

कुछ देर औपचारिक बातचीत करने के बाद रमेशजी ने सीमा की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, ‘‘सीमा तुम मु?ो बहुत अच्छी लगती हो. क्या मैं भी तुम्हें अच्छा लगता हूं?’’

रमेशजी की यह बात सुन कर सीमा एक बार तो सकपका गई. उसे यह रमेशजी द्वारा किया गया प्रश्न बड़ा अटपटा लग रहा था जो उम्र के इस पड़ाव पर उस से इस तरह प्रणय निवेदन कर रहे थे परंतु तत्क्षण ही एक नवयौवना की तरह शरमा गई और अपनी नजरें नीचे ?ाका कर बैठ गई, कुछ बोली नहीं.

‘‘तुम्हारी चुप्पी का क्या अर्थ सम?ां?’’ रमेश बाबू बोले.

इस पर सीमा धीरे से बोली, ‘‘आप अच्छे हैं तो सभी को अच्छे ही लगेंगे.’’

‘‘मैं सभी की बात नहीं कर रहा. मैं केवल तुम्हारी पसंद या नापसंद पूछ रहा हूं. बोलो, क्या मैं तुम्हें पसंद हूं?’’

‘‘रमेश बाबू, अब पसंद या नापसंद करने की उम्र निकल गई है. काश आप ने यह प्रश्न वर्षों पूर्व किया होता तो मैं इस का उत्तर दे सकती थी. अब ये बातें करने का क्या लाभ?’’

‘‘मु?ो तुम्हारा उत्तर हां या न में चाहिए. क्या तुम मु?ो पसंद करती हो? यदि करती हो तो मु?ो बता दो और यदि नहीं तो भी. मैं तो अपने दिल से मजबूर हूं क्योंकि इन दिनों मैं ने महसूस किया है कि मैं तुम्हें चाहने लगा हूं.’’

‘‘रमेश आप मु?ो चाहें यह मेरे लिए खुशी की बात है, गर्व की बात है परंतु इस चाहत का अंजाम भी सोचा है आप ने?’’

‘‘प्यार सोचसम?ा कर नहीं किया जाता. यह तो बस हो जाता है. मैं ने भी आज तक केवल सुना ही था परंतु अब इसे प्रत्यक्ष रूप

में घटित होते हुए देख रहा हूं वह भी स्वयं के साथ. जानती हो युवावस्था में मु?ो कभी कोई ऐसी लड़की नहीं मिली जिसे देख कर मन ने चाहा हो कि मैं उस से अपने प्रेम का इजहार करू. तुम्हें देख कर न जाने क्यों ऐसा महसूस होता है कि हमारा तुम्हारा जन्मजन्म का साथ है. मु?ो तुम से मिलना, तुम से बातें करना, तुम्हें देखना अच्छा लगता है. मेरे खयाल से तुम्हारे साथ भी ऐसा हो रहा होगा. यदि नहीं तो भी कह देना मैं इस विषय में फिर कभी बात नहीं करूंगा. ठीक है मैं अभी निकलता हूं. कल फिर फोन करूंगा ताकि मु?ो तुम्हारी हां या न का पता चल जाए.’’

रमेश तो चले गए परंतु सीमा के दिल में हलचल मचा कर छोड़ गए. उसे यह बात बहुत अजीब भी लग रही थी कि प्रौढ़ावस्था में भी कोई उस से प्यार का इजहार कर रहा है. सच पूछो तो उसे अच्छा भी लग रहा था क्योंकि  युवावस्था में उस ने भी किसी से इस तरह प्यार का इजहार नहीं किया था. वह जबजब किसी कथाकहानी या फिल्मों में यह देखती थी तो अकसर यही सोचती थी ऐसा किन लोगों के साथ होता है परंतु उस ने यह सपने में भी नहीं सोचा था कि यह सब उस के साथ जीवन के उस मोड़ पर होगा जब वह चाह कर भी उस का प्रतिउत्तर नहीं दे पाएगी.

रमेश ने उस के दिल के एक कोने में अपनी जगह तो बना ली थी परंतु वह एक अच्छे इंसान और पथप्रदर्शक के रूप में. आज उन्हें एक प्रेमी के रूप में देख कर वह आश्चर्यचकित थी परंतु कुछ चाहत का एहसास उस के मन में भी हो रहा था.

सीमा ने स्वयं को दर्पण में देखा और सोचा, ‘क्या मैं सचमुच अभी भी इतनी सुंदर लगती हूं कि कोई मु?ा पर आसक्त हो जाए और उस का मन स्वाभिमान से भर गया. वह कल्पना के सागर में हिलोरें खाने लगी. युवावस्था में उस ने जिस सुंदर युवक की एक प्रेमी के रूप में कल्पना की थी, आज रमेश बाबू के रूप में वह साकार होती नजर आ रही थी. उसे लगा कि सचमुच वे दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं जो कुदरत की भूल के कारण अभी तक मिल नहीं पाए.

 

तभी उसे सतीश का खयाल आया और वह घबरा गई कि यह मु?ो क्या हो गया है.

इतने वर्षों तक मैं ने अपने पत्नी धर्म का निर्वाह किया है और अब इस उम्र में यह आशिकी. नहींनहीं यह ठीक नहीं है. मैं सतीश के साथ बेवफाई नहीं कर सकती. मैं रमेशजी को साफ मना कर दूंगी कि वे मेरे घर न आयाजाया करें. यही सब सोचतेसोचते सीमा की आंख लग गई.

सीमा जब सुबह सो कर उठी तो रात वाली उथलपुथल अभी भी उस के मन में थी. जैसेजैसे दिन बीत रहा था, उस की धड़कन बढ़ती जा रही थी. क्या कहूंगी. कैसे कहूंगी. उन्हें कैसा लगेगा. यह सोचसोच कर वह परेशान हो रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी. फोन रमेश का ही था.

‘‘हैलो,’’ सीमा ने धीरे से कहा. न जाने क्यों आज उस के हैलो बोलने में परिवर्तन आ गया था.

‘‘कैसी हो?’’

‘‘अच्छी हूं.’’

‘‘मेरी याद आई?’’

सीमा चुप रही और मन ही मन बोली कि आप को कैसे भूल सकती हूं.

रमेश बोले, ‘‘जानती हो तुम्हारा यही संकोची स्वभाव, यही शर्मीलापन मु?ो सब से अच्छा लगता है. क्या सतीशजी को भी यह पसंद है?’’

‘‘पता नहीं, उन्होंने कभी ऐसा कहा नहीं.’’

‘‘कहना चाहिए. यदि कुछ अच्छा लगे और मन को पसंद आए तो अवश्य कहना चाहिए. इस से कहने वाला और सुनने वाला दोनों ही प्रसन्न रहते हैं.’’

रमेशजी की बात सुन कर सीमा मुसकराए बिना न रह सकी और फिर बोली, ‘‘सभी आप के जैसे नहीं हो सकते.’’

‘‘इस का अर्थ मैं तुम्हें पसंद हूं.’’

‘‘यह तो मैं ने नहीं कहा.’’

‘‘हर बात कहने की जरूरत नहीं होती. कुछ बातें अनकही हो कर भी कही जाती हैं. कह कर रमेशजी ने फोन रख दिया और सीमा भी फोन रख कर सोफे पर धम से बैठ गई.

दिल्लगी: क्या था कमल-कल्पना का रिश्ता- भाग 3

वह कब गहरी नींद सो गया, कल्पना को पता ही नहीं चला. भीतरबाहर से थकीहारी कल्पना भी शीघ्र ही सो जाना चाहती थी, पर नींद तो मानो उस की आंखों से कोसों दूर थी. बंद पलकों में बजाय नींद के अतीत की भूलीबिसरी स्मृतियां उमड़घुमड़ रही थीं.

कल्पना एक मध्यवर्गीय परिवार की इकलौती लड़की थी. उस के पिता कृष्णगोपाल की खिलौनों की एक दुकान थी. उन के पड़ोसी घनश्यामलाल कमल के सगे मामा थे. घनश्यामलाल के शहर में दूध के डेरों बूथ थे और बहुत अच्छा काम था. वे काफी पढ़ेलिखे थे इसलिए उस के पिता व घनश्याम घर से बाहर पड़े तख्तों पर घंटों देश की राजनीति और समाज पर चर्चा करते थे.

कल्पना कमल को बचपन से जानती थी. हर साल गरमी की छुट्टियां नैनीताल में बिताने की गरज से कमल का परिवार घनश्यामलाल के यहां आ कर ठहरता था. दोनों घरों में आंगन एक ही था. वह, कमल और उस के 2 अन्य भाईबहन एकसाथ आंखमिचौली खेला करते थे. वह उन के साथ ही खाने भी बैठ जाती और प्राय: रात तो उन के उस बड़े पलंग पर भी जा पहुंचती, जिस पर कमल और उस के छोटे भाईबहन सोते थे. वह बिना किसी संकोच के उन के बीच जा लेटती थी.

कुछ वर्ष बाद कमल ने कल्पना के साथ ही कालेज जीवन में पदार्पण किया था. चूंकि कमल के मामामामी बेऔलाद थे, इसलिए उन्होंने कमल को बजाय होस्टल के अपने पास ही रहने के लिए राजी कर लिया था. दोनों साथसाथ कालेज जाते, साथसाथ ही घर लौटते. उस के पिता और कमल के मामाजी के बीच गहरी आत्मीयता होने के कारण कालेज या घर में उन दोनों के मिलनेजुलने पर कोई रोकटोक नहीं थी.

कल्पना के मन में यह धारण बचपन से ही बैठ गई थी कि कमल पर अन्य लोगों की अपेक्षा उस का कुछ विशेष अधिकार है. उस विशेषाधिकार की भावना से कमल पर वह खूब रोब जमाती थी और उस पर ज्यादती भी करती थी. वह सहनशील बन कर उस की प्रत्येक इच्छा व आज्ञा का पालन करता और जब कभी ऐसा न करता तो कल्पना उसे जो भी सजा देती उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेता था.

प्राय: कल्पना की मां उस के पिता से दबे स्वर में कहती थी, ‘‘देखो, दोनों की जोड़ी कितनी अच्छी लगती है पर…’’

कल्पना तब सम?ादार हो गई थी. मां की इस बात ने उस के मन में कमल के प्रति उस की धारणा को और भी मजबूत कर दिया था. उसे पूरा विश्वास था कि कमल ही उस का जीवनसाथी बनेगा और उसे स्वयं फिर इस संबंध पर कोई आपत्ति नहीं थी. हां वह मां के ‘पर…’ को नहीं सम?ा पाई थी.

बीए की परीक्षा खत्म होते ही कमल अपने मामामामी, उस के मातापिता व उस से विदा लेकर अपने घर चला गया था. चलते वक्त वह उस से यह वादा कर गया था कि शीघ्र ही परिवार सहित लौटेगा. कमल के चले जाने के बाद पहली बार उसे महसूस हुआ था मानो कमल के बिना नैनीलाल की प्रत्येक वस्तु व स्थान का आकर्षण फीका पड़ गया है. अपनेआप को भी वह अस्तित्वहीन सम?ाने लगी थी.

तीसरे दिन उसे कमल का पत्र मिला था. पत्र पढ़तेपढ़ते उस के चेहरे की उदासी बढ़ती चली गई थी. कमल ने लिखा था कि मां की तबीयत खराब होने के कारण उस का परिवार इस साल नैनीताल नहीं जा सकेगा. उस ने वादा पूरा न कर सकने पर खेद प्रकट किया था.

उस के बाद वह रोती हुई घर आ गई. अगले ही दिन उसे पता चला कि कमल और उस के मातापिता कमल की दादी के देहांत के कारण बाजपुर चले गए हैं. कमल फिर नहीं लौटा. उस के मैसेज पहले की तरह आते रहे. कल्पना को मालूम था कि उस का एडवैंचर कमल के मोबाइल में कैद है इसलिए वह भी सामान्य बना रही.

कुछ दिन बाद उस के मांबाप राजीव को ढूंढ़ कर लाए तो उस ने शादी को तुरंत हां कर दी और कमल को आमंत्रण भी भेज दिया. कमल ने मैसेज भी किया कि वह आएगा और तोहफे में एक मोेबाइल दे जाएगा. पर शादी पर वह नहीं आया तो कल्पना को हरदम एक अनजाना भय लगा रहता कहीं कमल उस का भंडाफोड़ न कर दे. आज उस का आना, इस तरह बेतकल्लुफी से मिलना उस पर भारी पड़ रहा था.

मगर कल्पना पर तो मानो कोई भूत सवार ही गया था. कमल की बातों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था. उस ने कमल को अनेक उलटीसीधी बातें कह डाली थीं. बेचारा कमल हार कर चुप हो गया था. खून के आंसू रोता उस का मन चाह रहा था कि कहीं एकांत में पहुंच कर मन की भड़ास निकाल ले. मगर पुरुष होने के कारण वह ऐसा नहीं कर सका था. कल्पना ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह कमल को दिखा देगी कि नारी का स्वाभिमान कितनी बड़ी चीज होती है.

राजीव ने वकालत पास करने के बाद अपनी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी. दोनों ही पक्षों के आधुनिक विचार होने के कारण उन का विवाह बेहद साधारण ढंग से हुआ था. विवाह के दौरान वह खामोशी की प्रस्तर प्रतिमा बनी रही थी. उस ने कोई भी आपत्ति नहीं की थी. उलटा कमल को ईर्ष्या की आग में जलाने के लिए उस ने उसे शादी का कार्ड भी भेजा था पर कमल नहीं आया था. उस का पत्र आया था. उस ने लिखा था:

‘‘कल्पना,

‘‘तुम्हारे विवाह में सम्मिलित होने पर मु?ो बेहद प्रसन्नता होती, पर अकस्मात ही हृदयरोग से ग्रस्त मां का निधन हो जाने के कारण मैं पहुंचने में असमर्थ हूं. आशा है मेरी विवशता सम?ाते हुए मेरे न आने को अन्यथा न ले कर क्षमा करोगी. मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगी.

‘‘-कमल’’

पत्र में पिछली किसी बात का उल्लेख न देख कर सहसा तब उस ने ठंडे दिल से सोचा था, कहीं वास्तव में वह कमल के प्रति गलतफहमी की शिकार तो नहीं है. संभव है, कमल अपनी जगह पर सही हो. उस ने सचमुच में ही कभी उसे मित्र से ज्यादा अहमियत न दी हो. मन में जागे इन विचारों ने उस के दिल से कमल के प्रति समाई पूरी घृणा दूर कर दी थी. इस के बाद तो उसे कमल से कोई शिकवाशिकायत नहीं रह गई थी. तब उस ने औपचारिकता के नाते कमल को शोक भरा पत्र भी लिख दिया था.

राजीव की समीपता में 1 वर्ष कब बीत गया, कल्पना को कभी इस का एहसास तक नहीं हुआ.

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